last train of the night in Hindi Spiritual Stories by Sai Sesya books and stories PDF | रात की आखिरी ट्रेन

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रात की आखिरी ट्रेन




चांदनी रात की ठंडी फिज़ा में तारा स्टेशन की खामोशी सुन रही थी। चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था और हवाएँ हल्की-हल्की सरसराकर वातावरण को ठंडा कर रही थीं। खेतों की ओस चाँदनी की रोशनी में चमक रही थी, मानो प्रकृति रात के इस पल में जिंदा हो। दूरिहटी रेल पटरी पर लाल-बत्ती वाला सिग्नल हल्का सा झिलमिला रहा था, जैसे रात की आखिरी ट्रेन का आने का इंतज़ार कर रहा हो।

तारा, जो साहसी और जिज्ञासु प्रवृत्ति की लड़की थी, उस सुनसान स्टेशन पर खड़ी थी। शहर की भीड़-भाड़ और विश्वविद्यालय की पढ़ाई से दूर, उसकी आत्मा को यह लंबी और खाली रात ठहरी हुई लग रही थी। चारों तरफ न कोई दुकान थी, न राहगीर—बस बदली हुई उदासी और चांदनी के बिखरे हुए टुकड़े थे। उसे बचपन की याद आई कि कैसे इसी प्लेटफ़ॉर्म पर उसने अपने करीबी दोस्त करण के साथ ट्रेन की घंटी सुनने का आनंद लिया था। करण हमेशा ट्रेन की सीटी सुनते ही मुस्कुरा देता था और उसकी बचपने की मासूम हँसी सन्नाटे में गूंज उठती थी। अचानक, दस साल पहले…

तारा ने अपने आस-पास देखा। दूर अँधेरे में कभी-कभार अजीब-सी परछाइयाँ चलने लगती थीं—पेड़ों की हल्की पत्तियाँ हवाओं में सरसराकर अपना रूप बदल लेती थीं। चारों तरफ कहीं कोई आवाज नहीं थी, सिवाय दूर फैली ट्रेन की पटरी पर लाल-बत्ती की मद्धम झिलमिलाहट की आहट के। स्टेशन का सन्नाटा इतना गहरा था कि उसने अपनी हाँफती साँस की गूँज भी सुनी। स्टेशन की टिमटिमाती लाइट की हल्की रोशनी में रेत की मिट्टी की महक उठ रही थी, मानो पहाड़ों में कहीं किसी पुजारी की धूप की लकड़ियाँ जल रही हों।

थोड़ी ही देर बाद पीली लाइटों से जगमगाती एक रेलगाड़ी दूर से झलकने लगी। ट्रेन की पुरानी घंटी ने सुस्ती से एक बार धीमी सी धुन छोड़ी, जो हवा में घुलकर तारा के कानों तक पहुँच गई। उसकी धीमी-धीमी प्रस्थान की आवाज़ में मानो कोई अजीब, अधूरा संगीत छुपा हुआ हो—एक रहस्यमयी तान जो स्टेशन की खामोशी को चीरते हुए उसके भीतर गूँज रहा था। जैसे ही रेलगाड़ी स्टेशन की सीमा में आई, चांदनी में चमकती उसकी भव्यता तारा की आँखों को चकाचौंध कर गई।

पर सामान्य ट्रेनों से इस रेल की उम्र-ओ-शैली में कुछ अजीब था—पुरानी लकड़ी की बोगियाँ, जंग लगा हुआ स्टील की रेलिंग, और धूल-मिट्टी से भरे फटे हुए पर्दे थे। डिब्बों की खिड़कियाँ धँधली थीं, ऊपर लगे दीपक की कांचियाँ मुरझा चुकी थीं। ट्रेन की घंटी बार-बार घोंघनी की तरह गूँज रही थी, और धुंध की चादर में उसका स्वर और भी अस्पष्ट हो रहा था, मानो कोई पुरानी याद फिर से जाग उठी हो। धीरे-धीरे ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म की सीमा में आकर रुक गई।

तारा ने दिल की धड़कन तेज़ हो जाने के बावजूद साहस दिखाया। उसने गहरी साँस ली और अदम्य जिज्ञासावश उस अंतिम ट्रेन में कदम रख दिया। जैसे ही उसने डिब्बे में प्रवेश किया, अँधेरे ने उसे अपने घेरे में ले लिया। पुरानी बोगी की हवा में पुराने कपड़ों की सुगंध और मिट्टी की मीठी खुशबू घुली हुई थी। सन्नाटे में कहीं पुरानी कोयले की राख की महक थी, मानो यह डिब्बा समय में ठिठक गया हो। तारा की हाँफती साँसों ने खामोशी को तोड़ा—उसके दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो गई थी कि पूरा डिब्बा उसकी धड़कनों को गूँजाता हुआ महसूस हो रहा था।

उसने बोगी की एक कोने वाली सीट पर अपना सामान रखा और पैरों को फैलाया। तभी उसकी नज़र बगल की सीट पर पड़ी—वहाँ एक पुराना बट्टा पड़ा हुआ था, जिस पर तितलियों के चित्र बने थे। यह वही बट्टा था जिसे उसने बचपन में दादा जी के घर पर देखा था। तितलियों की छवियाँ फीकी पड़ चुकी थीं, पर जैसे ही तारा की आँखें उनमें टिकीं, वे अचानक मचल उठीं—जैसे इनमें कोई पुरानी कहानी छुपी हो। तितलियों के चित्रों से सरसराहट-सी आवाज़ आई, "क्यों रुकी हो..." तारा कांप उठी, वह घबरा कर खिड़की से बाहर झाँकी—लेकिन वहाँ सिर्फ अँधेरा दिखा।

उसी क्षण ट्रेन ने जोर का झटका लिया और तेजी पकड़ ली। तारा संतुलन खो बैठी, लेकिन एक सीट के सहारे खुद को सँभाला। उसके कानों में एक सरसराहट गूँजी—"जाओ, जाने दो..." यह आवाज़ इस बार और भी तेज़ थी, मानो किसी ने उसके इर्द-गिर्द हवा फूंक दी हो। उसका रक्त कड़क गया, पर इस बार वह समझ चुकी थी कि यह आवाज़ उसकी अपनी ही आंतरिक आवाज़ थी—जिसमें बचपन की उसकी मासूम सच्चाई और डर दोनों बसी थीं। खिड़की से बाहर दिख रहा प्लेटफ़ॉर्म छिटकता जा रहा था, पर तारा का ध्यान चारों ओर फैली खामोशी में स्थिर रह गया।

कुछ ही देर बाद ट्रेन ने धीमी रफ़्तार पकड़ी और एक छोटे उजाड़े स्टेशन पर रुक गई। ज्यों ही ट्रेन रोकी, तारा ने हिम्मत बटोरकर बाहर कदम रखा। सामने एक खंडहर जैसी बिल्डिंग थी, ठीक सामने लगे बोर्ड पर 'विरानपुर' अक्षर बड़े साफ़ दिख रहे थे। चारों तरफ गहरा अँधेरा था, मानो आसपास सब कुछ सो गया हो। प्लेटफ़ॉर्म की ठंडी चट्टान जैसी सतह और हवा की एक हल्की लहर ने फिर से तारे को सँभाला। उसने फिर देखा—ट्रेन की पीली बत्तियाँ दूर तक पसर रही थीं, ठीक वैसी ही जैसे अभी-अभी रुकने से पहले थीं।

विरानपुर स्टेशन पर न कोई कर्मचारी, न यात्री था। पुरानी लौह पटरी के किनारे जंग लगी थी, घास उग आई थी, और एक टूटा-बेचा बेंच पड़ा हुआ था, जिस पर शायद कभी यात्रियों ने बैठे-बैठे चाय पी थी। स्टेशन बिल्डिंग की दीवारें जंग खाई पेंट की थीं और खिड़कियाँ टूटी पड़ी थीं। ऊपर से बारिश की बूँदें टपक रही थीं, मानो अभी-अभी कहीं छत से कुछ पानी रिस रहा हो। दूर पहाड़ियों की ओर काली घटाएँ मुकम्मल चादर सी फैली थीं, मानो किसी ने समूचे आसमान पर रजाई ओढ़ रखी हो। बस एक चिड़िया थी जो कहीं दूर एक खूँटी पर बैठकर चोंच मिट्टी में सरका रही थी। चारों ओर ऐसी भयानक खामोशी थी कि तारा को अपने सीने की धड़कनों की गूँज भी सुनाई देने लगी।

सिर झुका कर उसने चाँद-तारों को नहीं देखा, सिवाय दूर रेल पटरी पर लाल-बत्ती की मद्धम झिलमिलाहट के। फिर ट्रेन की एक बार फिर सीटी गूँजी। इस आवाज़ ने तारे की नींद उड़ेल दी—वह औंधी-देख रही थी कि स्टेशन पर वही बत्तियाँ फिर से पीछा करती हुई दूर तक बढ़ती जा रही हैं। उस पल उसकी आँख खुल गई—तभी उसे महसूस हुआ कि चारों ओर सब कुछ पहली बार जैसा ही है। स्टेशन वैसा ही वीरान था, हवाएँ वैसी ही शांत थीं। बस ट्रेन वापस आने को आतुर थी।

ट्रेन की घंटी दोबारा गूँज उठी। एक लंबी सांस लेकर तारा फिर से प्लेटफ़ॉर्म की ओर मुड़ी—उसका मन अब आग की लपट की तरह जल उठा था। उसने हिम्मत जुटाई और आखिरी ट्रेन में कदम रख दिया। इस बार उसने डरकर पीछे हटने का नाम तक नहीं लिया। ट्रेन की बोगी वैसी ही खाली थी, धुँध से भीगी-सी थी। उसने बेंच पर रखा वह पुराना बट्टा देखा—जैसा पहले था वैसा ही, तितलियाँ अब भी डैम्प थीं। धुएँ से भरपूर दीपक की उजली रोशनी में तितलियों के चित्र ज्यों के त्यों थे।

जैसे ही ट्रेन रवाना हुई, पिछले डिब्बे से हल्की आवाज़ आई। तारा पलटी और देखा—पिछली बोगी के कोने में एक छोटा लड़का खड़ा था। सफेद कुर्ता-पाजामा पहने वह लड़का, हाथ में एक छूटा हुआ बस्ता लिए, सामने वाली सीट के कोने में ठिठका था। उसकी आँखों में अजीब-सी चमक थी, उम्र से परे एक समझदारी। "तुम मुझे नहीं पहचान पा रही हो, तारा?" उसने धीरे से पूछा। तारा स्तब्ध रह गई। पसीना सूखे गालों पर बह निकला। "करण... तुम?" उसकी आवाज़ लड़खड़ा उठी। लड़के की मुस्कराहट फूट पड़ी, "हाँ, मैं करण ही हूँ," उसने सहमा कर कहा।

तारा का दिल जोर से धड़क उठा। हवा ठहरी-सी हो गई। "तुमने मुझे छोड़ दिया था," करण बोला, उसकी आँखों में दर्द था, "और उसके बाद से मैं यहीं भटक रहा था, तुम्हारा इंतजार करते-करते।" तारा की आँखों में आँसू भर आए। "तुम्हारा इंतजार करते-करते मेरी दुनिया थम गई थी," उसने धीरे से कहा, "मैं इस चक्र में क्यों फँसी हूँ?" करण ने हल्का सा सिर हिलाया, "शायद तुम्हारी वजह से, और शायद तुम्हारी वजह से ही अब चक्र टूटने को है।" उसकी आँखों में राहत की चमक थी।

तारा ने सिर झुका लिया। "मुझे माफ़ कर दो, करण... मुझे गलतफहमी थी, मुझे यकीन नहीं था कि मैं तुम्हें फिर पा सकूँगी..." उसकी आवाज़ टूट रही थी। करण ने मुस्कुराते हुए कहा, "अब तुम वापस जा सकती हो, तारा।" यह सुनकर तारा चौंकी, "लेकिन मैं... मैं तुम्हें यहाँ कैसे छोड़ सकती हूँ?" उसकी आवाज़ कांप रही थी। उसने लड़खड़ाती साँसों को महसूस किया, पर फिर भी तारा ने पुराने दोस्त को गले लगाना चाहा।

वह खुद को काबू में रखते हुए पूछा, "मैं अब कहां जाऊँ? क्या तुम मुझे अभी भी देख रहे हो?" उसकी आँखों में हल्की सी उम्मीद थी। करण ने मुस्कुराकर कहा, "तुम्हारी मंज़िल वहीं है जहाँ से तुम आई थी।" करण ने आँखें नम की और धीरे से कहा, "मुझे तुम्हारी याद रहती रही... पर अब तुम जा सकती हो। हमें दोनों को आगे बढ़ना है।" उसकी आवाज़ में सुकून था। तब उसने देखा कि प्लेटफ़ॉर्म पर सूर्योदय की रश्मियाँ फैलने लगी थीं, धुंध हल्की पड़ गई थी। तारे ने सुना—ट्रेन की चरमराती ध्वनि अब धीमी पड़ चुकी थी। चारों ओर उजाला फैल गया था, जैसे किसी ने स्टेशन की सभी अँधेरी यादों को दूर भगा दिया हो।

तारे ने गहरी साँस ली और डिब्बे का दरवाज़ा खोला। बाहर उसने महसूस किया कि सुबह का नज़ारा था—नीला आसमान, सुनहरी रौशनी, और दूर पहाड़ों की चोटियाँ सुनहरे रंग में नहाई हुई थीं। वह कदम बढ़ाकर प्लेटफ़ॉर्म पर उतरी। स्टेशन बिलकुल शांत था, और वही ताजगी उसमें जान भर रही थी। उसने पीछे मुड़कर आखिरी ट्रेन को देखा—पीली रौशनी वाले डिब्बे अब धीरे-धीरे दूर होते जा रहे थे, मानो अँधेरे को छोड़ कर उजाले की ओर भाग रहे हों।

सूरज की पहली किरणों ने स्टेशन को सुनहरा कर दिया था। तारा ने महसूस किया कि रात के सारे डर उजली सुबह के सामने फीके पड़ गए थे। अब वह पूरी तरह आज़ाद थी। उसने अपने आँचल से आँखों की नमी पोंछते हुए धीरे से कहा, "मैं अपनी ज़िन्दगी की नई सुबह का स्वागत करने के लिए तैयार हूँ।" तारा ने गहरी साँस ली और मुस्कुराते हुए घर की ओर बढ़ चली।

उसने मान लिया कि हर रात के बाद एक उजली सुबह होती है। उसके दिल को अब सुकून था—उसने अपने डर और जिज्ञासा दोनों को अपने भीतर छोड़ दिया था। अब तारा जान गई थी कि अँधेरी रातों के बाद भी उजली सुबह आती है, और वह नए सवेरे की ओर पूरी उम्मीद के साथ बढ़ चली। """चांदनी रात की ठंडी फिज़ा में तारा स्टेशन की खामोशी सुन रही थी। चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था और हवाएँ हल्की-हल्की सरसराकर वातावरण को ठंडा कर रही थीं। खेतों की ओस चाँदनी की रोशनी में चमक रही थी, मानो प्रकृति रात के इस पल में जिंदा हो। दूरिहटी रेल पटरी पर लाल-बत्ती वाला सिग्नल हल्का सा झिलमिला रहा था, जैसे रात की आखिरी ट्रेन का आने का इंतज़ार कर रहा हो।

तारा, जो साहसी और जिज्ञासु प्रवृत्ति की लड़की थी, उस सुनसान स्टेशन पर खड़ी थी। शहर की भीड़-भाड़ और विश्वविद्यालय की पढ़ाई से दूर, उसकी आत्मा को यह लंबी और खाली रात ठहरी हुई लग रही थी। चारों तरफ न कोई दुकान थी, न राहगीर—बस बदली हुई उदासी और चांदनी के बिखरे हुए टुकड़े थे। उसे बचपन की याद आई कि कैसे इसी प्लेटफ़ॉर्म पर उसने अपने करीबी दोस्त करण के साथ ट्रेन की घंटी सुनने का आनंद लिया था। करण हमेशा ट्रेन की सीटी सुनते ही मुस्कुरा देता था और उसकी बचपने की मासूम हँसी सन्नाटे में गूंज उठती थी। अचानक, दस साल पहले…

तारा ने अपने आस-पास देखा। दूर अँधेरे में कभी-कभार अजीब-सी परछाइयाँ चलने लगती थीं—पेड़ों की हल्की पत्तियाँ हवाओं में सरसराकर अपना रूप बदल लेती थीं। चारों तरफ कहीं कोई आवाज नहीं थी, सिवाय दूर फैली ट्रेन की पटरी पर लाल-बत्ती की मद्धम झिलमिलाहट की आहट के। स्टेशन का सन्नाटा इतना गहरा था कि उसने अपनी हाँफती साँस की गूँज भी सुनी। स्टेशन की टिमटिमाती लाइट की हल्की रोशनी में रेत की मिट्टी की महक उठ रही थी, मानो पहाड़ों में कहीं किसी पुजारी की धूप की लकड़ियाँ जल रही हों।

थोड़ी ही देर बाद पीली लाइटों से जगमगाती एक रेलगाड़ी दूर से झलकने लगी। ट्रेन की पुरानी घंटी ने सुस्ती से एक बार धीमी सी धुन छोड़ी, जो हवा में घुलकर तारा के कानों तक पहुँच गई। उसकी धीमी-धीमी प्रस्थान की आवाज़ में मानो कोई अजीब, अधूरा संगीत छुपा हुआ हो—एक रहस्यमयी तान जो स्टेशन की खामोशी को चीरते हुए उसके भीतर गूँज रहा था। जैसे ही रेलगाड़ी स्टेशन की सीमा में आई, चांदनी में चमकती उसकी भव्यता तारा की आँखों को चकाचौंध कर गई।

पर सामान्य ट्रेनों से इस रेल की उम्र-ओ-शैली में कुछ अजीब था—पुरानी लकड़ी की बोगियाँ, जंग लगा हुआ स्टील की रेलिंग, और धूल-मिट्टी से भरे फटे हुए पर्दे थे। डिब्बों की खिड़कियाँ धँधली थीं, ऊपर लगे दीपक की कांचियाँ मुरझा चुकी थीं। ट्रेन की घंटी बार-बार घोंघनी की तरह गूँज रही थी, और धुंध की चादर में उसका स्वर और भी अस्पष्ट हो रहा था, मानो कोई पुरानी याद फिर से जाग उठी हो। धीरे-धीरे ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म की सीमा में आकर रुक गई।

तारा ने दिल की धड़कन तेज़ हो जाने के बावजूद साहस दिखाया। उसने गहरी साँस ली और अदम्य जिज्ञासावश उस अंतिम ट्रेन में कदम रख दिया। जैसे ही उसने डिब्बे में प्रवेश किया, अँधेरे ने उसे अपने घेरे में ले लिया। पुरानी बोगी की हवा में पुराने कपड़ों की सुगंध और मिट्टी की मीठी खुशबू घुली हुई थी। सन्नाटे में कहीं पुरानी कोयले की राख की महक थी, मानो यह डिब्बा समय में ठिठक गया हो। तारा की हाँफती साँसों ने खामोशी को तोड़ा—उसके दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो गई थी कि पूरा डिब्बा उसकी धड़कनों को गूँजाता हुआ महसूस हो रहा था।

उसने बोगी की एक कोने वाली सीट पर अपना सामान रखा और पैरों को फैलाया। तभी उसकी नज़र बगल की सीट पर पड़ी—वहाँ एक पुराना बट्टा पड़ा हुआ था, जिस पर तितलियों के चित्र बने थे। यह वही बट्टा था जिसे उसने बचपन में दादा जी के घर पर देखा था। तितलियों की छवियाँ फीकी पड़ चुकी थीं, पर जैसे ही तारा की आँखें उनमें टिकीं, वे अचानक मचल उठीं—जैसे इनमें कोई पुरानी कहानी छुपी हो। तितलियों के चित्रों से सरसराहट-सी आवाज़ आई, "क्यों रुकी हो..." तारा कांप उठी, वह घबरा कर खिड़की से बाहर झाँकी—लेकिन वहाँ सिर्फ अँधेरा दिखा। उसने बेचैनी महसूस की और कसकर बाँहों को मोड़ लिया।

उसी क्षण ट्रेन ने जोर का झटका लिया और तेजी पकड़ ली। तारा संतुलन खो बैठी, लेकिन एक सीट के सहारे खुद को सँभाला। उसके कानों में एक सरसराहट गूँजी—"जाओ, जाने दो..." यह आवाज़ इस बार और भी तेज़ थी, मानो किसी ने उसके इर्द-गिर्द हवा फूंक दी हो। उसका रक्त कड़क गया, पर इस बार वह समझ चुकी थी कि यह आवाज़ उसकी अपनी ही आंतरिक आवाज़ थी—जिसमें बचपन की उसकी मासूम सच्चाई और डर दोनों बसी थीं। खिड़की से बाहर दिख रहा प्लेटफ़ॉर्म छिटकता जा रहा था, पर तारा का ध्यान चारों ओर फैली खामोशी में स्थिर रह गया।

कुछ ही देर बाद ट्रेन ने धीमी रफ़्तार पकड़ी और एक छोटे उजाड़े स्टेशन पर रुक गई। ज्यों ही ट्रेन रोकी, तारा ने हिम्मत बटोरकर बाहर कदम रखा। सामने एक खंडहर जैसी बिल्डिंग थी, ठीक सामने लगे बोर्ड पर 'विरानपुर' अक्षर बड़े साफ़ दिख रहे थे। चारों तरफ गहरा अँधेरा था, मानो आसपास सब कुछ सो गया हो। प्लेटफ़ॉर्म की ठंडी चट्टान जैसी सतह और हवा की एक हल्की लहर ने फिर से तारे को सँभाला। उसने फिर देखा—ट्रेन की पीली बत्तियाँ दूर तक पसर रही थीं, ठीक वैसी ही जैसे अभी-अभी रुकने से पहले थीं।

विरानपुर स्टेशन पर न कोई कर्मचारी, न यात्री था। पुरानी लौह पटरी के किनारे जंग लगी थी, घास उग आई थी, और एक टूटा-बेचा बेंच पड़ा हुआ था, जिस पर शायद कभी यात्रियों ने बैठे-बैठे चाय पी थी। स्टेशन बिल्डिंग की दीवारें जंग खाई पेंट की थीं और खिड़कियाँ टूटी पड़ी थीं। ऊपर से बारिश की बूँदें टपक रही थीं, मानो अभी-अभी कहीं छत से कुछ पानी रिस रहा हो। दूर पहाड़ियों की ओर काली घटाएँ मुकम्मल चादर सी फैली थीं, मानो किसी ने समूचे आसमान पर रजाई ओढ़ रखी हो। बस एक चिड़िया थी जो कहीं दूर एक खूँटी पर बैठकर चोंच मिट्टी में सरका रही थी। चारों ओर ऐसी भयानक खामोशी थी कि तारा को अपने सीने की धड़कनों की गूँज भी सुनाई देने लगी।

सिर झुका कर उसने चाँद-तारों को नहीं देखा, सिवाय दूर रेल पटरी पर लाल-बत्ती की मद्धम झिलमिलाहट के। फिर ट्रेन की एक बार फिर सीटी गूँजी। इस आवाज़ ने तारे की नींद उड़ेल दी—वह औंधी-देख रही थी कि स्टेशन पर वही बत्तियाँ फिर से पीछा करती हुई दूर तक बढ़ती जा रही हैं। उस पल उसकी आँख खुल गई—तभी उसे महसूस हुआ कि चारों ओर सब कुछ पहली बार जैसा ही है। स्टेशन वैसा ही वीरान था, हवाएँ वैसी ही शांत थीं। बस ट्रेन वापस आने को आतुर थी।

ट्रेन की घंटी दोबारा गूँज उठी। एक लंबी सांस लेकर तारा फिर से प्लेटफ़ॉर्म की ओर मुड़ी—उसका मन अब आग की लपट की तरह जल उठा था। उसने हिम्मत जुटाई और आखिरी ट्रेन में कदम रख दिया। इस बार उसने डरकर पीछे हटने का नाम तक नहीं लिया। ट्रेन की बोगी वैसी ही खाली थी, धुँध से भीगी-सी थी। उसने बेंच पर रखा वह पुराना बट्टा देखा—जैसा पहले था वैसा ही, तितलियाँ अब भी डैम्प थीं। धुएँ से भरपूर दीपक की उजली रोशनी में तितलियों के चित्र ज्यों के त्यों थे।

जैसे ही ट्रेन रवाना हुई, पिछले डिब्बे से हल्की आवाज़ आई। तारा पलटी और देखा—पिछली बोगी के कोने में एक छोटा लड़का खड़ा था। सफेद कुर्ता-पाजामा पहने वह लड़का, हाथ में एक छूटा हुआ बस्ता लिए, सामने वाली सीट के कोने में ठिठका था। उसकी आँखों में अजीब-सी चमक थी, उम्र से परे एक समझदारी। "तुम मुझे नहीं पहचान पा रही हो, तारा?" उसने धीरे से पूछा। तारा स्तब्ध रह गई। पसीना सूखे गालों पर बह निकला। "करण... तुम?" उसकी आवाज़ लड़खड़ा उठी। लड़के की मुस्कराहट फूट पड़ी, "हाँ, मैं करण ही हूँ," उसने सहमा कर कहा।

तारा का दिल जोर से धड़क उठा। हवा ठहरी-सी हो गई। "तुमने मुझे छोड़ दिया था," करण बोला, उसकी आँखों में दर्द था, "और उसके बाद से मैं यहीं भटक रहा था, तुम्हारा इंतजार करते-करते।" तारा की आँखों में आँसू भर आए। "तुम्हारा इंतजार करते-करते मेरी दुनिया थम गई थी," उसने धीरे से कहा, "मैं इस चक्र में क्यों फँसी हूँ?" करण ने हल्का सा सिर हिलाया, "शायद तुम्हारी वजह से, और शायद तुम्हारी वजह से ही अब चक्र टूटने को है।" उसकी आँखों में राहत की चमक थी।

तारा ने सिर झुका लिया। "मुझे माफ़ कर दो, करण... मुझे गलतफहमी थी, मुझे यकीन नहीं था कि मैं तुम्हें फिर पा सकूँगी..." उसकी आवाज़ टूट रही थी। करण ने मुस्कुराते हुए कहा, "अब तुम वापस जा सकती हो, तारा।" यह सुनकर तारा चौंकी, "लेकिन मैं... मैं तुम्हें यहाँ कैसे छोड़ सकती हूँ?" उसकी आवाज़ कांप रही थी। उसने लड़खड़ाती साँसों को महसूस किया, पर फिर भी तारा ने पुराने दोस्त को गले लगाना चाहा।

वह खुद को काबू में रखते हुए पूछा, "मैं अब कहां जाऊँ? क्या तुम मुझे अभी भी देख रहे हो?" उसकी आँखों में हल्की सी उम्मीद थी। करण ने मुस्कुराकर कहा, "तुम्हारी मंज़िल वहीं है जहाँ से तुम आई थी।" करण ने आँखें नम की और धीरे से कहा, "मुझे तुम्हारी याद रहती रही... पर अब तुम जा सकती हो। हमें दोनों को आगे बढ़ना है।" उसकी आवाज़ में सुकून था। तब उसने देखा कि प्लेटफ़ॉर्म पर सूर्योदय की रश्मियाँ फैलने लगी थीं, धुंध हल्की पड़ गई थी। तारे ने सुना—ट्रेन की चरमराती ध्वनि अब धीमी पड़ चुकी थी। चारों ओर उजाला फैल गया था, जैसे किसी ने स्टेशन की सभी अँधेरी यादों को दूर भगा दिया हो।

तारे ने गहरी साँस ली और डिब्बे का दरवाज़ा खोला। बाहर उसने महसूस किया कि सुबह का नज़ारा था—नीला आसमान, सुनहरी रौशनी, और दूर पहाड़ों की चोटियाँ सुनहरे रंग में नहाई हुई थीं। वह कदम बढ़ाकर प्लेटफ़ॉर्म पर उतरी। स्टेशन बिलकुल शांत था, और वही ताजगी उसमें जान भर रही थी। उसने पीछे मुड़कर आखिरी ट्रेन को देखा—पीली रौशनी वाले डिब्बे अब धीरे-धीरे दूर होते जा रहे थे, मानो अँधेरे को छोड़ कर उजाले की ओर भाग रहे हों।

सूरज की पहली किरणों ने स्टेशन को सुनहरा कर दिया था। तारा ने महसूस किया कि रात के सारे डर उजली सुबह के सामने फीके पड़ गए थे। अब वह पूरी तरह आज़ाद थी। उसने अपने आँचल से आँखों की नमी पोंछते हुए धीरे से कहा, "मैं अपनी ज़िन्दगी की नई सुबह का स्वागत करने के लिए तैयार हूँ।" तारा ने गहरी साँस ली और मुस्कुराते हुए घर की ओर बढ़ चली।

उसने मान लिया कि हर रात के बाद एक उजली सुबह होती है। उसके दिल को अब सुकून था—उसने अपने डर और जिज्ञासा दोनों को अपने भीतर छोड़ दिया था। अब तारा जान गई थी कि अँधेरी रातों के बाद भी उजली सुबह आती है, और वह नए सवेरे की ओर पूरी उम्मीद के साथ बढ़ चली।