भाग 6: अस्पताल की खिड़की से बाहर
(जब एक बंद खिड़की… सच का दरवाज़ा बनती है)
आरव के कमरे में एक खिड़की थी — एकदम चुप, एकदम जड़ी हुई।
वो खिड़की, जो कभी खुलती नहीं थी। उस पर लगा काँच मोटा था, धुंधला और अपारदर्शी।
तकनीकी रूप से, वो “खिड़की” थी — लेकिन असल में, वो एक नकली दीवार थी।
आरव ने कभी उसे खोलने की कोशिश नहीं की थी —
या शायद… कभी उस ओर देखने की हिम्मत ही नहीं की।
पर उस रात कुछ अलग हुआ।
फिर से वही सपना — 18 जून 2017।
फिर वही दृश्य — सना उसकी गोद में, लहूलुहान, थमती साँसें।
और फिर एक भयानक सन्नाटा।
लेकिन इस बार नींद टूटने के बाद… उसके भीतर कुछ कचोट रहा था।
वो चुपचाप उठा। कमरे में अँधेरा था, पर उसकी आँखें अब उस अंधेरे से डरती नहीं थीं।
वो सीधा खिड़की के पास गया।
उसने पहली बार उस काँच को गौर से देखा — धूल जमी हुई थी, पर एक कोना साफ़ दिखने लगा।
आरव ने हाथ बढ़ाया और काँच को पोंछा।
धीरे-धीरे, वो दृश्य उभरने लगा —
बाहर एक बगीचा था।
पर ये कोई नया दृश्य नहीं था…
ये वही बगीचा था जो उसके सपनों में आता था।
एक झील जैसी आकृति वाला गड्ढा, चारों ओर फैले पेड़, और बीच में एक टूटा-सा बेंच।
सपने और हकीकत का मेल।
आरव झुका और आँखें गड़ा दीं उस बेंच पर —
वहाँ कोई बैठा था।
सफेद कपड़े… लंबे बाल…
सना।
उसके होंठ हिले — बिना आवाज़ के।
“सना?”
वो आँखें मलता है, दोबारा देखता है —
बेंच खाली।
कोई नहीं।
पर तभी… खिड़की के शीशे पर उसकी खुद की परछाई नहीं दिख रही थी —
वहाँ सना की परछाई थी।
आरव एक पल को काँप गया।
वो पीछे हटता है, कमरे में इधर-उधर चलता है — दीवारें टटोलता है, जैसे कुछ छुपा हो।
अचानक, उसके पाँव के नीचे कुछ खड़कता है।
फर्श पर एक टाइल ढीली है।
वो झुकता है, उंगलियों से टाइल हटा देता है —
नीचे एक छोटी सी धातु की डिब्बी रखी है, धूल और समय से ढकी हुई।
डिब्बी को खोलते ही, तीन चीज़ें मिलती हैं:
एक पुरानी चाभी
एक मुड़ा हुआ कागज़
और एक बुरी तरह से फटी हुई, मुड़ी-तुड़ी फोटो
आरव पहले कागज़ को खोलता है।
लिखा है:
"तुम सोचते हो तुम मरीज़ हो…
पर अगर सच्चाई जान लोगे,
तो तुम डॉक्टर बन जाओगे।"
उसके हाथ काँपते हैं।
वो अब फोटो को ध्यान से देखता है।
एक ग्रुप फोटो —
सभी डॉक्टरों के सफेद कोट में, मुस्कराते हुए।
बीच में खड़ी है सना, हाथ में फाइल लिए।
पर फोटो के सबसे दाईं ओर —
एक चेहरा काला कर दिया गया है, जैसे किसी ने उसे मिटा देना चाहा हो।
आरव उस चेहरे पर उँगली रखता है…
कुछ गहराई से महसूस करता है।
“ये… मैं हूँ?”
उसके माथे पर पसीना है — पर अब डर नहीं, सवाल है।
अगर वो एक डॉक्टर था…
तो फिर कब और कैसे…
मरीज़ बन गया?
या उसे जानबूझकर मरीज़ बनाया गया?
अगली कड़ी में पढ़िए:
भाग 7: भूलना… या भुला दिया जाना?
(जहाँ अस्पताल की परतों के नीचे दबी एक फ़ाइल बताती है —
कि किसे इलाज की ज़रूरत थी… और किसने खुद को मरीज़ बना डाला।)