अपने कमरे से सटी रसोई का वार्तालाप मैं सुन रहा था।
“तुम्हारी रसोई में चुहिया बहुत आती है,नंदू,” घर में रसोई का काम नंदू के ज़िम्मे रहता, मां के नहीं। अपने आदेश भी नंदू मेरे पिता से ग्रहण करता, मां से नहीं।
“तुम्हें रोज़ कहता हूं चुहिया मारने की दवा इस्तेमाल करो, मगर तुम्हारा काम ढीला है, बहुत ढीला…..”
“नहीं बाबूजी,” नंदू हंसा, “रात में उस दवा की गोलियां सान कर रोज़ इधर दरवाज़े की दहलीज़ पर रख कर जाता हूं…..”
“देख किशोर,” तभी मां मेरे कमरे में चली आयीं, “आज तेरे पिता फिर मुझे चूहे वाली दवा खाने को उकसा रहे हैं …..”
“तुम चुप क्यों नहीं रह सकतीं?” मैं चिल्लाया। कोई भी पंद्रह-वर्षीय लड़का अपनी मां की शिकायत- पेटी बने रहने को अपने जीवन का ध्येय नहीं बना सकता, “निश्चल क्यों नहीं बैठ सकतीं?”
“वाह!” मां की त्योरी में दो बल और आ जुड़े। भौंहें भी और ऊपर चढ़ लीं। और बायीं गाल के साथ- साथ होंठ भी मुड़क लिए। मेरे जन्म के एकदम बाद मां गंभीर रूप से बीमार पड़ गईं थीं और तभी से उन की बांयी गाल की एक मांसपेशी उनकी बायीं बाछ पर रह- रह कर तड़फड़ाया करती, “मैं क्यों चुप रहूं? मैं क्यों निश्चल बैठूं? मेरे ठाकुर जी ने मुझे ज़ुबान दी है, बोल दिए हैं। पैर दिए हैं, हरकत दी है…..”
“पापा ठीक कहते हैं,” मां को धक्का दे कर मैं ने अपने कमरे से बाहर निकाल दिया, “नीम पागल तो तुम शुरू ही से रहीं,अब पूरी पागल हो गई हो…..”
अपने पिता से मैं कई बार सुन चुका था,किस प्रकार उन की सौतेली मां ने उनका क्लेश बढ़ाने की खातिर पितृविहीण, विक्षिप्त अपनी भांजी उनके माथे मढ़ दी थी।
“मैं क्या करूं?” मेरे दरवाज़े पर खड़ी होकर मां रोने लगीं, “किस के पास जाऊं? इस उजाड़ में तेरे सिवा मेरा अपना है कौन? बता…..”
पिछले वर्ष से हम लोग अपने परिवार से अलग रहने लगे थे। अलग रहने की ज़िद मेरे पिता की रही थी। सौतेली मां की निरंतर दखलअंदाज़ी और सौतेले भाइयों की मुंहज़ोरी के बीच अपने पिता की झुंझलाहट को झेलते चले जाने की अपेक्षा उन्हें कम पैतृक सम्पत्ति पर राज़ी हो जाना बेहतर लगा था।
कुल पैतृक सम्पत्ति के नाम पर मेरे दादा के पास रहे ईंट के नौ भट्ठों में से मेरे पिता के नाम गिने गए थे : केवल दो। और उन भट्ठों की एवज़ में मेरे पिता के हाथ में जो नगद रकम थमा दी गई थी,उन्हों ने पकड़ ली थी और शहर के इस दूसरे सिरे पर अपना शीत- संग्रहण आ जमाया था : कस्बापुर कोल्ड पोटेटोज़। बगल के गांवों में आलू की फ़सल अच्छी होने के कारण उन के शीत- संग्रहण में आलू ही आलू जमा रहते।
“यहां क्या कर रही है?” मां की आवाज़ मेरे पिता को रसोई में से खींच लायी, “जानती नहीं क्या? ज़्यादा ऊधम करेगी तो मैं तुझे तेरे सही ठिकाने पर पहुंचा दूंगा…..”
मां यदि अपने साथ एक शिकायत- पेटी लेकर चलती थीं तो मेरे पिता अपने साथ धमकियों का एक संदूक।
“विम्बलडन आ रहा है,” अपने पिता का ध्यान मैं ने मां से हटा देना चाहा और अपना टी.वी. चलाते हुए उस की आवाज़ तेज़ कर दी।
अपने पिता से मैं बहुत डरता था।कद में वह मां से चार इंच ऊंचे तो रहे ही,काठी भी उनकी मां से दुगुनी मज़बूत थी। अपनी शारीरिक तंदुरुस्ती के प्रति वह बेहद चौकस भी रहते। रोज़ तेल की मालिश करवाते,कसरत करते और खाने में वही पदार्थ लेते जिन में प्रोटीन और विटामिन की बहुतायत रहती।
“देखते हैं,देखते हैं,” मेरे पिता मेरे कमरे में मेरे पास आन बैठे, “बस तुम्हारी वजह से उस सिरफिरी को बर्दाश्त कर लेता हूं। तुम्हारे लिए डरता हूं उसे उधर पागलखाने भेज दिया तो तुम्हारी शादी के समय कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं — मां का बिगाड़ कहीं लड़के में तो नहीं आ गया?”
“दोनों खिलाड़ी एट-औल पर पहुंच चुके हैं,” विम्बलडन पर मैं लौट लिया, “इस समय टाए- ब्रेक चल रहा है…..”
रात के किसी एक पहर मां ने मुझे आन जगाया, “ देख किशोर, गुस्से में मैं ने चूहे वाली तीन गोली खा ली थीं, मगर अब मैं ने अपना इरादा बदल लिया है। मैं मरना नहीं चाहती। अपने पिता से बोल मुझे अस्पताल पहुंचा दें और मैं अपने ठाकुर जी की सौगंध खाती हूं अस्पताल से मैं सीधे मां के पास निकल लूंगी…..तेरे पिता के सामने कभी न पड़ूंगी…..”
अपनी नींद की खुमारी से बाहर आने में मुझे कुछ समय लगा ज़रूर, मगर जब मेरी आंखें मां के चेहरे पर खुलीं तो फिर खुलीं की खुली रह गईं।
मां की रंगत पल- पल बदल रही थी : उजला उन का रंग तेज़ी से नीला पड़ता जा रहा था और झगिया रहे उन के होंठ अजीब ढंग से फड़फड़ा रहे थे।
मैं अपने पिता के पास लपक लिया। रात में मेरे पिता अपने कमरे का दरवाज़ा बंद रखा करते। देर तक फ़िल्में देखते।
“पापा,” मैं ने दरवाज़ा खटखटाया, “जल्दी उठिए, पापा!”
“क्या है?” उन्हों ने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया।
“मां की हालत बहुत खराब है, पापा…..उन्हों ने चूहे वाली गोली खा ली हैं….तीन….उन्हें अस्पताल पहुंचा दीजिए। अभी…..जल्दी…..जल्दी…..”
“शांत हो जाओ,” मेरे पिता मुस्कराए—- “मैं देखता हूं,अभी देखता हूं…..”
मगर अपने कमरे से निकल कर वह मां के पास नहीं गए, नंदू के पास गए।
“उन्नीस नंबर के डाक्टर साहब को बुला लाओ,” हमारे घर का नंबर पैंसठ था, “कहना, बहूजी की तबीयत गड़बड़ा रही है, फ़ौरन चले आएं…..”
“आप मां को किसी गाड़ी में अस्पताल ले चलिए,पापा,” उस समय मेरे पिता के पास एक स्विफ़्ट गाड़ी के इलावा बेलोने भी रही, “उन के इलाज में देरी ठीक नहीं…..”
“यहां से अस्पताल दूर है या उन्नीस नंबर?” वह खीझ गए।
“अस्पताल,” नंदू हंसा।
“और फिर अस्पताल के रात के डाक्टर ज़्यादा इल्म नहीं रखते और हमारे यह उन्नीस नंबर वाले बहुत इल्मी हैं,बहुत समझदार हैं…..”
“अपने पिता को कपड़े पहन रहे नंदू के पास छोड़ कर मैं मां के पास दौड़ा चला आया।
मां मेरे कमरे में फ़र्श पर लोट रही थीं।
कभी पेट के बल लेटतीं तो कभी पीठ के।
कभी घुटने ऊपर उठा कर पैर ज़मीन पर पटकतीं तो कभी घुटने सिकोड़ कर अपनी जांघे अपने पेट के साथ सटकातीं।
कभी छाती पर हाथ चलातीं तो फिर माथे पर…..
“आप मेरे बिस्तर पर लेट जाओ, मां,” पिता की लापरवाही और मां की बेचैनी मेरे अंदर अजीब उथल- पुथल मचाए थी।
“तेरे सिवा मेरा कोई नहीं,” मां रोने लगीं।
मैं सहम गया।
मां की ज़िंदगी की जूझ मेरी जूझ बन गई।
मैं दोबारा अपने पिता के कमरे की ओर भागा।
कमरे का दरवाज़ा खुला था और वह वहां न थे।
मैं लाॅन की ओर लपका।
रात के अपने बेचैन पलों में मेरे पिता अक्सर चहलकदमी करते। लाॅन पर। रात मैं भी लाॅन रोशनी में जगमगाया रहता। लाॅन के एक तरफ़ यदि सड़क की तेज़ फ़्लड लाइट रहती तो दूसरी तरफ़ हमारे घर के अंदर से जलाए- बुझाए जाने वाले बिजली के तेज़ बल्ब।
“क्या बात है?” मुझे देखते ही मेरे पिता मेरी ओर बढ़ आए।
“मां की हालत बहुत बिगड़ रही है…..”
“तुम ख्वाहमख्वाह अपनी सांस फुला रहे हो। चूहे की वे गोलियां उसे क्या तुम ने खिलायीं थीं…..?”
“नहीं,” मैं ने सिर हिलाया।
“तो क्या मैं ने खिलायीं थीं?”
“हां,” मैं नहीं जानता उस एक पल मेरी ज़ुबान कैसे फिसल गई।
“क्या बकता है?” मेरे पिता ने मुझ पर हाथ फेंका,“ उस के हाथ- पैर बांध कर उस के मुंह में जबरन वे गोलियां मैं ने ठूंसी थीं क्या?”
“नहीं,” मैं रोने लगा।
“जा, मेरे कंधों पर एक ज़ोरदार हल्ल्न दे कर उन्हों ने मेरा चेहरा घर के दरवाज़े की दिशा में मोड़ दिया, “जाकर अंदर बैठ। और ज़हरीली उस गोली की बात फिर कभी अपनी ज़ुबान पर मत लाना। लाएगा तो मुझ से पिटेगा…..”
मैं अपने कमरे में लौट लिया।
मां की हड़बड़ी और उठा- पटक मंद पड़ रही थी….
एकाएक मुझे लगा कमरे की हवा पलटी- पलटी थी और कमरे में मां अकेली न थीं।
कमरे की हवा का आड़ा वेगवान एक हिलोरा मां पर जादू पेर रहा था……
जभी तो देखते- देखते मां का सिर, मां के कंधे, मां की पीठ, मां के कूल्हे, मां के घुटने, मां के टखने फ़र्श से चिपकते चले गए…..
डैनों- सी ऊपर उड़ रही उन की भौंहें जड़ हो गईं…..
हांफ़ रहे नथुने निश्चल पड़ गए और मुड़क रहे होंठ स्थावर…..
बायीं गाल की वह गतिशील मांसपेशी भी तेज़ी से अपनी गति खो बैठी…..
मां का मूत्तिकरण सम्पन्न हो गया और एक अजानी शांति उन के चेहरे पर उभर आयी।
मूर्तिवत् मां कैसी सुंदर लग रहीं थीं! कैसी सौम्य दिख रही थीं!!
केवल उन के कपड़े अटपटे थे, अस्त-व्यस्त थे….
मगर मैं ने उन्हें न छुआ।
फ़र्श से उठ कर अपने बिस्तर तक चला आया। पैंताने पर तहायी हुई रखी चादर की तहें मैं ने मां के कपड़ों पर खोल दीं।
अब केवल मां का चेहरा अनावृत था : पवित्र और रमणीय । मौन और नीरव।
“किशोर,” कमरे के दरवाज़े पर मेरे पिता ने मुझे पुकारा, “डाक्टर साहब आ गए हैं…..”
“यह इधर फ़र्श पर कैसे आयीं?” फ़र्श पर डाक्टर अपने घुटनों पर बैठ लिए।
बैठते ही उन्हों ने मां की पलकें खोलीं और अपनी टॉर्च की रोशनी उन की आंखों पर जा टिकायी ।
“मुझे अफ़सोस है,” उन्हों ने मां की नब्ज़ टटोली, “यह अब जीवित नहीं…..”
“आइए, उधर बैठते हैं,” मेरे पिता ने डाक्टर से कहा।
“आओ बेटे,” डाक्टर ने मेरे कंधे थपथपाए, “तुम भी उधर चलो…..”
“नहीं,” मेरे कंठ पर अटक रही मेरी चीख बाहर निकल आयी, “मेरे सिवा मां का यहां कोई नहीं…..”
“लड़का संत्रास में है,” डाक्टर ने अपनी बांह मेरे कंधे पर टिका दी, “आपकी पत्नी ने शायद इस के सामने दम तोड़ा है । नहीं क्या?”
“यह कुछ नहीं जानते,”मेरे कंठ से नयी चीख फूटी, “मां के बारे में यह कुछ नहीं जानते…..”
“उन के बारे में मैं भी कुछ नहीं जानता,” डाक्टर ने अपनी दूसरी बांह मेरे दूसरे कंधे पर ला टिकायी, “और मैं बहुुत कुछ जानना चाहता हूं। मगर यह बताओ तुम्हारा ऊंची आवाज़ में यों चिल्लाना उन्हें अच्छा लगता था या खराब?”
“खराब,” मैं कट गया, “बहुत खराब…..”
“फिर यों चिल्ला- चिल्ला कर तुम उन्हें बेआराम क्यों करना चाहते हो? देख नहीं रहे वह कितनी शांति से सो रही हैं…..”
मैं ने फ़ौरन अपनी सांस खींच ली।
“नंदू,” मेरे कमरे से निकलते ही रसोई के दरवाज़े पर खड़े नंदू को मेरे पिता ने आदेश दिया, “भैया जी को उधर मेरे बिस्तर पर ले जाओ।मुझे अभी डाक्टर साहब से कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं……”
“फिर मिलेंगे बेटे,” मेरे पिता का संकेत डाक्टर ने तत्काल ग्रहण कर लिया तथा मुझ से समापक मुद्रा में विदा ले ली, “और विस्तार से बात करेंगे…..”
अपने पिता के बिस्तर पर पहुंच कर मैं चुपचाप लेट गया।
“आपसे एक भेद की बात कहें,भैया जी?” नंदू मेरे पैरों के पास ज़मीन पर बैठ गया।
“क्या है?” मेरा स्वर रूखा रहा।
“रात में अपने क्वार्टर पर जाते समय हम रसोई की दहलीज़ पर तीन गोली छोड़ गए थे। अब वे तीनों गायब हैं।”
“मैं जानता हूं,” मैं ने कहा।
“भेद की बात दूसरी है, भैया जी,” नंदू ने अपना स्वर धीमा कर दिया, “बात- बात पर बाबूजी को बहूजी में दोष निकालते देख कर हमारे मन में वहम बैठ गया था, बहूजी किसी भी दिन रात के सूनेपन में घबरा कर चूहे वाली वह गोली खा बैठेंगी और हम वृथा में पाप में भागीदार बन जांएगे…..”
“तो?” मैं बिस्तर से उठ कर बैठ लिया।
“हम ने चूहों के लिए जितनी भी गोली बनाईं, भैया जी, एको में चूहों को मारने वाली गोली नहीं छोड़ी…..”
“क्या मतलब?” मेरी दहल बढ़ गयी।
“हमें भी कुछ समझ नहीं आ रहा, भैया जी। मगर आप से बता रहे हैं हम, अब यहां ज़्यादा दिन रुकेंगे नहीं। दूसरी जगह ढूंढ़गे…..”
मेरे दादा सपत्नीक अगले दिन आए।
“ बबुआ,” मेरे पिता की सौतेली मां ने मुझे देखते ही अपने अंक से लगा लिया, “तेरे बाप की मैं सौतेली सही, मगर तेरी तो सगी हूं। इस उजाड़ में अपने जीते- जी तुझे न रहने दूंगी। तुझे मेरे साथ चलना होगा…..”
उन के प्रस्ताव पर मेरे पिता ने तनिक आपत्ति न की।
मेरा सामान बांधते समय नंदू ज़रूर रोया।
मैं नहीं जानता नंदू ने वह घर कब छोड़ा।