The Host - Alok Singh Khalouri in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | द होस्ट - आलोक सिंह खालौरी

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द होस्ट - आलोक सिंह खालौरी

आम इनसानी प्रवृत्ति के अनुसार हम एक-दूसरे से बात किए बिना नहीं रह पाते हैं। इसी बात को एक दूसरे तरीके से देखते हुए हम पाते हैं कि पहले के घरों में घर के बाहर एक-दो लोगों के बैठने लायक एक छोटा सा प्लेटफार्म टाइप का चबूतरा बना हुआ अक्सर दिखाई दे जाता था जिस पर शाम के समय घर की महिलाएँ बैठ कर अपने आमने-सामने या फ़िर दाएँ-बाएँ के घरों में रहने वाली स्त्रियों से गप्पें मारने, इधर-उधर की चुगली करने और किसी न किसी के आपसी झगड़ों, पारिवारिक कलहों, अफ़ेयरों इत्यादि जैसी ज़रूरी रिपोर्टों को एक-दूसरे तक पहुँचा कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाया करती थीं। इसी इनसानी फितरत को भुनाने के लिहाज़ से बदलते समय के साथ घर के बाहर के इन चबूतरों की जगह टीवी ने ले ली और वह भी हमें वही सब दिखाने लगा जो हमें सुहाता था जैसे कि सास-बहू टाइप के सीरियल और बिग बॉस इत्यादि। इनमें से भी टीवी पर चल रहे बिग बॉस का क्रेज़ ऐसा है ज़्यादातर लोग अपना काम धंधा छोड़ कर इसमें भाग ले रहे प्रतिभागियों के बीच के आपसी झगड़ों, नोंक-झोंक और धींगामुश्ती को देखने के चक्कर में अपना कीमती समय बरबाद करते नज़र आते हैं कि चाहे-अनचाहे हम सबको दूसरे के फटे में अपनी टाँग घुसाने की आदत होती है। दोस्तों... आज इस विषय पर बातें इसलिए कि आज मैं यहाँ बिग बॉस की ही तर्ज़ पर लिखे गए जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे 'द होस्ट' के नाम से लिखा है आलोक सिंह खालौरी ने। इस उपन्यास के मूल में कहानी है प्रतिभा के धनी इरफ़ान खान नाम के उस निर्देशक की जिसकी पिछली 4 लो बजट मूवीज़ ने उसके ठरकी प्रोड्यूसर को ठीकठाक पैसा कमा कर दिया है। इसके बावजूद भी प्रोड्यूसर खुश नहीं है कि वह उसकी सैटिंग फ़िल्म की हीरोइनों से नहीं करवा रहा है। ऐसे में निर्देशक इस शर्त पर उसे बिग बॉस की तरह का एक कार्यक्रम प्रोड्यूस करने के लिए मना लेता है कि वो इस बार उसकी बात बनवा देगा। बिग बॉस की ही तर्ज़ पर इस कहानी में मेहमानों के रूप में कुछ ऐसी विवादित शख्सियतों को जगह दी गयी है जो किस न किस वजह से चर्चा में हैं या जिन्हें चर्चा में बने रहना सुहाता है। इन शख्सियतों में जहाँ एक तरफ़ किसी भी क़ीमत पर फिल्मों में अपना मुकाम बनाने को आतुर एक नवोदित टीवी एक्ट्रेस है तो वहीं दूसरी तरफ़ पल्प फिक्शन के सुनहरे दौर को वापिस लाने के लिए प्रतिबद्ध एक नवोदित स्वयंभू लेखक भी इसमें अपनी हाजिरी भर रहा है। साथ ही इस कार्यक्रम में एक ऐसी अभिनेत्री भी शामिल है जो अपने सुनहरे दौर को जी चुकी है लेकिन अब भी अपने दौर के गुज़र जा चुकने की हकीकत को मानने को तैयार नहीं है। इनके साथ ही इस कार्यक्रम में एक प्रतिभा का धनी युवा क्रिकेटर भी अपनी मौजूदगी दर्शा रहा है जो अपनी शराब की लत और अक्खड़पने की वजह से अपने कैरियर के बेड़ागर्क कर चुका है। साथ ही एक चरित्रहीन फ़िल्म निर्माता, तिकड़मी महिला वकील और एक शातिर चोर भी इस 'द होस्ट' के कुनबे में शामिल है।कार्यक्रम के दौरान अनपेक्षित ढंग से बिन बुलाए एक नवाब साहब और उनकी कनीज़ की एंट्री होती है और उसके बाद एक के बाद एक कर के कत्ल होने शुरू हो जाते हैं। इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कहीं भूतिया फैक्टरी में भूतों के दर्शन से दोचार होना पड़ता है तो कहीं आजकल के तुरत फुरत बनने वाले उन लेखकों और प्रकाशकों के ऊपर कटाक्ष होता दिखाई देता है जिन्हें सही भाषा, वर्तनी और त्रुटियों का ज्ञान तक नहीं। उपन्यास को पढ़ते वक्त विभिन्न चैप्टर्स की शुरुआत में उस सीन से संबंधित चित्रों ने ख़ासा आकर्षित किया।पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो रोचक एवं रहस्यमयी शुरआत के बाद यह उपन्यास मुझे एक सैट फॉर्म्युले पर आगे बढ़ता हुआ दिखाई दिया। पेज नम्बर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..'आज जो तुमने किया है न में....'कहानी के हिसाब से यहाँ 'किया है न में....' की जगह पर 'किया है न मैं....' आना चाहिए।पेज नम्बर 133 में लिखा नज़र आया कि..'वैसे नवाब साहब, मेरे कहानी सुनाने से अगर आप ही ये कहानी सुनाएँ'यहाँ 'मेरे कहानी सुनाने से' की जगह पर 'मेरे कहानी सुनाने के बजाय' आएगा। पेज नम्बर 138 में लिखा दिखाई दिया कि..'हमारे कथित अपराध के संबंध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं- एक तो कि क्या असेंबली में वास्तव में बम फेंके गए थे'यहाँ 'एक तो कि' की जगह पर 'एक तो ये कि' आना चाहिए। • शाबास - शाबाश यूँ तो बढ़िया कागज़ एवं कलेवर से सुसज्जित यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 213 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शब्दगाथा पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।