Maharana, tell me. in Hindi Biography by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा

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महाराणा सांगा

🚩 दो शब्द  🚩

भारत के इतिहास में यदि राजपूताना की वीरगाथाओं का स्वर्णिम अध्याय न होता तो इसकी वैसी भव्यता न होती, जैसी आज है। यहाँ की धरती भले ही वर्षा की बूँदों के लिए तरसती रही हो, परंतु सत्ता-सिंहासन के लिए निरंतर होते रहे युद्धों से टपकते रक्त से यह भूमि सदैव सिंचित रही है। आन-बान और शान के साथ ही सत्ता के षड्यंत्रों में रचे-बसे यहाँ के वीरतापूर्ण वातावरण में राजपूतों की महिमा का भव्य दर्शन होता है। इस भूमि पर जहाँ एक ओर सतियों ने जौहर की प्रचंड ज्वालाओं में भस्म होकर भारतीय नारी के दृढ संकल्प और सतीत्व की नई परिभाषा लिखी है, वहीं दूसरी ओर स्वतंत्रता प्रिय राजाओं और अन्य राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राण तक अर्पण कर दिए। 

महान् राजा बप्पा रावल की संतति ने राजपूताना को अपने रक्त से सिंचित करके राजवंश का गौरव बढ़ाया और राजपूती शान का वर्चस्व बनाए रखा। 

मेवाड़ की गौरवगाथा में ऐसे अनेक वीर और वीरांगनाएँ हुईं, जिनके बारे में सुनकर आश्चर्य होता है और रोमांच भी। मानवीय गुणों की ऐसी कौन सी धाराएँ हैं, जो इस राजवंश में न बहती रही हों। वीरता के लिए महाराणा साँगा (संग्राम सिंह) और महाराणा प्रताप का नाम इतिहास के पन्नों को गौरवान्वित करता है, वहीं स्वामिभक्ति में दुर्गादास, भामाशाह, राठौड़ बींदा, जैतमलोट जैसे वीर पुरुषों का नाम अग्रणी है। 

प्रतापी महाराणा कुंभा के पौत्र राजा रायमल के पुत्र राजा संग्राम की वीरता किशोर आयु में ही दिखने लगी थी। ज्येष्ठ भ्राता युवराज पृथ्वीराज और अनुज जयमल की अपेक्षा संग्राम सिंह वीर भी थे और उनके मुख पर वीरता-धीरता तथा संयम-साहस झलकता था। राजा रायमल को वैसे तो अपनी सभी संतानों से प्रेम था, परंतु मँझले पुत्र संग्राम सिंह से उन्हें अपार स्नेह था और यही स्नेह ज्येष्ठ पृथ्वीराज को शंकित कर रहा था। पृथ्वीराज को लगता था कि मेवाड़ के सिंहासन पर संग्राम सिंह ही बैठेगा, जबकि वंश-परंपरा के अनुसार पहला अधिकार पृथ्वी-राज का था। इस शक को उनके भीतरघाती चाचा सूरजमल ने अपने षड्यंत्र से और भी भड़का दिया था। 

सूरजमल राजा रायमल के भाई खेमकरण का पुत्र था, जो मेवाड़ के सिंहासन को हथिया लेना चाहता था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजपूत-वंशों में सत्ता के लिए सदैव से ही पारिवारिक षड्यंत्र रचे जाते रहे।

 महाराणा कुंभा को सन् 1468 ई. में एक षड्यंत्र में फँसकर अपने पुत्र उदय सिंह उर्फ उदा के हाथों प्राण गँवाने पड़े थे और इस षड्यंत्र में स्पष्ट रूप से खेमकरण का ही हाथ था। 

इतिहास जैसे फिर से स्वयं को दोहराना चाहता था। खेमकरण का पुत्र सूरजमल आज फिर मेवाड़ की गद्दी पर निगाह गड़ाए हुए था। इसके लिए वह मेवाड़ के उत्तराधिकारियों का खात्मा करने को व्यग्र था। अपनी मीठी जुबान और कपटी चालबाजियों से उसने राजा रायमल के पुत्रों में ऐसी शत्रुता उत्पन्न कर दी थी, जिससे उसका षड्यंत्र सफल होता लग रहा था। 

सूरजमल के षड्यंत्र में फँसकर पृथ्वीराज और संग्राम सिंह एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो उठे थे और उसका लाभ तीसरा राजकुमार जयमल उठा रहा था, जो सूरजमल के ही शतरंज का मोहरा था। इस षड्यंत्र ने मेवाड़ रियासत में बहुत उथल-पुथल मचाई थी और शत्रुओं को यह अवसर भी दिया था कि वे मेवाड़ को अपने अधीन कर लें, परंतु पृथ्वीराज और संग्राम सिंह आपस में सत्ता-विरोधी अवश्य थे, मगर राष्ट्र-विरोधी नहीं थे। मेवाड़ की रक्षा में वे अपने प्राण भी दे सकते थे, मगर इन्हीं षड्यंत्रों और घात-प्रतिघातों पर इन राजपुत्रों के पराक्रम का प्रहार होता रहा और मेवाड़ का गौरव न केवल संरक्षित रहा, अपितु महाराणा साँगा के नेतृत्व में दूर तक फैलता गया।

 प्रस्तुत पुस्तक ‘मेवाड़ केसरी महाराणा साँगा’ में उनके अपार धैर्य और असीम पराक्रम की गौरवगाथा है, जो राजपूताना की अमर कहानी है। आशा है, यह पुस्तक आपको अवश्य पसंद आएगी।