मेरा मुझमें कुछ नहीं
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सर्वपल्ली राधाकृष्ण जी के जन्म दिवस पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। अन्यथा शिक्षकों को तो कोई वर्ष भर याद ही नहीं करता । इसका अर्थ, परसाई जी से उलट, यह भी है कि वह पूरे वर्ष प्रासंगिक रहते हैं। आपके आसपास, आपकी नजरों के सामने तो उन्हें याद करने की कोई जरूरत ही नहीं।
मेरे जीवन को गढ़ने में मेरी प्रथम गुरु मेरी दादी श्यामा देवी अवस्थी रहीं। सेल्फमेड होना और अपने पर भरोसा रखना उन्होंने सिखाया। बच्चे से किशोर होने तक वह साथ थीं। बहुत सी बातें मन में रह जाती हैं पर जीवन के मोड़ पर वह याद आ जाती हैं और आपको राह दिखाती हैं। फिर रहीं मेरी मम्मी श्रीमती बीना अवस्थी, जिन्होंने अनुशासन, नियम, सफाई और सभी बड़ों का सम्मान करना सिखाया। मुझे याद है मुहल्ले के किसी बुजुर्ग को, जो ताऊजी के साथ के थे, तो वह उन्हें उनके नाम से बुलाते थे। मैं रहा होऊंगा दस ग्यारह वर्ष का, मैंने भी उनका नाम ले लिया की उसके चबूतरे पर खेलने जाऊंगा। मम्मी कुछ काम कर रही थीं। वह सुनकर मेरे पास आईं और सहजता से बहुत प्यार से समझाया कि, " बेटा, ऐसे नहीं कहते बल्कि उन्हें सूरज ताऊजी कहते हैं l" अभी तक नहीं भूला उनके दिए संस्कार। फिर किताबों और साहित्य से प्रथम परिचय भी इन्होंने ही करवाया। जिन्होंने मेरी जिंदगी, सोच और दुनिया ही खूबसूरत और नित्य नई चीजें सीखने की बना दी।
तीसरी गुरु मेरी ताई जी, जिन्होंने मुझे सक्रिय रहना और नए नए जोखिम उठाने को तैयार किया। जी हां, वह सुलझी हुई सोच वाली थी तो उधर सारी परंपराएं, तीज, त्यौहार याद ही नहीं रखती उनका पालन भी करने वाली थीं। पर बच्चों के लिए सब माफ। उनके साथ साइकिल चलाना सीखा। जब भी गिरता तो जमीन और मेरे मध्य वह आ जाती और उन पर साइकिल समेत मैं गिरता। उन्होंने ही पहली बार स्टोव जलाना सिखाया। केरोसिन स्टोव थे उन दिनों। मेरी आयु रही होगी बारह वर्ष। याद है डैडी जी और मम्मी ने कहा भी था, इसे दूर रखो अभी छोटा है, जल जाएगा। पर मौका देख उन्होंने सिखा ही दिया। उसमें जब केरोसिन पूरा नहीं निकलता तो एक पतली सी पिन से उसके बर्नर को दबाते थे तो तेल की पतली धार आती थी और दियासलाई लगाने से वह जलता था। उसमें एक नियम था, जब तक ऊपर की लौ नीली न हो जाए या बर्नर पर लगा केरोसिन सूख न जाए तब तक उस पर कुछ मत चढ़ाओ। न चाय न तवा। अन्यथा केरोसिन की बू आती थी। फिर तो कई बार वह मुझसे स्टोव जलवाती। सीख गया पर विवाह होने तक मेरे कोई काम नहीं आया। मेरी तीनों गुरुओं ने कभी भी रसोई का कोई भी कार्य हमारे बड़ों और हमसे नहीं करवाया।
पक्के बीस बिस्वा के कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं तो बाहर का कुछ नहीं खाते। हां, कट्टर नहीं थे तो हम बच्चों को कभी कभी अंडे खाने की छूट थी। पर अलग बर्तन और अलग कोने में।
डैडी जी कई बार जयपुर हाईकोर्ट सुबह जाते नाश्ता करके , देर रात आते पर खाना घर आकर ही खाते। चाय जरूर पी लेते। ताऊजी तो बाहर पानी भी नहीं पीते। सब घर आकर। यही आदतें, संस्कार मुझ में भी।
तो आगे कई बार मौके आए जब अकेला था और बाहर खाना नहीं खाने का मन था तो स्टोव, माफ करें तब गैस थी, गैस जलाई, चाय बनाई और तवे पर ब्रेड सेंक ली, घी और नमक के साथ। पेट भर गया, भूखा नहीं रहा। जब भी ऐसा होता ताई जी की बहुत याद आतीं। वह मुझे क्यों सिखा गईं यह समझ आता। कभी भूखा नहीं रहूं और न किसी का मोहताज रहूं। कोरोना काल में डेढ़ वर्ष यह योग्यता बहुत काम आई। ताऊजी और मैं ही थे घर में। मम्मी भोपाल छोटे भाई के यहां। तो खाना बनाना आधा आता था, सब्जी नहीं आती थी। वह भी सीखा फोन पर। बनाया और जल्दी बनाना सीख गया। लगता अच्छा विद्यार्थी हूं मैं जीवन की कक्षा का, तभी मेरा सबक, मेरी क्लास खत्म ही नहीं हो रही। बाई कच्ची बस्ती से आती थी तो उसे भी मना किया कहीं ताऊजी बीमार न पड़े। तो बर्तन भी मांजे। याद है एक बार तो चार दिन के इक्कठे मांजे। फिर समझ आ गया कि रोज के रोज मांजने में भलाई है। ताऊजी भी एकाध बार हाथ बांटते तो मैं उन्हें मना कर देता। इतने बड़े , बुजुर्ग अब यह करेंगे? नहीं जी नहीं।
तो बड़े सुकून से दिन कटे मेरे गुरु की सिखाई बातों से। मम्मी जी भोपाल से बता देती की धनिया, मिर्ची, हल्दी आधा चम्मच दो लोगों की सब्जी में डालना होता है। खटाई ऊपर से बनने के बाद गिरती है। तो वैसे ही हुआ दालें बनाई, ताऊजी ने कहा चटनी खाएंगे तो चटनी बनाना सीखा।
बचपन की ही गुरु रहीं श्रीमती शकुंतला शर्मा, हमें गणित और इंग्लिश पढ़ाती थी चौथी, पांचवी कक्षा में। दोनों में फर्स्ट पोजिशन मेरी बनी। तभी एक नाटक में विश्वामित्र मुझे बना दिया उन्हीं मैडम ने। बस ऐसे आसन लगाकर और उंगलियां आशीर्वाद की मुद्रा में लेकर बैठना है। मैं संकोची, मना भी नहीं कर पाया। शायद अंदर यह इच्छा भी रही हो कि अभिनय कला में भी हाथ आजमाना है। जब एक कुलपति, प्रोफेसर, विख्यात नाटकों तुगलक, हृदयवर्दन के लेखक गिरीश कर्नाड अभिनय कर सकते हैं तो मैं भी कर सकता हूं। देखो कब अवसर आएगा?
फिर रीजनल कॉलेज में सिद्दीकी मैडम, एंथोनी सर, एम डी शर्मा, जिन्होंने क्लास सिक्स्थ में मैथ्स में गलती होने पर इतना मारा था कि मैं रोने लगा था। क्योंकि पांचवी तक का अपने स्कूल का टॉपर यहां सीबीएससी स्कूल में पहली बार मार खाया। खैर यहां से क्लास नौ से डीएवी स्कूल , वहां पूर्व सांसद और शानदार हिंदी के अध्यापक, प्राचार्य रासा सिंह का साथ मिला। ताऊजी, डैडी जी सभी को जानते थे। वहां मैंने लेखन स्किल पहली बार आजमाया कक्षा दस में, जब मिश्रा गुरुजी ने छुट्टियों में की गई यात्रा पर लिखने को कहा। हमें डैडी जी गोआ घुमाकर लाए थे। तो वह यात्रा वृतांत मैंने लिखा और पूरी क्लास में फर्स्ट आया। मैं पढ़ने में होशियार था पर जरूरत भर का ही पढ़ता था। मुझे याद है क्लास के होशियार मेरे पास आए और मेरे कॉपी मांगकर मेरे लिखे निबंध को पढ़ा। और मैं देख रहा था कि बहुत मन से और ध्यान से पढ़ रहे थे वह सब। तब सपने में भी नहीं सोचा था लेखन और साहित्य के क्षेत्र में जाऊंगा। विज्ञान गणित का विद्यार्थी था तो लैब और गणित दोनों में होशियार था। साथ में लाइब्रेरी में पत्रिकाएं और किताबें पढ़ता। वहीं न्यूज पढ़ना भी प्रारंभ किया सुबह की प्रार्थना के वक्त स्कूल में। सख्त अनुशासन था। दसवीं में ही गणित के हेतु एक युवा पॉलीटेक्निक कर रहे राजीव शर्मा के यहां ट्यूशन के लिए गए बोर्ड था न इसलिए। उन्होंने इतने रोचक ढंग से और अच्छे से समझाया कि उनके यहां से गणित में बोर्ड में पूरे स्कूल में सेकेंड टॉपर रहा डिस्टिंक्शन के साथ। सौ में से इक्यासी अंक। आज तक वह गणित नहीं भूला। मेरे बहुत काम आई। अकादमिक गणित अच्छी है मेरी पर जीवन की गणित कमजोर है।
फिजिक्स वाले भागचंद गुप्ता जी ने प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर नहीं दिए। और चार नंबर से दसवीं में प्रथम श्रेणी रुक गई। जबकि थ्योरी में बोर्ड में मेरे फिजिक्स में सत्तर प्रतिशत थे और प्रैक्टिकल में मात्र बयालीस प्रतिशत। आगे एस एन गौड़ मिले जिनसे तृतीय वर्ष बीएससी की फिजिक्स मैकेनिक्स की ट्यूशन पढ़ी। इतनी अच्छे से पढ़ाई की उस पेपर में मेरे नब्बे प्रतिशत अंक आए। बाकी दो थर्मोडायनिमिक्स, ऑप्टिक्स में भी प्रथम श्रेणी थी। पता नहीं था उस वक्त की इतने अच्छे से रुचि से सीखे यह दोनो विषय मेरा जीवन भर साथ देंगे। मेरी पहली पार्ट टाइम नौकरी टीजीटी फिजिक्स की ही रही। उसमें भी एक साल में इतना लोकप्रिय हो गया कि कोचिंग सेंटर वाले घर आने लगे कि हमारे यहां पढ़ाने आएं और एक घंटे के माह के चार हजार पाएं। यह उन्नीस सौ पिचयांवे की बात है तब सरकारी शिक्षक की तनख्वाह मात्र तीन हजार और कॉलेज प्राध्यापक की चार से साढ़े चार हजार होती थी यह आगे छठे वेतन आयोग, अगले छह वर्ष तक यही रही। मेरे लिए रास्ता और हुनर दोनों खुल गए थे। मुझे याद है उन दिनों मैं एक दो दिन गया फिर मैंने मना कर दिया। सर्दी के दिन थे तो अंधेरे में शहर से दूसरे कोने कौन जाए?\
कुछ नया, अलग करने की धुन
-------------------------------------- जुनून तो नहीं पर सहज बुद्धि थी कि कुछ करेंगे तो औरों से बेहतर करेंगे। विज्ञान के साथी जानते होंगे फिजिक्स, केमिस्ट्री में न्यूमेरिकल का महत्व और जरूरत। साथ ही गणित में प्रमेय की स्थापना और तरीके। मैने दसवीं से ही खूब मेहनत और मन से पढ़ाई की। कॉलेज के वक्त रात के तीन तीन बजे तक पढ़ता था और सुबह वही सात बजे तैयार। जो समझा, सीखा वह सब मुझे मिले योग्य गुरुओं की देन है। मैं खुद को बेहद मामूली, जिसके पास कोई दूरदृष्टि नहीं, जो अवसरों को ही नहीं पहचानता तो उन्हें लपकेगा कैसे? जिसके साथ प्रारंभ से ही एक श्राप है कि जो कहेगा, बोलोगे, खुद के लिए वह कदापि नहीं होगा। दर्जनों नहीं बल्कि सैकड़ों बार आजमाया की जो बोला, सोचा, कहा वह मुझे नहीं मिला। जो नहीं सोचा, चाह नहीं की वह उम्मीद से बढ़कर मिला। क्योंकि कोई उम्मीद थी ही नहीं।
तो फिजिक्स शिक्षक के रूप में मैंने तय किया कि unsolved
न्यूमेरिकल सारे करवाऊंगा। यह शैली मैंने गौड़ सर से सीखी थी। वह भी सारे unsolved सवाल कराते थे, एक एक चुन चुनकर। बाकी अधिकतर जो अध्याय में अंदर हल किए होते हैं, वही कराते। युवाओं को तो कठिन ही सीखने होते।
मुझे याद है घंटों मेहनत से मैं न्यूमेरिकल पहले घर पर हल करता, समझता फिर अगले दिन कक्षा में पूरे करवाता। संभवतः यही मेरी लोकप्रियता का राज रहा। यह लगातार कुछ बरस दौर रहा। उधर बीएससी के बाद एमएससी की जगह मैंने आर्ट्स ली और एमए, दर्शनशास्त्र, प्रथम श्रेणी, के बाद पीएचडी में लग गया। विषय था अद्वैत वेदांत में ईश्वरत्व ;_एक विवेचात्मक अध्ययन। इसमें भी शोध प्रारंभ से पूर्व की तैयारी, विभिन्न शहरों के विश्विद्यालयों में जाना, देखना और मौलिक विषय चुनने का काम मेरी गाइड डॉ. चित्रा अरोड़ा ने दिया। मैं वास्तव में गया आगरा, जयपुर, वाराणसी और वहां के शोध विभाग में जमा थीसिस देखें, समझे फिर अपना विषय और सिनॉप्सिस तैयार किए। बहुत मेहनत से सारा कार्य मौलिक। पर पता नहीं था यह जीवन में काम नहीं आएगा। कहा न संपर्कों और लाभ के मामले में हम अवस्थी लोग सदा कमजोर ही रहते हैं। विषय में पद और नौकरी के अवसर न के बराबर हैं। यह ख्याल तब नहीं आया पर यूजीसी नेट निकालने के बाद लगा कुछ गड़बड़ है। जब देखा कि पॉलिटिकल साइंस, हिंदी, में पद डेढ़ सौ, तीन सौ और दर्शनशास्त्र में मात्र दस या कभी पंद्रह उसमें भी आधे रिजर्व। हो गया काम। पर हिम्मत नहीं हारी और लोक सेवा आयोग में साक्षात्कार दे दी डाला। तब तक खुद की प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग क्लासेज एजुकेशन प्वाइंट खुल चुकी थी और लगातार अच्छे रिजल्ट से नाम कमा रही थी। इतना की कोटा, उदयपुर, जयपुर से युवा पढ़ने आते थे। तीन परीक्षाओं में विशेष यूनिक नाम था एक यूजीसी नेट, सेट, जो कॉलेज प्राध्यापक बनने के लिए अनिवार्य है। दूसरी बैंकिंग और रेलवे में । इनमें पढ़ाने का ढंग और छोटे बैच मात्र दस से बारह युवाओं के ही रखने से हर एक पर खास ध्यान दिया करता था । रिजल्ट उसी से आए। सच बात है कि बच्चा कोचिंग में पास होने और पढ़ने, मेहनत करने आता है। आप योग्यता रखते हो तो उसे निखारे, तराशें वह आपको निराश नहीं करेगा। कुछ ही बरसों में असंख्य बच्चे पढ़े भी और काफी उत्तीर्ण हुए। नेट की तो ऐसी डिमांड आज तक है, की हमें आठ विषय खोलने पड़े। उनमें भी पेपर प्रथम अनिवार्य विषय और हिंदी, दर्शनशास्र मैं ही पढ़ाता था। हिंदी से एम ए हो गया था और साथ ही एक मानद पीएचडी और मिल गई थी।
अलग , नवाचार करते हुए शिक्षकों को भूला नहीं। उनसे मिलना होता रहता था। दर्शनशास्र की पहली गाइड साहिबा बहुत डिले कर रही थीं, पता नहीं क्यों? और मैं सोच रहा था जल्दी पीएचडी हो तो आगे बढ़े जिंदगी। विवाह हो चुका था और जिम्मेदारियां बढ़ रही थीं। तीन शिफ्टों में कोचिंग चल रही थी। और पहली कोचिंग थी उस वक्त से आज तक जिसकी एक शाखा, ब्रांच भी थीं। होर्डिंग, बैनर, वॉल पेंटिंग से लेकर नवज्योति, दैनिक भास्कर अखबारों में हर माह आठ नौ हजार के विज्ञापन जाते थे। रिजल्ट के भी तो नए बैच के भी। युवाओं ने भरोसा किया तो उन्हें उसका पूरा पूरा लाभ हमने दिया। रिजल्ट सौ प्रतिशत तो कोटा कोचिंग का भी नहीं जाता परन्तु हमारा रिजल्ट बेहतरीन था, पूरे राजस्थान में। दो दशक तक तो यूनिवर्सिटी का नेट जा रिजल्ट एक या दो प्रतिशत रहता। मतलब पांच सौ बैठे पन्द्रह विषयों में और पास हुए पांच या छह। जब हमने जमाया तो यह संख्या बारह हुई और उसमें से हमारे यहां के पढ़े दस । कई बार तो जो पास हुए वह सारे ही हमारे और जो पढ़ाई खत्म कर तैयारी किए हमारे यहां उनमें पास हुए तो वह और पांच जुड़े। तो रिजल्ट हमारा रहता तीस प्रतिशत, जो बहुत बढ़िया माना जाता इस राष्ट्रीय स्तर की प्राध्यापक परीक्षा की अहर्ता हेतु। तब उसमें तीन पेपर, एक अनिवार्य, दो विषय से संबंधित होते। तृतीय पेपर निबंधात्मक होता। यह लगन, गुरु मां की कृपा और बड़ों का आशीर्वाद रहा की आज तक राजस्थान में यूजीसी नेट की तैयारी का एकमात्र संस्थान हमारा है।
ऐसे ही बैंक में और बाकी एग्जाम में भी। जिंदगी में गुरु से सीखा कि कभी भी घमंड नहीं करना और हमेशा अपने व्यवसाय में ईमानदार रहना। बड़े शानदार दिन, वर्ष और कार्य के रहे। नोट्स का यह हाल था कि नोट्स पूरे राजस्थान में जाते थे। पत्राचार के द्वारा। उसमें मैंने अनिवार्य किया था कि माह में एक बार तो विद्यार्थी को आना ही होगा। जिससे वह अपनी प्रॉब्लम पूछ सके और टेस्ट सीरीज दे सके। तभी आईएएस में भी हमारे यहां की एक लड़की गिन्नी शर्मा का चयन हुआ। इनकी बुआ वरिष्ठ आर थीं। यह आरएसएस भी पास हुई।
तात्पर्य यह कि सरकारी नौकरी नहीं मिली, मुझमें ही कमी रही पर मेहनत और लगन ने दूसरे क्षेत्र में जो पढ़ाने का ही था, बहुत कुछ दिया और एक सम्मानजनक जगह दी। दो डीलिट हिंदी साहित्य और दर्शन के लिए मिली। Mds, अजमेर विश्विद्यालय में एम फिल दर्शनशास्र पाठ्यक्रम प्रारंभ किया वर्ष दो हजार सात। उसके पाठ्यक्रम और प्रश्नपत्र निर्माण और फेकल्टी चुनने में मेरी भूमिका रही। यहां एक और गुरुवार कुलपति प्रोफेसर मोहनलाल जी छीपा जी मिले। जिन्होंने हमेशा विद्या और मेहनत को पहचाना और सम्मान दिया। बहुत सुलझे हुए शिक्षाविद। दो वर्ष कोचिंग के साथ यहां भी विभाग संभालता था। यूं समझें कि सुबह उठने से रात को सोने तक काम ही काम। सोचता था कि कौन लोग हैं जो दोपहर को आराम करते होंगे? दिनचर्या यह की सुबह नौ बजे सिटी ऑफिस में क्लासेज फिर बारह बजे से दो बजे तक विश्विद्यालय, क्योंकि पीएचडी और नेट दोनों था, काबिल था या नहीं पता नहीं मुझे। फिर वहां से सीधे घर तीन बजे । खाना और साढ़े तीन बजे से सात बजे तक क्लासेज। शाम की चाय वहीं क्लासरूम का दरवाजा खटखटाकर मुझे दी जाती। बिटिया प्राची तब होगी सात आठ साल की चुपचाप बाहर खेलते हुए मुझे देख लेती निगाह भरकर। भुला नहीं कुछ भी मैं। फिर शाम अंदर आकर उसके साथ खेलता। यह वह सुख है जो मैंने सीखा अपने बड़ों से की सदैव बच्चे के साथ को प्राथमिकता दो। फिर श्रीमती जी और माताजी भोजन करवाते। और शांति से अपन दस बजे सो जाते।
इन विश्विद्यालय सम लोगों का आशीर्वाद रहा की मुझे एक बार पढ़ाया हुआ याद हो जाता। आगे एक दो साल बाद तो मुझे कभी किताब देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई।
छीपा जी जब अटल बिहारी वाजपई हिंदी विश्विद्यालय भोपाल, के संस्थापक कुलपति हुए तो मुझे भी बुलाया। यहां से प्रोफेसर सुरेंद्र भटनागर, जो पर्यावरण साइंस से सेवानिवृत थे, वह वहां पहुंच गए थे। मेहनती, लगनशील और भले आदमी। यहां विद्या संकुल में भी मेरे हैड थे। तो मैं एक बार तो गया परन्तु मन नहीं लगा। पाठ्यक्रम बनाया और वापस आ गया। छीपा जी का कार्यकाल विस्तारित हुआ तो मुझे फिर बुलवाया। गया भी, मिला भी बोले यहां आ जाओ। फिलहाल फिक्स मिलेगा आगे देखेंगे। कुछ माह बाद वह सेवानिवृत्त हो रहे थे। मैंने कहा, " सर आप चले जाओगे तो मैं क्या करूंगा?"
वापस अजमेर अपन और मगन मनपसंद काम, पढ़ाने और पढ़ने का करने में। क्योंकि उन्हीं दिनों दिल्ली के साहित्यिक जगत में दखल बढ़ गया था सभी से मुलाकात हो रही थी। लेकिन केवल एक दिन के लिए, शनिवार जाता और सोमवार सुबह वापस घर।
उनसे भी बहुत सीखा।
पूरी मेहनत और समर्पण से अभी भी सीख रहा हूं । सच में प्रकृति जीवन, साहित्य, गुरुओं के रूप में ऐसे विश्विद्यालय है जो हमेशा मेरे ऊपर छत्रछाया रखते हैं।
रही बात संतुष्टि अथवा कहां तक पहुंचे की तो यह चिंता मैं नहीं करता जब जो जिंदगी का पन्ना सामने खुलता है उसे पूरी ईमानदारी से जीने की और अपना कर्तृत्व निभाने की कोशिश करता हूं।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, प्रख्यात साहित्यकार, मोटिवेशनल गुरु और फिल्म पटकथा लेखक है।
संपर्क : 7737407061, 8279272900
प्रकाशक। यह अंश उनकी शीघ्र प्रकाश्य किताब , "जो भुला न सका " से)