Rang hain Ravabhai in Hindi Fiction Stories by Chaudhary Viral books and stories PDF | रंग है रवाभाई !

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रंग है रवाभाई !

यह उस समय की बात है, जब धरती का अमृत और इंसानियत का जल अभी तक सूखा नहीं था।
विक्रम संवत 1966 का चैत्र महीना था, स्थान था सौराष्ट्र।
आसमान से मानो फूल बरस रहे हों। भावनगर के गोहिलवाड़ क्षेत्र की वह रसीली मिट्टी,
जो तेज़ गर्मी के दिनों में भी, गर्मियों की ज्वार और रजका की हरी ओढ़नी में
शिल्प की लहरों का आनंद लेती थी।

कणबी समुदाय की छोटी बच्चियाँ, गाजर, मूली या मूँग की कोमल फलियाँ चबाते हुए
खेतों की क्यारियों की देखभाल करती थीं, और शाम ढले, सादगी से गुनगुनाती थीं:

कौन भाई के कुएं पर कचुड़ियाँ खेलती हैं,
कौन भाई की बगिया को सब ले जाते हैं,
आम का पेड़ झूम रहा है, और उस पर ढेरों रसीले फल हैं!


यह रामनवमी का पावन दिन है। हरी-भरी सीमाओं में मानवों की चहल-पहल नहीं है।
किसानों ने अपने खेतों की मेड़ों को संभाल लिया है, बैलों को खोल दिया गया है,
और वे खुद उपवास रखकर गांव के ठाकोरजी के मंदिर में रामजन्म का उत्सव मना रहे हैं।
पूरी सीम जैसे मौन है, शांत है।

इसी महान त्योहार की सुबह के पहले पहर में, एक नवयुवक घुड़सवार, जिसकी मूंछें अभी उग रही हैं,
वरतेज और चित्रा गांव के बीच से रास्ता काटता चला जा रहा है।
रंग-बिरंगे फूलों से सजी हुई उसकी घोड़ी इठलाते हुए चल रही है।
बिलकुल निडर मोर, हरे खेतों में अपनी जामुनी गर्दन का प्रदर्शन करते घूम रहे हैं।
वरतेज की आम की बगिचियों में कोयलें डाल-दाल झूलती हुई मीठे गीत गा रही हैं।

ऐसी सोने सी चमकती सुबह, गूंजते आम के बाग़,
ऊँचे टीले से बहकर आती हुई शीतल हवा और देवपंखी पक्षियों की टौकार —
सब कुछ इतना सुंदर है…

लेकिन उस घुड़सवार का मन फिर भी बेचैन है।

“हांकते रहो, भाई! ज़रा तेज़ हांको, बापू! देखो ज़रा, कहीं रामनाम का जुलूस रास्ते में न आ जाए!”
ऐसे कहते हुए एक राजपूत आगे बढ़ रहा था, जिसकी संगत में दो बैलगाड़ियाँ थीं, जिनमें काठ के झोपड़े बनाए जाने की सामग्री लदी हुई थी। गाड़ियाँ खचाखच भरी हुई थीं।
एक गाड़ी को 'परमार' नाम का राजपूत हांक रहा था और दूसरी में 'जगो मकवाणा' नामक कोली बैठा था।

जब वे वरतेज और चित्रा गाँव के बीच काले आम के पेड़ के पास पहुँचे, तो राजपूत ने देखा कि आगे 25-30 यात्रियों से भरी 3-4 और गाड़ियाँ चल रही हैं।
इतने सारे स्त्री-पुरुषों के एक साथ जा रहे समूह को देखकर उस सवार ने घोड़ी की लगाम ढीली छोड़ दी और अपनी गति बढ़ा दी।
पलभर में ही वह आंबी को पार कर गया और सामने से उसने उस समूह को पहचान लिया। उसे लगा कि ये तो अपने गाँव के गोरधन सेठ और दडवाना के चांपशी सेठ हैं।

वहीं से समूह की ओर से आवाज़ आई:
“अरे! ये तो हमारे रवा भाई हैं! ये तो बापू हैं! आइए! आप कहाँ से आ रहे हैं? जय स्वामीनारायण!”

“जय स्वामीनारायण, गोरधन सेठ! चांपशी सेठ, जय स्वामीनारायण!”
रवा भाई ने उत्तर दिया,
“हमारे ओढ़े (झोंपड़े) बन रहे हैं, उसी के लिए लकड़ी लेने मैं भावनगर गया था।”

“अच्छा हुआ, अच्छा हुआ,” दो-तीन सेठ बोले,
“हम भी भावनगर किसी काम से गए थे और अब घर लौट रहे हैं। हमारे साथ पाँच-सात हजार रुपये का माल है। अच्छा हुआ जो आप साथ मिल गए।”

“हाँ, जरूर! अगर ऐसा है तो हम सब साथ चलेंगे, लेकिन अब मुझे और सतर्क रहना पड़ेगा।”
ऐसा कहते हुए रवा भाई ने अपनी बैलगाड़ियाँ सबसे आगे रखीं,
बीच में वणियों (सेठों) की गाड़ियाँ रखीं और खुद घोड़े पर चढ़कर सबसे पीछे चलने लगे।

जब सबने नदी की लंबी रेत पार की और सामने किनारे पर चढ़े,
तब चकोर (तेज नजरवाला) रवा भाई ने देखा कि काले आम से दो हथियारबंद सिंधी लोग उनके पीछे-पीछे आ रहे हैं।
उन्हें देखकर रवा भाई ने पूछा,
“कहाँ भाई? आप लोग कहाँ जा रहे हैं?”

सिंधियों ने उत्तर दिया:
“यह सरहद (सीमा) हमारी ज़िम्मेदारी में है। यदि कोई यात्री किसी ख़तरे के साथ चल रहा हो, तो उसकी रक्षा के लिए हमारे साथ चलने का दरबारी हुक्म है।”

ऐसा उत्तर मिलने के बावजूद रवा भाई की शंका बनी रही।
उन्होंने कहा:
“अगर ऐसा है, तो ठीक है, पर हमें आपकी जरूरत नहीं। क्योंकि मैं राजपूत गरासिया हूँ, और साथ हूँ, इसलिए आप लोग खुशी से लौट सकते हैं।”

लेकिन वणियों (सेठों) ने कहा:
“एक से दो अच्छे होते हैं, रवा भाई बापू! इन्हें साथ चलने दीजिए।”

रवा भाई ने ज़्यादा आग्रह नहीं किया और सबने मिलकर फिर से यात्रा आगे बढ़ा दी।

रवा भाई काठियावाड़ के पच्छेगाम के देवाणी भायात वडोद (देवाणी) के भागीदार थे। वे सभी भावनगर से आ रहे कालिया आम्बा के साथ थे।
ढलान उतर चुकी थी और शाम होने लगी थी, तब चोगठ और डभालिया
गांव के बीच कालीसर नदी पार कर सभी सामने किनारे पर चढ़े। उसी समय
रवा भाई की तेज़ और सतर्क निगाहों ने दो अन्य हथियारबंद व्यक्तियों को
रास्ते के बीच बैठे हुए देखा। शुरू से ही यह राजपूत चारों तरफ़ नजर
डालता हुआ सतर्कता से चल रहा था, इसलिए उसने रास्ते में बैठे हथियारबंद
व्यक्तियों को देखकर निगाहें घुमा लीं। तभी उसने दूर से रास्ते के किनारे दो
अन्य हथियारबंद व्यक्तियों को भी अपनी ओर आते देखा। उसे पहले से
ही साथ चल रहे दो हथियारबंद लोगों पर शक था, और अब
यह पूरी स्थिति देखकर उसे यक़ीन हो गया कि साथ चलने वाले ये हथियारबंद
लोग सुरक्षाकर्मी नहीं, बल्कि इन व्यापारियों पर डाका डालने वाले हैं।


लूटमार का समय अब आ गया है — ऐसा सोचकर उसने खुद को संभाला,
तलवार की मूठ पकड़ी, सतर्क हो गया, और आगे क्या होता है यह देखते हुए
चुपचाप आगे बढ़ा।

रास्ते के किनारे से आ रहे दो हथियारबंद लोग पहले से बैठे हुए दो आदमियों
के साथ मिल गए और जैसे ही गाड़ियाँ पास आईं,
चारों ने रास्ते में खड़े होकर ललकारते हुए गाड़ियाँ रुकवा दीं और कहा:


"हमें शक है कि इनमें अफीम है, इसलिए इन गाड़ियों की तलाशी लेनी है।"

गाड़ियाँ रुकीं, तो रवा भाई चौकन्ने हो गए।
वह घोड़ी से उतरकर अपने दोनों गाड़ीवालों को साथ लेकर आगे आए और
तलाशी के बहाने गाड़ियाँ रुकवाने की बात समझकर
आगे खड़े हथियारबंदों से नरमी से कहा:


"भाइयों! आगे गाँव में दरबारी पटेल के सामने आप
खुशी से जांच कर लेना; लेकिन ऐसे सुनसान क्षेत्र में बीच रास्ते तलाशी नहीं ली जाती।
इसलिए कृपया हटो और गाड़ियों को जाने दो।"

इतना कहते ही साथ चल रहे दो व्यक्ति, जो जंभेदार के रूप में थे,
उनमें से एक बोल पड़ा:


"दरबार! हमें आपके काठ की गाड़ियों की तलाशी नहीं लेनी है,
आप अपनी गाड़ियाँ लेकर आगे बढ़ जाओ।
बाकी इन दूसरी गाड़ियों की तलाशी तो लेनी ही पड़ेगी।"

रवा भाई इस चाल को समझ गए।
साथ चल रहे दोनों आदमी जंभेदार नहीं,
बल्कि इस लुटेरी टोली के ही सदस्य हैं — यह उन्हें पूरी तरह
समझ में आ गया।
वे बोले:


“भाइयों, ये सभी गाड़ियाँ मेरी ही हैं। काठ की गाड़ियाँ कोई अलग नहीं हैं।
आपका मकसद मैं समझ चुका हूँ। लेकिन क्या आप भावनगर के
दाहिने हाथ भा देवाजी का नाम जानते हैं?
मैं उनका वारिस हूँ। जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं,
आपकी मंशा पूरी नहीं हो पाएगी।
मेरे कुल की प्रतिष्ठा और शूरवीरता की छवि के कारण ही
सभी ने मेरा साथ दिया है।
इसलिए यदि मुझे यहीं मरना पड़े, तो भी मंजूर है।
फिर भी मैं हाथ जोड़कर एक बार और निवेदन करता हूँ कि
भाइयों, समझो और हमें जाने दो। आज रामनवमी है;
कृपया मेरे रास्ते से हट जाओ!”

लुटेरों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और अपनी सिंधी भाषा में कहा:

"इन सबमें से सिर्फ यही एक है।"
इतने में, एक ने दरबार पर अचानक तलवार का वार कर दिया;
लेकिन रवा भाई समय की पहचान रखने वाले थे!
उस वार को चूकवाकर, रवा भाई अपने साथियों की ओर देखकर बोले:


“भाइयों! मैं अकेला हूँ; ऊपर से उपवास में हूँ; दुश्मन अधिक हैं।
तुम बस मेरी पीठ संभाल लेना, बाकी तो स्वामीनारायण सहायता करेंगे।"


इतना कहकर रवा भाई ने तलवार खींच ली।

वाणिये तो डर से दूर हट गए, साथ के राजपूतों में से भी
राजपूती का नामो-निशान उड़ गया।
लेकिन "जगो कोली" नाम का व्यक्ति, हाथ में बड़ा डंडा लेकर,
दुश्मन के वार झेलने रवा भाई की पीठ के पीछे आकर खड़ा हो गया।
यह सब कुछ एक पल में हो गया।

धोखे का वार खाली गया, तो लुटेरे और भी चिढ़ गए;
और जब तक रवा भाई पूरी तरह तैयार होते,
तब तक एक दुश्मन ने जोर से रवा भाई पर तलवार का वार किया।
रवा भाई थोड़ा पीछे हटकर वार चूकवाने गए,
तभी दाहिने हाथ की कलाई पर दूसरा तेज़ वार पड़ गया।

एक तो वह पहले से ही उपवास में थे,
उस पर पीछे हटते समय ठोकर लगी और ऊपर से वार पड़ा,
इसलिए राजपूत का शरीर लुढ़क गया;
और लुढ़कते शरीर पर दुश्मन ने तुरंत ही दूसरा वार कर दिया।
लेकिन बड़ी फुर्ती से उस वार को चूकवाकर,
गिरते-गिरते ही रवा भाई ने जोर से तलवार का नीचे से वार किया
और एक दुश्मन को ज़मीन पर गिरा दिया और खुद फिर से खड़े हो गए।
तभी दूसरे दुश्मन ने सिर पर तलवार से वार किया,
वह उसके खुद के सिर पर ही लग गया;
लेकिन रवा भाई ने अपनी तलवार के एक ही वार से
उस दुश्मन को वहीं समाप्त कर दिया।

इस तरह एक दुश्मन मारा गया और दूसरा बुरी तरह घायल हुआ;
तो बाकी बचे दुश्मनों का हौसला टूट गया,
और वे दोनों लाशों को उठाकर जान बचाकर भाग गए।


लूटेरों ने रवाभाई की असाधारण वीरता देखी तो वे डर गए और अपने मारे गए साथियों की लाशें उठाकर भाग निकले।
(क्योंकि चोर-लुटेरे नहीं चाहते कि उनकी पहचान हो जाए, इसलिए वे अपने मरे हुए साथियों की लाशें भी साथ ले जाते हैं।)

जगा कोली ने अपनी ढाल से रवाभाई की पीठ पर आने वाले कई वार झेल लिए थे, फिर भी रवाभाई के बाँस (पसलियों), हाथ और सिर पर गंभीर चोटें आई थीं।
लेकिन रणभूमि पर उतरे इस राजपूत ने बिना रुके, खुली तलवार के साथ दुश्मनों के पीछे दौड़ लगा दी।

यह सब देखकर व्यापारी लोग भी आगे बढ़े और लुटेरों को पकड़ लिया।

जब रवाभाई की वीरता का जोश कुछ शांत हुआ, तभी उन्हें सिर की चोट का आभास हुआ।
चूँकि वे स्वामीनारायण संप्रदाय के सच्चे भक्त थे, उन्होंने तुरंत सबको कह दिया:

“अगर मेरे प्राण चले जाएँ तो चले जाएँ, पर मेरे भाइयों को यह जरूर कह देना कि मुझे दवा के रूप में शराब कभी मत पिलाना।”

सभी घाव गहरे थे, इसलिए रवाभाई धीरे-धीरे बेहोश होने लगे।
एक बैलगाड़ी खाली करवा कर उन्हें उसमें लिटाया गया और सभी धीरे-धीरे उन्हें लेकर घर की ओर रवाना हुए।

रात देर से सभी वडोद (गाँव) पहुँचे। जब रवाभाई की माँ को पता चला कि बेटा घायल हुआ है,
तो उन्होंने मुँह से दुःख का एक भी शब्द नहीं निकाला।
बस इतना ही कहा:

“मेरे बेटे को जो भी हो, लेकिन अगर मेरे गाँव के लोगों की जान-माल की रक्षा हुई है तो मैं समझती हूँ कि मेरा रवाभा जिंदा है। और मेरी तो आज की रामनवमी सफल हो गई।”

इस शौर्य की खबर तुरंत भावनगर नरेश जसवंतसिंह जी तक पहुँची।
उन्होंने विशेष रूप से वडोद (गाँव) में कहलवाया:

“जब रवाभाई स्वस्थ हो जाएँ और उनके सिर पर पानी डाला जाए (घाव पूरी तरह भर जाएँ), तब हमें तुरंत खबर देना।”

लगभग दो महीने तक रवाभाई बिस्तर पर पड़े रहे।
जब उनके घाव भर गए और सिर पर पानी डाला गया (रिवाज अनुसार),
तब महाराजा ने एक सोने की मूठ वाली तलवार और सोने की शाल (शेलू) उपहार में भेजी,
और बहुत प्रशंसा की। उन्होंने रवाभाई की वीरता की भरपूर कद्र की।


कुछ वर्षों बाद की बात है:
भाल प्रदेश के एक गाँव में चोरों का दायरा (सभा) लगा था।
वहाँ नवाबखां जामादार नामक एक वृद्ध सिंधी मेहमान के रूप में उपस्थित था।
जमादार दायरे में बैठने वाले – यानी अफीम का सेवन करने वाले – व्यक्तियों में से एक था।

जब क़सुम्बो (अफ़ीम का घोल) आया,
तो जमादार ने क़सुम्बो लेने से पहले अपनी उंगलियों से छींटा मारकर कहा:

“रंग है रवाभाई राजपूत का!”

और फिर उसने क़सुम्बो लिया।

सभी उपस्थित लोगों को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ।
सबने पूछा:

“रवाभाई कौन?”

तब जमादार ने ऊपर जो घटना घटी थी, वह विस्तार से सुनाई:

“मैं भावनगर रियासत में भाल-पन्थक (क्षेत्र) का जमादार था।
रियासत का कर (टैक्स) वसूलने के लिए भावनगर गया था।
वहाँ कुछ व्यापारियों के 5-7 हजार रुपये लेकर बाहर निकलने की खबर मिली,
तो मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई और हमने छह लोगों की टोली बनाकर उनका पीछा किया।
दो लोग व्यापारियों के साथ जासूस बनकर चल दिए और चार लोग आगे चले।
कालिसर नदी के पास हम सब मिले और फिर झगड़ा हुआ।
उस झगड़े में मैंने अपनी आँखों से देखा कि सच्चा राजपूत तो बस रवाभाई ही था!
तभी से मैं हर बार क़सुम्बो लेने से पहले रवाभाई को ‘रंग’ देकर ही क़सुम्बो लेता हूँ,
और अल्लाह से अपने पापों के लिए तौबा करता हूँ।”


 -सौराष्ट्रनी रसधार से..

अनुवाद: Viral Chaudhary (विरल चौधरी)