दिल्ली का लाल किला उस समय सूरज की सुनहरी रोशनी से चमक रहा था। सुबह का समय था और शाही नगाड़ों की थाप गूंज उठी थी। यह संकेत था कि आज बादशाह अकबर का दरबार सजने वाला है। चारों तरफ़ हलचल थी—सिपाही अपनी जगह ले रहे थे, ख़ानसामे मेहमानों के लिए शरबत और फल सजा रहे थे, और नवरत्न अपनी-अपनी जगह पर बैठने को तैयार हो रहे थे।
दरबार का दृश्य ही अद्भुत था। संगमरमर के फ़र्श पर कालीन बिछे थे, ऊँचे-ऊँचे खंभों पर सोने की कारीगरी चमक रही थी और बीच में शाही तख़्त, जिस पर अकबर बादशाह अपनी शानदार पोशाक और पगड़ी में बैठने वाले थे।
थोड़ी ही देर में अकबर आये। उनके चेहरे पर राजसी ठहराव और आँखों में वही चमक थी, जिससे पूरी सल्तनत उनका सम्मान करती थी। उनके आते ही पूरा दरबार “सलाम-ए-जहाँपनाह!” की गूंज से भर गया।
अकबर ने हाथ उठाकर सबको चुप कराया और दरबार की कार्यवाही शुरू हुई। कुछ दरबारी अपनी-अपनी राय दे रहे थे, कोई अपने काम की तारीफ़ कर रहा था, कोई अपने शौर्य की बातें कर रहा था।
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दरबारियों का दिखावा
दरबार में मौजूद कई लोग अपने-अपने गुणों का बखान करने लगे।
एक सेनापति उठा और बोला:
“जहाँपनाह! मैं ही वह इंसान हूँ जिसकी बहादुरी के कारण आपकी सीमाएँ सुरक्षित हैं। अगर मैं ना होता तो दुश्मन अब तक दरबार तक पहुँच चुके होते।”
दूसरा दरबारी बोला:
“मालिक, मेरी ईमानदारी और बुद्धि का ही नतीजा है कि आज आपकी तिज़ोरियाँ भरी रहती हैं। मैं ही असली रक्षक हूँ आपके ख़ज़ाने का।”
कोई तीसरा बोला:
“जहाँपनाह, आप जानते ही हैं कि क़लम तलवार से ज़्यादा ताक़तवर होती है। और दरबार में सबसे अच्छा लिखने वाला मैं हूँ। मेरी वजह से ही आपकी फतहनामे दूर-दूर तक पहुँचते हैं।”
हर कोई अपने आप को सबसे बड़ा साबित करने की कोशिश कर रहा था। हर जुबान बस अपनी ही तारीफ़ में लगी थी।
अकबर मुस्कुराते हुए सब सुन रहे थे। लेकिन अचानक उनकी नज़र दरबार के कोने में बैठे बीरबल पर पड़ी।
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बीरबल की ख़ामोशी
बीरबल हमेशा की तरह सादगी में थे। न ज़्यादा सजधज, न ही ऊँची आवाज़। वे बस शांत भाव से सबको सुन रहे थे। उनके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा।
अकबर ने मज़ाकिया अंदाज़ में पूछा:
“बीरबल, तुम क्यों चुप बैठे हो? क्या तुम्हारे पास अपनी कोई विशेषता बताने के लिए नहीं है? या फिर तुम्हें लगता है कि इन सबके सामने तुम्हारी कोई अहमियत ही नहीं?”
दरबार में हल्की हंसी गूंज उठी। सबको लगा बीरबल अब शर्मिंदा होंगे।
लेकिन बीरबल झुके और धीमी आवाज़ में बोले:
“जहाँपनाह, मैं क्या कहूँ? भरे हुए बर्तन आवाज़ नहीं करते। खाली बर्तन ही सबसे ज़्यादा शोर मचाते हैं।”
दरबार सन्न रह गया।
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अकबर का प्रश्न
अकबर ने भौंहें चढ़ाकर कहा:
“बीरबल, यह तुमने क्या कह दिया? क्या तुम कहना चाहते हो कि मेरे दरबारी सब खाली बर्तन हैं?”
बीरबल ने आदाब किया और विनम्रता से बोले:
“नहीं जहाँपनाह। मेरा कहने का अर्थ यह है कि जो लोग वास्तव में गुणी होते हैं, उन्हें अपने गुणों का ढोल पीटने की ज़रूरत नहीं होती। उनके कर्म ही उनकी पहचान बन जाते हैं। लेकिन जिनके अंदर असली गुण नहीं होते, वे दिखावे के लिए सबसे ज़्यादा शोर मचाते हैं।”
अकबर सोच में पड़ गए। बात में गहराई थी। लेकिन उन्होंने तुरंत कहा:
“बीरबल, बात तो ठीक है, लेकिन मैं इसे साबित होते देखना चाहता हूँ। क्या तुम यह कर सकते हो?”
बीरबल मुस्कुराए:
“जहाँपनाह, आज ही शाम को मैं आपको यह आँखों से दिखा दूँगा।”
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बीरबल की तैयारी
शाम को बीरबल ने कुछ बड़े-बड़े पीतल और कांसे के बर्तन मंगवाए। उनमें से कुछ में गेहूँ, चावल और सिक्के भर दिए, और कुछ को बिल्कुल खाली छोड़ दिया।
जब दरबार फिर से सजा, तो बीरबल ने सबके सामने उन बर्तनों को रखा।
“जहाँपनाह,” बीरबल बोले, “अब दरबारियों से कहिए कि इन बर्तनों को बजाकर देखें।”
पहला दरबारी उठा। उसने एक भरे हुए बर्तन को लकड़ी से ठोका। आवाज़ धीमी और भारी सी गूंजी—“ठक… ठक…”
फिर उसने एक खाली बर्तन ठोका। आवाज़ गूंज उठी—“ढम… ढम… ढम…”
एक-एक कर सबने यही अनुभव किया।
भरे बर्तन बस हल्की-सी आवाज़ करते, लेकिन खाली बर्तन बहुत शोर मचाते।
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अकबर की समझ
अकबर ने यह देखा और ठहाका लगाया।
“वाह बीरबल! तुमने तो कहावत को हकीकत बना दिया। अब मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि जो इंसान भीतर से खाली होता है, वही अपनी तारीफ़ों का शोर मचाता है। असली रत्न को कभी अपनी कीमत बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती।”
दरबार के वे दरबारी जो थोड़ी देर पहले अपनी-अपनी डींगे हांक रहे थे, अब चुप हो गए। उनके चेहरे पर झेंप थी।
बीरबल ने विनम्रता से कहा:
“जहाँपनाह, यही जीवन का सिद्धांत है। जब तक इंसान अपने भीतर सचमुच का ज्ञान, गुण और कर्म नहीं भरता, तब तक उसका शोर बस खोखला रहता है।”
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सबक
उस दिन के बाद दरबार में माहौल बदल गया। दरबारी समझ गए कि अकबर और बीरबल के सामने झूठी डींगे मारना सिर्फ उनकी बेइज्जती ही कराएगा।
अकबर ने भी उस दिन एक सबक लिया—
👉 “सच्चा गुणी वही है जो शांत रहता है, और जिसकी पहचान उसके काम से होती है, शब्दों से नहीं।”