अशोक और मधु के घर में आयोजित वह पार्टी अच्छी चल रही थी।
उस का आधार भी प्रत्याशित था और प्रभाव भी।
स्तुत्य भोजन,श्लाघ्य मेज़बानी तथा विनोदपूर्ण संवाद का सभी भरपूर आनंद ले रहे थे कि अकस्मात एक अतिथि बोले, “आज इन महिलाओं से पूछते हैं, उन के लिए सब से बढ़िया दिन की क्या परिभाषा है…..”
‘आह’, ‘आहा’ और ‘ओहो’ से शुरू होकर ‘क्यों?’ ‘बुरा क्या है?’ ‘कोई हर्ज ही क्या है?’ से गुज़र लेने के बाद सवाल- जवाब की वह परिक्रमा ‘अच्छा’, ‘अस्तु’ और ‘यही सही’ के वर्णन को वितान देने के लिए ठहर गई।
“अपने घर और शहर से दूर मेरी आंखें किसी मेहरबान मेज़बान के अतिथि कक्ष में खुलें,” अपनी पार्टी की सफ़लता के उस मुबारकबादी वातावरण में मधु सब से पहले चहचहाही, “बिस्तर पर चाय पी चुकने के बाद रोज़ की तरह दोपहर के खाने में अपने मनपसंद व्यंजन गिनवाने की बजाए अशोक मेरे हाथ में दस हज़ार रुपए रखें और कहें,मैं तो अब रात ही में लौटूंगा, इसी बीच तुम बाज़ार जा कर जो साड़ी खरीदना चाहो,खरीद लाओ। और अशोक के लोप होने पर मैं बिस्तर पर दो घंटे और सुस्ताती रहूं और तभी उठूं जब मेरी मेहरबान मेज़बान मेरे दरवाज़े पर हल्की दस्तक देने के बाद मेरे पास आ कर निवेदन करे, अब मैं अपने घर का ज़रूरी झाड़- पोंछ निपटा आई हूं,आप नाश्ते के लिए आइए….”
सभी खिलखिला दिए।
मधु समेत उस पार्टी में पांच स्त्रियां थीं।
दूसरी स्त्री ने ताश में ढेरों रुपए जीतने के, तीसरी स्त्री ने अपनी मनपसन्द फ़िल्म दोबारा- तिबारा देखने के, चौथी स्त्री ने ज़ेवरों की विभिन्न दुकानों में झांक लेने के बाद अपने लिए हीरों का नया सेट खरीदने के ब्यौरे विस्तार से दिए और खिलखिलाहट बराबर बनी रही।
टूटी तब,जब पांचवी स्त्री, रोहिणी,की बारी आई, “मैं आप पत्नियों के वर्ग में नहीं आती,क्योंकि आप की तरह मेरा पारिवारिक जीवन अब किसी पति से जुड़ा नहीं रहा और इसीलिए मेरा हर दिन एक बढ़िया दिन है……”
उन चार स्त्रियों में रोहिणी एकमात्र नौकरीपेशा थी।उन चार पत्नियों के आए.पी.एस.पतियों की बैचमेट। तिस पर पिछले ही वर्ष उस ने अपने पति से तलाक पा कर अपने आप को फिर से अयुग्मित स्थिति पर पहुंचा लिया था।
“हेल (सलाम), हेल,हेल,”मधु को छोड़कर बाकी तीनों पत्नियों ने रोहिणी को अपना उल्लसित समर्थन दिया……
लीला- भाव से……
करतल- ध्वनि के साथ ……
उनके मनोविनोद में सम्मिलित न होने का एक ठोस कारण रहा…..
अपनी बारी आने पर रोहिणी ने अशोक की दिशा में जो पुलक, स्प्ंद,रहस्यमयी मुस्कान फेंकी थी और जवाब में जो अशोक की आंखे चमक लीं थीं और होंठ जो मुस्कुरा दिए थे तो यह आदान-प्रदान मधु की निगाह से बच न सका था। उसे आश्चर्य हुआ देखने- भालने में अति सामान्य सूरत वाली रोहिणी पर अशोक इतना रीझ कैसे सकते थे!
और आगामी दिनों में मधु ने अशोक के प्रति अपनी चौकसी और टहल दुगुनी कर दी।
अशोक जब पुकारते तो लपक कर मधु उन के पास पहुंचती ही,और अशोक अब न भी पुकारते तब भी उन के सम्मान में मधु अपनी उपस्थिति निरंतर बनाए रखती। अशोक जब परिहास करते तो मधु मीठा बोलती ही,अशोक अब कड़वी बात भी कहते, तो भी मधु अपनी वाणी में शहद घोल कर ही उन्हें उत्तर देती।
पार्टियों में भी मधु अब अशोक को अपनी नज़र से ओझल न होने देती। कब वह मुस्कराए या हंसे, कब उन्होंने अपने जबड़े भींचे अथवा नथुने फुलाए, कब उन की आंखें मिचकीं या चमकीं,मधु सब खबर रखती।
एक दिन संयोगवश एक साड़ी की दुकान पर मधु को रोहिणी उसे दिखाई दे गयी और वह उसे अपने घर लिवाने पर सफल हो गयी। उस पर आत्मीयता व स्नेह का दबाव डाल कर।
बड़े चाव और चिरौरी के साथ उसे अनेक सुस्वादु व्यंजन खिलाए और फिर अपनी शादी की एल्बम उस के सम्मुख खोल दी।
“बूझिए तो! यह विलक्षण सुंदरी कौन है?”शादी के फेरों के समय ली गई एक फ़ोटो की ओर मधु ने रोहिणी को ध्यान दिलाया।
“नहीं जानती,” रोहिणी ने तनिक उत्साह न दिखलाया।
“मेरी जुड़वां बहन है– वीणा” मधु ने कहा। परोक्षतः मधु जतलाना चाह रही थी,वह स्वंंय भी अच्छी सूरत की स्वामिनी थी।
“ओह!” रोहिणी का रुखापन तनिक न छंटा।
“उन दिनों वह देहली में अपनी डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी। मगर आज कल
वह लंदन में है, जहां उस के पति भी उसी की तरह यहां से एम.बी.बी.एस. के बाद अपनी एम.डी.के लिए इंपीरियल कालेज में दाखिला लिए हैं….”
“यह तो बहुत अच्छी बात है,” रोहिणी ने अपना ठंडा स्वर न छोड़ा।
, “उधर देहली में उन दोनों ने साथ- साथ पढ़ाई की थी और…….”
“यह कौन हैं ?” रोहिणी ने एल्बम का पृष्ठ पलटा। मधु और उस की बहन के प्रति अपनी अरुचि उस ने तनिक न छिपाई।
“यह मेरे भाई हैं। उधर न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में केमिसट्री पढ़ाते हैं। वीणा की शादी में आए और मेरे ममी- पापा को साथ ले गए…..”
उसे और अशोक को विदा दे रहे,उदास मुद्रा लिए एल्बम से झांक रहे ममी के,पापा के,भाई के,वीणा के चेहरे जैसे जैसे मधु के सामने से गुज़रते रहे ,कई कई स्मृतियों के अंबार मधु के मानस-पटल पर टूटते रहे।
“और अब मेरे परिवार से कोई भी भारत में नहीं। कहने को अशोक हैं। उन का पूरा परिवार है। जिन के हाथ वे मेरा भाग्य व भविष्य सौंप गए हैं। परंतु वह सब कहने भर ही को हैं। बल्कि शुरू में तो मुझे अकेलापन बहुुत ही ज़्यादा महसूस हुआ करता,मगर अब नहीं……”
“अब क्यों नहीं?”
“मैं अब अधिक देर तक अकेली न रहूंगी। मैं मां बनने वाली हूं…….”
यह सच नहीं था मगर रोहिणी की बेरुखी मधु के लिए असह्य हो चली थी।
“ यह तो बहुत खुशी की बात है,” रोहिणी का चेहरा मलिन पड़ गया ।
“मधु,” उस शाम घर लौटते ही अशोक ने पत्नी को अपने अंक में भर लिया,
“इतनी बड़ी बात ! और मुझ से अभी तक छिपाए रखी ?”
“क्या?” मधु असहज हो उठी।
“अपने गर्भ में तुम एक बालक लिए हो…..”
“हांअंअंअंअंअंअं…….” तरंग में आकर मधु ने रोहिणी को जो भी कहा था, वह उसे सच में बदल देने पर अब दृढ़निश्चयी थी, “हां, मैं ने भी आज ही तो जाना ….”
“और तुम ने उस रोहिणी पर ऐसा क्या जादू फेरा जो वह तुम्हारी घर- सज्जा की,तुम्हारे आतिथ्य की प्रशंसा करते अघा नहीं रही थी?”
“प्रशंसा? कैसी प्रशंसा? वह क्या अपने घर को सजा- संवार कर नहीं रखती? अपने अतिथियों की आव- भगत नहीं करती?”
“ कतई नहीं। उस के पास घर है ही कहां? हमारे विभाग के गेस्ट हाउस में डेरा डाले है…..”
“आप वहां जा चुके हैं क्या?”
“हां,बस एक दो बार। कुछ ज़रूरी फ़ाइलों के सिलसिले में…….”
“फ़ाइलों ही का मामला था या उस के इलावा भी आप को वहां जाने का लोभ था? या फिर उसी को आप से मिलने का लोभ था?” मधु ने अपने स्वर में शरारत भर ली। उस की हंसी- ठिठोली, निंदा - दंडाज्ञा व तूम- धुनक उस के पास लौट ली थी ।
“तुम्हारे रहते मुझे वहां जाने का लोभ क्यों रहने लगा? और फिर उसे केवल अपनी आज़ादी प्यारी है….अपना आप प्यारा है….दूसरा कोई नहीं..….जभी तो उस का तलाक हुआ…..”
“दिल से कह रहे हो?”
“बिल्कुल,” अपनी बाहों में प्रेमातिरेक भर कर अशोक ने मधु की पीठ घेर ली।
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