कर्मफल दिनेश श्रीवास्तव साहित्यिक उपनाम गोरखपुरी जी द्वारा रचित एक ऐसा ग्रंथ है जिसकी उतपत्ति ही धर्म समाज एव वर्तमान के मध्य अंतर कहे या विषमताएं दोनों ही कर्म फल की उत्तपत्ति के भाव के कारण कारक एव आधार है! सनातन के लगभग सभी ग्रंथो में कलयुग के विकास एव सामाजिक आचरण का वर्णन किया गया है जो वर्तमान मे वसत्य ही परिलक्षित हो रही है!
सनातन ग्रंथो में सामाजिक संबंधों एव उसके मर्म मर्यादा को प्रस्तुत करता है जो किसी काल मे समाज निर्माण
एवं राष्ट्र निर्माण के साथ साथ सामयिक महत्व को निर्धारित निरूपित करता है यहां उदाहरण न देते हुए प्रभु राम का पिता की आज्ञा मान राज पाठ का त्याग एव वन गमन पिता पुत्र के संबंधों के मूल की वास्तविकता है इसी प्रकार माता यशोदा एव बालकृष्ण के स्नेह सम्बन्थों का सत्यार्थ है तो नारी सम्मान के लिए स्वंय नारायण श्री कृष्ण का संकल्प
जीवन मूल्यों की नैतिकता के लिये युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान निष्काम कर्म का सिंद्धान्त कलयुग में सामाजिक आचरण मर्यादा दृष्टि दृष्टिकोण के लिए सूत्र सिद्धांत है राम रावण युद्ध मे सुषेन वैद्य द्वारा जो रावण के राज्य चिकित्सक थे द्वारा राम के भ्राता लक्ष्मण की चिकित्सा करके अपने ही अन्नदाता के विरुद्ध कार्य किया गया विल्कुल नही वैद्य सुषेन ने चिकितसिय धर्म का पालन किया न कि अपने पालक राजा के विरुद्ध कोई कार्य किया कलयुग के प्रथम चरण में ही इतना सामाजिक छरण हो रहा है और हो चुका है कि सनातन की सभी मर्यादाओं ने दम तोड़ दिया है पुत्र पिता माता के प्रति भाई भाई के प्रति बहन भाई के प्रति या मित्र मित्र के प्रति संवेदनहीन होते जा रहे हैं जिसके कारण सभी धर्मिक मार्मिक सामाजिक मर्यादाये लुप्त होती जा रही है और क्रूरता जघन्यता स्वार्थ लिप्सा आधरित समय समाज राष्ट्र बनता जा रहा जो आने वाली पीढ़ी परंपरा के लिये घातक है!
कर्मफल के रचयिता दिनेश गोरखपुरी जी को वर्तमान समय मे छरित होते धार्मिक सामाजिक मर्यादाओं में निश्चित रूप से आहत करते हुए प्रभवित किया है जिसकी परिणीति समय समाज दिनेश गोरखपुरी के भाव चेतना की लेखनी से निकला कर्मफल है!
एक और कारण भी स्प्ष्ट है दिनेश गोरखपुरी जी की कर्म फल अवधारणा के जन्म से लेकर उत्कर्ष तक दिनेश गोरखपुरी जी की पत्नी भयंकर लिवर बीमारी से ग्रसित थी जिसकी चिकित्सा बहुत महंगी एव जटिल थी दिनेश गोरखपुरी जी ने पत्नी की चिकित्सा के दौरान पतिवर्तित कि प्रक्रिया से गुजर रही सामाजिक सामयिक प्रशासनिक व्यवस्था से पाला पड़ा जो बाजारू एव व्यवसायी बनकर भौतिकता की चकाचौंध में भटक रहा है जिसके कारण धार्मिक मार्मिक मर्म मर्यादाओं का समापन हो चुका है! पत्नी की चिकित्सा में दिनेश जी कि पूंजी जो भी जीवन मे कमाई थी समाप्त हो गयी सम्बन्धो ने भी अप्रत्यक्ष होकर मुहं छुपाना शुरू कर दिया जिसका बहुत गम्भीर प्रभाव दिनेश गोरखपुरी के मन मस्तिष्क एव भवनावो पर पड़ा जिसके कारण दिनेश गोरखपुरी जी का अंतर्मन समय समाज मे ह्रास हो रहे सामाजिक एव मानवीय मूल्यों एव संबंधों के पुनर्निर्माण पुनर्जीवित पुनर्स्थापित पुनर्जागरण का संकल्प लिया जो समय समाज के समक्ष कर्म फल के रूप में प्रस्फुटित है!!
कर्मफल के संदर्भ में मुर्ध्नव विद्वान दार्शनिक पूर्वांचल के गौरव बाबा राघव दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य देश विदेश में विद्वत समाज मे ख्यातिलब्ध एव सम्मानित डॉ उपेंद्र प्रसाद जी द्वारा अपने सारगर्भित विचारों को प्राथमिकता एव प्रमाणिकता के आधार पर बहुत विसृत व्यख्या प्रस्तुत की गई है जो आदरणीय एव कर्मफल कि सामाजिक साहित्यिक सोच गहराई चिंतन को ऊंचाई प्रदान करती है ऐसे में कर्मफल के विषय में और कुछ लिखना कहना दुरूह भी है और सूरज को दिया दिखाने जैसा भी है मैं ईश्वर से शक्ति क्षमता के लिए प्रार्थना करता हूँ कि वह मूझे कर्म फल के संदर्भ में अपने मनभवो विचार को रखने के लिये सक्षम बनाते हुए शक्ति प्रदान करे!
कर्मफल दीप प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कि गयी है पुस्तक मैं दो खण्ड कहे या भाग है दूसरे भाग में देवी देवताओं की आरती है!
प्रथम भाग में कुल साथ अध्याय है जिसमे पहला अध्याय कर्मफल भावार्थ सहित दूसरा अध्याय शांति की खोज तीसरा अध्याय कर्म भाव चौथा अध्याय मर्म ज्ञान पांचवा अध्याय धरती की उत्तपत्ति छठा अध्याय जीव की उतपति
कर्मफल के संदर्भ में बहुत से विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं जो कर्मफल की सामयिक महत्व कि वास्तविकता के प्रतिबिंब है जो वर्तमान दर्पण में बहुत स्प्ष्ट परिलक्षित हो रहा है!
मैं कर्मफल को अध्याय पांच से अपने विचार भवोक्ति प्रेषित इसलिए करना चाहूंगा क्योकि अध्याय पांच में कर्म फल के लेखक दिनेश गोरखपुरी जी द्वारा महाप्रलय के उपरांत नारायण द्वारा सृष्टि के निर्माण का प्रसंग व्यख्या सहित प्रस्तुत किया है सृष्टि के अस्तित्व के उपरांत ही प्राणी प्रकृति परमेश्वर का समन्वय समावेश सृष्टि की दृष्टि में आता है दिनेश गोरखपुरी जी नारायण की सृष्टि नर कि संतुष्टि हेतु प्रश्न नारायण से करते हुए प्रकृति प्राणी के सृष्टि में प्रदुर्भाव एव उसकी उपस्थिति के सन्दर्भ में बड़े सारगर्भित रूप से प्रस्तुत करते हुए उनके उत्तर भी बड़ी सरलतम से प्रस्तुत किया है
सनातन ग्रंथो के अनुसार महाप्रलय के बाद सृष्टि निर्माण की जिम्मेदारी ब्रह्मा को दी जाती है ब्राह्म की उत्पत्ति ब्रह्मांड के परम सत्य आदि अनंत नारायण कि नाभि से कमलस्थ होती है जिनकी जिम्मेदारी का काल समय निर्धारित होता है ऐसा सनातन धर्मग्रंथों बताया गया है कि ब्रह्मा के एक दिन मैं चारो युग सतयुग त्रेता। द्वापर कलयुग अट्ठाइस बार बीत चुके होते हैं ब्रह्मा की निशा प्रलय काल है इस प्रकार एक दिवस से ब्रह्मा की आयु वर्ष बताई गई हैं बहुत स्प्ष्ट हैं कि यदि सृष्टिकर्ता का ही काल समय निर्धारित है तो उसके द्वारा निर्मित सृष्टि में कोई भी बस्तु विषय प्रकृति प्राणी आदि अनादि अनंत कैसे हो सकता हैं
लेखक दिनेश गोरखपुरी जी ने अपने जीवन अनुभवों को जगतकल्यार्थ उपयोगी बनाने हेतु महाप्रलय के उपरांत सृष्टि के अस्तित्व आवश्यकता एव उपयोगिता को धर्म कर्म मर्म की अवनी पर जांच परख कर कर्म फल के मध्यम से प्रस्तुत किया है जो आचरण संस्कार एव सशक्त समाज राष्ट्र में सहायक होने के साथ साथ अनिवार्य भी है
ब्रम्ह ब्रह्मांड धर्म कर्म विज्ञान के सापेक्ष कर्मफल को कसौटी पर परखा जा सकता है! महाप्रलय के बाद पृथ्वी की उत्तपत्ति को लेखक द्वारा विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक अवधारणा के सत्यार्थ एव ब्रह्म ब्रह्मांड के वैचारिक व्यवहारिक वास्तविकता के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है
महाप्रलय के बाद चहुं ओर अंधकार एव वायु जल के अलावा कुछ भी नही जल प्रवाह एव वायु वेग से जो ध्वनि प्रबहित हो रही थी वही सृष्टि स्रोत का मूल शब्द स्वर है जो ब्रम्ह सत्ता का परम प्रकाश सत्यार्थ है जो ओंकार है निराकार है स्वर प्रवाह है कल नित्य निरन्तर है ओंकार ॐ है
जो सृष्टि कि नीति नियत दृष्टि दिशा कोण है
ॐ से ओज तेज प्रस्फुटित हुआ जो आदि अनंत सत्य सनातन का शुभ मंगल काल सृष्टि का निर्माण काल जब स्वंय नारायण ने महाप्रलय के घनघोर अंधकार में पंच महाभूतों के तत्वों के अस्तित्व की सत्यता को स्वीकार करते हुए जल के प्रवाह वायु के वेग एव शून्य आकाश से ओंकार ॐ का अस्तित्व ब्रह्म ब्रह्मांड के वर्तमान भविष्य एव अतीत का स्वीकार एव आकर्षण हैं
# जल वायु से जो उठत तरंग
धरा पर्वत से जो टकराई
एक मधुर स्वर गुजत तरंग
बस ॐ ही ॐ वो सुनाती
कर्मफल के विचारक लेखक ने स्वयं को नर के प्रतिनिधि के रूप मे प्रस्तुत करते हुए नारायण से प्रश्न किया एव उत्तर के रूप में आम जन के संसय भ्रम का निराकरण सृष्टि निर्माण के संदर्भ में संवाद की भाषा मे कर्मफल को आम जन की समझ सुलभता के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया है जो प्रशसनीय एव व्यवहारिक भी है!
कर्मफल में नर नारायण संवाद कही न कही द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में दिए गए गीतोपदेश कि तरह प्रतीत होता है जब भगवान श्री कृष्ण अपनी बात समाप्त करते हैं नर अर्जुन की शंकाओं का एक प्रश्न खड़ा हो जाता है जिसका उत्तर परब्रह्म्प्रमेश्वर साक्षात भगवान श्री कृष्ण देते है तब तक देते रहते हैं जब तक नर अर्जुन के सभी संसय भय भ्रम समाप्त हो जाते हैं और वह निष्काम कर्म योग के जीवन मूल्य के पालन में युद्ध भूमि मोह माया का त्याग कर युद्ध का शंखनाद करते हैं !
प्राणी का जीवन पथ कुरुक्षेत्र की तरह है जहाँ उसे प्रतिदिन झूझना
पड़ ता है कभी समय काल की चुनौती कभी समय समाज की चुनौती कभी स्वंय ही स्वंय के लिये चुनौती नित्य निरंतर प्राणी को पल प्रहर जूझना पड़ता है!
पांचवा अध्याय धरती की उत्पत्ती जिसमे लेखक द्वारा संसार मे सृष्टि में सभी को अस्थाई होने की बात को शास्त्रोक्ति रूप से एव धर्मिक विश्वास को ही प्रमाणित करने का अनुष्ठान कर्म फल के माध्यम से किया गया है यहाँ मै दिनेश गोरखपुरी जी से पूरी तरह सहमत होते हुए कुरुक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण को ही दोहराता हूँ
अर्जुन को मोह से मुक्त
करने के लिए कहते हैं सुनो पार्थ जो तुम्हारे सामने युद्ध भूमि में खड़े हैं वह सिर्फ जीवित काया है इन्हें अब जीवन त्यागना ही होगा ये इससे पहले भी थे और युद्ध के बाद भी होंगे यही सृष्टि का नियम है जिसने भी कोख गर्भ से जन्म लिया है उसे शरीर का त्याग करना ही होगा और कर्मानुसार आत्मा के अगले यात्रा पर आगे बढ़ना ही होगा तुम्हारे तात भीष्म, गुरु द्रोण ,कृपाचार्य ,कर्ण आदि सभी युगों युगों से है और रहेंगे मैं भी था कभी मत्स्य कभी कच्छप कभी बाराह कभी नरसिंह कभी वामन कभी परशुराम कभी राम आज तुम्हारे सामने खड़ा हूँ अंतर सिर्फ इतना है मैं सृष्टि जगत का नियंता हूँ मुझे अपने प्रत्येक जन्म स्मरण है और इन्हें नही है! मनु और मन्वतर बदलते हैं वैश्वत मन्वतर के बाद सावर्णि आदि अर्थात समूर्ण जगत सृष्टि में सभी अस्थायी है सबका नियत काल समय है जिसके उपरांत उनका समाप्त होना ही है!
दिनेश गोरखपुरी जी ने शिव तत्व को सृष्टी में श्रेष्ठ रखने के लिये नारायण की ही स्वीकृति ली है-
#वही ॐ शिव कहलाता
ओंकारेश्वर भी सुहाता
आदि अनंत वही भगवन्ता
करे कृपा सदा भगवन्ता#
कर्मफल के छठे अध्याय में जीव जीवन कि उत्तपत्ति को स्प्ष्ट करने कि प्राण पण से निर्विकार होकर कि गयी हैं !
वास्तव में विज्ञान जीव जीवन कि उत्तपत्ति जल कि काई से मानता है जल कि काई से एक कोशिकीय प्राणी एना लीडा को मानता है फिर द्विकोशिकीय सीलनट्रेडा उसके बाद बहुकोशिकीय प्राणी!
लगभग सारे धर्म भी सृष्टि कि शुरुआत जल से ही मानते हैं सनातन में नारायण ने प्रथम अवतार ही मत्स्य का लिया है सृष्टि निर्माण के लिए
#रोकत वेग पर्वत अनेका
तब ध्वनि गूंज ॐ का एका
यही भांति चली बहु मासा
मिली यहाँ जीवन की आशा#
कर्मफल के विचारक लेखक ने स्वयं को नर के प्रतिनिधि के रूप मे प्रस्तुत करते हुए नारायण से प्रश्न किया एव उत्तर के रूप में आम जन के संसय भ्रम का निराकरण सृष्टि निर्माण के संदर्भ में संवाद की भाषा मे कर्मफल को आम जन की समझ सुलभता के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया है जो प्रशसनीय एव व्यवहारिक भी है!
कर्मफल में नर नारायण संवाद कही न कही द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में दिए गए गीतोपदेश कि तरह प्रतीत होता है जब भगवान श्री कृष्ण अपनी बात समाप्त करते हैं नर अर्जुन की शंकाओं का एक प्रश्न खड़ा हो जाता है जिसका उत्तर परब्रह्म्प्रमेश्वर साक्षात भगवान श्री कृष्ण देते है तब तक देते रहते हैं जब तक नर अर्जुन के सभी संसय भय भ्रम समाप्त हो जाते हैं और वह निष्काम कर्म योग के जीवन मूल्य के पालन में युद्ध भूमि मोह माया का त्याग कर युद्ध का शंखनाद करते हैं !
प्राणी का जीवन पथ कुरुक्षेत्र की तरह है जहाँ उसे प्रतिदिन झूझना
पड़ ता है कभी समय काल की चुनौती कभी समय समाज की चुनौती कभी स्वंय ही स्वंय के लिये चुनौती नित्य निरंतर प्राणी को पल प्रहर जूझना पड़ता है!
पांचवा अध्याय धरती की उत्पत्ती जिसमे लेखक द्वारा संसार मे सृष्टि में सभी को अस्थाई होने की बात को शास्त्रोक्ति रूप से एव धर्मिक विश्वास को ही प्रमाणित करने का अनुष्ठान कर्म फल के माध्यम से किया गया है यहाँ मै दिनेश गोरखपुरी जी से पूरी तरह सहमत होते हुए कुरुक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण को ही दोहराता हूँ अर्जुन को मोह से मुक्त
करने के लिए कहते हैं सुनो पार्थ जो तुम्हारे सामने युद्ध भूमि में खड़े हैं वह सिर्फ जीवित काया है इन्हें अब जीवन त्यागना ही होगा ये इससे पहले भी थे और युद्ध के बाद भी होंगे यही सृष्टि का नियम है जिसने भी कोख गर्भ से जन्म लिया है उसे शरीर का त्याग करना ही होगा और कर्मानुसार आत्मा के अगले यात्रा पर आगे बढ़ना ही होगा तुम्हारे तात भीष्म, गुरु द्रोण ,कृपाचार्य ,कर्ण आदि सभी युगों युगों से है और रहेंगे मैं भी था कभी मत्स्य कभी कच्छप कभी बाराह कभी नरसिंह कभी वामन कभी परशुराम कभी राम आज तुम्हारे सामने खड़ा हूँ अंतर सिर्फ इतना है मैं सृष्टि जगत का नियंता हूँ मुझे अपने प्रत्येक जन्म स्मरण है और इन्हें नही है! मनु और मन्वतर बदलते हैं वैश्वत मन्वतर के बाद सावर्णि आदि अर्थात समूर्ण जगत सृष्टि में सभी अस्थायी है सबका नियत काल समय है जिसके उपरांत उनका समाप्त होना ही है!
दिनेश गोरखपुरी जी ने शिव तत्व को सृष्टी में श्रेष्ठ रखने के लिये नारायण की ही स्वीकृति ली है-
#वही ॐ शिव कहलाता
ओंकारेश्वर भी सुहाता
आदि अनंत वही भगवन्ता
करे कृपा सदा भगवन्ता#
कर्मफल के छठे अध्याय में जीव जीवन कि उत्तपत्ति को स्प्ष्ट करने कि प्राण पण से निर्विकार होकर कि गयी हैं !
वास्तव में विज्ञान जीव जीवन कि उत्तपत्ति जल कि काई से मानता है जल कि काई से एक कोशिकीय प्राणी एना लीडा को मानता है फिर द्विकोशिकीय सीलनट्रेडा उसके बाद बहुकोशिकीय प्राणी!
लगभग सारे धर्म भी सृष्टि कि शुरुआत जल से ही मानते हैं सनातन में नारायण ने प्रथम अवतार ही मत्स्य का लिया है सृष्टि निर्माण के लिए
#रोकत वेग पर्वत अनेका
तब ध्वनि गूंज ॐ का एका
यही भांति चली बहु मासा
मिली यहाँ जीवन की आशा दिनेश गोरखपुरी जी ने अध्याय छ में सृष्टि एव जीव संरचना को तार्किक एव प्रासंगिक परिपेक्ष में जन धारणाओं के सापेक्ष प्रस्तुत करने के लिये सृष्टि निर्माण संबंधी सभी आवश्यक ग्रंथो का बारीकी से अध्ययन किया है ऐसा इससे स्प्ष्ट होता है----
#जीव सब सोए चिर निद्रा मे
प्रलय काल का यही था भद्रा
धीरे धीरे चेतन आया कर्मरूप
सब योनि पाया#
कई धर्मो में पर ब्रह्म को निराकार स्वीकार किया गया है और यह कहा गया है कि महाप्रलय के बाद वही निराकार परब्रह्म चेतना महाप्रलय पूर्व
कि सोई रूह काया को कर्मानुसार नया रूह नई काया तकसीम करेगा
कर्मभाव तृतीय अध्याय बोध के उत्कर्ष कि व्यवहारिकता को अंगीकार करते हुए निरुपित किया गया है कर्म फल जैसा दिनेश गोरखपुरी जी कि रचना शीर्षक से ही स्पष्ट है कि प्राणी के कर्म को प्रधान मानते हुए उसके प्रारब्ध को परिभाषित प्रामाणिक और प्रासंगिक बनाने कि कोशिश है कर्म फल का कर्म भाव
#थके ना मेरा चाह प्रभु बढ़े कर्म कि ओर निर्विरोध मै कर्म करू फल कि आशा छोड़!#
लेखक दिनेश गोरखपुरी द्वारा समुर्ण कर्मफल को नर नारायण के संवाद के रूप मे प्रस्तुत किया है जिसमे जीवन को करमानुभूति एवं उसकी सक्रियता योग्यता क्षमता के परिपेक्ष मे प्रस्तुत करने कि ईमानदार कोशिश है जिसमे गीता के निष्काम कर्म को ही जीवन मर्यादा मौलिक मूल्य के रूप मे प्रस्तुत किया गया है वास्तव मे किसी भी प्राणी के हाथ मे सिर्फ कर्म ही रहता है परिणाम नही परिणाम कर्म कि शुद्धता एवं उसके निष्ठा एवं समर्पण पर निर्भर करता है कर्म कि गुणवत्ता को समय काल परिस्थिति के सापेक्ष निर्धारित किया जाता है कर्म का नेतृत्व प्राणी स्वंय करता है नियोजन निष्पदन क्षमता शक्ति का योग प्रयोग स्वंय करता है कर्म का मर्म धर्म है
कर्म निष्पादन पर बहुत बारीक़ दृष्टि काल समय रखता है जो कर्म को अपने अनुसार नियात्रित करने कि कोशिश करता है और दृष्टि दिशा भी परीक्षार्थ प्रेषित करता है कभी संसय भ्रम उतपन्न करने के लिए कभी शक्ति संकल्प क्षमता धैर्य को जानने मापने के लिए
उदाहरण के लिए गुरु अपने प्रत्येक शिष्य को श्रेष्ट श्रेष्ठटम बनाने का संकल्प लेकर ज्ञान बांटने का कर्म करता है विद्यार्थी गुरु के शुद्ध सात्विक संकल्प मे अपनी निष्ठा समर्पण कि आहुति किस प्रकार देता है यह प्रत्येक शिष्य के कर्तव्य बोध एवं आचरण पर निर्भर करता है निरपेक्ष निर्विरोध निर्विवाद साकार सत्य स्वीकार गुरु के कर्म का परिणाम विखर जाता है और शिष्यों कि दक्षता योग्यता काल समय द्वारा स्वंय के एकाघ्र संकल्प समार्पण के सापेक्ष परिलक्षित .है
#जीवन पथ है जस जलधारा
जिसमे उठती लहर अपरा
निज मन को जिसने संजोया जीवन अपना निर्मल बनाया!#
#कलयुग मे सदकर्म सुहाता
सत्य पथ चल भाग्य बनाता
राह यहां हर आशा बनता
कर्म राह पर जो नर चलता!#
कलयुग मे भौतिकता कि चका चौध एक दूसरे से आगे निकलने कि होड़ कि प्रतिस्पर्धा प्रतियोगिता इस कदर प्रभावी या दूसरे शब्दों मे कहे तो हावी है कि प्रत्येक प्राणी केवल मनुष्य ही नही अन्य प्राणी भी अपने सक्षम अस्तित्व को बनाये रखने के लिए क़ायम रखने के लिए एक दूसरे के शव को ही सीढ़ी बनाकर आकाश से ऊँचा अपना मुकाम स्थापित करने को यद्धत है
कलयुग मे धर्म धैर्य मर्म प्राणी प्राण वेदना सवेदना अनुभूति नही है सिर्फ स्वयं संतुष्टि और आत्म अभिमान के झूठे छलावे मे पथ भ्रष्ट हो गया है रिश्तो कि मर्यादा लगभग समापन कि तरफ है जिसके कारण सामजिक सम्बन्धो का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है सिर्फ स्वार्थ लिप्सा क्षुद्रता उछरीनखलता नें प्राणी को दृष्टि सहित अंधा बना दिया है
माता पिता पुत्र भाई बहन आदि सबंध अब सिर्फ स्वार्थ के लिए स्वार्थ से एवं स्वार्थ जनीत है जिसके कारण समाज का पतन हो रहा है मनव मनव का ही खून पी रहा है अन्य प्राणियों मे तो देखा जाता है कि अपने अस्तित्व एवं संतुष्टि के लिए अपने ही संतान का भक्षण करते है जैसे सांप शेर आदि मानव इतना विधर्मी अराजक आक्रांता हो गया है जिससे क्रूर अराजकता का वातावरण बन चुका है और प्राणी प्राण एवं मानवीय मूल्यों का धर्म मर्म समाप्त हो चुका है
वर्तमान कि विकट आधार्मिक क्रूर कठोर परिस्थितियो मे दिनेश गोरखपुरी जी द्वारा कर्म के परिणाम एवं निष्काम कर्म कि कृष्ण अवधारणा को कर्म फल के रूप मे प्रस्तुत कर मनवीय चेतना कि सकारात्मक जागृति का अविस्मरणीय अनुष्ठान किया है जिसकी साधना ध्यान का अनमोल युग मनवीय सभ्यता धर्म मर्म का मूल्य है कर्मफल
#कर्म भूमि धरती अति पावन
मिलत यहां कर्म है भावन
कर्मफल है यहां पर मिलता
प्ररबद्ध संग कर्म बस दीखता!!#
कर्म के मर्म का ज्ञान भी चैतन्य सत्ता कि आत्म चेतना का रहस्य है जिसे समझे जाने बिना कर्म पथ का निर्धारण एवं उस पर चलना बहुत कठिन कार्य है अतः चेतन सत्ता कि शक्ति का सत्यार्थ है काया कल्याण मोक्ष का मार्ग पथ का निर्धारण कर्मफल के लेखक दिनेश गोरखपुरी जी ने बहुत मार्मिक एवं बारीक़ दृष्टि से कर्म भाव को प्रस्तुत किया गया है सूक्ष्मत व्यख्या एवं व्यवहारिक शब्द भाव समन्वयय से कर्म भाव को व्याख्या प्रदान किया गया है
#मर्म ज्ञान जो नर जानत
वहीं नर आपन पथ सुधारथ
अज्ञानी यह भाव न मानत
अपना यहां सु समय बिसारत!!#
कर्म का मर्म एवं भवाभिव्यक्ति सांसकारिक एवं परम्परावादी न होकर अर्जित होता है सोच सक्रियता एवं आचरण से मनुष्य के व्यक्तित्व कि पहचान होती है जो पीढ़ीगत या परम्परा से हट कर अर्जित गुण दोष के आधार पर होती है उदाहरण के लिए यहाँ प्रबुद्ध वर्ग माना जाता है कायस्थ जिसका पीढ़ीगत संस्कार है उच्च शिक्षा ग्रहण करना एवं तदानुसार जीविकोपार्जन करना लेकिन कायस्थ वंश परम्परा का कोई जातक अपने कर्म को पीढ़ी परम्परा से आगे निकल परिवर्तित कर नई कर्म प्रधान अवधारणा के अस्तित्व का वरण करता है तो वह अपने स्वतः चयनित इच्छानुसार कर्म एवं कर्मभूमि मार्ग पर चल पढ़ता है तब उसकी पहचान पीढ़ी गत परम्परा से हट कर पीढ़ी कि ही नई पहचान स्थापित कर देता है
यहाँ स्पष्ट करना अनिवार्यता है कि कर्म भाव कर्म भूमि का चयन निर्माण बहुत प्रभावी प्रासंगिक और परिवर्तन करी होता है अर्थात कर्म भाव सिर्फ जन्म जीवन के ईश्वरीय बोध एवं धर्म मर्म मर्यादा का शांति पाथ या मोक्ष मार्ग ही नही है कर्म भाव कि उतपत्ती सकारात्मक एवं नकारात्मक धरातल पर ही होता है और दोनों के परिणाम को वर्तमान को देखना अनुभव करना एवं भोगना पड़ता है कर्मभाव कि उतपत्ती तात्कालिक त्वरण कि ऐसी ऊर्जा का तीव्र प्रवाह करता है जिससे वर्तमान स्थब्ध स्पंदनदित एवं आनंदित होता है तो कुपित कम्पित संकलू संसय ग्रस्त होकर भविष्य का संकेत देता है
कर्मफल के लेखक दिनेश गोरखपुरी द्वारा कर्म भाव को वहुआयामी बहु अध्यायी अर्थो मे प्रस्तुत किया गया है और स्पष्ट करने कि सच्चाई से कोशिश किया गया है कि कर्म भाव समाज समय काल मे विकृत विचार अवधारणा पर ना उपजे ज़ब भी कर्म भाव कि उत्पत्ति हो सृष्टि कि सकारात्मक दृष्टि एवं निर्माण एवं विकास के धरातल पर प्रवृति के रूप मे प्रकृति प्राणी परमेश्वर युग सृष्टि के कल्यारार्थ जनीत हो!
धर्म जीवन आचरण का नियम
संविधान है धर्म कि आवश्यकता
समय काल परिस्थितियों के अनुसार समाज राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक है क्योंकि धर्म अनुशासन एवं स्व बोध के आत्म चिंतन को जन्म देता है जिसमे भय भ्रम संसय नही सिर्फ होता है तो सिर्फ आत्मीय बोध एवं स्वीकृति वास्तव मे धर्म सामजिक मूल्यों को व्यक्तिगत स्वीकारोक्ति के अस्तित्व आस्था की अवनी पर उगती प्रश्नफुटित पल्ल्वीत पुष्पपित होती है धर्म धैर्य पराक्रम का सौर्य है कायर कि कृति नही!
कर्म फल मे दिनेश गोरखपुरी जी नें धर्म को जिस धुरी पर प्रस्तुत परिभाषित करने कि कोशिश कि है वह वैज्ञानिक विज्ञान एवं समाज के शोध बोध के तथ्य तर्क पर अत्यधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है--
#कठिन राह है चिंतन भाई
बिन राह कुछ न सुहाई
मन बहु तर्क करें बहु भाता
मध्य रात्रि को ॐ सुनाता!!#
अर्थात स्पष्ट है कि धर्म कि उत्पत्ति महाप्रलय के काल समय मे जल प्रवाह कि ध्वनि ॐ से है ओंकार आत्म सत्ता एवं सृष्टि कि अवधरणा का सत्यार्थ बना और है!
(जब जब होई धरम के हानि बढही असुर अधम अभिमानी)
भगवान राम ने भी सुग्रीव एव बानर मित्रों के साथ ही धर्म और मर्यादा का युद्ध लड़ा कलयुग में नर के लिए धर्म ही नारायण है जो भटकने पर उग्र उच्छिर्नखल होने पर धीरज धैर्य एव धर्म कि दृष्टि प्रदान करता हुआ उचित मार्गदर्शन करता है!
#जगह जगह पाथर वो राखे
जिसको फिर वो पूजन लागे
ॐ मंत्र था जाप उनका
जगा भक्ति का सपना सबका!!#
कलयुग में नारायण स्वंय धर्म आचरण में प्रतिष्टित होकर पल प्रहर किसी भी काल स्थिति परिस्थिति में पथ प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन करते हुए मानुष्य को उचित कर्तव्य दायित्व का बोध कराते है जिस पर धर्म आचरण युक्त निर्विकार मानुष्य चलता है और विषम एव विपरीत समय काल मे भी संयमित संतुलित रहते हुए बाधाओं को जीतता हुआ धर्म की जीवंत जागृत रखते हुए उसके महत्व को समझता है देखता है अनुभव अनुभूति करता है।
धर्म ध्यान ज्ञान दान का मर्म मूर्त है किंतु दान लेने एव देने की पात्रता निर्धारित है सुपात्र को दान सुपात्र द्वारा दिया जाना चाहिए दान एव सेवा में अंतर है सेवा किसी भी अक्षम असहाय का सहयोग है जबकि दान ईश्वरीय कार्य मे सहभागिता है ।
ईश्वर के दरबार मे यदि कोई ईश्वर की सेवा भक्ति करता है जैसे मंदिर तो उसे दान मांगने का हक नही है क्योकि वह स्वंय उस परमशक्ति परमात्मा का सेवक है जो जगत का पालन हार है उसे तो बिना मांगे पर्याप्त प्राप्त हो जाएगा जिससे भगवान की सेवा सतत होती रहेगी वहां परमात्मा की कृपा वर्षा होती है बहुत से सन्त ईश्वरीय सेवा के समानांतर जन सेवा के ईश्वरीय दायित्वों का भी निर्वहन करते है ऐसे सन्त महापुरुषों को सहयोग अवश्य करना चाहिए जिससे धर्म का
संरक्षण संवर्धन अक्षय अक्षुण रहे ।
यदि किसी व्यक्ति द्वारा असहाय लाचार कि सेवा सहयोग किया जाता है तो धर्म का सर्वश्रेष्ठ मर्म होगा।
#यही भांति दिन बाढ़न लगा
उनमे सदाचार फिर जगा
दया धर्म उपजा कुछ तता
जैसे अंकुरित बीज भ्राता!!#
दिनेश गोरखपुरी द्वारा ईमानदार संकल्प सकारात्मक सोच एवं सार्थक उद्देश्य कि अवधारणा पर कर्म फल को प्रस्तुत विश्वास के साथ किया गया है कि समय समाज वर्तमान उनकी मंशा निष्ठां को परखेगा समझेगा और आचरण कि सामजिक उत्पत्ति के शांखनाद के शब्द स्वर को ॐ के सत्यार्थ रूप मे प्रस्तुत करेगा और विकृत हो रहे समाज मे संस्कार संस्कृति का आवाहन करेगा और सनातन कि वास्तविकता को अंगीकार कर आचरण प्रस्तुत करेगा लेखक कवि दिनेश गोरखपुरी जी कि मंशा सामयिक समाज सुधारक बनने कि नही है वल्की समाज मे सृष्टिगत मूल्यों
के ईश्वरीय मूल्यों सिद्धांतो के अनुसार आत्म साथ करेगा और संस्कारिक समाज राष्ट्र समय का निर्माण करेगा लेखक कवि दिनेश गोरखपुरी जी का मार्गदर्शन ख्याति लब्ध विद्वान दार्शनिक डॉ उपेंद्र प्रसाद जी के सारगर्भित सकारात्मक दृष्टि दिशा दृष्टिकोण के सानिध्य मे कर्म फल प्रासंगिक प्रभावी एवं परिणाम कि आशा विश्वास को स्पष्ट संकेत देता है!
कर्मफल गोस्वामी तुलसी दास जी कि धैर्य धर्म धारा है तो कुरुक्षेत्र मे नर अर्जुन और स्वंय नारायण भगवान श्री कृष्ण के श्री मुख के सवाद कि गीता है!!
कर्म फल के द्वितीय खंड मे आरती एवं भजनो का बहुत सुन्दर संकलन निर्विवाद निर्विरोध निर्विकार निश्छल निश्चित निर्मल अविरल भाव से किया गया है और पूरी ईमानदारी से प्रयास किया गया है कि कर्म फल सनातन कि वास्तविक पृष्ठ भूमि पर आम जन के मन मस्तिष्क को प्रभावित करती हुई आचरण कि चेतन सक्रियता का त्वरण उतप्रेरक बने मन कि सच्चाई शाश्वत संकल्प कि निर्मलता एवं नीति नियत कि स्पष्टता कि दिशा दृष्टि डॉ उपेंद्र जी का कर्मफल को पूर्णता प्रदान करता है और जन मानस को प्रभावित कर उन्हें सत्य सनातन के अस्तित्व आचरण को प्रेरित करता है
#आरती कीजे प्रभु निराकार कि
कर्म प्रधान विधि विधान कि #
#सत्य अहिंशा का मार्ग अनुपा
अहंकार द्वारा है पाप का कूपा
दया रूप तेरे द्वार है जाता
सद कर्म कर नर तुझे है पता!!#
कण कण मे व्यापी ब्रह्म ईश्वर को निराकार स्वरूप मे निरुपित करते हुए कर्म फल कि प्रस्तावना से प्रस्तुति तक बोध सत्य का पल प्रहर नित्य प्रभा प्रवाह है कर्मफल
कर्म फल मे चार महत्वपूर्ण भजन भी संकलित है प्रथम भजन मे मनव परमात्मा से उनकी सृष्टि दृष्टि अनुरूप बनने कि शक्ति क्षमता कि याचना है जो मर्म स्पर्शी एवं धर्म ग्राही है --
#मोह माया मे ना उलझ संकु
ना तुझ पर कभी अविश्वास करू
तेरी भक्ति सदा मै समझ संकु
ऐसी बुद्धि सदा निःस्वार्थ करू!!#
दूसरा भजन निराकार को नटवर स्वरूप मे निरुपित करते हुए लेखक कवि दिनेश गोरखपुरी जी ने हृदयस्पनदित करती हुई एवं काया कि अचेतन सत्ता को झकझोरती परमात्मा आत्मा धर्म कर्म का स्वर सम्राज्य प्रतिबिबित परिलक्षित करती है ---
#रात से दिन का भाव सच है
कैसे यह बात बताऊ मै
असत्य से सच भाव बना है
जन जन को अब समझाऊ मै!!#
#मन का भार हटा दे नटवर
दराश जन जन मे तू करा कर #
तीसरे चौथे एवं पांचवे भजन मे मनव काया हेतु परमात्मा का अभिनंदन और कृतज्ञता है कर्मफल कि सकारात्मकता का शासक्त पहलू मनव काया है जो कर्म के लिए केंद्रीय सत्ता है शांति के लिए उपकार है और कर्म भाव के लिए अवनी अंगीकार है हनुमान जी को परमात्मा के मार्ग पथ प्रदर्शक के स्वरूप मे निरुपित कर कर्म फल के रुद्रांश जीवन समाज समय को समझने समझाने का शांत चित्त जागरण जागृति है जो कर्मफल के उद्देश्य को प्रमाणित करती है कर्म फल के द्वितीय खंड आरती और भजन का अंतिम पांचवा भजन माटी और कुम्हार काया कि माया महिमा निर्माण को ब्रह्म सत्ता ब्रह्मा को प्रज़ापती को ऊधृत है
कर्म फल का शुभारंम भी नश्वर संसार के भौतिक अस्तित्व के साथ कि गयी है एवं सृष्टि निर्माण
उद्देश्य महाप्रलय पृथ्वी कि अवधरणा जीव जन्म अस्तित्व आदि से प्रवाहित कर्म धर्म शांति मोक्ष पथ कि प्रमाणिक प्रस्तुति है
कर्मफल --
#जो मूर्ति का आकर भरे
बन जाऊं मै तभी भगवान
मेरी पूजा जग करे करू मै
सकल जगत कल्याण!#
#माटी कहे कुम्हार से
करो यहाँ तुम अपना कार्य
मेरे बस कर्म अनुसार से
मेरी रचो वैसी आकर!!#
कर्म फल के द्वितीय खंड मे आरती एवं भजनो का बहुत सुन्दर संकलन निर्विवाद निर्विरोध निर्विकार निश्छल निश्चित निर्मल अविरल भाव से किया गया है और पूरी ईमानदारी से प्रयास किया गया है कि कर्म फल सनातन कि वास्तविक पृष्ठ भूमि पर आम जन के मन मस्तिष्क को प्रभावित करती हुई आचरण कि चेतन सक्रियता का त्वरण उतप्रेरक बने मन कि सच्चाई शाश्वत संकल्प कि निर्मलता एवं नीति नियत कि स्पष्टता कि दिशा दृष्टि डॉ उपेंद्र जी का कर्मफल को पूर्णता प्रदान करता है और जन मानस को प्रभावित कर उन्हें सत्य सनातन के अस्तित्व आचरण को प्रेरित करता है
#आरती कीजे प्रभु निराकार कि
कर्म प्रधान विधि विधान कि #
#सत्य अहिंशा का मार्ग अनुपा
अहंकार द्वारा है पाप का कूपा
दया रूप तेरे द्वार है जाता
सद कर्म कर नर तुझे है पता!!#
कण कण मे व्यापी ब्रह्म ईश्वर को निराकार स्वरूप मे निरुपित करते हुए कर्म फल कि प्रस्तावना से प्रस्तुति तक बोध सत्य का पल प्रहर नित्य प्रभा प्रवाह है कर्मफल
कर्म फल मे चार महत्वपूर्ण भजन भी संकलित है प्रथम भजन मे मनव परमात्मा से उनकी सृष्टि दृष्टि अनुरूप बनने कि शक्ति क्षमता कि याचना है जो मर्म स्पर्शी एवं धर्म ग्राही है --
#मोह माया मे ना उलझ संकु
ना तुझ पर कभी अविश्वास करू
तेरी भक्ति सदा मै समझ संकु
ऐसी बुद्धि सदा निःस्वार्थ करू!!#
दूसरा भजन निराकार को नटवर स्वरूप मे निरुपित करते हुए लेखक कवि दिनेश गोरखपुरी जी ने हृदयस्पनदित करती हुई एवं काया कि अचेतन सत्ता को झकझोरती परमात्मा आत्मा धर्म कर्म का स्वर सम्राज्य प्रतिबिबित परिलक्षित करती है ---
#रात से दिन का भाव सच है
कैसे यह बात बताऊ मै
असत्य से सच भाव बना है
जन जन को अब समझाऊ मै!!#
#मन का भार हटा दे नटवर
दराश जन जन मे तू करा कर #
तीसरे चौथे एवं पांचवे भजन मे मनव काया हेतु परमात्मा का अभिनंदन और कृतज्ञता है कर्मफल कि सकारात्मकता का शासक्त पहलू मनव काया है जो कर्म के लिए केंद्रीय सत्ता है शांति के लिए उपकार है और कर्म भाव के लिए अवनी अंगीकार है हनुमान जी को परमात्मा के मार्ग पथ प्रदर्शक के स्वरूप मे निरुपित कर कर्म फल के रुद्रांश जीवन समाज समय को समझने समझाने का शांत चित्त जागरण जागृति है जो कर्मफल के उद्देश्य को प्रमाणित करती है कर्म फल के द्वितीय खंड आरती और भजन का अंतिम पांचवा भजन माटी और कुम्हार काया कि माया महिमा निर्माण को ब्रह्म सत्ता ब्रह्मा को प्रज़ापती को ऊधृत है
कर्म फल का शुभारंम भी नश्वर संसार के भौतिक अस्तित्व के साथ कि गयी है एवं सृष्टि निर्माण
उद्देश्य महाप्रलय पृथ्वी कि अवधरणा जीव जन्म अस्तित्व आदि से प्रवाहित कर्म धर्म शांति मोक्ष पथ कि प्रमाणिक प्रस्तुति है
कर्मफल --
#जो मूर्ति का आकर भरे
बन जाऊं मै तभी भगवान
मेरी पूजा जग करे करू मै
सकल जगत कल्याण!#
#माटी कहे कुम्हार से
करो यहाँ तुम अपना कार्य
मेरे बस कर्म अनुसार से
मेरी रचो वैसी आकर!!#