एक बार एक शहर के संत ने अपने शिष्य से कहा,
"जाओ, ईश्वर को ढूंढकर लाओ।"
शिष्य महीनों शहरों में घूमता रहा — मंदिर, मठ, आश्रम… पर उसे ईश्वर कहीं नहीं मिले।
थका-हारा एक दिन वो एक छोटे से गाँव में जा पहुँचा।
वहाँ उसने देखा —
एक किसान खेत जोत रहा था,
बगल में एक बूढ़ी दादी तुलसी में जल चढ़ा रही थी,
और कुछ बच्चे मिट्टी में खेलते हुए ज़ोर से हँस रहे थे।
शिष्य वहीं रुक गया।
वो गाँव छोटा था, पर वहाँ कोई किसी से ऊँचा-नीचा नहीं बोलता था।
लोग एक-दूसरे को नाम से नहीं, “भैया”, “बहन”, “बाबा”, “अम्मा” कहकर बुलाते थे।
एक दिन सब मिलकर मंदिर की सफाई कर रहे थे,
तो किसी ने कहा, “भगवान यहाँ रहते हैं।”
शिष्य मुस्कराया और समझ गया —
वो ईश्वर जिसे वो बाहर ढूंढ रहा था,
वो इस गाँव के हर इंसान में,
हर रिश्ते में,
हर सरलता में था।
वो संत के पास वापस पहुँचा और बोला:
"गुरुदेव, ईश्वर शहर के बड़े मंदिरों में नहीं,
गाँव की सादगी में रहते हैं।
जहाँ लोग भूखे होते हुए भी एक रोटी बाँटते हैं,
जहाँ मंदिर की घंटी कम और दिल की श्रद्धा ज़्यादा बजती है।"
गुरु मुस्कराए और बोले:
"अब तू जान गया —
धर्म का असली रूप किसी पोथी में नहीं,
बल्कि जीवन के आचरण में छिपा होता है।"
शिष्य ने कहा:
"गाँव में न कोई शोर है, न ही दिखावा —
पर वहाँ हर घर में प्रेम की लौ जलती है।
लोग सुबह सूरज को नमस्कार करते हैं,
और शाम को दीपक जलाते हुए कहते हैं —
‘सब भला हो, सबका कल्याण हो।’"
वहाँ एकता थी, सहभाव था।
किसी के दुःख में पूरा गाँव खड़ा हो जाता था।
ना कोई मंदिर बड़ा था, ना कोई संत प्रसिद्ध —
पर हर इंसान अपने कर्म से किसी संत से कम नहीं था।
गाँव की पगडंडी पर चलते हुए भी
शांति का ऐसा अनुभव हुआ,
जैसे आत्मा को उसका घर मिल गया हो।
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ईश्वर वहाँ नहीं जहाँ दिखावा हो,
बल्कि वहाँ हैं जहाँ सच्चाई, अपनापन और सरलता हो।
जहाँ "मैं" नहीं, "हम" बसता है।
और ये सब सबसे ज़्यादा अगर कहीं है —
तो हमारे गाँवों में है।शिष्य ने संत से आगे कहा —
"गाँव में समय धीरे चलता है गुरुदेव,
यहाँ सुबह की चिड़ियों की चहचहाहट से दिन की शुरुआत होती है,
और रात में चाँदनी खाट पर लेटी आत्मा को शांति देती है।
यहाँ लोग मौसम के साथ जीते हैं,
बिना घड़ी देखे सूरज और चाँद को पहचानते हैं।"
"यहाँ बच्चे बूढ़ों को प्रणाम करना जानते हैं,
और बूढ़े बच्चों को दुआ देना नहीं भूलते।
प्यास लगे तो कुएं से पानी निकाल लेते हैं,
और भूख लगे तो किसी भी घर से रोटी मिल जाती है।
यहाँ मेहमान भगवान होते हैं,
और त्यौहार पूरे गाँव का उत्सव बन जाते हैं।"
"यहाँ मंदिर सिर्फ पत्थर की इमारत नहीं,
बल्कि गाँव की आत्मा का केंद्र है।
वहीं से आरती की घंटियाँ पूरे गाँव में गूंजती हैं,
और हर दिल में भक्ति की धुन उठती है।"
संत बोले —
"तू अब जान गया,
कि भगवान ढूंढने की चीज नहीं,
बल्कि समझने की बात है।
ईश्वर कहीं बाहर नहीं —
वो तो हमारी नीयत, व्यवहार और भाव में बसते हैं।"
शिष्य ने हाथ जोड़ लिए।
उसे अब शहर की चकाचौंध फीकी लग रही थी,
और गाँव की वो शांत, सच्ची ज़िंदगी
उसे सबसे सुंदर दिख रही थी।
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🌾 अंतिम भाव:
गाँव सिर्फ एक जगह नहीं होते,
वो तो एक संवेदनशील जीवनशैली,
एक सच्ची संस्कृति,
और ईश्वर के करीब रहने का तरीका होते हैं।
आज जब हम विकास की दौड़ में
शहरों की ऊँची इमारतों में खो गए हैं,
तो ज़रूरत है —
गाँव की उन साँझों, उन रिश्तों,
और उस शांति को फिर से जीने की।
शायद ईश्वर को फिर से महसूस करना हो,
तो एक बार फिर गाँव लौट चलें…