दस कहानियां:_ संतोष चौबे
एक अंडररेटेड कथाकार, कवि
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बहुत समय से मैं सोचता था, चूंकि प्रचलन में था, की कवि, लेखक को गरीब, अभावों और सौ तकलीफों में क्यों होना चाहिए? क्या उसके पास बुद्धि, योग्यता, क्षमता नहीं? क्या विकास और उत्थान करने का उसका हक नहीं? लेकिन एक खास विचारधारा, गुट के लोग बार बार यही स्थापित करते। इतना हास्यास्पद हो गया कि आईएएस, डायरेक्टर, डॉक्टर, प्रोफेसर, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में लाखों की तनख्वाह आदि भी अपने आपको गांव, कस्बे, अभाव का बताने लगे। फैशन बन गया। उनकी दोयम से भी नीचे दर्जे की रचनाएं गले नहीं उतरे पर वह आसमान में। हालांकि परिदृश्य बदला और उनकी उड़ानों को अंकुश लगा।
इसके उलट ऐसे कथाकार और लेखक हैं जो यथार्थवादी और अपनी मेधा, संस्कारों पर डटे रहने वाले रहे। भले ही वह गिनती में कम हैं पर हैं... प्रेम जनमेजय, हेतु भारद्वाज, गिरीश पंकज, विकास दवे, विमला भंडारी, नीलिमा टिक्कू, तेजेंदर शर्मा, अरुण तिवारी, दामोदर खडसे और संतोष चौबे।
इनकी कहानियों से गुजरते हुए लगता है आप उन दृश्यों और घटनाओं के साक्षी हैं। आधुनिक समय की चुनौतियां और उनसे जूझते, राह बनाते संवेदनशील पात्रों की दस कहानियां हैं। जिनमें प्रौद्योगिकी, तकनीक, काम का दबाब और अपनी बुद्धि के इस्तेमाल से उससे निकलते मनुष्य की जिजीविषा है। विषयों की विविधता और सूक्ष्म मनोविज्ञान को पकड़ने का ढंग चकित करता है। "सूर्यास्त" में ऐसे लोग हैं जो हमेशा अपनी हबड़ तबड़ में रहते हैं और प्रकृति के वरदानों को चूक जाते हैं। राम कुमार का एक दिन कहानी में किस तरह साहित्यिक समारोह में कोई भी वक्ता बुलाकर खानापूर्ति की जाती है।
संग्रह की दो कहानियां अपने कथ्य, शिल्प की डीटेलिंग और भावों के संतुलन से बेहतरीन श्रेणी की हैं। "मगर शेक्सपियर को याद रखना" में प्रख्यात रंगकर्मी है जो आदिवासियों से अभिनय करवाकर लोक संस्कृति को समाज की मुख्य धारा से जोड़ रहे हैं। उनके पूर्णतावादी स्वभाव, मूडीपने से आयोजक और संस्कृतिप्रेमी इंसान की जद्दोजहद को कहानी बखूबी उभारती है। "नौ बिंदुओं का खेल" कहानी के माध्यम से एक बहुत गूढ़ रहस्य लेखक बारीकी से खोलता है। कैसे हर राज्य में हजारों लाखों करोड़ के उद्योग धंधे लगाने के अनुबंध तो होते हैं पर हकीकत में बहुत कम लगते हैं। किस तरह पुरानी मशीनों को चमकाकर विदेश से आयात चार गुने दाम में किया जाता है। बैंक से अरबों का लोन लेकर उसमें से अपना कई गुना मुनाफा निकालकर दो चार साल बाद फैक्ट्री घाटे में दिखा, बंद करके सारा पैसा हजम। बैंक मशीनें जब्त कर लेता है पर उससे कुछ नहीं होता। इस बारीकी में जाने वाली संभवतः यह पहली कहानी है। यह सशक्त कहानी संतोष चौबे की रेंज और ईमानदारी को बताती है। यही ईमानदारी ही एक लेखक, संवेदनशील मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है।
किस तरह लोग चालाकी से दूसरों का इस्तेमाल करते हैं यह बात इस कहानी में उभरकर सामने आती है।
लेखकीय नवाचार
------------- मैं यह जरूर देखता हूं कि लेखक सीमित विषयों के बाद भी कितने नए प्रयोग करता है, कितना शिल्प और भाषा पर ध्यान देता है। इस सबका असर कथा कहन पर पड़ता है। वह रचना पाठकों को बांधकर रखती है और लेखक को मजबूती प्रदान करती है।
इस प्रतिनिधि संग्रह की कई कहानियों में कथ्य की विविधता और भाषा के नए प्रयोग उपस्थित हैं। यह बताते हैं कि कहानी के लिए लेखक ने पर्याप्त तैयारी और अनुभव जमा किए हैं। फिर चाहे नाट्य निर्देशक और संस्कृतिकर्मी की सोच, व्यवहार और उसके हालात को दर्शाने का हुनर हो अथवा छोटे शहर की गलियों और लोगों के व्यवहार का विश्लेषण हो, सभी में पर्याप्त मेहनत झलकती है। कुछ जगह व्यंग्यात्मक कटाक्ष बरबस ही चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। जैसे जीप से सूर्यास्त देखने जाते दंपत्ति द्वारा अजनबी परिवार को सहयोग करना पर उस परिवार का नाशुक्रा होना। फिर सूर्यास्त देखकर उनका कहना, " यह भी कोई सूर्यास्त है? ऐसा तो हमारे शहर में रोज होता है।" बहुत गहरा व्यंग्य रचता है लोगों की मानसिकता और सोच पर। किस तरह हम छोटे छोटे स्वार्थों और अपनी क्षुद्र सोच के कारण बड़े खूबसूरत, खुशी के पलों को निर्ममता से कत्ल कर देते हैं। लेखक की कलम और सोच उन सूक्ष्म मनोविज्ञान और इगो, सुपर इगो को पकड़ती है जिस पर जानकर कुछ लेखक नहीं जाते। क्योंकि वह दो तरफा लाभ सोचते हैं। यह नहीं सोचते कि साहित्य, सत्य और मानवता की तरफ खड़े नजर आएँ?
गरीब नवाज, नौ बिंदुओं का खेल, लेखक बनाने वाले ऐसी ही दिलचस्प परंतु सीधे मार करने वाल, परिस्थितियों और उसमें मनुष्य के व्यवहार का बड़ा ही बारीक चित्रण करने वाली कहानियां हैं। "गरीब नवाज" में जिस कुशलता से एक सोफिस्टिकेटेड ऑफिस के मालिक द्वारा पास लगे ठेले से एतराज जताने के घटनाक्रम को कहा है वह कथ्य की बुनावट और शिल्प के संतुलित प्रयोग का अच्छा उद्धरण है। लेखक बराबरी से वंचित वर्ग और उसका एंटीवर्सन की कारगुज़ारी सामने लाता है। वहीं मालिक का भी अपने को शक्तिवान समझने का भ्रम दरकता है।
शिल्प का जादुई अहसास
------------------- बहुत से नवोदित और कुछ उनसे एक सीढ़ी ऊपर खड़े लेखक अक्सर पूछते हैं शिल्प और डीटेलिंग का कहानी, उपन्यास में क्या महत्व है? उसे कैसे समझें और जाने? इस पर द्विवेदी जी तो अपनी पुस्तकों, खासकर ललित निबंध में कहते दिखते हैं, " रचना का सौंदर्य शास्त्र मुख्यत उसके परिवेश, भाषा और बारीकी से जुड़ा है। और वह भी सब संतुलित मात्रा में हो। जरा सा संतुलन बिगड़ा आपकी रचना वहीं कमजोर हो जाएगी।" कितने लोग समझते और मानते हैं? उंगलियों पर गिनने लायक। कुछ तो ऐसे स्वनाम धन्य लेखक, प्रकाशक हैं जिनकी कहानियों में परिवेश ही परिवेश है या उबाऊ डीटेलिंग बस। मानो खानापूर्ति कर रहे। पहला पैराग्राफ पढ़कर ही पाठक छोड़ देता है पढ़ना। ऐसे में यह वास्तव में अच्छी और निसंदेह लंबी साधना से प्राप्त कौशल है कि इन तत्वों का संतुलन संग्रह की अधिकांश कहानियों में है। एक उद्धरण देखें,
" सतह पर तैरती उदासी" कहानी जो लंबे समय तक याद रखी जाएगी। शिल्प, भाषा की तरलता और उसके साथ जोड़ता है लेखक भावनाएं जो दिख नहीं रही पर शब्दों के मध्य महसूस होती हैं। कहानी शुरू होती है छोटे शहर में कागज की बड़ी फैक्ट्री, बहुत सी कोयला खदाने, उनके हजारों कर्मचारी, अफसर। फिर छोटे नगर के बाजार के दोनों तरफ की हर तरह की दुकानों, ठेलों की वस्तुएं सस्ते लठ्ठे (इसका अर्थ तो हिंदी के हर व्यक्ति को आना ही चाहिए) के गट्ठर से लेकर चाट पकौड़ी, सब्जी भाजी, खिलौने से लेकर सस्ते सजावटी सामान, कुछ रह गया तो ढाबेनुमा रेस्तरां और कस्बे का श्याम टॉकीज भी यहां मौजूद है। घर की खरीदारी के बाद कुछ बाजार में खा पीकर टॉकीज में फिल्म देखना, यही आम भारतीय की जिंदगी की खुशियां हैं, जिनकी यादें हम सभी के अंदर आज भी व्याप्त हैं। साप्ताहिक हाट बाजार और उसमें होने वाले छोटे मोटे झगड़े, फिर आपसी पहचान से सुलझना।सभी का ऐसा भरोसेमंद चित्रण जो आश्वस्त करता है कि लेखक इन सब जगह मौजूद था। फिर जो जादू जगाया जाता है वह यह की छोटे स्टेशन पर सभी स्टेशन मास्टर को जानते। ट्रेन सीमा में घुसते ही केमिकल की महक, दूर दिखता पहाड़ी पर प्राचीन मंदिर और उसके नीचे शहर के मिलों और घरों की गंदगी का ढेर। लगता है मेरे आपके ही बचपन के शहरों की बात हो रही। यह शिल्प और डीटेलिंग का जादू इस पैंतीस पृष्ठ की कहानी में आगे भी जारी रहता है। किस तरह नायक की पत्नी का यह शहर है। इक्कीसवीं सदी में भी बारात तीन दिन तक रही थी। किस तरह शहर आने से चार घंटे पूर्व ही बरातियों की खातिरदारी के लिए लड़की वाले बिलासपुर स्टेशन पहुंचते हैं।यह सजीव चित्रण मन को गुदगुदाता है। आगे कहानी मानवीय नाजुक लम्हों और एहसासों की यात्रा पर निकल जाती है। जिसे हम सभी ने जिया और महसूस किया है। इसके साथ यह कहानी एक नायब उद्धरण बन जाती है शिल्प, कथ्य की सजीवता और उसके पाठकों पर प्रभाव का। जगन्नाथ पुरी के शिल्प और ऐतिहासिक तथ्यों का सजीव वर्णन लेखक की मेहनत और रिसर्च को बताता है।ब्लेक पैगोडा जगन्नाथ पुरी मंदिर तो द्वारका पुरी व्हाइट पैगोडा नाम पुर्तगालियों ने दिए। साथ ही स्तूप और दस अलग अलग प्रतीकों का अर्थ सहजता से समझा देता है कि गंभीर साहित्य लेखन कितनी मेहनत की मांग करता है। अंत में विकास और प्रगति का दानव किस तरह हमें रौंदता जा रहा है इसके सजीव चित्रण पर कथा ओपन एंड पर रुकती है। बेजोड़ रचना। साहित्यकार बनाए जाते हैं पूरी योजना और पैकेज के साथ में यह व्यंग्य बड़ा अच्छा है कि यदि आप किसी गांव, खंडिया, बेलापुर, बेतिया, दरभंगा अपने पते में लिखते हैं तो पत्रिकाओं के संपादक जरूर आपको छापेंगे। नाम बदल लो तो क्या ही कहने!!अच्छा, मारक व्यंग्य है।
दस में से तीन कहानियां कमजोर हैं। इस अर्थ में की कथ्य विस्तार नहीं पा सका और जल्द कहानी खत्म।फिर भी ठीक है। भाषा कमजोर थी और आगे कुछ नहीं था तो खत्म की कहानी खींची नहीं। अभी अभी आया ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास "तानाशाह की प्रेमकथा" पढ़ सकें पौने चार सौ में से बीस पृष्ट भी तो समझ जाएंगे रबर से भी अधिक लंबा किस तरह खींचा जा रहा है साहित्य की गुलेल को।डर है कहीं टूट गई तो खुद को ही चोट न लग जाए।
दूसरी कमी कहें या ताकत वह है भाषा। जिसमें स्वाभाविकता और अपने धरातल पर खड़े होने की मजबूती है। पर हर पात्र तो एक जैसी बोली नहीं बोलेगा? इस पर थोड़ा काम करने की जरूरत है। लोक भाषा कुछ जगह होती तो रंग और खिलते। खासकर उन्हीं के मध्य के पात्रों में।
लेखक फक्कड़ी से चदरिया धरदी री झीनी बीनी राह पर निकल जाता है। फिर भले ही कुछ घटनाक्रम में खुद की भी आलोचना हो, संतोष चौबे उसकी परवाह नहीं करते। अपनी कमियों पर भी नजर रखना और उन्हें कुबूलना आसान काम नहीं। खासकर तब जब अधिकतर ऐसी ईमानदारी से कार्य नहीं कर रहे। ऊपर से बाकायदा चौकन्ना और नपा तुला बोल रहे, लेखन की जगह चाटुकारिता कर रहे। साफ कहूं तो अपने अपने स्वार्थ और लाभ के लिए अपने नाम को कैश करने की पुरजोर कोशिश कर रहे।यह अलग बात है कि सफल नहीं हो पा रहे।क्योंकि दूसरा चालाक इंसान पहले ही वहां बैठा हुआ।
ऐसे में लेखक का अंडर रेटेड और निरंतर कड़ी मेहनत से अच्छा लिखने की लगन और कहानी के सभी गंभीर और जरूरी तत्वों को लेकर सर्जन करना प्रशंसनीय है। अंडर रेटेड इस अर्थ में भी की जहां लोग एक दो कहानी लिखकर दिल्ली के मठाधीशों की चरण वन्दना करके अपना नाम कथाकार के रूप में दर्ज कराने के लिए हर जगह सोशल साइट्स, सभा, गोष्ठियों में मौजूदगी दर्ज करते दिखते हैं परंतु तीसरी या चौथी कहानी से ही वापस गिरकर गुमनाम हो जाते हैं। वहीं लेखक जिजीविषा, संयम, अद्भुत रोचक शब्दावली, तेज घटनाक्रम और सबसे बढ़कर ईमानदारी के साथ इन बेहतरीन कहानियों को रचता है और हिंदी साहित्य जगत में अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराने में सफल होता है।
कहानी, किस्सागोई किसे कहते हैं, यह दस कहानियां पुस्तक से सीखा जा सकता है। आईसेक्ट प्रकाशन, भोपाल द्वारा प्रकाशित यह संग्रह अच्छी, त्रुटिहीन छपाई के साथ है। मुझे अच्छा लगा कि दो सौ पृष्ठों के बेहद पठनीय संग्रह को सभी पढ़ सकें, इसके लिए मूल्य मात्र डेढ़ सौ रुपए रखा गया है। कहानी क्या और कैसी होती है इसे समझने लिए जरूरी और पठनीय कथा संग्रह।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक और मोटिवेशनल स्पीकर, राजस्थान, 7737407061, 8279272900)