उपन्यास: प्रेत नगर
अध्याय 1: झोपड़ी का रहस्य
राजस्थान के थार रेगिस्तान की तलहटी में बसा था एक गांव—राजपुरा। चारों तरफ़ फैली रेतीली ज़मीन, बीच-बीच में कांटेदार झाड़ियां, और दूर कहीं-कहीं पीपल के पुराने पेड़। गांव की आबादी केवल दस घरों तक सीमित थी। लेकिन हर घर में अपनी अलग कहानी थी—कुछ संघर्ष की, कुछ आस्था की, और कुछ अजीब डर की।
इन सबके बीच, गांव के केंद्र में थी एक काली झोपड़ी।
वो झोपड़ी ऐसी थी मानो ज़मीन से नहीं, अंधेरे से उगी हो। उसकी दीवारें मिट्टी की थीं, लेकिन उन पर कोई लताएं नहीं चढ़ती थीं। उसकी छत बांस और पुआल की थी, फिर भी बरसात में एक बूँद भी भीतर नहीं गिरती थी।
उस झोपड़ी में रहता था एक बूढ़ा आदमी—जिसे सब 'बाबा' कहते थे।
बाबा की उम्र का कोई अंदाज़ा नहीं था। उसकी झुर्रियों वाली त्वचा देख कर लगता था कि वह सौ वर्ष से अधिक का होगा, लेकिन उसकी आंखें... उसकी आंखें जिंदा थीं, चमकती हुईं। वो आंखें डर पैदा करती थीं—जैसे किसी किताब में बंद रहस्य को पढ़ रही हों।
बाबा दिन में बाहर नहीं निकलता। सिर्फ रात के समय उसकी झोपड़ी का दरवाज़ा खुलता था, और धुंआ बाहर आता था। ऐसा लगता जैसे कोई अनदेखा अग्निकुंड भीतर जल रहा हो।
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गांववालों के बीच बाबा का रुतबा अलग था। जब कोई बीमार होता, उसे अस्पताल नहीं ले जाया जाता—उसे बाबा की झोपड़ी पर ले जाया जाता। बाबा दरवाज़े पर आता, बीमार को छूता, कुछ बड़बड़ाता, और भीतर चला जाता। अगले दिन तक वो बीमार ठीक हो जाता।
लोग कहते थे बाबा के पास कोई 'मंत्र' है, कोई 'वरदान' है या फिर कोई 'जिन्न' उसकी सेवा करता है। लेकिन कोई सवाल नहीं करता था, सिर्फ श्रद्धा थी—या शायद भय।
एक बार की बात है, गांव का एक बच्चा—रमेश—सांप से काटे जाने पर मर गया। मां रोती हुई उसे बाबा के पास ले गई। बाबा कुछ नहीं बोला। उसने बच्चे के माथे पर उंगली रखी और कहा, "जब सूरज छुपेगा, ये उठेगा।"
वो शाम रमेश उठ बैठा। गांव में यह चमत्कार माना गया।
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पर बाबा के बारे में कुछ अजीब था। उसका शरीर बूढ़ा था, लेकिन चाल में थकान नहीं थी। उसकी झोपड़ी से हमेशा धूप और राख की गंध आती रहती थी। कुछ लोग कहते थे कि उन्होंने झोपड़ी के अंदर एक शेर जैसी परछाई देखी है। कुछ कहते—बाबा की आवाज़ कभी-कभी दो तरह से सुनाई देती है, जैसे एक साथ दो लोग बोल रहे हों।
लेकिन गांववाले सब चुप रहते। बाबा का आदर करते। या कहें—उससे डरते थे।
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फिर आया वो दिन जिसने राजपुरा को 'प्रेत नगर' बना दिया।
एक सुबह, बाबा बिना किसी वजह के झोपड़ी से निकला और जोर-जोर से चिल्लाने लगा—
"सब आओ! समय आ गया है! सुनो मेरी बात! आओ, आओ!"
गांव के लोग, जिनमें महिलाएं, बच्चे, और बुज़ुर्ग थे, सब काम छोड़कर उसकी झोपड़ी के पास इकट्ठा हो गए। पर एक व्यक्ति नहीं आया—धर्मपाल। वो गांव का मुखिया था, अमीर, प्रभावशाली, और बाबा के प्रभाव से चिढ़ा हुआ।
बाबा ने कहा, “जाओ, उसे बुलाओ। उसे आना होगा।” गांव का एक लड़का दौड़ता हुआ धर्मपाल को बुला लाया।
धर्मपाल चुपचाप बाबा के साथ झोपड़ी के अंदर गया। दरवाज़ा बंद हो गया।
घंटे बीते... फिर शाम हो गई... फिर रात... फिर आधी रात... और फिर 3:30 बजे वो दरवाज़ा खुला।
धर्मपाल बाहर आया। उसका चेहरा सफ़ेद था, आंखें गड्ढों में धंसी हुईं। वो किसी से कुछ नहीं बोला।
अगली सुबह गांव का एक बुज़ुर्ग—लछमनदास—बिना किसी बीमारी के मर गया। फिर दूसरे दिन एक और, तीसरे दिन दो और...
गांव में मातम छा गया। अब लोग बाबा के पास जाते, लेकिन जैसे ही बाबा उन्हें देखता, झोपड़ी का दरवाज़ा बंद कर लेता।
अब बाबा वरदान नहीं, मौत का प्रतीक बन चुका था।