empowering books for women in Hindi Women Focused by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | स्त्रियों की सशक्त पुस्तकें

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स्त्रियों की सशक्त पुस्तकें

परंपरागत शिल्प, कथ्य, विन्यास की दीवारों को तोड़ते सशक्त स्त्री स्वर

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हम अभी तक लेखन में स्त्री स्वर की जिस गूंज का इंतजार किया जा रहा था वह अब पूरे जोर शोर से दाखिल हो चुकी है। थी तो पहले भी पर तब कुछ मेट्रोपोलिटन टाइप लेखिकाओं ने देह विमर्श, खुलेपन के नाम पर परिवार विखंडन पर कहानियां लिखीं जिन्हे तथाकथित पैरोकारों ने प्रक्षेपित किया। दिख रहा था की यह सतही, मनोहर कहानियां टाइप है, चल नही पाएगा। वही हुआ और उस खेप की लेखिकाओं की बोल्ड टाइप की दूसरी या तीसरी कहानी नही आई । सामान्यजन से जुड़ाव और मिट्टी से जुड़ी कहानी कहना सीखा नही था तो वह सब अब अपने अपने घर परिवार, काम में लीन हो गई l क्योंकि किसी ने नोटिस नही लिया।

उसी वक्त और दौर में मजबूती से टिकी रहीं जड़ों और विचारों आधारित चुनिंदा लेखिकाएं ममता कालिया, मैत्रीय पुष्पा, राजी सेठ, सूर्यबाला, नासिरा शर्मा, सुषमा मुनीन्द्र, अलका सरावगी, सपना सिंह आदि।

इसी के साथ खामोशी से निरंतर स्रजनरत रही एक पूरी जमात जो वाद, लेखक संघ आदि नही जानती, न जुड़ी हैं उनसे। समाज, परिवार, स्त्री की सोच, उहापोह घर, परिवार, नौकरी और उसके समाधान इन सभी को लेकर उनकी नई सोच रही। कुछ सीमाएं भी रहीं की जैसे यह तय किया गया मन ही मन की परिवार, यानि पति, बच्चों को तो डिस्टर्ब नहीं करना है भले ही हम, स्त्री खुद हो जाए और उन खांचों को थोड़ा विस्तार दे देना है जिससे गति के लिए थोड़ा स्पेस और मिल जाए। कुछ ने, संभवत पति का थोड़ा सा सहयोग पाकर खुशी खुशी अपने नाम के साथ पति का नाम भी जोड़ लिया। यह विचारणीय बिंदु है की नारी खुद अपनी पहचान और जन्म से जुड़े उपनाम को क्यों नही अपनाती? कुछ हैं जो विवाह के बाद भी विवाह पूर्व का उपनाम(सरनेम) लगाती हैं पर वह नोकरीशुदा और डॉक्यूमेंट्स में वही नाम और उपनाम की मजबूरी से अधिक होता है।

प्रख्यात लेखक कृष्ण बलदेव वैद्य एक जगह कहते हैं की, "स्त्री चाहे तो पुरुष से भी बुरी बन सकती है पर वह अधिकांशत बनती नही और चुपचाप पुरुष की सोच और तनाव को सहन करती हैं।" मै और जोड़ता हूं इसमें की बच्चों के नाम पर पनाह ढूंढती वह भूल जाती हैं अपने अरमानों और खुशियों को।

इसी बात को उपन्यास निर्जल सरसिज, (आरती लोकेश)में रोचक ढंग से बताया है। शीर्षक का अर्थ बेहद अनूठा है बिन पानी का कमल, अर्थात ऐसा जीवन जिसमें सब कुछ होते हुए भी बहुत कुछ कमी भी है। उपन्यास के पात्र चाहे वह दीत्यांगना हो या सात्विक, 

अनुष्का, पुष्कर, नलिनी, श्यामा, सभी अपने अपने रणक्षेत्र में जूझ रहे हैं। अपनी जड़ों को पहचानना और संबंधों की भारतीय परिभाषा गढ़ता है यह उपन्यास। दुबई, शारजाह का प्रामाणिक चित्रण और परिवेश उभरकर आता है।उपन्यास ओपन अंत पर समाप्त होता है आगे दूसरी नायिका की कहानी कहने के लिए ।

चार नवलिकाएं, प्रणव भारती की दास्तान ए दर्द की चार लंबी कहानियां हैं। परंतु शिल्प, कथ्य में किसी भी उपन्यास सा आनंद और रोमांच देती हैं। चारों कहानियां एक संतुलित ढंग से संबंधों और आधुनिक समय की चुनौतियों से दो चार होते लोगों को सामने लाती हैं। प्रज्ञा, सत्ती, इशिता, अमन, सुगंधा जहां बार बार धोखा और फरेब खाती महिलाएं, लड़कियां भी हैं तो कुछ पुरुष पात्र भी हैं जो संवेदनाओं और दिल के हाथों मजबूर होकर छले जाते हैं। कहानियों की विशेषता यह है कि वह कोई उपदेश या प्रवचन नहीं देते बल्कि यथार्थ को खूबसूरत शब्दों, मोड़ और रोमांच के साथ प्रस्तुत करती हैं। कुछ इस तरह की आज की स्त्री अपने जीवन और आसपास के घटनाक्रम को उसमें देख सकती है। और यह सहज जान सकती है कि आगे कौनसा मोड़ और किस तरह की बातें जीवन में हो सकतीं हैं।और दिलचस्प बात यह है कि इन पात्रों को मदद बाहर से नहीं खुद से अधिक मिलती है। राह नई जरूर होती है पर चलने से आ जाता है रास्ता बनाना।

दरअसल साहित्य हमें जीवन की उन गलियों, रास्तों पर ले जाता है जहां से हर एक कभी न कभी गुजरता है। और तब उस जगह वह सही या गलत चुन सके अथवा अपनी राह आगे बढ़ सके यह बताने में एक जरूरी भूमिका साहित्य की होती है।

इसी बात को पुष्ट करती है निष्प्राण गवाह, कादंबरी मेहरा, लंदन, का एक थ्रिलर उपन्यास। मेरी जानकारी में भारतीय साहित्यिक दुनिया में बिना ग्रे ( अर्थात धूसरित हुए) हुए, अच्छे शब्दों और कथानक के साथ एक रोचक मर्डर मिस्ट्री किसी भी महिला ने नहीं लिखी है। श्रीलाल शुकुल, आदमी का जहर, अश्क आदि ने असफल प्रयास किया ।

कादंबरी के चुनौतीपूर्ण कथानक को देखें कि करीब बारह वर्ष पुरानी एक लड़की की लाश, कंकाल समुद्र किनारे रेत में मिलता है। उसे लेकर पुलिस पहले ब्लाइंड मर्डर कहके बंद करती है ।यह लंदन के आसपास की सच्ची घटना है। लेखिका उससे विचलित होती है कि कैसे और क्यों एक तीस बत्तीस वर्ष की युवती एक गुमनाम मौत मारी गई। उसके घरवाले, माता पिता आज भी शायद उसके लौटने जा इंतजार कर रहे हों!! सबसे बढ़कर वह हत्यारा आज भी खुलेआम घूम रहा और भी हत्याएं कर चुका होगा।

जो नहीं समझते हैं वह जान ले कि यह एक बहुत मुश्किल प्लॉट, कहानी कहने का होता है। कोई लीड नहीं बरसों से।

उस लड़की के माध्यम से मानवता और समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाती कादंबरी जी इसे अपनी भाषा, बुद्धि चातुर्य और हिंदी का पूर्ण ज्ञान से रोचक थ्रिलर उपन्यास में बदल देती हैं। आगे जैसे जैसे इंस्पेक्टर जिमी पड़ताल करता है। गुरुशरण, एल्फ्रेड, रोजलीन पात्र आते हैं परंतु कहीं से कोई सुराग नहीं मिलता।फिर पता चलता है कई लड़कियां ऐसे गायब हैं जो दस वर्ष हो गए कभी दुबारा घर नहीं लौटी।

पड़ताल फिर कुछ महीनों के लिए बंद होती है और फिर जैसे ईश्वर आगे आता है रास्ता बताता है। और बेहद रहस्यपूर्ण ढंग से उपन्यास परतें खोलता है। किस तरह छोटे शहर की लड़कियां ऊंचे सपने, बेहतर जिंदगी के लिए आगे तो बढ़ती जाती है परंतु जिंदगी की सांप सीढ़ी पर कब सांप डस लेता है वह भी नहीं जानती। और उन्हें फिर जिंदगी दूसरा मौका भी नहीं देती।

द मेंटलिस्ट, एक बेहद रोचक वेब सीरीज है ( 7 सीजन, 23 भाग हर एक के)जिसमें जेन, साइकोलॉजी से केस हल करता है, यह उपन्यास वैसा ही रोमांच और आनंद देता है। कादंबरी मेहरा को पढ़कर आप निराश नहीं होंगे। कथ्य में उपन्यास बड़ा है परंतु सौ पेज में है।पाठ्यक्रम में लगाने लायक है।

तस्वीर जो नहीं दिखती, युवा लेखिका कविता वर्मा का कथा संग्रह है, जो बेहद मजबूत कथ्य से प्रारंभ होता है। वह है शीशमहल की नायिका टीना और मयंक की मम्मी और पापा, जहां पापा के अजीब व्यवहार की वह बच्चों को प्यार नहीं करते।मम्मी उन्हें खूब प्यार करती हैं। टीना जब किशोरी होती है तो बंद कमरे से मां पापा का संवाद सुनकर उसे धीरे से कुछ अंदेशा होता है कि हम दोनों पापा के बच्चे नहीं। फिर वह अपनी मां से बहुत पूछती है तो सत्य सामने आता है कि शारीरिक सुख तो संभव है परंतु पिता संतान सुख देने में असमर्थ। फिर किस तरह क्या चलता है कविता बड़ी कुशलता से शिल्प और शब्दों के जादू से उसे बुनती हैं। एक स्त्री का त्याग से अधिक एक जुनून लगता है कि जो तकदीर, या बड़ों ने चुना उसे नियति मानकर वह एक नई कहानी रचती है। बहुत से सवालों के साथ कहानी खत्म होती है।

दूसरी उल्लेखनीय कहानी नहीं बल्कि सच्चाई है आज के आधुनिक समय की। जहां लड़के, दोस्त की जिद पर लड़की एक विशेष पार्टी में रात भर रहती है। फिर कुछ माह बाद जब दोनों शादी की बात चलाते हैं तो लड़का अपनी माँ काव्य सब की वह लड़की के साथ रात भर बाहर रहा था बता देता है। और बड़ी धूर्तता से यह बात नहीं कहता कि वह नहीं आ रही थी, तैयार नहीं थी पर मेरी जिद पर, मेरे विश्वास पर आई थी। तो लड़के के घर वाले शादी में आनाकानी करते हैं। लड़की का कदम, जो एक मजबूत, नोकरी करती लड़की की मानसिक दृढ़ता को बताता है, वह कहती है, तुम्हारे कहने से मैं उस पार्टी में गई। फिर भी तुम अपने घर वालों को तैयार नहीं कर पा रहे तो बता दो। मुझे कोई दिक्कत नहीं।जिंदगी के फैसले विश्वास और समझदारी पर होते हैं।

यह नई चेतना की स्त्री है परंतु प्रश्न यह है कि ऐसे धूर्त, अवसरवादी लड़कों का क्या जो स्त्री को वह सम्मान और ईमानदारी से चाहत नहीं देते ?

अन्य कहानियां भी स्त्री की ताकत को स्वर देती हैं परंतु वह थोड़ी सी परम्परागत हो जाती हैं।

संग्रह आज की सुलझी हुई नारी पुरुष समीकरणों को प्रस्तुत करने में सफल है। उम्मीद है आगे और विविध विषयों का समावेश होगा।

हवा! जरा थमकर बहो, (उपन्यास, नीलम कुलश्रेष्ठ) आपको ऐसी यात्रा पर सपरिवार ले जाता है जहां शहर के कोलाहल से दूर सुरम्य वातावरण में संस्कृति लहलहा रही है। परिवार किस तरह जेनरेशन गैप को मिटाकर एक संतुलन बनाता है यह लघु उपन्यास कुशलता से बताता है। नई जमीन पर लिखा उपन्यास पढ़ते हुए लगता है मानो हम प्रकृति, आश्रम, मंदिर और वहां आसपास के वातावरण में पात्रों के साथ चल रहे हो। भाषा की तरलता से शिल्प उभरकर सामने आता है।आदिवासी आश्रम, श्री हरिवल्लभ पारिख, जिन्होंने आदिवासियों के लिए त्वरित न्याय के हिसाब से लोक अदालतें रखीं, के आश्रम रंगपुर, क्वाट, के बैकड्रॉप में है। तो वहीं नीलम जी के खोजी पत्रकार ने गुजरात के हिलस्टेशन टाइप सापुतारा में आदिवासी लड़कियों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने वाली पूर्णिमा पकवासा जी की भी कहानी ली है। और ऊपर से प्रेरणादाई महिला धर्मगुरु डॉ गीता बैन शाह से भी प्रेरित है। कथानक अपने आप में रोचक और यात्रा करता चलता है। बात जो उभरकर आती है की धर्मयुग में छपी नीलम जी की लेखनी अब नई ऊंचाइयों की तरफ अग्रसर है।

अब बात किस्सा, 37 त्रैमासिक पत्रिका की। अनामिका शिव के संपादन में प्रखरता से निकल रही किस्सा कथा साहित्य में उभर रही है। अच्छे, स्थापित लेखकों के साथ नई पीढ़ी के लेखकों का संतुलन है।सुप्रसिद्ध कथाकार, शिव कुमार शिव द्वारा संस्थापित यह पत्रिका एक समय में ऊंचाई छू रही थी।पर तभी उस बेहतरीन लेखक और अच्छे इंसान का करोना में निधन हो गया। अनामिका ने पिता के सपने को पूरा करने के लिए कोशिश की और देश भर से लोगों को जोड़ने का प्रयास किया। पर कुछ नाम वही आ गए जो सभी जगह भोज में होते हैं। मतलब दिखते है परंतु उनके पाठक या कहें कार्य की योग्यता नहीं होती। शिवजी ऐसे कागजी लोगों से बचाकर ही किस्सा निकालते थे। उम्मीद है पुत्री भी यही करेंगी। यह अंक राजस्थान की रचनाधर्मिता को समर्पित है। जिसमें नया नाम तो नहीं है परंतु पद्मजा शर्मा, रतनकुमार, कविता मुखर, किरण राजपुरोहित, शिवानी, तसनीम खान की रचनाएं ध्यान आकर्षित करतीं हैं। प्रतिनिधि स्वर न सही पर प्रयास ठीक ठीक हम कह सकते हैं। दरअसल हमें पूर्वग्रहों और बिना पाठकों वाले लेखकों, आलोचकों को पहचानना और बचना आना चाहिए। अंक की जान अजय अनुरागी की बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी वरिष्ट कथाकार और आलोचक हेतु भारद्वाज से बातचीत है। पत्रिका सभी को पढ़नी चाहिए।

दुबई में निवास करती मीरा ठाकुर का काव्य संग्रह है "धूप छांव की दरी " विविधता और भावनात्मक अभिव्यक्ति की वजह से ध्यान खींचता है। कुछ पंक्तियां देखें, "कुछ बात करें/ ना तुम कुछ कहो/ ना मैं कुछ कहूं/ ना मैं कुछ लिखूं / ना तुम कुछ पढ़ो /चलो आओ बैठे कुछ बात करें ।"

यह जो जमीन है, भाव हैं बहुत संभावना जगाती हैं इस नई रचनाकार में। अब निर्भर करता है इस पर की आपको ऐसा उर्वरक माहौल अच्छी किताबें और लोग कितने आप ढूंढ पाते हैं। जी हां, ढूंढने पर निर्भर करता है। हर एक कोई इसको नहीं पा सकता l इसी संग्रह की कुछ पंक्तियां और देखें जो मुझे पसंद आई व्यंग्य है, " कौन कहता है हम गरीब हैं/ पहले कपड़े पहनने के बाद फटते थे /अब पहनने के पहले फटते हैं और /उसके हम हजारों रुपए खर्च करते हैं"

तो संभावनाएं हमेशा रहती हैं । लेकिन अपनी कमियों को जानना और उसको दूर करना एक अच्छे लेखक के लिए जरूरी है। संग्रह में कुछ कविताओं पर और काम होना चाहिए था ।मुझे उम्मीद है कि आगामी रचनाओं में वह गलतियां ठीक कर लेंगी।

 

शारजाह में रहने वाली युवा कवयित्री निशा गिरी की पुस्तक "यशस्वी भव "मैंने पढ़ी और यकीन जानिए उनकी कुछ कविताओं ने मुझे चौंकाया l इतने सरल भाव और बिंबों के साथ अपनी बातों को कह देना एक अच्छे रचनाकार की संभावना जगाता है l

कुछ पंक्तियां देखिए, " ए वक्त क्या एक और मौका दोगे /जिंदगी का बटन/ क्या थोड़ा रिमाइंड कर दोगे"

ऐसे ही दूसरी कविता जो नारीवादी सशक्त सोच को बताती है, "तुम्हारा फैसला फैसला /मेरा फैसला ना समझी ऐसा क्यों?/ तुम्हारा गुस्सा गुस्सा और/ मेरा गुस्सा, मेरे नखरे ?/ऐसा क्यों?/

तुम्हारा मना करना तुम्हारा आत्मसम्मान और/ मेरा मना करना मेरा अभिमान, ऐसा क्यों?"

इन सवालों के जवाब संभवतः आपके हमारे दिल में हैं लेकिन वह होठों पर आना चाहिए। एक स्त्री जब जीवन में आगे बढ़ती है उसका दायरा बढ़ता है। पति, परिवार, बच्चे, नौकरी, दोस्त, रिश्तेदार वहां वह कई विसंगतियां देखती हैं। जिन्हें जानते समझते सब हैं पर कोई उन्हें ठीक नहीं करता है l उन पर निशा जैसी सोचने वाली स्त्रियां अपने शब्दों से सवाल पूछती हैं। मुझे उम्मीद है की जवाब हम सब इन शब्दों से देंगे कि, " हां हम वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के हमसफर। मैं बराबरी की बात नहीं कर रहा। स्त्री पुरुष दोनों स्वतंत्र सत्ता जैसे प्रकृति और पुरुष आप चाहे प्रकृति, पुरुष हो जाए और पुरुष, प्रकृति हो जाए तो संतुलन गड़बड़ा जाता है। ईमानदारी भरा उत्तर यही है कि यहां हम पूरक हैं। तुमको भी अपनी इच्छा अपना गुस्सा, अभिमान चिढ़, नाराजगी जताने का पूरा अधिकार है। यदि आप विषयों की विविधता और गहराई को आगे और खोजने की कोशिश करेंगे तो आपको काफी आगे ले जाएगी।जितना हम शब्दों की कंजूसी करेंगे, उतनी ही हमारी रचना बेहतरीन और सशक्त होगी।

समग्रता में विश्लेषण करते हुए यह कह सकता हूं कि जिस बदलाव और ताजी हवा की उम्मीद हम वर्षों से पूरब से, (पढ़ें, दिल्ली से)कर रहे थे वह बयार चल रही है देश के हर राज्य के हर प्रमुख शहर से। उन लोगों से जिनकी तरफ दिल्ली के महंतों (?) ने कभी नोटिस तक नहीं लिया और यह निरंतर, वर्षों तक अपने पास उपलब्ध और प्रकाशन हेतु तैयार प्रकाशनों से किताबें लाए। किसी भी सूरत में यह सभी किताबें और इनकी ऊर्जावान, पढ़ाकू और परिवार भी संभालती लेखिकाएं दिल्ली के स्वनामधन्य लेखकों से कम नहीं। बस, इनकी किताबें और उनकी समालोचना उचित मंचों और आलोचकों द्वारा नहीं की गई।

पर अब तकनीक और यूट्यूब, फेसबुक के दौर ने हालात बदल दिए हैं। अच्छा और मेहनत से लिखा निगाह में आता है, लोग खोज खोजकर पढ़ते हैं। साथ ही हर वर्ष साहित्य मेले, पुरस्कार का बढ़ना बताता है कि किताबों और पत्रिकाओं की तरफ लोगों और युवा पीढ़ी का रुझान बढ़ा है।

जी हां, यह बात मैं वर्षों से कह रहा हूं कि पाठकों का संकट नहीं है बल्कि अच्छा, नया और रोचक लिखने का संकट और उसे उन तक पाठकों तक पहुंचाने की कमी है। आप अच्छी पुस्तक, रचना लिखेंगे और वह पाठक हाथोंहाथ लेंगे। अब तो कई प्रकाशन वैभव प्रकाशन, रायपुर, बोधि, जयपुर, इंडिया बुक्स, गुड़गांवा, पाखी, नोएडा आदि पुस्तकों को आकर्षक छूट तक पाठकों लेखकों तक पहुंचा रहे हैं। बस लेखक को चाहिए वह अपना अध्ययन, अच्छी से अच्छी पुस्तकों और पत्रिकाओं को पढ़ना बढ़ाए, जारी रखे।क्योंकि इसी से वह अपने लेखन और खुद को भी माँझ पाएगा। बेहद जरूरी बात यह भी कि जब बड़े बड़े सितारे अपनी करोड़ों की फिल्म के प्रमोशन के लिए छोटे छोटे शहर के मॉल, कॉलेज तक ने आए दिन जाते हैं तो लेखक को भी अपनी किताब का प्रमोशन बाकायदा करना चाहिए अलग अलग शहरों में। निशुल्क किताबें दो चार केवल उन्हीं आलोचकों को दें जो उस पर लिखें। बाकी आपकी लेखनी से प्रभावित किताबें आपके पाठक लें यह प्रयास होना चाहिए। यदि आप अपनी दस किताबें भी नहीं बिकवा सकते तो लेखक जो सोचना चाहिए वह किसके लिए लिखता है? तो आइए, और इन किताबों का स्वागत करें और पढ़ें।

 

_____डॉ संदीप अवस्थी, जाने माने आलोचक और ख्यातिलब्ध लेखक हैं। देश विदेश से अनेक पुरस्कार प्राप्त आपका नया कथा संग्रह गाली देने वाली लड़की, लोकप्रिय हो रहा है।

इनसे 7737407061, 8279272900पर संपर्क किया जा सकता है _संपादक )