Meethe Baadal Meethi Barkhaa in Hindi Drama by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | मीठे बादल मीठी बरखा

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मीठे बादल मीठी बरखा

"मीठे बादल मीठी बरखा"
(हिंदी नाटक - प्रबोध कुमार गोविल)
पात्र परिचय :
1. मंत्रणा - तिब्बत से आई हुई एक युवा पत्रकार  (आयु 22 साल)
2. बादल सिंह - जेल में बंद वृद्ध कैदी ( आयु लगभग 65 साल, पर वयोवृद्ध दिखाई देता है।
3. भीष्मा 
4. ऊष्मा - 
5. ग्रीष्मा - 
6. सुषमा - 
7. छोटू ( चारों बहनों का अकेला भाई )
8. कारागार प्रहरी 
कुछ लड़के और राह चलते लोग।
***
अंक 1.
आँखों पर बड़ा सा धूप का चश्मा लगाए मंत्रणा सड़क से गुज़र रही है। उसके चेहरे से लगता है कि वह बहुत खुश है। वह रास्ते में आते- जाते हुए एक- दो लोगों से पूछती है - 
मंत्रणा : भैया, सेंट्रल जेल को यही रास्ता जाता है न?
राहगीर1 : मुझे नहीं पता, मैं शरीफ़ आदमी हूं।
राहगीर 2 : हां हां... यही रास्ता है, आगे चढ़ाई के बाद दाएं घूम जाना।
मंत्रणा : शुक्रिया भैया। 
( मंत्रणा चलती जाती है, वह बीच- बीच में अपने हाथ में पकड़ा पर्स झुलाती है जिससे लगता है कि वह बहुत खुश है। उसकी वेशभूषा और छोटे बालों से वह बेहद पढ़ी- लिखी विदेशी युवती दिखाई देती है।)
***
अंक 2.
(मंत्रणा जेल के अहाते के भीतर है। वह एक प्रहरी को पर्स से निकाल कर एक कागज़ दिखाती है। जिसे ध्यान से पढ़ने के बाद प्रहरी घूर - घूर कर उसे गौर से देखता है। मंत्रणा मुस्कुराती है।)
प्रहरी : आपके साथ और कौन है?
मंत्रणा : (इधर- उधर देखते हुए) मेरे साथ? मेरे साथ कौन होगा? मेरे साथ कोई नहीं है। क्या मैं अकेली नहीं हो सकती? क्या आपके देश में हर लड़की के साथ कोई न कोई होना ज़रूरी होता है क्या? लड़की अकेली नहीं हो सकती?
प्रहरी : अरे- अरे मैडम, गुस्सा मत होइए। मैंने तो बस पूछा है आपसे? नहीं है तो नहीं है। इसमें क्या? आपको पता है कि बादल सिंह को देख कर आदमी भी डर जाते हैं। वो है ही इतना भयानक।
मंत्रणा : कोई राक्षस- दैत्य है क्या? है तो आदमी ही न।
प्रहरी : ओह, आप तो फ़िर नाराज़ हो गईं। मुझे क्या? आप बैठिए सामने वाली बेंच पर। मैं अभी हाज़िर कर देता हूं बादल सिंह को। मुझे क्या? आपने जब उससे बात करने की सरकारी अनुमति ले ही रखी है तो मुझे क्या। मैं तो अभी बुलवा दूंगा उसको। मुझे क्या! आप पुलिस हैं क्या?
मंत्रणा : तुमसे मतलब? मैं कोई भी होऊं। तुम्हारा काम तो मुझे उससे मिलवाने का है, तो मिलवा दो।
प्रहरी : बिल्कुल, बिल्कुल... मुझे क्या। (जाते हुए) आप ज़रूर वकील होंगी, हैं न?
मंत्रणा : फ़िर वही बात? तुम्हें इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि मैं कौन हूं। मेरे पास तुम्हारे एक कैदी से मिलने की परमीशन है न, तो बस तुम उससे मिलवा दो।
प्रहरी : हां जी, आप कौन हो, मुझे क्या। मैं तो अपनी ड्यूटी पूरी कर दूंगा। अभी लाता हूं उस आफ़त को। आप तो कोई पत्रकार हो शायद?
( मंत्रणा प्रहरी की ओर कुछ सख्ती से घूर कर देखती है, पहरी भीतर चला जाता है।)
जल्दी ही प्रहरी वापस लौटता है। अब उसके पीछे- पीछे बढ़े हुए बेतरतीब से बालों में खूंख्वार सा दिखने वाला बादल सिंह आता है जिसे दो वर्दीधारी युवकों ने पकड़ रखा है। उसे देखते ही एकबार मंत्रणा कुछ सहमती है पर तुरंत ही सहज हो जाती है।
मंत्रणा के बेंच पर बैठते ही बादल सिंह भी सामने पड़े एक स्टूल पर बैठ जाता है। दोनों युवक कुछ पीछे हट कर खड़े हो जाते हैं पर उनके हाथ में उस हथकड़ी से बंधा हुआ पट्टा है जो बादल सिंह की कलाई में पड़ी है।
मंत्रणा - (एकटक देखते हुए) आप बादल सिंह जी हैं?
बादल सिंह - (उपेक्षा से) तुझे क्या लगा, ये छोकरे बदल कर कोई दूसरा कैदी ले आए।
मंत्रणा - (बादल सिंह की बात की अनदेखी करते हुए) - बाबा, गुस्सा थूक दो, तुम्हारे चेहरे से साफ़ दिख रहा है कि तुम्हें अपने किए हुए पर अफसोस है। दुःख दिखता है तुम्हारी सूरत पर।
बादल सिंह - (अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए) तुझे दिखता होगा, मैं तो बहुत खुश हूं। (हंसता है)
मंत्रणा - बाबा मैं बहुत दूर से आई हूं। मैं हाथ जोड़ कर बिनती करती हूं कि मुझे सब सच- सच बता दो, तुमने ऐसा क्यों किया?
बादल सिंह - कैसा? क्या किया है मैंने? (एक दम से उत्तेजित हो जाता है और चिल्ला कर कहता है) क्या किया? बोल, क्या किया है मैंने? तू भी उस कानून के रखवाले की राग अलापने आई है? मैंने कुछ नहीं किया। और तू आई क्यों है? कौन है तू?
( सन्नाटा छा जाता है)
मंत्रणा : मैं कौन हूं, और क्यों आई हूं, सब बताऊंगी... बता दूंगी... मैं आई ही इसलिए हूं। पर मेरी एक गुज़ारिश है कि आप मुझे सब कुछ सच - सच बता दो, क्या हुआ था, क्यों किया तुमने ऐसा?
बादल सिंह : तू जानना ही चाहती है तो सुन। सुन ध्यान से। पूरी कहानी सुनाऊंगा तुझे। (पीछे मुड़ कर प्रहरियों को देखते हुए) इन से कह दे कि मुझे रोकें - टोकें नहीं। चुपचाप सुनें।
ये तब की बात है जब मैं भी अपने परिवार के साथ था...(भावुक हो जाता है)
***
अंक 3.
(एक पुराने से घर के सामने का हिस्सा है। एक जर्जर से तख्त पर बादल सिंह बैठा अख़बार पढ़ रहा है। वह साफ़ सुथरा गृहस्थ नज़र आ रहा है। बाल भी छोटे हैं। कुर्ता - पायजामा पहने हुए है।)
बादल सिंह : (चिल्ला कर आवाज़ लगाते हुए) ग्रीष्मा... ओ ग्रीष्मा, काम पर नहीं जाना क्या बिटिया आज तुझे? देख तो, नौ बजने को आ गए।
(भीतर से ऊष्मा निकल कर आती है)
ऊष्मा : पिताजी, आज से दीदी काम पर नहीं जाएगी।
बादल सिंह : ( चौंकते हुए) क्यों, क्या हो गया? काम पर नहीं जाएगी तो कैसे चलेगा। तबीयत तो ठीक है उसकी?
ऊष्मा : नहीं, तबीयत भी ठीक नहीं है, कल दीदी काम पर से लौटते समय रास्ते में गिर भी गई थी। चक्कर आ गए थे। वो तो एक लड़के ने देख लिया जो उसे घर पहुंचा गया, वरना न जाने क्या होता?
बादल सिंह : बेटी मैं सब जानता हूं, मुझे सब पता है। तेरी दीदी को नशे की ग़लत आदत लग गई है। मेरी मजबूरी है जो सब कुछ अपनी आंखों से देख कर भी चुपचाप सह रहा हूं। मेरी नौकरी न जाती तो मैं तुम लोगों को ऐसे दर- दर भटकने नहीं देता काम के लिए। छोटू भी किसी काम का नहीं रहा। जितना कमाता है उससे ज़्यादा नशे में उड़ा देता है। और तेरी दीदी को भी उसने नशे की लत लगा दी है। न जाने कौन- कौन सी गोलियां खाती रहती है। गिरेगी नहीं तो और क्या होगा।
ऊष्मा : पिताजी, मैं तो कई बार मना कर चुकी हूं छोटू को, पीकर आ जाता है। दिन भर मेहनत करता है फ़िर भी शाम को जेब खाली। वही दीदी को भी न जाने क्या- क्या लाकर दे देता है। खा लेती है।
बादल सिंह : सब दोष मेरा ही है, तुम्हारी मां के गुज़र जाने के बाद मैं अगर तुम्हें ढंग से रोटी दे पाता तो तुम लोग ऐसे क्यों फिसलते। तेरी दीदी को देख, आज नशे की गोली खाती है कल कुछ और कर बैठेगी। ज़माना कैसा है, मालूम तो है तुझे। जिसका सगा भाई ही बहन को नशे का गुलाम बना रहा है वो कल न जाने कौनसा गुल खिलाएगा? क्या- क्या करवाएगा अपनी बहन के साथ?
ऊष्मा : ( चीख कर) बस पिताजी ! ये सब बंद कीजिए।
(इतने में सामने से छोटू का प्रवेश)
बादल सिंह : कहां से आ रहा है रे, आवारा गर्दी करके? तू भी अब बीस - बाईस साल का हो गया, इतना छोटा नहीं है कि कुछ समझे ही नहीं। पता है तू किस रास्ते पर जा रहा है? बर्बाद कर देगा ये नशा तुम सबको। थोड़ी देर का मज़ा है, फ़िर नर्क का रास्ता खुल जाएगा सबके लिए।
( छोटू कुछ नहीं बोलता, नीची गर्दन किए भीतर जाने लगता है)
बादल सिंह : (गरज़ कर) जाता कहां है? तुझे मालूम है तेरी दीदी ने काम छोड़ दिया। घर में बैठी है तेरे कारण।
छोटू : पता है। मैंने ही मना किया है उसको।
बादल सिंह : क्यों मना किया है? खायेंगे क्या? तू लाएगा कमा कर?
छोटू : अरे बापू, तुम सब बच्चों की कमाई खाने को तो तैयार हो पर ख़ुद अपना काम- धंधा छोड़ कर बैठ गए! हम सबकी इतनी ही चिंता थी तो घर पर हाथ पर हाथ धर कर क्यों बैठे हो? हमें पालने की ज़िम्मेदारी तो तुम्हारी है। पैदा क्यों किया था?
(बादल सिंह गुस्से से कांपने लगता है और खड़े होकर बेटे पर हाथ उठाता है पर बेटा उसकी कलाई पकड़ लेता है)
बादल सिंह : (चीख कर) हरामखोर, बाप से ज़बान लड़ाते हुए शर्म नहीं आती तुझे, तू मेरी मज़बूरी का मज़ाक उड़ाता है। जान ले लूंगा मैं तेरी।
छोटू : (उपेक्षा से हंसते हुए) उसके लिए दम चाहिए। जो आदमी घर में पड़ा- पड़ा रोटी तोड़ता हो वो इतनी हिम्मत कहां से लाएगा! तुम्हें कुछ पता भी है, दीदी ने काम क्यों छोड़ा? बेचारी रातदिन मेहनत करती है फ़िर भी सड़क पर आते- जाते हुए लोग उसे छेड़ते हैं। उसे कहते हैं अकेली सारे घर को पालती है मेरे साथ भाग चल... वो बेचारी क्या - क्या सुनती है पर तुमसे कुछ कह भी नहीं पाती। ( कुछ रुक कर ) उसे काम छोड़ने के लिए मैंने ही मना किया है। अब वो घर से काम करेगी।
बादल सिंह : कैसा काम? घर से क्या काम करेगी? पगार कौन देगा उसे?
छोटू : सौंफ बेचेगी?
बादल सिंह : सौंफ? सौंफ कहां से लाएगी? किसको बेचेगी? खरीदेगा कौन? ये क्या गोरख- धंधा है रे। ला, मुझे समझा, ये कैसा कारोबार है, अगर ऐसी ही बात है तो मैं भी सौंफ बेचूंगा।
( कुछ दूरी पर एक राहगीर गुजरता है जो ज़ोर - ज़ोर से आलाप लेकर गीत गाता जा रहा है ) 
हवाओ माफ़ कर दो
घटाओ माफ़ कर दो 
हमें तुमने सिखाया था, खुशी से झूमना- हंसना 
मगर हम पथ भटक कर, नशे में झूम बैठे आज
अब ये प्रण हमारा है, सुनहरा कल हमारा है 
दिशाएं जगमगाएं अब, कदम ना डगमगाएं अब
इन्हें हर हाल में रोकेंगे हम
कसम लेता है राज!!!
नशा खुद की गुलामी, दुखों को ये सलामी 
ये आनंद एक पल का, युगों की फ़िर गुलामी
ये सपने तोड़ता है, ये घर को फोड़ता है 
लक्ष्मी रूठ जाती है, समझ भी लौट जाती है 
इन्हें हर हाल में रोकेंगे हम 
कसम लेता है राज!!!
***
अंक 4.
( घर के भीतर का दृश्य है। एक कमरे में बैठी हुई चारों बहनें भीष्मा, ऊष्मा, ग्रीष्मा और सुषमा खुसर - फुसर करके बातें कर रही हैं। ऐसा लगता है जैसे वो किसी अवांछित गैर - कानूनी काम में लगी हुई हैं। सामने एक बर्तन में रंगीन सौंफ के दाने रखे हैं और वो उसमें से लेकर छोटी- छोटी पुड़ियों में उसे बांध कर रख रही हैं।
सुषमा : दीदी, बहुत मीठी है।
ग्रीष्मा : हट पगली, खाना मत। तूने खाई तो नहीं?
सुषमा : बस एक दाना चख कर देखा था।
भीष्मा : खबरदार जो इसे मुंह में रखा।
सुषमा : क्यों दीदी?
भीष्मा : बहस मत कर। कह दिया न, खाना नहीं। खाई तो मैं मार- मार कर तुझे घर से निकाल दूंगी।
सुषमा : ( जिद्दी बच्चे की तरह रूठते हुए) दीदी, इसे खा नहीं सकते तो हम दूसरों को क्यों देते हैं? वो भी तो ले जाकर खाते होंगे। इतनी महंगी चीज़ कोई फेंकते थोड़े ही होंगे।
( भीष्मा सुषमा को एक तमाचा मारती है और उसे हाथ से ठेल कर दूर करने लगती है। सुषमा रोने लगती है)
ग्रीष्मा : ये बहुत महंगी है न, इसी से दीदी खाने को मना करती है। नुकसान हो जाएगा न। हम गरीब लोग हैं। इसे बेच कर चार पैसे कमाएंगे तभी तो रोटी खाएंगे। इसे खुद खा लिया तो कमाई कैसे होगी। खाना मत।
सुषमा : तुम झूठ बोलती हो, भैया तो खाता रहता है। कल भी दो पुड़िया अपनी जेब में डाल कर ले गया था।
ग्रीष्मा : भैया खाने के लिए नहीं किसी को देने के लिए लेकर गया होगा।
सुषमा : मत दो... भैया का वो दोस्त है न ऑटो वाला, वो तो मुझे रोज़ कहता रहता है मेरे कमरे पर चल, मीठी सौंफ खिलाऊंगा। मुझे तुम नहीं दोगी तो मैं आज उसके साथ चली जाऊंगी। उसके पास बहुत सारी है।
(भीष्मा उठ कर सुषमा को फ़िर ज़ोर से चांटा मारती है और फ़िर ज़ोर - ज़ोर से खुद भी रोने लग जाती है)
ऊष्मा : तुम लोग बखेड़ा खड़ा मत करो, अभी पिताजी आ गए तो सबकी खाल उधेड़ देंगे। वैसे ही नाराज़ रहते हैं सबसे। भैया की तो जान के दुश्मन बने हुए हैं। 
ग्रीष्मा : भैया को तो कुछ कहते नहीं, हम सब की जान के पीछे पड़े रहते हैं। क्या मुसीबत है।
ऊष्मा : वो भी क्या करें, उन्होंने जानबूझ कर अपना काम थोड़े ही छोड़ा है, उन्हें निकाल दिया गया है। पता है, उन्हें कोई ख़तरनाक बीमारी हो गई है। उनका सेठ कहता है कि वो अब ज़्यादा दिन जिएंगे नहीं...
ग्रीष्मा : मुझे तो उनके साथ ही काम करने वाले एक आदमी की बेटी बता रही थी कि पिताजी को भी लंबे समय से किसी नशे की लत लगी हुई थी। मां उन्हें कई बार मना करती थीं, दोनों में इस बात को लेकर झगड़ा भी होता था पर पिताजी मानते ही नहीं थे। तभी तो पिताजी को ऐसी बीमारी लग गई। और अब उनके सेठ को पता चला तो उसने काम से हटा दिया।
ऊष्मा : मां कहती थीं कि जब हम लोग छोटे थे तब पिताजी को मुंबई में कोई बढ़िया काम मिल गया था पर इसी नशे की ख़ातिर वहां भी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। पता चल गया था मालिक को...
( उसकी बात अधूरी रह जाती है तभी कमरे में बादल सिंह प्रवेश करते हैं। वो बहुत खुश हैं। उनके हाथों में एक कागज़ का एक बड़ा सा लिफाफा है। बादल सिंह को देखते ही हड़बड़ा कर भीष्मा सौंफ का बर्तन और कागज़ की पुड़ियों को एक कपड़े से ढक कर छिपाने की कोशिश करती है।)
बादल सिंह : एक जगह काम की तलाश में गया था। वहां गरम- गरम समोसे बन रहे थे। सोचा तुम लोगों के लिए ले चलूं। लो (कह कर कागज़ का लिफाफा ऊष्मा के हाथ में देता है )
बादल सिंह : लो, खा लो। अभी तो खाना भी नहीं खाया होगा।
ऊष्मा थैली से एक- एक समोसा निकाल कर सबको देने लगती है। सबसे पहले पिताजी को ही देती है)
बादल सिंह : तुम लोग खाओ बेटी, मैं तो वहीं खा आया, एक साथी मिल गया था दुकान का। उसी के साथ।
ऊष्मा : समोसे तो बहुत अच्छे हैं, गरम भी हैं ( एक- एक सबको देती है ) 
सुषमा : पिताजी नहीं खा रहे तो पिताजी का भी मुझे दे दो। (दोनों हाथ में लेकर जल्दी- जल्दी खाने लगती है)
( अचानक बादल सिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती हैं और वह तेज़ी से कमरे से निकल जाता है, चारों लड़कियां एक- एक कर बेहोश होकर गिरने लगती हैं। पार्श्व से हृदय- विदारक धुन बजने लगती है और एक गीत की आवाज़ आने लगती है)
गीत के बोल जीवन के कड़वे यथार्थ को दर्शाने वाले हैं।
तुमने जिसको चुना वही सरकार तुम्हारे साथ है।
नशा हटाओ, नशा हराओ, जीत तुम्हारे हाथ है।।
नशे का धुआं जब जीवन में आता है 
घर - आंगन धीरे- धीरे मुरझाता है
सुख के फूल बिखर कर घर में रोते हैं 
धन - वैभव और ज्ञान सभी झर जाता है 
तुमने जिसको चुना वही सरकार तुम्हारे साथ है।
नशा हटाओ, नशा हराओ, जीत तुम्हारे हाथ है ।।
युवा बदन जल्दी बूढ़ा बन जाता है 
बाग उजड़ कर कूढ़ा - घर बन जाता है 
खुद देखो क्या मिलता इससे जीवन में 
नशा मौत का तोहफ़ा घर में लाता है 
तुमने जिसको चुना वही सरकार तुम्हारे साथ है।
नशा हटाओ, नशा हराओ, जीत तुम्हारे हाथ है।।
***
अंक 5.
(मंच पर कुछ देर के गहरे अंधेरे के बाद फ़िर से तेज़ प्रकाश होता है और जेल के बाहरी कक्ष का वही दृश्य जीवंत होता है जिसमें गंभीर - गमगीन मुद्रा में सिर झुकाए बादल सिंह बैठा है और उसके सामने युवा पत्रकार मंत्रणा बैठी उसकी दर्दनाक कहानी सुन रही है। कुछ देर खामोशी रहती है।)
मंत्रणा : आपका कोई दोष नहीं है बाबा। आपकी जगह कोई भी जिम्मेदार इंसान होता तो उसे यही रास्ता दिखाई देता।
बादल सिंह : नहीं बेटी नहीं। मैं पश्चाताप की आग में कई बरस झुलस चुका हूं। अब मैं जानता हूं कि मैंने घोर पाप किया। अपराध ही नहीं ये तो अपनी आत्मा को घायल कर देने वाला जघन्य पाप था। अपनी मासूम बच्चियों को मैं ज़िंदगी तो दे नहीं सका, मैंने निर्दोषों को मौत का तोहफ़ा दे दिया। मेरे लिए दुनिया के किसी भी कौने में कोई माफ़ी या दया की जगह नहीं है। मुझे मेरी सजा परमात्मा ने दे दी। मारना मुझे था, पर कुदरत ने मुझे तो जीते रहने की सज़ा दे दी। और जिन्हें जीवन की बहारें देखनी थीं, उन फूल सी बच्चियों को मेरे ही हाथों मौत की नींद सुला दिया। बुरा हो, इन नशों का, जहरीले व्यसनों का जो पैसे के लिए आदमी के जीवन में जहर घोल रहे हैं। मेरा बस चले तो ये नशे बनाने वालों, बेचने वालों और इनकी जकड़ में आ जाने वालों को गोलियों से भून कर रख दूं। कमबख्तो, किसी को जीवन दे नहीं सकते तो निर्दोषों मासूमों की जिंदगी ले लेने का तुम्हें क्या हक है। तुम जड़ से खत्म हो जाओ। तुम्हारी नस्लें मिट जाएं। नशे के कारोबारियो!!! थू।
(कह कर अपना सिर ज़ोर- ज़ोर से पास की दीवार पर मारने लगता है)
मंत्रणा : बस करो बाबा, बस करो।  हर पाप की सज़ा है और तुम अपनी सज़ा पा चुके हो। अब तुम निर्मल मन इंसान हो।
बादल सिंह : नहीं बेटी नहीं... मेरे पापों की फेहरिस्त इतनी छोटी नहीं है कि मेरे जीते जी मेरा मन शांत हो सके। आज तुझसे कुछ नहीं छिपाऊंगा, तुझे सब बताऊंगा। 
मंत्रणा : क्या?
बादल सिंह : बेटी, दरअसल मर तो मैं तभी गया था जब मैंने अपनी पत्नी से उसकी गर्भावस्था में ही झगड़ा किया था। ग़लती तो मेरी थी पर फिर भी सारा दोष उसके सिर पर मढ़ते हुए मैंने सबके सामने उसे बुरा- भला कहा। मेरी पत्नी ने चार पुत्रियों को जन्म देने के बाद जब पांचवीं संतान के रूप में भी मुझे कन्या का ही मुंह दिखाया तो मैं आपा खो बैठा। मैं हत्थे से ही उखड़ गया और सरकारी दवा खाने में ही मैं उसे और नवजात बच्ची को घर न ले जाने पर अड़ गया। मुझे सबने बहुत समझाया पर मैं किसी की बात भी सुनने को तैयार न हुआ। लेकिन तभी एक चमत्कार हुआ कि दवा खाने में ही एक टांगे वाले ने ईश्वर की तरह प्रकट होकर मुझे अपना बेटा सौंप दिया जो एक दो दिन पहले ही जन्मा था। मैं बावला हो गया, बेटी। उस अजनबी औलाद को सीने से लगाए हुए नाचता फिरा। उधर मेरी अपनी बेटी मां के पहलू में लेटी रो - रो कर हल्कान होती रही। मुझे तो ये भी नहीं मालूम कि बाद में उस लड़की का क्या हुआ। वो कहां गई और अब कहां है। मैं तो बस खुदगर्ज सा अपने बेटे को लेकर घर आ गया। पीछे- पीछे अनमनी सी मेरी पत्नी भी चली आई। लेकिन बेटी, वो मेरे इस पागलपन को सह नहीं पाई और उसने घर आने के बाद तीन - चार दिन में ही प्राण त्याग दिए। मैं अपनी असहाय संतानों के साथ जीवन की दौड़ में अकेला हो गया।
बादल सिंह : मैं पापी हूं... मैं पापी हूं... (कहते हुए बादल सिंह फ़िर से अपने सिर को चोट पहुंचाने लगता है)
कुछ देर के सन्नाटे के बाद मंत्रणा धीरे- धीरे चल कर बादल सिंह के करीब आई और हौले से उसके सीने से लग गई।
बादल सिंह : (छिटकने की कोशिश करते हुए) अरे - अरे, तू कौन है बेटी। कौन है तू? कहां से आई है? तुझे कौन लाया। तुझे मेरे बारे में किसने बताया...
मंत्रणा  : बाबा, आज मुझे मत रोकना। पैदा होते ही तो तुमने मुझे खुद से दूर कर दिया था। टांगे वाले काका ने मुझे पाला। उन्हें बेटी ही चाहिए थी। मैं मिल गई। लेकिन मरते समय वो मुझे सब कुछ सच- सच बता गए। पता है बाबा, उनकी मौत उनके टांगे की एक सरकारी गाड़ी की टक्कर होने से हुई। तब हमें बहुत सारा पैसा मिला। जब मरते समय मुझे काका ने मेरी असलियत बताई तभी मैंने ठान लिया था कि मैं एक दिन आपको ज़रूर खोज निकालूंगी। आपके सामने आकर रहूंगी एक दिन।
बादल सिंह : ओह। मेरी मति मारी गई थी जो तुझ जैसी प्यारी बिटिया को अपने से दूर कर बैठा। अब तक तू कहां थी, कहां थी बिटिया... तेरे सिवा अब मेरा कोई नहीं...( मंत्रणा अपना एक हाथ बादल सिंह के होठों पर रखती है और उसके सीने से लग जाती है।
मंच पर प्रकाश कई रंग बदलता हुआ जगमगाने लगता है।
( समाप्त )
*****
- प्रबोध कुमार गोविल 
बी 301 मंगलम जाग्रति रेजिडेंसी 
447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर 
जयपुर - 302004 ( राजस्थान )
मो. 9414028938
E- mail : prabodhgovil@gmail.com