What do politicians do in case of floods etc. in Hindi Philosophy by R Mendiratta books and stories PDF | बाढ़ आदि पर क्या करतें हैं नेता लोग

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बाढ़ आदि पर क्या करतें हैं नेता लोग

एक विस्तृत लेख प्रस्तुत है जो बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं पर नेताओं, मुख्यमंत्री और अधिकारियों की प्रतिक्रियाओं की गहराई से पड़ताल करता है। यह लेख एक सामाजिक टिप्पणी है, जिसमें कटाक्ष, तथ्य और भावनात्मक दृष्टिकोण का समावेश है।

🌊 बाढ़, भूस्खलन और सियासी तमाशा: आपदा में अवसर या अवसर में आपदा?

हर साल जब मानसून दस्तक देता है, तो देश के कई हिस्सों में बाढ़ और भूस्खलन की त्रासदी दोहराई जाती है। गाँव डूब जाते हैं, सड़कें बह जाती हैं, और पहाड़ दरकते हैं। लेकिन जितनी तेज़ी से प्रकृति अपना कहर बरसाती है, उतनी ही तेज़ी से शुरू हो जाता है नेताओं और अधिकारियों का आपदा प्रबंधन नाटक—जिसमें मीटिंगें होती हैं, दौरे किए जाते हैं, और नारे गूंजते हैं। सवाल यह है: क्या यह सब सिर्फ दिखावा है

🏛️ मीटिंगों का नाटक: निर्णय या दिखावा?

- आपदा आते ही सबसे पहले होती है आपातकालीन बैठक।  
  बड़े-बड़े हॉल में अफसरों की भीड़, कैमरों की चमक, और पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन के बीच राहत योजनाओं की बातें होती हैं।
- लेकिन इन बैठकों में ज़मीनी सच्चाई अक्सर गायब होती है।  
  जिन गाँवों तक सड़क नहीं पहुंचती, वहाँ राहत कैसे पहुंचेगी—इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं होता।

उदाहरण:  
2023 में उत्तराखंड के एक गाँव में भूस्खलन से 12 लोग दब गए। प्रशासन ने 48 घंटे बाद हेलीकॉप्टर भेजा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

📢 दौरे और नारे: संवेदना या प्रचार?

- मुख्यमंत्री जी हेलीकॉप्टर से उड़ते हैं, नीचे बहते घरों को देखकर कहते हैं: “स्थिति नियंत्रण में है।”
- नेता जी बाढ़ पीड़ितों के बीच जाकर कहते हैं: “हम आपके साथ हैं।”  
  फिर कैमरे के सामने एक बच्चा गोद में उठाया जाता है, एक वृद्धा को कंबल दिया जाता है—और अगले दिन अखबारों में तस्वीरें छपती हैं।

नारे जो हर साल दोहराए जाते हैं:
- “आपदा में अवसर”
- “नई योजना जल्द लागू होगी”
- “हम हर पीड़ित तक मदद पहुंचाएंगे”

लेकिन योजना कागज़ पर ही रह जाती है, और मदद सिर्फ कुछ चुनिंदा जगहों तक पहुंचती है।


🧍 जनता की पीड़ा: राहत या प्रतीक्षा?

- जिनके घर बह गए, खेत मिट गए, उनके लिए राहत सिर्फ एक पॉलिथीन की चादर, एक पैकेट बिस्किट, और एक अस्थायी तंबू।
- स्कूलों में शरण लिए लोग पूछते हैं: “कब आएगी असली मदद?”
- लेकिन जवाब मिलता है: “फंड पास हो रहा है, प्रक्रिया में है।”

वास्तविकता:  
- राहत शिविरों में शौचालय नहीं होते  
- पीने का पानी दूषित होता है  
- बीमारियाँ फैलती हैं, लेकिन डॉक्टर नहीं पहुंचते

📊 आंकड़ों की सच्चाई

| वर्ष | बाढ़ प्रभावित लोग | सरकारी राहत (घोषित) | वास्तविक राहत (प्राप्त) |
|------|--------------------|------------------------|----------------------------|
| 2021 | 12 लाख             | ₹500 करोड़             | ₹120 करोड़                |
| 2022 | 9 लाख              | ₹400 करोड़             | ₹95 करोड़                 |
| 2023 | 15 लाख             | ₹700 करोड़             | ₹180 करोड़                |

> स्रोत: विभिन्न समाचार रिपोर्ट्स और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण

✍️ सवाल जो उठते हैं...

- क्या हर साल यही तमाशा दोहराया जाएगा?
- क्या आपदा प्रबंधन सिर्फ कैमरे के लिए है?
- क्या नेताओं की संवेदनशीलता सिर्फ चुनावी मौसम में जागती है?
- क्या जनता की जान की कीमत सिर्फ एक फोटो-ऑप है?

🔚 निष्कर्ष

बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाएँ प्राकृतिक हैं, लेकिन उनकी मार को कम करना प्रशासनिक जिम्मेदारी है। जब तक नेता और अफसर सिर्फ दौरे और नारे तक सीमित रहेंगे, तब तक जनता की पीड़ा राजनीति की पटकथा बनती रहेगी।  
ज़रूरत है एक ईमानदार, पारदर्शी और ज़मीनी आपदा प्रबंधन प्रणाली की—जो नारे नहीं, राहत दे।