Stree Ka Shrap Part 1 in Hindi Horror Stories by Vedant Kana books and stories PDF | स्त्री का श्राप - भाग 1

Featured Books
Categories
Share

स्त्री का श्राप - भाग 1

गाँव धनौरा अपनी शांति और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता था। हर साल वहाँ एक मेला लगता था, जिसमें दूर-दूर से लोग आते। लेकिन इस बार का मेला आख़िरी साबित हुआ लक्षिता के लिए।

लक्षिता गाँव की सबसे होशियार और सुंदर लड़की थी। वह पढ़ी-लिखी थी और महिलाओं के हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाली एकमात्र लड़की थी। गाँव में कई लोग उसकी इज़्ज़त करते थे, पर कुछ लोग उसकी आज़ादी और आत्मनिर्भरता से जलते थे — खासकर बलराज।

बलराज, सरपंच का बेटा था। वह लक्षिता को अपने "अधिकार" की तरह देखता था। जब उसने उसे मेला रात में अकेले जाते देखा, तो वह अपने साथियों के साथ मिलकर उसे अगवा कर ले गया।

अगले दिन लक्षिता की अधजली लाश पीपल के पुराने पेड़ के पास मिली। गाँव वाले कुछ समझ ही नहीं पाए। बलराज ने अपने रसूख से सबूत मिटा दिए। पुलिस भी उसकी जेब में थी।
लक्षिता की माँ ने न्याय की गुहार लगाई, लेकिन सब बेकार गया।

अधिरा, लक्षिता की सबसे अच्छी दोस्त थी। उसने उस रात सब देखा था, लेकिन डर से चुप रही। एक दिन वह लक्षिता की तस्वीर के सामने रोते हुए बोली —
“माफ़ कर दे लक्षिता… मैं कुछ न कर पाई…”
तभी हवा तेज़ चली, और लक्षिता की तस्वीर हिलने लगी। उस रात अधिरा को सपना आया — लक्षिता की आत्मा वापस लौट रही थी।

उसके बाद गाँव में अजीब घटनाएँ होने लगीं। रात को पीपल के पेड़ से चीखें आने लगीं। बलराज के दोस्तों की रहस्यमयी मौतें शुरू हो गईं। और अंत में अधिरा भी — रहस्यमयी हालातों में मरी।

पंडित हरिप्रसाद ने कहा था, “यह आत्मा इंसाफ़ माँग रही है… यह तब तक नहीं रुकेगी जब तक इसका बदला पूरा न हो जाए।”

गाँव में अधिरा की रहस्यमयी मौत के बाद एक अजीब सन्नाटा पसर गया था। पीपल का वह पेड़ अब गांव का सबसे डरावना स्थान बन चुका था। कोई भी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं करता था, न दिन में और न ही रात में। हवा में हर वक्त एक सर्दपन और सिसकियों की गूंज सुनाई देती थी, जैसे कोई अब भी दर्द से कराह रहा हो।

एक नई शुरुआत या अंत की दस्तक?

गाँव के पंडित हरिप्रसाद, जो अब तक सबको झाड़-फूंक और टोने से बचाते आए थे, उन्होंने सरपंच को बुलाकर कहा, “ये आत्मा अब शांत नहीं होगी... ये प्रतिशोध ले रही है। हमें कुछ करना होगा वरना पूरा गाँव खतम हो जाएगा।”

सरपंच ने गाँव के सभी बचे हुए लोगों को चौपाल में इकट्ठा किया। डर और अफ़सोस उनके चेहरों पर साफ़ झलक रहा था। बलराज—जिसकी वजह से सब शुरू हुआ था—वह सबसे अलग और शांत बैठा था। लेकिन उसकी आँखों में अब भी वह पुरानी घमंड की चिंगारी बाकी थी।

“जिसने पाप किया है, उसे ही प्रायश्चित करना होगा,” पंडित बोला।
“लक्षिता की आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब बलराज अपने अपराध कबूले और खुद उस पेड़ के नीचे जाकर माफी मांगे।”

बलराज ने ज़ोर से ठहाका लगाया, “मरे हुए वापस नहीं आते, और एक औरत की आत्मा मुझे क्या कर लेगी?”

उस रात, गाँव में और कुछ भयानक हुआ। बलराज के घर की दीवारों पर खून से लिखा मिला — "मैं लौट आई हूँ"
बलराज ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया, हाथ में बंदूक लेकर बैठा रहा। लेकिन दरवाजे अपने आप खुलते रहे। खिड़कियाँ खुद-ब-खुद हिलती रहीं। और फिर वही आवाज़...

बलराज ने दरवाजा खोला और सामने लाल साड़ी में वही औरत — लक्षिता — खड़ी थी।
इस बार उसके साथ गाँव के अन्य मृत लोग भी खड़े थे। उसकी माँ, उसका भाई, और अधिरा। सभी की आँखें खून से भरी हुई थीं।

“तू ही था न... जिसने सब शुरू किया था?” लक्षिता की आत्मा बोली।
बलराज चीखते हुए भागा, लेकिन जहाँ भी गया, दरवाजे बंद हो जाते। अंत में वह पीपल के पेड़ तक पहुँच गया।

वहाँ, वह आत्मा ने उसे जकड़ लिया। बलराज की चीखें रात भर सुनाई देती रहीं।
अगली सुबह, उसका शरीर उसी हालत में मिला, जैसे लक्षिता का मिला था — जला हुआ, खून से सना और आँखें खुली हुईं।

इसके बाद गाँव में शांति सी लौटने लगी। पेड़ से कोई साया नहीं उठता था, हवाओं में सिसकियाँ नहीं गूंजती थीं, और दरवाजे अपने आप नहीं खुलते थे।

लेकिन जो भी उस पेड़ के पास जाता, उसे लाल साड़ी में एक औरत की झलक ज़रूर दिखती...
जो अब भी वहाँ खड़ी होती थी — शांत, लेकिन सतर्क।

कहते हैं, अगर कोई फिर से अन्याय करेगा, तो 'वो' फिर लौटेगी...
क्योंकि लक्षिता अब सिर्फ एक आत्मा नहीं, गाँव की रक्षक बन चुकी थी।

“वो मरी नहीं... उसने जन्म लिया है — बदला लेने के लिए और न्याय करने के लिए।”