बारिश की वो शाम कुछ अलग थी।
हल्की-हल्की बूँदें जैसे कोई पुराना गीत गुनगुना रही थीं। ठंडी हवा के झोंके उसके चेहरे को छूकर जैसे किसी भूली याद को जगा रहे थे।
आरव स्टेशन के उसी कोने में बैठा था — जहां वो पहली बार अन्वी से मिला था।
5 साल बीत चुके थे उस मुलाकात को, पर उसके दिल में वो पल जैसे आज भी ठहरा हुआ था।
"पहली मुलाक़ात"
जुलाई की एक भीगी दोपहर। ट्रेन लेट थी। आरव भीगा हुआ सा, गीले बालों और किताबों के साथ बेंच पर बैठा था। तभी किसी ने उसके सिर पर छाता तान दिया।
"बारिश से बचना है या बस इसी तरह भीगना पसंद है?" — एक नर्म, हल्की सी आवाज़।
वो अन्वी थी।
आँखों में गहराई, होंठों पर मुस्कान, और छतरी हाथ में।
बस... उसी पल कुछ हुआ था।
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कुछ हफ़्तों में दोस्ती हुई, फिर बातें लंबी होने लगीं, और फिर… मोहब्बत।
कॉफ़ी की मुलाक़ातें, सर्दी में हाथ थाम कर चलना, किताबों के लिए बहसें, और सबसे बढ़कर — हर शाम की बारिश एक बहाना बन चुकी थी मिलने का।
"मैं बारिश में भीगना नहीं चाहती आरव, पर तुम्हारे साथ भीगने का एहसास सबसे प्यारा है।"
वो मुस्कुराकर कहती और आरव उसका हाथ कसकर पकड़ लेता।
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फिर एक दिन, वो कह गई:
"मुझे स्कॉलरशिप मिल गई है लंदन की। दो साल के लिए… बस दो साल।"
आरव चुप था।
वो जानता था कि यह उसके करियर का सबसे बड़ा मौका है। और प्यार में खुद से ज़्यादा सामने वाले का सपना पूरा करना ज़रूरी होता है।
"जाओ," उसने कहा, "पर लौट आना। मैं यहीं रहूंगा — उसी बेंच पर, उसी बारिश में।"
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वक़्त बीतता गया।
पहले हर दिन कॉल होती, हर बात साझा होती।
फिर कॉल कम हुए, जवाब देर से आने लगे।
फिर एक दिन — ख़ामोशी।
न कॉल, न मैसेज।
बस इंतज़ार।
1 साल… 2 साल… 3…
हर साल बारिश आती, और आरव उसी बेंच पर जाकर बैठता।
कोई पूछता,
"क्या तुम पागल हो?"
वो कहता,
"नहीं, मैं मोहब्बत में हूँ।"
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साल 5
आज फिर बारिश हो रही थी।
वही मौसम, वही बेंच, वही उदासी।
पर इस बार कुछ अलग था।
एक छाता उसके सिर पर ताना गया, फिर वही आवाज़…
"बारिश में अब भी अकेले भीगते हो?"
आरव एकदम से पलटा।
सामने अन्वी थी।
पर पहले जैसी नहीं।
थकी हुई आँखें, कुछ टूटा हुआ मन…
पर उसकी आँखों में अब भी वही चमक थी — आरव के लिए।
"तुम?"
"हाँ, मैं। बहुत कुछ कहने आई हूँ। पर सबसे पहले… माफ़ी माँगने।"
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"मैं लौटना चाहती थी आरव, पर मैं उलझ गई थी — सपनों में, रिश्तों में, और खुद में। मैं खुद से भी दूर हो गई थी, तो तुमसे कैसे मिलती?"
"क्या कोई बहाना है ये?"
आरव की आवाज़ थरथरा रही थी।
"नहीं, ये सच्चाई है। मैंने तुमसे दूरी नहीं चाही थी… पर डर गया थी कि तुम अब नहीं रहोगे। इसलिए कभी वापस नहीं आई।"
आरव चुप था।
बारिश बढ़ रही थी।
अन्वी धीरे से आरव के पास आई।
उसका हाथ थामा।
"पर आज मैं लौट आई हूँ। कोई वीज़ा नहीं, कोई दूरी नहीं, कोई बहाना नहीं। बस मैं… और तुम… और ये बारिश।"
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आरव की आँखों से आँसू निकल पड़े।
"तुम्हें पता है, हर साल बारिश में मैं यहीं आता था। शायद ये सोचकर कि तुम भीगी हुई वापस आओगी… उसी छाते के साथ।"
"और मैं हर साल आने की हिम्मत नहीं कर पाती थी…"
"पर इस बार," वो बोली, "ये इंतज़ार की आख़िरी बारिश है।"
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फिर दो हाथ जुड़े, दो दिल फिर से धड़कने लगे।
लोग सोचते हैं —
जो चला गया, वो लौटता नहीं।
पर सच्चा प्यार रास्ता ढूंढ़ ही लेता है… चाहे सालों लग जाएँ।
अब आरव और अन्वी की हर बारिश, इंतज़ार की नहीं — साथ की कहानी है।
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"ये बारिश अब सिर्फ भीगने के लिए नहीं होती, ये हमें एक-दूसरे के और क़रीब लाती है।"
"इंतज़ार की आख़िरी बारिश", अब उनकी पहली नई ज़िंदगी बन चुकी थी।
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🌧️✨ समाप्त 🌸