यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं है। ये कहानी मैंने अपने अनुभव से लिखी, जो मैं महसूस करती हूँ। एक ऐसी जगह जहां मैं खुद से मिलती हूं।
🏡 "छत का एक कोना"
मेरे लिए सबसे खास जगह न कोई आलिशान कमरा है,
न कोई डिजिटल प्लेटफॉर्म, और न ही कोई फूलों से भरा बगीचा।
मेरे लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है तो वो है मेरी छत का एक कोना।
जहाँ मैं खुद को सबसे ज़्यादा महसूस करती हूँ —
बिना किसी डर के, बिना किसी शोर के — बस अकेली, और मैं।
यह जगह किसी को दिखती नहीं , शायद कोई उस ओर ध्यान से देखता भी नहीं होगा या फिर सब घूम कर चले जाते होंगे, या कुछ लोग थोड़ी देर ठहरते भी होंगे।
पर मेरे लिए उसी कोने में एक दुनिया बस्ती है, एक ऐसी दुनिया जो मुझे मैं बनती है। बिना किसी शर्त, बिना दिखावे के, जहां मैं गुनगुनाती हूं।, खुल कर मुस्कुराती हूँ। बिना किसी शिकायत के।
चाहे वो सूरज की पहली किरण हो, या ढलते सूरज की हल्की रोशनी, या फिर हो उस खूबसूरत चांद की चमकती रोशनी जो अंधेरे को दूर करती है।
मैं सब उस छत के कोने में महसूस करती हूँ।
जब भी मन भारी होता है, जब आंखें भर आती है, जब कुछ समझ में नहीं आता है। ज़िंदगी थोड़ी उलझ जाती हैं– मैं वहीं चली जाती हूं।
वहाँ न कोई सुनने वाला होता है,
न ही कोई मुझे सुनाने वाला।
बस मैं होती हूँ… और मेरा साया।
वो कोना मेरे सबसे सच्चे और निजी भावों का गवाह है।
वहां कोई मेरे आंसुओं की वजह नहीं पूछता और न कोई ये कहता है कि तुम इतना सोचती क्यों हो।
मेरे हर दर्द को वो कोना आपने साथ बांट लेता है। वो चिल्लाता नहीं बस मेरे साथ खामोश होता हैं, वो कभी नहीं कहता कि मजबूत बनो।
बस एक खामोशी होती है जो मुझे पूरा सुन लेती है – बिना एक शब्द कहे।
जब भी दुखी होती हूँ, चुपचाप उसी कोने में जा बैठती हूँ।
वहाँ कोई मुझे जज नहीं करता,
कभी जी भर के रोती हूँ, तो कभी खुद से सवाल करती हूँ , और खुद ही जवाब ढूंढती हूँ।
कभी लगता है कि मैं दो अलग अलग इंसान हूँ।
एक वो जो सबके सामने हंसती है, और दूसरी वो जो उस कोने में बैठी भीतर ही भीतर टूटती जाती है?
उस छत के कोने में मैं वो सब बन जाती हूँ जो मैं नहीं हूँ — कभी चुलबुली, कभी बहादुर, तो कभी बिल्कुल खामोश।
और कई बार… मैं वो भी बन जाती हूँ जो मैं हूँ — लेकिन दुनिया बनने नहीं देती। एक ऐसी लड़की जिसे दर्द भी होता है। जिसे सुनने वाला कोई नहीं।
वहां बैठकर मुझे अपने बचपन की यादें आती हैं वो पुरानी बातें जो अधूरी रह गई। वो लोग जो अब पास नहीं, लेकिन उनकी यादें आज भी मेरे साथ सांस लेती हैं।
जब किसी अपने की बहुत याद आती है, तो मैं चुपचाप उसी कोने में चली जाती हूँ।
उस आसमान को देखती हूँ , जैसे कोई तारा मेरी तरफ देख रहा हो — मुझे समझता हो, मुझसे जुड़ा हो।
हवा मेरे बालों को धीरे-धीरे सहलाती है, ऐसा लगता है जैसे वो जानती है —
"आज फिर ये कुछ लेकर आई है… जो कह नहीं सकती, बस महसूस करती है।"
उस कोने में बैठकर मुझे खुद के साथ सुकून का एहसास होता है। मैं किसी से कोई बात नहीं करती, लेकिन खुद से बहुत कुछ कहती हूँ।
कभी कभी ऐसा भी होता है, कुछ कहे बिना घंटों यूं ही बैठी रहती हूँ, और उन तारों को देखती रहती हूँ—
शायद उन तारों में कोई अपना है,
जो मुझे उसी तरह निहारता है जैसे मैं उसे।
शब्दों के बिना... स्नेह से।
और जब मैं वापस आती हूँ तो अंदर बहुत शांत होता है, जैसे किसी ने मुझे गले लगा लिया हो।
जैसे खुद की बाहों में सुकून मिल गया हो।
वो कोना मेरी आवाज़ नहीं, मेरी खामोशी को जानता है। वहाँ जाकर लगता है —
"मैं अभी भी ज़िंदा हूँ… बस थोड़ी थक गई हूँ।"
छत के उस कोने में मैं अपने सारे बोझ आसमान को सौंप देती हूं। एक एक कर के अपनी सारी थकान, सारी अपेक्षाएं, सारा तनाव उतार देती हूँ। तब मैं और मेरा आसमान रहे जाते है।
गांव में आज भी लड़कियों की आवाज धीमी होती है, क्योंकि उन्हें सुनने वाला कोई नहीं होता। जैसे उनका होना या उनकी राय किसी के लिए कुछ खास मायने नहीं रखती।
लेकिन उनसे उम्मीदें बड़ी की जाती हैं कि वे कुछ बड़ा करें पर बिना किसी सवाल पूछे।
हालांकि जब दुनिया मुझसे कुछ बनने की उम्मीद करती है,
तो मैं उसी कोने में जाकर बैठ जाती हूँ — जहाँ कोई उम्मीद नहीं होती, जहां मैं कुछ नहीं बनती, बस मैं होती हूँ।
यही तो आज़ादी है, है ना?
एक कोना, एक खुला आसमान, थोड़ा अकेलापन —
और खुद से मिलना।
जहां तुम कुछ न होते हुए भी सब कुछ हो।
आज डिजिटल की दुनिया में हर कोई अपने आप को ढूंढ रहा है। कोई फोन में तो कोई लेपटॉप पर,
और कुछ लोग तो अपने आपको दूसरों में ढूंढ़ते हैं। लेकिन वो और उलझ जाते हैं क्योंकि वो ऐसी जगह तलाशते जहां सिर्फ अधूरापन होता, थोड़े से झूठ के साथ।
जिन सवालों के जवाब हम लोगों में तलाशते हैं। वे सारे जबाव अक्सर हमारे खुद के पास होते हैं।
इसलिए मैं भीड़ में नहीं, उस भीड़ से दूर– उस छत के कोने में अपने आप से मिलती हूं, और मुस्कुराती हूं।
कई बार सोचती हूं कि क्या सबके पास ऐसा ही कोना होगा या कुछ ही लोग होते हैं?
जिन्हें ये छोटी सी आजादी मिलती है।
कुछ लोगों को मिलती भी है तो क्या उनके लिए इसकी कोई अहमियत होगी?
मेरे लिए तो बहुत है।
उस छत के कोने में… एक जादू है—
जहां मैं होती हूँ। मेरी पहचान होती है। और वही मेरी सबसे सच्ची आज़ादी है।
उस कोने में खुद को सुरक्षित महसूस करती हूं। जहां मुझे लगता है, मैं सब कुछ कर सकती हूँ।
मेरी छत का कोना जहां मैं खुद को जीत लेती हूँ।
शायद वो कोना छोटा हो,
लेकिन वहाँ जितना सुकून है,
वो पूरी दुनिया में कहीं नहीं, न फोन में, न लोगों की बातों में।
जहां मैं सुकून के साथ खुद को महसूस कर सकती हूँ वह है मेरी छत का कोना।
आजादी वो नहीं जो घूमने में मिले,
आजादी वो है जहां तुम खुल कर अपनी बात रख सकते हो बिना किसी रोक टोक,
जिस दिन तुम अपनी बात कहोगे और जब कोई चुपचाप तुम्हारी बात सुनेगा।
वह है आजादी।
Neha kariyaal ✍️