फिल्म ;_ मोहल्ला अस्सी
भारतीयों को सोचना होगा कि...भूख बड़ी या भक्ति?
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कई फिल्में बिना किसी उद्देश्य के बनती हैं और कुछ बेसिर पैर की हिट भी हो जाती हैं। फूहड़ता हमारे संस्कार में है। जिसे देशज और भदेस भारत कहते हैं। यह वही भारत है जो स्त्री टू, हाउसफुल फाइव जैसी फूहड़ फिल्मों को हिट करता है। तो वहीं तन्वी, मोहल्ला अस्सी जैसी सार्थक और मूल कहानी पर बनी फिल्मों को फ्लॉप कर देता, देखने नहीं जाता है।
काशीनाथ सिंह के संस्मरण कम रेखाचित्र पुस्तक काशी का अस्सी पर बनी फिल्म है मोहल्ला अस्सी। यह कुछ वर्षों पूर्व आई थी पर इसे आज भी देखना और समझना प्रासंगिक होगा। यह फिल्म हमारे समय का यथार्थ तो बताती ही है साथ ही उससे लड़ते जूझते और दम तोड़ती मान्यताओं की भी बात कहती है। बाजारवाद और भूमंडलीकरण का दैत्य जिस तरह से सब कुछ निगलता जा रहा उसकी चेतावनी देती है फिल्म। पर क्या हम तैयार हैं? क्या हमारे पास सामर्थ्य है? क्योंकि उधर तो सारे पूंजीपति और वैश्विक नेताओं का गठजोड़ है। इधर मनुष्य और आम व्यक्ति नितांत अकेला है। क्या लड़े और क्या अपना परिवार पाले? इसी द्वंद और कश्मकश को फिल्म में निर्देशक डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने बखूबी दिखाया है।
फिल्म और उसकी आत्मा यानि सत्य से मुलाकात
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काशीनाथ सिंह हालांकि जाने माने वामपंथी हैं। पर वह संतुलित हैं क्योंकि नामवर सिंह जी, वरिष्ट और शीर्षस्थ आलोचक के अनुज है। जो यह मानते हैं कि (मैं ज्ञान के सागर को कभी "था " नहीं कहता) कभी भी जड़ता, जिद और दकियानूसी पुरानी मान्यताएं मानव मात्र से बढ़कर नहीं हो सकती। लेकिन मानव की आस्था का भी सम्मान होना चाहिए।
वामपंथी माने हर प्राचीन चीज की आलोचना, हमेशा कार्ल मार्क्स के चश्मे से यहां भारत को देखना, हर चीज में बिना वजह कमी निकालना। लेकिन काशीनाथ सिंह अपनी कृति काशी का अस्सी में बहुत जरूरी और यथार्थवादी प्रश्नों को ही नहीं उठाते बल्कि उनके मध्य खत्म होती हमारी संस्कृति के प्रति भी चिंता जाहिर करते हैं। इसीलिए इस कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी इसी कृति पर फिल्म बनाकर एक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। अब भी वक्त है हम यह तय करें कि विकास चाहिए या संस्कृति या दोनों? फिर उसी के अनुरूप एक सुर और लय में सरकारें, नागरिक और सभी लोग तैयारी करके चलें तो अच्छा परिणाम और वसुदेव कुटुंबकम् की परिणीति होगी। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा?
बाजारवाद के खिलाफ खड़ा साहित्य और साहित्यकार
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किताब की विषय वस्तु और मूल आत्मा से बिल्कुल भी छेड़छाड़ किए बिना फिल्म की पटकथा और संवाद लिखे हैं। फिल्म पूरी तरह से गंभीर विमर्श को उठाती है। काशी, बनारस की बात से फिल्म प्रारंभ होती है। जहां संस्कृत, देववाणी पढ़ाने वाले पंडे, पुरोहित आदि बड़े कष्ट के दिन गुजार रहे हैं। क्योंकि ऐसे सैकड़ों परिवार है जो भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही आचरण कर रहे। जमीन पर बैठ भोजन करना, संध्या वंदन, कोई प्याज, लहसुन नहीं। उनके परिवार किस कदर अभावों में भी सुख से जीने का प्रयत्न करते हैं फिल्म दिखाती है।
बताता चलूं कि बनारस मेरी सगी बुआ और उनके पांच बेटा तीन बेटी रहते हैं। तो तीन दशकों से नियमित बनारस जाना और अस्सी घाट, गौ घाट, सिंधिया घाट सभी कुछ अनेक बार देखा हुआ है। यह कहने में संकोच नहीं जो किताब के विभिन्न संस्मरणों में काशीनाथ जी ने लिखा है वह सब वास्तव में होता है, हो रहा है।
तो अब उदारीकरण की हवा चल रही है। घाट पर रहने और भारत की पावन हवा और गंगा मैया के सौंदर्य को महसूस करने सैकड़ों विदेशी भारत और विशेषकर काशी, बनारस, पुष्कर, अजमेर, गया जी का रुख कर रहे हैं। जब विदेशी आते हैं तो उनके साथ उच्छृंखल पूंजी आती है। एक कथा प्रारंभ होती है कन्नी गुरु की जो विदेशियों को लच्छेदार बातों से फंसाकर घाट पर ठहराता है पर नाई, मल्लाहों के घरों में। जो बहुत छोटे और दूर हैं । वह अपना कमीशन लेता है। विदेशी वहीं गांजा, सुल्फा आदि का भी आनंद लेते हैं। ऐसे ही एक नाई से विदेशी युवती को प्यार हो जाता है और वह अपनी पत्नी बच्चों को छोड़कर उसके साथ विदेश भाग जाता है।
उधर दूसरी कथा में पांडेय जी, जो प्रमुख हैं पंडा समुदाय के, के डर से बिल्कुल घाट से जुड़े घरों में कोई भी ब्राह्मण अपनी कोठरीनुमा जगह विदेशियों को किराए पर देने से डरता है।
यहां बहुत वास्तविक चित्र खींचा है निर्देशक ने बनारस के गंगा किनारे के घाटों पर शूटिंग करके। किस तरह यह लोग घाट पर तिलक, अनुष्ठान आदि कराकर अपनी आजीविका चलाते हैं। किस तरह कुछ महादेव, श्री राम के वेश में घूमते हैं और विदेशियों से सौ सौ रुपए लेकर फोटो खिंचवाते हैं, इंडियन गॉड्स।
पाण्डेय जी, यह भूमिका सनी देओल ने बहुत शानदार ढंग से निभाई है। यह उनकी गंभीर अभिनेता की रेंज को बताता है। बिल्कुल धोती कुर्ता, चोटी माथे पर चंदन टीका और बोलने के शुद्ध उच्चारण के साथ वह सच में काशीनाथ सिंह के पांडेय लगते हैं। (पाण्डेय कौन कुमति तोहे लागे, यह संस्मरण का शीर्षक है) तो उनके माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है।
उनकी परम्परागत पत्नी के रूप में साक्षी तंवर ने भी बखूबी साथ दिया है। फिर चाहे बच्चों को अभाव में खिचड़ी खिलाना हो, फिर धूर्त कन्नी को फटकारना, पांडेय जी के आर्थिक मजबूरी से पाला बदलने पर उन्हें टोकना हो और महादेव से क्षमा याचना करना हो, सभी में वह बनारसी स्त्री ही लगी हैं जो अपने पति के साथ हर कदम खड़ी है।
तो कथा में वह नाई अमेरिका से बारबर बाबा बन कई विदेशी भक्तों के संग लौटा है। मोहल्ला घाट पर सभी की चर्चा का विषय है उसकी सम्पन्नता।
कहानी में दिखाया गया है किस तरह बढ़ते बाजारवाद और भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व को ग्लोबल विलेज तो बना दिया है परंतु आर्थिक अंतर भी बढ़ा दिया है। अर्थ के आगे जाति टूट रही हैं। अब तो दो ही वर्ग रह गए हैं एक आर्थिक सम्पन्न दूसरे गरीब।
आगे चले या पीछे देखें?
------------------------ यह बड़ा प्रश्न है कि विकास की रेल में बैठ आगे चलें और बच्चों को भी आगे उन्नतिवान बनाएं या फिर पुरानी रीति रिवाजों, भाषा, देव वाणी की गठरी लिए बैठे थे और बैठे रहें भुखमरी में? भारतीय दर्शन, वेद , उपनिषद सभी कुछ समाप्त कर रहा तीव्र विकास और इन्हें संभालने की जिम्मेदारी भी आम व्यक्ति की? सरकार कोई सहयोग, हस्तक्षेप करे। फंड दे और प्रोत्साहन राशि दे संस्कृत और दर्शन जैसे विषयों को पढ़ाने और विकास करने वालों को तभी कुछ होगा। और सबसे बड़ी बात यह कि जो भी मंत्री बने, राज्य या केंद्र में, वह सभी संस्कृत में महीने में एक दो बार धारा प्रवाह भाषण दे तब वह अन्यों को इसे पढ़ने और सीखने की शिक्षा दे। अन्यथा सब ढोंग है। भाषाएं मनुष्य के विकास और मन मस्तिष्क में पंख लगाने वाली होनी चाहिए न कि उसके पांव में बंधी बेड़ियों जैसी।
पुस्तक में और फिल्म में भी काशीनाथ सिंह जी पप्पू की चाय की दुकान के माध्यम से सभी बुद्धिजीवी और वर्गों के लोगों के विचारोत्तेजक बहसों से यह समझाने का प्रयास करते हैं कि क्या और क्यों हो रहा यह सब। सभी वर्ग अपने तर्कों से बात करते हैं और बताए है कि काशी मर रहा है और इसे बाजार, विदेशी पूंजी मार रही है। ऐसे ही यह पूंजी पूरे भारत की आत्मा खत्म कर देगी।
इन खतरों से दो चार होता मोहल्ला अस्सी में अब भगवान को भी नहीं छोड़ा गया। फिल्म ऊंचाई पाती है जब आर्थिक तंगी, बच्चों को कम्प्यूटर नहीं सिखा पाने की बेबसी और संस्कृत शिक्षक पांडेय जी को अंग्रेजी भी पढ़ाने अथवा नौकरी से निकालने की कार्यवाही होती है।
क्या करे मनुष्य इन दबावों के मध्य? कैसे जिए? यह दबाव यदि आप सोचते हैं किसी एक शहर या वर्ग के हैं तो यह आपकी भूल है। नब्बे के दशक से यह सब तरफ हैं । किसान, आदिवासी से लेकर मजदूर और अब दो हजार पच्चीस में आई टी, मैनेजमेंट से लेकर सामान्य शिक्षा तक। बाजार घुसा नहीं है बल्कि वह हमारे घरों का स्वामी बन गया है। गौर करना मित्रों की बाजार हमसे काम, नौकरी करवा रहा है। घर, गाड़ी, फ्लैट से लेकर महंगे मोबाइक तक की ईएमआई के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह पिस रहे। इन सबके मध्य जिंदगी जीना, हंसना, बोलना भी हमारा महज एक इमोजी हो गई है।
फिल्म में कन्नी गुरु का किरदार रवि किशन ने बहुत सधे और अच्छे ढंग से यह सूत्रधार सा किरदार निभाया है, जिसे पांडेय जी भगा दिए थे। उसी के पास जाते हैं कि कोई विदेशी हिंदी, संस्कृत पढ़ने का इच्छुक हो तो लाएं घर में एक कोठरी किराए पर देनी है। कन्नी समझ जाते हैं और अगले दिन ही माद रेन को ले आते हैं घर दिखाने। यहां काशी जी एक बहुत बड़ी सच्चाई से रूबरू करवाते हैं। कन्नी कहते हैं, "मादरेन को कोठरी पसंद है। यहां से गंगा जी दिखती हैं पर दिक्कत है अटैच लेटबाथ की। वह कल बालू, सीमेंट, रोड़ी गिरवाकर आप सात दिनों में इस पास वाली कोठरी में बनवा देना। "
पाण्डेय जी सन्न रह जाते हैं। पाण्डेय जी की पत्नी गुस्से में विरोध करती हैं कि, हम भूखे रह लेंगे पर प्रभु की कोठरी खाली नहीं करेंगे। निकल जाओ यहां से।
कन्नी गुरु, इसे बाजारवाद और ट्रंप का दबाव माने , कहता है कि "यदि सात दिनों में इंतजाम नहीं किया तो फिर दूसरे के यहां रहने चली जाएगी फिरंगन। "
दोनों सोचते हैं पर उससे पहले ही बाजार फैसला कर देता है कि कल शाम तीन महीने का अग्रिम पचास हजार रुपए हम दे देंगे। शिव जी कोई राम लला तो हैं नहीं कि एक जगह ही रहेंगे? शिव जी को तो आप कहीं भी स्थापित कर सकते हो। वह तो मनमौजी हैं।
कथा यथार्थ की बात करती है और निर्देशक ने भी यथार्थ ही दिखाया। किस तरह अगले दिन सुबह पाण्डेय जी बताते हैं कि मेरे स्वप्न में स्वयं महादेव आए और कहे कि " मेरा इस कोठरी में दम घुट रहा है। मुझे खुले में छत पर ले चलो। अब वहीं रहूंगा। "
सभी ब्राह्मण सहमत होते हैं क्योंकि वह भी आर्थिक तंगी से ग्रस्त थे। उन्हें तो बस पांडेय जी का भय था। फिर अगले ही दिन घाट के पास बने अनेकों घरों से शिवजी को बाजे गाजे सहित घाट, पेड़ के नीचे और मंदिर में स्थापित कहें या बिठा दिया गया, पूरे विधि विधान से। और बाजार, विदेशी हर घर में विराजमान हो गए, अटैच टॉयलेट के साथ।
एक बेहद गंभीर समस्या की तरफ करीब दो दशक पूर्व लिखी पुस्तक काशी का अस्सी ध्यान खींचती है। इसके बाद ही काशी जी ने रहन पर रघु, लघु उपन्यास रचा था, वह भी भूमंडलीकरण के खतरों को बताता है। पर यह चार पांच संस्मरण जो काशी का अस्सी में हैं, पूर्व में राजेंद्र यादव के संपादन में हंस पत्रिका में प्रकाशित होकर बहुत चर्चित हुए थे। आर्थिक उदारीकरण हो रहा बल्कि अब तो आंधी आ गई है और पांव जम चुके हैं बाजारवाद के। अभी अभी ट्रंप का टैरिफ वार, जिसमें भारतीय निर्यात पर पचास फीसदी टैरिफ लगाया है, इसी की अगली कड़ी है। ऐसे में हम भारतीय जो अपनी जड़ों, संस्कृति और आस्था से गहरे से जुड़ें हैं क्या करें? देश की बड़ी आबादी और युवा सोच रहा की एक तरफ तकनीकी आंधी, तेज दुनिया और उन्नति है तो दूसरी तरफ धर्म, आस्था, भाषा और समाज को दिशा देने की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर डाली गई है। वह भी बिना किसी ठोस योजना, धन और नीति के? जबकि उदारीकरण का हर देशी विदेशी हिस्सा, पुर्जा पूरे आंकड़ों, उनके डेटाबेस और तैयारी के साथ उतरा है। ऊपर से हर महीने अपनी रणनीति को आक्रामक और तेज करता जाता है।
यह फिल्म और काशी ही नहीं हमारे आसपास का हर शहर, वातावरण बता रहा है कि इस अनुत्तरित और अनियंत्रित प्रश्नों और पूंजी से हमने अभी भी रणनीति और आर्थिक कमजोर लोगों की मदद नहीं की तो हमारे लिए मुश्किल हो जाएगी। हमारे पांव आधे उखड़ चुके हैं बाकी भी हो गए तो क्या होगा यह सोचने की बात है।
फिल्म में कई अच्छे एक्टर, मुकेश तिवारी, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता आदि हैं तो वहीं काशीनाथ जी की शैली में एक किरदार है जो बस मोन रहता और सुनता रहता है। वही अपनी किताब और विचार से पूरे देश के सामने आज जागने और कुछ प्रबंध करने का प्रयत्न करता है।
निर्माता विनय सिन्हा को ऐसी अद्भुत सार्थक फिल्म से जुड़ने की बधाई। प्राइम वीडियो और यूट्यूब पर फिल्म उपलब्ध है। निर्देशक डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी, मुझे लगता था वाम हो रहे पर गौर से समझने और देखने पर स्पष्ट होता है कि यह फिल्म राष्ट्रीयता और हम सबके सामने खड़े खतरे से निकलने और मुकाबला करने की चेतावनी देती है। चाणक्य, पिंजर के बाद यह उनकी साहित्यिक कृति पर तीसरी फिल्म है। उसके बाद वह पृथ्वीराज रासो पर फिल्म पृथ्वीराज भी लेकर आए। वह स्क्रिप्ट की कमी और कई गंभीर दृश्यों को मखौल के अंदाज में फिल्माने से नहीं चल पाई।
उम्मीद है ऐसी सार्थक और उपयोगी फिल्में हमारे निर्माता निर्देशक और अधिक बनाएंगे। क्योंकि यह आज की जरूरत और सोचने पर मजबूर ही नहीं करती बल्कि रास्ता दिखाने वाली फिल्में और कृतियां हैं। फिल्म रोचक और बांधे रखती है।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक और फिल्म लेखक
संपर्क 804, विजय सरिता एनक्लेव, बी ब्लॉक, पंचशील, अजमेर, 305004
मो 7737407061)