ऊँची पहाड़ी पर एक ऊंची दीवार खड़ी है, और उसके बाईं-दाईं ओर दो नदियाँ बहती हैं। किले को घेरे हुए, जहाँ दोनों नदियाँ मिलती हैं, वहाँ एक चौड़ा मैदान बन जाता है। नदी के ऊपरी हिस्से में पश्चिम दिशा की ओर फैले पेड़ों के बीच जब रोज़ सूरज डूबता है, कंकू की बूँदें बहती हैं, सिर पर चाँद और चाँदनी छलकती है, तब भी वह किला धुंधला-सा, अकेला और रहस्यमयी खड़ा रहता है।
अब भी उस ऊँचे-ऊँचे किले की दीवार को छूते हुए नदियाँ बहती हैं। किले में नक्काशीदार झरोखे तराशे गए हैं और रानियों के लिए नदी की क्रीड़ा देखने हेतु झुके हुए कक्ष बनाए गए हैं। आज भी यदि उस बरामदे में खड़े होकर नदी के मैदान पर सम संध्या की पानीदार रेखाओं को निहारें, गरासियों के घोड़ों की दौड़ देखें, युवाओं की कुश्ती देखें, चारणों के छंद और कुमारिकाओं के समूह की रासलीला सुनें, तो समय छह सौ साल पीछे चला जाता है, और उस विलासी राजा-रानी की हँसी—मज़ाक तथा रानियों के करुण क्रंदन कानों से टकराते हैं।
वह गाँव राणपुर: वे दो नदियाँ सुकभादर और गोमा; राणजी गोहिल द्वारा बनवाया गया वह किला था या क्रीड़ामहल!
राणजी विलासी था। कहते हैं कि उसकी चौरासी रानियाँ थीं; दिन-रात वह राणिवास में ही रहता था। उसे 'कन्हैया' कहा जाता था। ब्राह्मणों के बहकावे में आकर उस राजा ने ऐसा नियम बना लिया था कि कभी मुसलमान का मुँह नहीं देखना।
एक दिन जूनागढ़ के दातार की यात्रा करके एक मेमण डोशी और उसका बेटा वापस अहमदाबाद जा रहे थे। रास्ते में माँ-बेटा राणपुर में रात को रुके।
सुबह हुई। जब राजा पूजा कर रहे थे, तब नदी के चौड़े मैदान में उस डोशी के बेटे की अज़ान (प्रार्थना) की आवाज़ सुनाई दी। ब्राह्मणों ने राजा को समझाया कि इस यवन (मुसलमान) की आवाज़ से पूजा भ्रष्ट हो गई! राजा को कुमति सूझी। उसने उस बालक का सिर कटवा दिया!
बेटे के बिना वह माँ अहमदाबाद गई और चौधर आँसू बहाकर मोहम्मदशाह बेगड़ा के पास अपनी बात रखी।
मोहम्मदशाह ने राणपुर के विनाश के लिए अपनी फ़ौज भेज दी। राणपुर में समाचार पहुँचा कि सेना आ रही है; पर राजा को कौन सूचित करने जाएगा? वह कुविचारी राजा तो राणीवास में दिन-रात उल्लास में मग्न रहता है और बाहरी दुनिया की कोई खबर नहीं रखता। सबको भय है कि सूचना लेकर जाने वाला जीवित लौटकर नहीं आएगा।
फिर एक चारण ने हिम्मत दिखाई। अंदर जाने का रास्ता तो बंद था, इसलिए वह नदी में ठीक झरोखे के सामने खड़ा होकर चारण ने आवाज़ लगाई:
"ए बाप राणा!" –
"राणा रमत्यु मेल्य, कनारे चड़िया कटक
खत्री चोपड़-खेल, गोहील का लागो गलो? "
[हे राणा! अब तो खेल छोड़ दो। शत्रु की सेना तुम्हारी सीमा के किनारे गाँव तक पहुँच चुकी है। हे क्षत्रिय! क्या तुम्हें चौपड़ (जुआ) का खेल इतना मीठा लग रहा है कि राज्य चला गया फिर भी तुम अब तक नहीं चेत रहे?]
चारण के शब्द कानों में पड़ते ही राणा ने चौपड़ के पासे फेंक दिए और खड़ा हो गया। उसने रानियों से कहा, “देखो, जब तक मेरी ध्वजा (पताका) रणभूमि में उड़ती हुई दिखाई दे, तब तक समझना कि मैं जीवित हूँ। लेकिन जब ध्वजा दिखाई न दे, तो समझ लेना कि मेरा शरीर गिर चुका है।”
रानियों ने उत्तर दिया, “लेकिन राजाजी, ध्यान रखना, जब वह ध्वजा गिरेगी, तब हम चौरासी में से एक भी जीवित नहीं रहेंगी।”
राणजी सेना लेकर युद्धभूमि की ओर चला। राणपुर से तीन-चार गाँव आगे मोहम्मदशाह की फौज से उसकी तलवारें टकराईं।
यहाँ किले के झरोखों में बैठी चौरासी राजपूत रानियाँ ध्यान लगाकर देख रही हैं, आकाश में ध्वजा उड़ती दिखाई दे रही है; और उसी ध्वजा के आधार पर वे रानियाँ जीवित हैं।
विजय प्राप्त करके राणजी वापस लौटा। विजयी सेना के आगे ध्वज लहराता आ रहा था। लेकिन राणा का देवता शायद रूठ गया था। रास्ते में एक बावड़ी आई। ध्वजधारी ने ध्वज नीचे रख दिया और बावड़ी में पानी पीने उतर गया। राणजी को ध्यान नहीं रहा। वह भूल गया कि उसी ध्वज पर चौरासी प्राणवान रानियाँ अपनी आस टिकाए बैठी हैं!
किले के झरोखों में बैठकर उस ध्वज पर नज़र टिकाए बैठी वे चौरासी क्षत्रिय स्त्रियाँ समझ गईं कि ध्वज गिर गया और राणा वीरगति को प्राप्त हुए। अब तो मुसलमान सेनाएँ भी तुरंत ही पहुँच जाएँगी। सभी रानियों ने गढ़ के कुएँ में एक के बाद एक कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।
विजयी राणजी दौड़ते हुए राजमहल पहोचा, लेकिन वहाँ तो रानियों की लाशों से कुआँ भरा हुआ देखा! उनका संसार एक पल में उजड़ गया। अब जीकर क्या करना है? ऐसा सोचकर वह वापस मुड़े। मुसलमान फौज अहमदाबाद लौट रही थी। राणजी ने उसमें पहुँचकर युद्ध किया और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए।
मुसलमान फौज राणपुर आई। किला अपने अधिकार में लिया। रानी तो एक भी जीवित नहीं थी। कुंवर मोखडाजी को लेकर एक दासी राणजी के भाई के घर उमराला भाग गई।
आज भी ऐसा प्रतीत होता है कि उस राजमहल के खंडहरों में चौरासी मुखों की कलकल हँसी की ध्वनि गूंज रही है। सामने-सामने ताली बजाते उन सुंदर, कोमल हाथों की काँच-जड़ी चूड़ियाँ मानो खनकती हैं; चौपड़ के पासे फेंकने की आवाज़ सुनाई देती है; और अंत में गूंजता है वह निडर चारण का गम्भीर स्वर।
"राणा रमत्यु मेल्य, कनारे चड़िया कटक
खत्री चोपड़-खेल, गोहील का लागो गलो? "
और वह चौड़ा कुआँ! क्या उन चौरासी सुंदर प्रेत-आत्माएँ रात को वहाँ सिसकियाँ नहीं भरती होंगी?
आज भी उस किले की नदी की ओर की पूरी दीवार मौजूद है। अंदर के हिस्से से धोबी लोग कपड़े धोने के लिए सुंदर लंबे पत्थर उठा ले जाते हैं। पूर्व दिशा में दीवार के बिना एकमात्र दरवाज़ा खड़ा है। उस दरवाज़े के किवाड़ गिर चुके हैं। किवाड़ों पर छह सौ मानसून बरस चुके हैं, फिर भी लकड़ी अब तक सड़ी नहीं है। बाकी सब कुछ बिखरा-बिखरा है।
- विरल चौधरी