ये कहानी केवल मनोरंजन के लिए नहीं लिखी है ये एक संदेश है उन मौजूद ओर आगे आने वाली पीढ़ियों को अपने माता पिता को वृद्धाश्रम का दर्द न दे इस कहानी के माध्यम से उनका दर्द महसूस करे 💔
शाम के धुंधलके में जब सूरज पहाड़ों के पीछे छिप रहा था, तब वृद्धाश्रम के आंगन में बैठे बुजुर्गों की आंखों में एक अलग ही किस्म का इंतजार था। कोई अपने बेटे के फोन का इंतजार कर रहा था, कोई अपनी बहू की आवाज सुनने को तरस रहा था, तो कोई पोते की किलकारी याद करके गहरी सांसें ले रहा था।
70 साल के **रामेश्वर बाबू** उस लकड़ी की बेंच पर बैठे थे, जो अब उनकी उम्र की तरह जर्जर हो चुकी थी। हाथ में एक पुरानी डायरी थी, जिसके पन्ने वक्त के साथ पीले पड़ चुके थे। हर पन्ने पर यादों की स्याही बिखरी हुई थी—बेटे की स्कूल की पहली तस्वीर, बेटी की शादी का कार्ड, पत्नी के लिखे कुछ खत... और एक कागज़ जिस पर लिखा था— **"पापा, हम आपको अच्छे हाथों में छोड़ रहे हैं। यहां आपकी देखभाल अच्छी होगी।"**
आज उस पत्र को पढ़ते-पढ़ते उनकी आंखों में आंसू आ गए। **"अच्छे हाथ?"** उन्होंने खुद से सवाल किया। **"क्या अपने ही खून के हाथ इतने बेगाने हो जाते हैं?"**
पास बैठी **सावित्री देवी**, जो कभी अपनी बहू की मां जैसी हुआ करती थीं, आज उन्हीं की एक झुंझलाहट भरी आवाज़ को याद करके सुबकने लगीं—
*"मम्मी जी, आपसे अब घर संभलता नहीं, हमें भी अपनी जिंदगी जीने का हक है। वृद्धाश्रम आपके लिए बेहतर रहेगा।"*
वो दिन और आज का दिन, सावित्री देवी का मन अपनी बहू की तस्वीर को निहारते-निहारते यही सोचता कि क्या उनकी परवरिश में कोई कमी रह गई थी?
उधर, **गिरीश काका**, जो पहले अपने गांव के सबसे बड़े जमींदार हुआ करते थे, अब दूसरों के दिए कपड़ों में लिपटे एक कोने में बैठे रहते। एक दिन जब किसी ने उनसे उनकी उदासी का कारण पूछा, तो बस इतना ही बोले— **"जिस बेटे को गोद में खिलाया था, आज उसी ने कहा, 'पापा, हमारे घर के लिए आप बोझ बन गए हैं।'"**
वृद्धाश्रम की चारदीवारी में सिसकियों और आंसुओं का शोर था, मगर बाहर की दुनिया में कोई इसे सुनने वाला नहीं था।
अचानक दरवाजे पर एक दस्तक हुई। सबकी निगाहें उधर मुड़ गईं। क्या ये कोई खोया हुआ रिश्ता लौटकर आया था? या फिर कोई और आत्मा थी, जिसे अपनों ने ठुकरा दिया था?
वृद्धाश्रम के दरवाजे पर दस्तक हुई। सबकी नजरें उस तरफ उठ गईं। **"शायद मेरा बेटा आया होगा!"** रामेश्वर बाबू ने बेंच से उठने की कोशिश की, मगर उम्र ने उनका साथ नहीं दिया। सावित्री देवी ने भी अपने कांपते हाथों से आंचल ठीक किया, जैसे कोई अपना मिलने आ रहा हो। लेकिन जब दरवाजा खुला, तो वहां खड़ा एक युवक था, जिसके चेहरे पर अजीब-सा भाव था—संकोच और अपराधबोध का मिश्रण।
"कौन है बेटा?" वृद्धाश्रम की देखभाल करने वाले **शास्त्री जी** ने पूछा।
युवक ने झिझकते हुए जवाब दिया, **"माँ को छोड़ने आया हूँ।"**
पूरे आंगन में सन्नाटा छा गया। एक और आत्मा, जिसे उसके अपनों ने ठुकरा दिया।
पीछे से एक दुबली-पतली महिला कांपते कदमों से अंदर आई। **गंगा देवी**, उम्र 68 साल, चेहरे पर झुर्रियां, लेकिन आंखों में एक मासूम इंतजार।
"बेटा, मुझे यहां क्यों ला रहे हो?" उनकी आवाज में कंपकंपी थी, लेकिन उम्मीद अब भी ज़िंदा थी।
युवक ने नजरें झुका लीं। **"माँ, घर छोटा हो गया है... बहू की तबीयत ठीक नहीं रहती, बच्चों की पढ़ाई का भी दबाव है..."** वह खुद को सही ठहराने की कोशिश कर रहा था।
गंगा देवी ने अपने बेटे का चेहरा गौर से देखा। यही वही लड़का था, जिसे बचपन में उन्होंने गोद में सुलाया था, खुद भूखी रहकर भी जिसे खिलाया था। **"घर छोटा हो गया, या दिल?"** उनकी आवाज़ भर्रा गई।
आंगन में बैठे बुजुर्गों की आंखें नम थीं, क्योंकि ये दर्द उनका भी था।
"क्या मैं बोझ बन गई?" गंगा देवी ने कांपती आवाज़ में पूछा।
युवक ने कोई जवाब नहीं दिया, बस जेब से कुछ रुपये निकालकर शास्त्री जी की तरफ बढ़ाए, **"इनका ख्याल रखना।"**
रामेश्वर बाबू से रहा नहीं गया, वे बोल पड़े, **"बेटा, माँ के लिए रुपये नहीं, प्यार चाहिए होता है।"**
युवक ने उनकी ओर देखा, लेकिन कुछ कहे बिना गाड़ी में बैठकर चला गया। गंगा देवी की आंखें दरवाजे की तरफ टिकी रहीं, शायद उम्मीद थी कि बेटा वापस आएगा... लेकिन वो नहीं आया।
गंगा देवी ने वृद्धाश्रम में कदम रखा। किसी ने चुपचाप उनके लिए पानी रखा, किसी ने सहारा दिया। एक और माँ, जिसे अपनों ने छोड़ दिया, अब इस अनजान घर में थी, जहां सबके दर्द एक जैसे थे।
शाम होने लगी, लेकिन उस वृद्धाश्रम के आंगन में एक अंधेरा और गहरा हो गया था...
( **अगला भाग जल्द...** )