सुमित का बचपन एक छोटे से गाँव में बीता, जहाँ न तो बड़ी इमारतें थीं, न ही इंटरनेट का नामो-निशान। लेकिन एक चीज़ थी जो उसे बाकी बच्चों से अलग बनाती थी—उसकी नज़र। नहीं, वो किसी चमत्कार की बात नहीं थी, बल्कि उसकी नज़र में तस्वीरें बसी होती थीं। किसी टूटे हुए खिलौने में भी वो कहानी खोज लेता था, किसी सूखे पेड़ में भी उसे ज़िंदगी की झलक मिलती थी।
सुमित का सपना था—फोटोग्राफर बनने का। लेकिन उसके पिता को ये सब “बेवकूफी” लगता था। वो कहते, “तस्वीरों से पेट नहीं भरता, खेती कर, असली काम सीख।”
माँ बस चुप रहती, पर उसकी आँखों में हमेशा सुमित के लिए एक अनकही दुआ होती थी।
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सुमित ने किसी तरह गाँव के स्कूल से 12वीं पास की। उसने घरवालों से छिपकर मोबाइल में फोटो खींचने शुरू किए। खेतों में, गाँव की गलियों में, त्योहारों में—जहाँ भी भावनाएँ थीं, सुमित की नज़रें वहाँ तस्वीरें बुनती थीं।
एक दिन गाँव में एक मेले का आयोजन हुआ। एक NGO ने फोटो प्रतियोगिता रखी थी। सुमित ने हिम्मत जुटाकर अपनी एक तस्वीर भेजी—एक बुज़ुर्ग महिला की, जो टूटी चप्पल पहनकर मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी, पर चेहरे पर शांति थी।
तस्वीर ने पहला पुरस्कार जीत लिया। शहर से एक अखबार के फोटोग्राफर ने कहा, “अगर सही ट्रेनिंग मिले, तो तू बहुत आगे जा सकता है।”
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लेकिन यही बात जब सुमित ने अपने पिता को बताई, तो घर में तूफान आ गया।
“क्यों, अब खेत बेचेगा तू? फोटू खींच के रोटियाँ बनाएगा?” पिता ने ताना मारा।
उस रात सुमित ने पहली बार घर छोड़ने की सोची।
अगली सुबह माँ ने उसके हाथ में एक गठरी पकड़ा दी—कुछ पैसे, एक पुरानी जैकेट, और एक चिट्ठी।
माँ बोली, “जा बेटा, लेकिन एक वादा कर, कभी हार मत मानना।”
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सुमित शहर पहुँच गया। रहने की जगह नहीं थी, खाने का ठिकाना नहीं। स्टेशन के पास एक फोटोकॉपी की दुकान में काम करने लगा। रात में वहीं फर्श पर सोता, दिन में जब समय मिलता, मोबाइल से फोटो खींचता।
फिर उसने सोशल मीडिया पर एक पेज बनाया—“Dil Se Tasveer”। शुरुआत में किसी ने ध्यान नहीं दिया। पर धीरे-धीरे उसकी भावनाओं से भरी तस्वीरें लोगों के दिल को छूने लगीं।
एक दिन उसकी एक तस्वीर वायरल हो गई—एक बच्चा, जो स्कूल की खिड़की से बाहर झाँक रहा था, आँखों में सपने।
तस्वीर को बड़े-बड़े अकाउंट्स ने शेयर किया, और उसे एक वेबसाइट से कॉल आया—“हम आपके साथ काम करना चाहते हैं।”
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अब सुमित की जिंदगी थोड़ी पटरी पर आने लगी थी। उसे फोटो असाइनमेंट मिलने लगे। दिल्ली, मुंबई, जयपुर—हर जगह उसने आम लोगों की ज़िंदगी को अपनी तस्वीरों में कैद किया।
लेकिन एक दिन, जब वो एक फोटो शूट से लौट रहा था, उसके मोबाइल में एक कॉल आया—“माँ नहीं रही…”
वो फौरन गाँव पहुँचा। माँ अब चुप थी, हमेशा के लिए।
उसने देखा कि माँ के कमरे में उसकी तस्वीरें लगी थीं—अखबार में छपी, सोशल मीडिया की प्रिंट की हुईं। माँ चुपचाप उसकी हर कामयाबी देखती रही थी, चुपचाप गर्व करती रही थी।
एक पुरानी डायरी में माँ ने लिखा था—
> “मेरा बेटा तस्वीरें नहीं खींचता, वो ज़िंदगी को जीता है हर फ्रेम में। कभी न कहना कि तू अकेला है, तेरी माँ हमेशा तेरे साथ है।”
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माँ की मौत ने सुमित को तोड़ दिया, पर उसी टूटन ने उसे नया हौसला भी दिया। उसने अपनी पूरी कमाई से गाँव में एक छोटा सा “फोटोग्राफी स्कूल” शुरू किया—“माँ की नज़र से”।
अब वह गाँव के बच्चों को कैमरा पकड़ना सिखाता है, उन्हें बताता है कि तस्वीरें बोलती हैं—बिना शब्दों के।
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एक दिन, जब वह स्कूल में बच्चों को फोटो खींचना सिखा रहा था, एक बच्चा बोला, “भाईया, आप तो बड़े फोटोग्राफर हो, फिर यहाँ गाँव क्यों आए?”
सुमित मुस्कराया और बोला,
“क्योंकि मेरी सबसे खूबसूरत तस्वीर अब भी अधूरी है—वो तस्वीर जिसमें हर बच्चे के हाथ में एक कैमरा हो, और आँखों में सपने।”
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सीख:
कभी-कभी सपने अधूरे लगते हैं, लेकिन वही अधूरापन हमें रास्ता दिखाता है। तस्वीरें तो सब खींचते हैं, पर जो दिल से तस्वीर खींचे—वो ही असली फोटोग्राफर होता है।