Bharat ki rachna - 18 in Hindi Love Stories by Sharovan books and stories PDF | भारत की रचना - 18

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भारत की रचना - 18

भारत की रचना / धारावाहिक
अठारहवां भाग    

   रामकुमार वर्मा की तरफ से, मुक्तेश्वर और उसके आस-पास के इलाकों का माना हुआ वकील पैरवी करने के लिए आ चुका था. क्या हो चुका है, ये तो सब जानते थे, परन्तु अब और क्या होना बाक़ी है, इस बात की उत्सुकता अदालत में आये हुए हरेक व्यक्ति के चेहरे पर थी. फिर सर्व-प्रथम रचना को अदालत में लाया गया. सारे दर्शकों की निगाहें, उस बेबस दुखिया पर टिक कर ही रह गई थीं. एक ही स्थान पर मानो सारी पुतलियाँ स्थिर हो चुकी थीं. रचना चुपचाप आकर कटघरे में अपना सिर झुकाकर खड़ी हो चुकी थी. लोग भी रचना को इन कुछ ही दिनों में उसका बदला हुआ रूप देखकर कुछ भी नहीं कह सके थे. सब-के-सब मानो अपने गलों में अंगारे भरे हुए, केवल दृष्टियाँ थामकर ही रह गये. परन्तु, रचना अपना सिर झुकाए, खामोशियों की बेजान प्रतिमूर्ति बनी हुई, अदालत के कटघरे में चुपचाप खड़ी हुई थी. मरती-गिरती, किसी लाश के समान, स्वास्थ्य की दृष्टि से, वह इन दिनों के बीच, शरीर से भी आधी होकर रह गई थी. उसके चेहरे पर छाया हुआ दुःख, क्षोभ, और विछोह, के बने हुए सारे चिन्ह, उसके मन और मस्तिष्क के द्वारा झेली हुईं समस्त यातनाओं की गवाही दे रहे थे. उसके मुखड़े की सारी-की-सारी रौनक कब की उड़ गई थी, किसी को आभास तक नहीं हो सका था. सूखे हुए होठों पर ज़मी हुई पपड़ियों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था. गालों के सूजे-सूजे लाल उभार इस बात के सूचक थे, कि वह हर समय रोती ही रही थी.       

अपनी हवालात की कोठरी में, वह हर समय आंसू बहाने के सिवा कोई दूसरा काम ही नहीं कर सकी थी. उजड़े हुए चमन और खिज़ाओं के बदले हुए तेवर एक बार को फिर भी सुंदर प्रतीत होते होंगे, परन्तु दुखों की माटी, रचना का शारीरिक सौंदर्य यातनाओं का वह मजमा साबित हो रहा था कि, जिसको देखने के लिए, शायद कोई भी दर्शक अपनी अनुमति नहीं देता? लेकिन, अदालत की कठोर कार्यवाही, रहम से महरूम, समाज का वह चश्मा है कि, जहां पर बड़े-से-बड़े कृतघ्न, जघन्य अपराधियों तथा बेगुनाहों को भी कानून के सहारे, हिफाजत में बंद करके देखा जाता है. कौन अपराधी है? अथवा नहीं, इसका निर्णय तो जब होगा, तब होगा ही, परन्तु उससे पहले,ही किसी भी निर्दोष को अपराधियों की श्रृंखला में बड़ी ही आसानी से पिरो दिया जाता है.       

मुकद्दमे की पहली ही तारीख पर, रचना की अन्तरंग सहेली ज्योति ने जब रचना बदला और दर्दभरा रूप देखा, तो वह भी सिसक पडी. हॉस्टल की अधिकतर लड़कियों की आँखों में जैसे आंसू तड़पकर ही रह गये. स्वयं लिल्लिम्मा जॉर्ज भी अपने आंसुओं को संभाल नहीं सकी थीं.       

फिर अदालत में, प्रथम प्रश्न पर ही रामकुमार वर्मा ने इस बात से स्पष्ट इनकार कर दिया कि, उसने मार्ग में अपनी कार रोककर मादक वस्तुओं से भरा ब्रीफकेस रचना को दिया था. रचना ने जब सुना तो वह तो सुनकर दंग ही रह गई. उसने सोचा कि, इतना बड़ा सफेद झूठ? ऐसा कठोर धोखा? फरेब? क्या यही रामकुमार वर्मा उसकी कक्षा का वह छात्र नहीं है, जो उससे जब भी मिला, तो कितना अपनत्व और मित्रता उसके चेहरे पर बिखरी हुई थी? परन्तु आज, और ऐसे कठिन समय पर वह सारी हमदर्दी कहाँ विलीन हो गई? सोचकर रचना वहां पज्र फिर से रो पडी.       

रामकुमार वर्मा के बयान पर दोनों ओर के वकीलों में खूब झडपें भी हुईं. प्रश्नों और उत्तरों की भरमार से सारी अदालत ही, मानो थर्रा-सी गई थी. फलस्वरूप, प्रथम दिन कोई भी निर्णय न होना था और न ही हो सका. अदालत का समय समाप्त हो गया. अगली तारीख डाल दी गई और रचना पुन: अदालत के कटघरे से कुछ समय के लिए मुक्त होकर दूसरे कटघरे में बंद कर दी गई.      

 फिर तो दूसरे दिन ही शहर के दैनिक अखबारों में डिग्री कॉलेज की एक भोली-भाली अनाथ छात्रा की इस मुकद्दमें की सारी कार्यवाही का वर्णन किसी रोचक घटना के समान प्रकाशित हो गया. इन अखबारों में, एक लाचार, बेबस अबला नारी की बेबसी का ज़िक्र था, जिसे जिसने भी पढ़ा, वह अपना दिल थामकर ही रह गया.       

अदालत की इसी तरह बढ़ती हुई तारीखों के मध्य, एक दिन रचना के भविष्य का निर्णय सुना दिया गया. मुकद्दमें की अंतिम तारीख पर अदालत फिर एक बार खचाखच भर गई थी. लेकिन निर्णय सुनाने के पश्चात केवल एक ही जन मुजरिम के रूप में कटघरे में रह गया था- और वह थी, अपने छिन्न-भिन्न जीर्ण हुए भाग्य की लाश के बदसूरत ढेर को संभालती हुई- रचना. रचना- एक व्यथा. एक कहानी- एक व्यंग- सामाजिक रिवाजों के बीच, झूलती हुई एक युवा छात्रा के भावी जीवन की बिगड़ती हुई तस्वीर का तमाशा. कानून के शिकंजों में जबरन उलझाई हुई, भारत की एक नारी- अपना 'भारत महान' जैसे नारों को लगाने वाले लोगों की एक बहन-बेटी और आबरू रचना- कॉलेज की हसीन, सुंदर छात्रा- अशाय्म, बेबस, और लाचार, भारत की रचना.     

 मुक्तेश्वर की वह अदालत, जहां पर न जाने कितने ही अपराधियों को दंड मिला होगा, पर उनमें से कोई भी शायद रचना जैसी दंडित कहानी का मेल नहीं कर सकेगी? एक डिग्री कॉलेज की अनाथ, बेसहारा छात्रा को मादक वस्तुओं की ऐसी तस्करी के इलज़ाम में जेल की सजा दे दी गई थी, कि जिसकी निर्दोषता की गवाही आसमान के फरिश्ते भी दे सकते हैं' परन्तु विवशता तो यही है कि, आसमान के फरिश्ते, इस पापी जग में, अपना पवित्र स्थान छोड़कर क्यों आने लगे? शहर का चप्पा-चप्पा और वातावरण का हरेक हिस्सा भी इस मुकद्दमें की कार्यवाही को सत्यता के धरातल पर विराजमान नहीं कर सकता था, परन्तु एक असहाय नारी कि विडम्बना का नाजायज़ सहारा लेकर मनुष्य ने अपनी सारी वास्तविक बनावट का प्रदर्शन करके रख दिया था. बनावट भी ऐसी कि, जिसमें सिवाय खोखली मान्यताओं के अतिरिक्त और कुछ भी नज़र नहीं आता था. मावता के इस प्रदर्शन पर झूठ और झांसे में खड़ी की गई कानून की दीवार जीत गई थी और फिर एक बार सत्यता मात्र अपने हाथ मलकर ही रह गई थी. ऐसा लगता था कि, एक बार फिर से चांदी के ठनाकों में इंसानी अदालतें अपना नृत्य करने लगी थीं और सबूतों के अभाव में किसी दुखिया की घोर सिसकियाँ अपना दम तोड़ बैठी थीं.     

 मुक्तेश्वर की विशाल इमारत में सजी हुई अदालत और उसका कूचा-कूचा तक, रचना को सुनाई गई कठिन परिश्रम के साथ जेल की सजा का निर्णय सुनकर जैसे अपना सिर धुनती थी- रोती थी और जैसे बार-बार अपने को पटकती थी. यह तो सच है कि, भारत का इतिहास इस प्रकार के फैसलों से न कभी रिक्त था और न ही कभी होगा.

-क्रमश: