समान लंबाई- चौड़ाई रखने के बावजूद भी वे दो परिसर आज भिन्न आभास देते हैं।
मगर आज से सत्ताईस वर्ष पूर्व वे एक अभिन्न पहचान रखते थे : जुड़वां कोठियों के नाम से चिह्मित थे।
प्रत्येक सदृश छोर पर समरूप एक- एक चौड़ा गेट था, एक-एक लंबा गलियारा था और एक-एक भव्य पोर्टिको । दोनों पोर्टिको से संलग्न रहे थे दो बराबर खंड। एक ही शरीर के दांए और बांए भागों की तरह : आकार में हू- ब- हू एक समान मगर दिशा में विमुख।
पुत्र- विहीन मेरे धनाढ्य नाना ने हमारे नामकरण के अवसर पर उन का निर्माण प्रारंभ किया था और हमारे स्कूल में प्रवेश पाने तक उन्हें खड़ा कर दिया था।
एक हज़ार पर चार की दर से एम. ज़ेड (मोनो ज़ायगौटिक) टविन्ज़ पैदा होने वालों में तरुण और मैं एक जुड़वां जोड़ा रहे थे : आएडेंटिकल।
दोनों लड़के थे, दोनों का ब्लड ग्रुप एक था, दोनों के हैप्नोग्लोबिन एक थे और दोनों में ज़बरदस्त शारीरिक समानता थी।
वैसे आज हमें साथ देख कर कोई नहीं बूझ सकता हम जुड़वां भाई हैं। तरुण मुझ से छोटा तो लगता ही है,शरीर से भी वह अभी छरहरा है। और फिर वह मेरी तरह गंजा भी नहीं।
मगर उन दिनों सभी आगंतुक हमें पहचानने में भूल कर जाते।
हालांकि कुसुम ने आते ही हमारी भिन्नता खोज ली थी : आगंतुक को सामने पा कर जिस के माथे पर त्योरी आती है, वह अरुण भैया हैं और जिन के होठों पर मुस्कान, वह तरुण भैया हैं।
कुसुम उस समय दसवीं में पढ़ती थी। हमारी तरह। उम्र में हम ज़रूर उस से अढ़ाई- अढ़ाई वर्ष बड़े थे — अपने प्रतिष्ठित अंगरेेज़ी स्कूल में हम ने अपने सातवें वर्ष में प्रवेश लिया था।
हमारी एक दुछत्ती पर रहने कुसुम अपनी दसवीं कक्षा में आयी थी। हमारी दूसरी दुछत्ती पर हमारे पिता अपने अंतरंग मित्रों के साथ संध्या व्यतीत किया करते थे।
कुसुम को उस के माता- पिता के साथ उस के चाचा हमारे घर लाए थे। जो हमारे नाना की राजनैतिक पार्टी के एक प्रमुुख कार्यकर्ता होने के नाते उन के करीबी थे।
“मेरा यह भांजा अपनी पत्नी के लंंबे इलाज के सिलसिले में यहां नया आया है। मकान उसे कुछ बड़ा चाहिए भी नहीं। आप की दुछत्ती इस के लिए काफ़ी रहेगी। इकलौती उस की बेटी इस बीच अपनी दसवीं भी पूरी कर लेगी…..” वह बोले थे।
उन्हीं दिनों हम मैसिटफ़ नस्ल के दो पिल्ले पाले थे : शेरू और देबू।
शेरू मेरा था: स्याह काला, कोयली काला।
और देबू तरुण का। जिस के शरीर के ऊपर के बाल काले रहे और नीचे के लाल।
शुरू में कुसुम ने दोनों में एक समान रुचि दिखाई थी किंतु जब दांत निकालने में मेरे शेरू ने पहल दिखलाई तो कुसुम जी- जान से तरुण के देबू की उत्साही समर्थक बन गई।
“देबू ज़्यादा सुंदर है,” अपना सौजन्य बराबर बांटने की बजाए वह देबू के संग पक्षपात दिखाती, “इस की आंखों के ऊपर पड़ रही ये लाल चित्तियां इसे एक अनोखी विशिष्टता देती हैं।”
और पांचवें महीने तक आते आते कुसुम पूरी तरह से देबू को अपना संग- साथ देने लगी।अब वह केवल उसी को ही दुलारती, पुचकारती और चुमकारती।
प्रतिक्रिया में शेरू भी कुसुम को देख कर अपनी पूंछ न हिलाता और न ही उस के हाथ से कोई खाद्य पदार्थ ही स्वीकारता।
उन की खेल-कूद के समय भी वह गेंद देबू ही की ओर ज़्यादा फेंका करती और देबू और शेरू को हम भाई जब बाहर टहलाने भी जाते तो कुसुम अक्सर देबू ही के साथ हो लिया करती।
तब हम नहीं जानते थे, जिस स्थिति को हम दोनों भाई सहजता से तथा स्वाभाविक रूप से स्वीकार करते रहे थे,वह जल्दी ही एक भंयकर मोड़ लेने वाली थी ।
और आपाती वह घटना घटेगी।
पृष्ठभूमि में रही : हमारे शेरू और देबू में न के बराबर रुचि रखने वाले पिछले कुछ दिनों से हमारे पिता की उन के खेल- कूद, खान- पान व टहल में विस्मयकारी रुचि।
अपने द्वारा लाए गए बिस्कुट व मीट से शेरू को अपना अनुचर बनाने में हमारे पिता को,बेशक, अधिक समय न लगा था किंतु देबू ने शेरू का अनुसरण कभी न किया था। बल्कि उन के प्रत्येक प्रयास को वह विफल ही कर दिया करता था। उसे उन से इतनी गहरी चिढ़ रही कि उन की उपस्थिति का आभास मिलते ही उस के कान नीचे लटक जाते थे, टांगे अकड़ने लगती थीं और वह किलकारना छोड़ कर रिरियाना शुरू कर देता था।
और फिर एक दिन देबू ने उन्हें काट लिया।
रैबीज़ के डर से डाक्टर ने उन्हें तुरंत एंटी- रैबीज़ की श्रंखला में पहला टीका देना चाहा।
“टीका मैं बाद में लगवाऊंगा,” क्रोध के भावावेश में आकर उन्हों ने ज़िद पकड़ ली, “पहले यह लाल चित्तियों वाला कुत्ता इस घर से भगाया जाएगा…..”
देबू के संग कुसुम भी उसी दिन हमारे घर से विदा हो ली। अपने माता-पिता के साथ अपने चाचा के घर लौट ली।
देबू के जाने के बाद शेरू की लगातार हुआं और पिनपिनाहट जब हम जुड़वां भाईयों के लिए असह्य होने लगी तो हम शेरू को टहलाने के बहाने कुसुम के चाचा के घर जा पहुंचे।
वहां देबू और कुसुम हमें विपरीत क्रम से मिले।
एक ओर जहां हमें देखते ही देबू की चिल्ल-पों में वृद्धि हुई, वहीं दूसरी ओर कुसुम ने नितांत कृतघ्नता का परिचय दिया।
वह हमें एक अजनबी की तरह मिली। एक निपट अजनबी की तरह। न तो उस ने शेरू की हांफ़ ही कबूली और न ही हमारी बंधुता का कोई संदेश।
उस के बाद वहां से हमें दो बार बुलावा आया :
पहला बुलावा देबू के लापता होने की सूचना के साथ। एक महीने बाद…..
और दूसरा बुलावा कुसुम के विवाह के आमंत्रण के साथ। चार महीने बाद….
किंतु वे दोनों बुलावे उपेक्षित ही रहे और कुसुम के घर दोबारा हम कभी नहीं गए।
तीन वर्ष बाद तरुण ने फ़ौज में भर्ती ले ली।
फ़ौज की जीवन-शैली उसे रास आयी और अपनी भर्ती के चौथे वर्ष उस ने अपने ब्रिगेडियर की बेटी से शादी कर ली। उस की तीनों बेटियां विभिन्न सैनिक अस्पतालों में ही पैदा हुईं और फिर उस की विभिन्न तैनातियों के शहरों ही में पली- बढ़ीं।
फलस्वरूप तरुण के सन्निकट परिवार से मेरा सीधा संपर्क नाम भर का रहा है।
अपने हिस्से की कोठी की किराएदारी बदलाने और बढ़ाने हेतु तरुण अवश्य जब- तब आ पहुंचता है।
अकेला।
आते ही वह अपनी दुछत्ती के कमरे पर पड़ा ताला खोलता है और अपना सामान वहां जमा लेता है।
दुमंज़िली बन चुकी अपने हिस्से की कोठी के वातानुकूलित तथा आधुनिक कमरों में रहने का आमंत्रण मैं और मेरे दोनों बेटे हर बार तरुण के सामने रखते हैं किंतु तरुण उन्हें कभी नहीं स्वीकारता।
दुछत्ती पर ही रहता है।
वह दुछत्ती आज भी लगभग उसी दशा में है जिस दशा में सत्तरह साल पहले कुसुम उसे छोड़ कर गई थी।