साल 2010 की बात है। शिमला की बर्फीली वादियों में, एक छोटा सा कैफे था – "चाय और यादें"। उसी कैफे में पहली बार आरव और सिया की मुलाकात हुई थी।
आरव दिल्ली से आया था – एक लेखक, जो अपनी नई किताब के लिए प्रेरणा ढूंढ रहा था। वहीं सिया, शिमला की रहने वाली एक चुपचाप लड़की थी, जो उस कैफे में काम करती थी।
आरव रोज़ सुबह अपनी डायरी लेकर आता, एक कोना पकड़ता और घंटों लिखता रहता। सिया चुपचाप उसकी टेबल पर उसकी पसंदीदा इलायची चाय रख जाती, और मुस्कुरा देती। नज़रें मिलती थीं, पर बातें नहीं होती थीं।
एक दिन बर्फ बहुत तेज़ पड़ रही थी। कैफे में कोई नहीं आया, सिवाय आरव के। और उस दिन, आरव ने पहली बार सिया से बात की।
"तुम्हें ठंड नहीं लगती?" आरव ने पूछा।
सिया मुस्कराई, "हम पहाड़ी लोग ठंड के दोस्त होते हैं।"
आरव को उसकी आवाज़ में एक सुकून मिला। उस दिन उन्होंने पहली बार लंबी बात की – किताबों, सपनों, और खोए हुए रिश्तों पर। सिया ने बताया कि उसका सपना था एक बार खुद की किताब लिखने का, पर कभी हिम्मत नहीं हुई।
आरव ने मुस्कुरा कर कहा, "अगर तुम लिखोगी, मैं ज़रूर पढ़ूंगा।"
उस दिन के बाद, हर सुबह चाय के साथ उनकी बातों की गर्माहट बढ़ती गई। वो दोस्त बने, फिर सबसे अच्छे दोस्त, और धीरे-धीरे कुछ और भी।
एक शाम, जब पूरा शहर बर्फ में ढका था, आरव ने सिया से कहा, "शायद मैं तुम्हें पहले से जानता हूँ। तुम्हारी हर बात, जैसे मेरे दिल में पहले से थी।"
सिया की आँखें नम हो गईं। "कभी-कभी लगता है, हम पिछली ज़िंदगी से जुड़े हैं।"
कुछ दिन बाद, आरव को दिल्ली लौटना पड़ा। उसने वादा किया – "मैं लौटूंगा, तुम्हारे लिए। बस थोड़ा वक़्त दो।"
सिया ने उसे एक चिट्ठी दी – "जब भी मेरा ख़्याल आए, इसे पढ़ना।"
दिल्ली की भीड़ में, आरव उलझ गया। करियर, किताबें, नाम – सब मिल गया, पर सिया की यादें हर शब्द में बसी थीं। वो हर रात उसकी चिट्ठी पढ़ता:
"जब तुम मुझे याद करोगे, मैं हवा बनकर तुम्हें छू जाऊँगी। जब तुम अकेले होगे, मेरी यादें तुम्हारे साथ बैठी होंगी। तुम लिखते रहो, क्योंकि तुम्हारी कलम में मेरा नाम भी है।"
एक साल बीत गया। आरव ने अपनी किताब पूरी की – जिसका नाम था: "वक़्त के उस पार", और उसने समर्पण में लिखा: "उस लड़की के नाम, जो हर सुबह मुझे चाय में सुकून देती थी।"
आरव वापस शिमला आया – उसी कैफे में। पर वहां अब सिया नहीं थी।
कैफे की नई मालकिन ने बताया, "सिया अब यहाँ नहीं है। पिछले महीने उसने पहाड़ छोड़ दिया। किसी ने कहा वो मसूरी चली गई, एक स्कूल में पढ़ाने।"
आरव का दिल टूट गया। लेकिन उसने उम्मीद नहीं छोड़ी।
कई महीने बाद, एक किताब मेले में, मसूरी में, आरव की नज़र एक स्टॉल पर गई – जहाँ लिखा था: "पहली किताब – 'उसका नाम बारिश था' – लेखिका: सिया मेहरा"
उस स्टॉल के पीछे, वही मुस्कुराहट खड़ी थी।
सिया ने उसे देखा। कुछ पल खामोशी रही। फिर उसने कहा –
"तुम्हारी कलम ने मेरी चुप्पी को आवाज़ दी।"
आरव मुस्कुरा उठा, "और तुम्हारी चाय ने मेरी किताब को सुकून दिया।"
उस दिन, वो दोनों घंटों बात करते रहे – अपने खोए हुए साल के बारे में, किताबों के बारे में, और अधूरी रह गई मुलाकातों के बारे में।
अंत में, आरव ने कहा, "अब कोई वादा नहीं। सिर्फ साथ चाहिए – हर सुबह, हर चाय, हर शब्द में।"
सिया ने हाथ बढ़ाया, "चाय और यादें… अब ज़िंदगी भर के लिए।"
Vaghasiya