आख़िरी रेडियो संदेश बर्फ़ का रंग सफ़ेद नहीं था, वह केवल एक बेजान सी चादर थी, जिसमें केवल मौन साँस लेता था। शून्यता इतनी गहरी थी कि हवा भी रुक-रुककर बहती थी, जैसे वह खुद आशंकित हो किसी के जागने से।उसी सफेदी के बीच, एक घायल सैनिक शरीर रेंगता जा रहा था — फटी हुई वर्दी, खून से सने हाथ, और एक डगमगाती साँस। वह था — हवलदार बाली राजपूत।बाली की छाती से एक लंबा जख़्म रिस रहा था, और उसकी उंगलियाँ एक पुराने रेडियो सेट को कसकर थामे हुए थीं।"ब्रावो-थ्री…बहुत खराब स्थिति है, मुझे नहीं पता मै कहां हूं, ब्रावो थ्री...ब्रावो थ्री,मैसेज पास ओवर"वह शब्द टकराते, बर्फ़ में घुलते — और थम जाते।बाली ने रेडियो को मुँह के करीब लाते हुए एक आखिरी बार कोशिश की, "यदि कोई सुन रहा है… ये हवलदार बाली है… नियंत्रण रेखा पार कर चुका हूँ, परिस्थितियां खराब हैं।"रेडियो से सिर्फ़ फुसफुसाहटें आईं, और फिर,मौन।वह बर्फ़ पर बैठ गया,अब शरीर में हिम्मत नहीं बची थी।उसका दिमाग शून्य होता जा रहा था। वह मृत्यु से बस कुछ ही कदम की दूरी पर था।उसकी पलकों पर जैसे भारी वजन रख दिया हो । अब उसे छाती का घाव तकलीफ नहीं दे रहा था। बर्फ ने सबकुछ जमा कर रख दिया,लहू भी,दर्द भी। अंतिम समय,उसकी आंखों के सामने दो चेहरे उभर आए। जैसे उसकी यादों ने साकार रूप ले लिया हो।उसने धीरे से जैकेट की भीतरी जेब खोली और दो तस्वीरें बाहर निकालीं — एक में आशा, उसकी पत्नी, और दूसरी में गौरी… उसकी पाँच साल की बिटिया, जो गुलाबी टोपी में मुस्करा रही थी।"पापा, जब आप लड़ते हो, तब डर नहीं लगता?"उसे याद आया वह मासूम सवाल,उसका मासूम जवाब।“नहीं बिल्ली, क्योंकि जब मुझे तेरा चेहरा याद आता है, डर मुझसे दूर भाग जाता है,तू हनुमान जी की पूजा करती है ना मम्मी के साथ ,इसलिए"उसने आंखे भींच ली,आंसुओं की दो बूंदे उसके गालों पर लुढ़क गई। उसके होंठ सूख चुके थे, पर उस पर एक धीमी सी मुस्कान तैर रही थी।वह मृत्यु से नहीं घबरा रहा था। उसे पता था ये तो आनी ही है।वह संतुष्ट था,एक सम्मान , एक गर्व के साथ विदा हो रहा था। उसकी आंखे बंद हो चली।फिर कुछ बदला।हवा ने दिशा बदली। वह पहले से ठंडी थी, लेकिन अब उसमें एक गंध थी । एक अजीब सा चुंबकीय अहसास था। उसने सिर उठाया। बर्फ़ की ढलान पर एक दरार थी — मानो भूमि खुद चुपचाप फट गई हो।एक गुफा की तरह। बाली ने अपनी अंतिम ताक़त समेटी और उस ओर रेंगने लगा।उसे यहां एक अजीब सा कंपन महसूस हुआ।जैसे-जैसे वह उस दरार के पास पहुँचा, उसकी साँसें तेज़ होती गईं। गुफा के मुहाने से एक हल्का नीला प्रकाश बाहर आ रहा था — जैसे बर्फ़ के पीछे कोई नींद लेता सपना झाँक रहा हो।उसने रेडियो एक ओर रखा। "आशा… अगर ये मेरी आखिरी लड़ाई है, तो याद रखना तुम्हारा नाम ही मेरी विजय थी।"वह फुसफुसाया। वह गुफा के भीतर ढह सा गया।अंदर अंधेरा नहीं था,बल्कि एक गाढ़ा मौन। असाधारण, अलौकिक मौन,मानो किसी तपस्वी का ध्यान हो।दीवारें चमकीली, पर बर्फ़ से नहीं — जैसे उनमें कोई विज्ञान से परे की ऊर्जा बह रही हो।गुफा के केंद्र में एक आकृति बैठी थी। मानवाकार, लेकिन पूरी तरह बर्फ़ में ढँकी,उसके सिर पर एक त्रिकोणीय मुकुट का आभास हुआबाली ने आँखें खोलकर देखा — और फिर बेहोश हो गया।उसकी कलाई से रक्त की एक बूँद गिरी।वह ढलान पर लटकी हुई सी अवस्था में था।रक्त की बूंद उस आकृति के मुकुट से होती हुई उसके सीने पर तैर गई। वहां एक अजीब सी पुरातन भाषा की फुसफुसाहटें गूंजने लगी। वहां ऐसी ध्वनि उभरने लगी जैसे कोई बड़ा अजगर सांस ले रहा हो।बर्फ़ की दरार के भीतर का अंधकार केवल दृश्य नहीं था,वह एक स्मृति की तरह था। हवलदार बाली राजपूत के शरीर में हरकत हुई।अब वह ढलान पर लटका नहीं था जबकि उस मानवाकृति के सामने पड़ा हुआ था। उसे होश था या नहीं,ये खुद बाली भी नहीं जानता था।गुफा के भीतर जैसे समय स्थिर हो गया। दीवारें बर्फ़ की थीं किंतु वे पारदर्शी थीं,उनके भीतर चित्र बह रहे थे। जैसे इतिहास ने स्वयं को हिम में संरक्षित किया हो।बाली विस्मय से सब देख रहा था।उसे यह सब पारलौकिक लग रहा था।बाली ने पड़े पड़े ही उस मानवाकृति को देखा।उसे यह कोई दैवीय मूर्ति प्रतीत हुई।उसे महसूस हुआ वह इस दरारनुमा गुफा के केंद्र में था।जहां एक वृत बना हुआ था।बाली और वह मानवाकृति उसी वृत के केंद्र में थे। यहां की बर्फ़ एकदम समतल और नीली थी, मानो उसमें कोई जलता हुआ आकाश झाँक रहा हो। बाली ने देखा उस मानवाकृति का शरीर सामान्य मानव जैसा था, लेकिन त्वचा पर हल्की नीली झिल्ली थी, और उसकी छाती पर त्रिकोण चिह्न उकेरा हुआ था।बाली ने पास जाकर देखा — और जैसे ही उसके हाथ से खून की एक बूँद उस चिह्न पर गिरी, गुफा की दीवारें कंपन करने लगीं।वहां अनजान प्राचीन भाषा की गूंज में एक और गूढ़ सी ध्वनि गूँजी,वह ध्वनि अपेक्षाकृत ज्यादा तेज थी।भाषा बाली नहीं जानता था, फिर भी पता नहीं किस शक्ति के वशीभूत होकर उसे समझ रहा था।“रक्त से क़ैद खुलती है… बर्फ़ से शक्ति बहती है…”गुफा की छत से कुछ टपका — कोई बूँद नहीं, बल्कि प्रकाश की एक हल्की रेखा, जो आकृति पर पड़ी और फिर बाली की आँखों में समा गई।बाली को अपने भीतर गूँज महसूस हुई।उसकी आंखों के सामने जैसे सिनेमा चल रहा था।कोई युद्ध, कोई मंदिर, कोई पुरातन जटाधारी संत, जो अग्निकुंड के चारों ओर त्रिकोण चिह्न बनाकर कुछ पढ़ रहा है।फिर एक युद्ध ,नरपिशाचों और किसी सिंहाकार योद्धा के बीच।“रक्तपथ के रक्षक… उनके जागरण से ही संतुलन बनता है…”बाली चौंका — "रक्तपथ?" उसने ये शब्द कभी नहीं सुना था, पर वह अब उसकी साँसों में बह रहा था।"रक्तपथ" उसने यह शब्द बुदबुदाया और उसकी चेतना लुप्त हो गई।गुफा की दीवार पर अब उसकी परछाई नहीं थी। वहाँ जो आकृति दिख रही थी, वह मानव नहीं — वह कुछ अधिक था। सिर पर हल्की सी ज्वाला, आँखों में नीली रोशनी… और उसकी पीठ से निकले भेड़िए जैसे धुँधले परछाईं-पंख।"तू यदि जागता है… तो एक युग जागता है…"कहते हुए आकृति ने हल्के से सिर घुमाया — बाली की ओर।उसकी आंखे नीली,निर्विकार और अनंत थी । उसने बाली के सीने पर हाथ रखा और वह किसी धुएं में परिवर्तित होने लगा। चारों और गहरी सफेद धुंध फैल गई।उस क्षण हिमगुफा में बर्फ़ और रक्त का प्रथम गठबंधन हुआ — और पहाड़ों ने एक नींद से जागती हँसी सुनी। कहानी अब केवल बाली की नहीं रही,यह रक्तपथ की पुनरावृत्ति थी।रात के 3:42 बजे ।पुरानी दिल्ली की एक संकरी, सीलन-भरी गली में धीमी लाइटें झिलमिला रही थीं।सफ़ेद और नीली बत्तियों की टिमटिमाती रौशनी के बीच एक जर्जर हवेली के सामने खड़ा था इंस्पेक्टर विराट शर्मा।ऊँचा कद, साँवला रंग, चेहरे पर स्थायी तनाव की हल्की रेखाएँ, और आँखों में नींद की जगह सिर्फ़ सवाल।उसके साथ था — रेहान अंसारी, सिविल क्राइम डिवीजन का डिटेक्टिव, जो जितना शांत दिखता था, उतना ही अंधकार से परिचित भी लगता था। उसकी आंखे ऐसी थी मानो सामने वाले को एक्सरे कर लेगा ।हां इन दोनों के अलावा वहां दो तीन कॉन्स्टेबल और भी थे।दोनों सीढ़ियों पर चढ़कर हवेली के भीतरी कमरे में पहुँचे।कमरा धूल और समय की परतों से ढँका था — लकड़ी की दीवारें चटक चुकी थीं और फर्श पर काँच की बोतलें टूटी पड़ी थीं। छत पर एक पुराना बल्ब हल्की पीली रोशनी लिए हुए हवा के साथ धीरे धीरे हिल रहा था।केंद्र में पड़ा था एक शव,सामान्य इंसान का नहीं लगता था।वह था विचित्र रूप से शुष्क। मानो उसमें से रक्त ही नहीं, जीवन का रंग भी निकल गया हो।रेहान आगे झुका। “दिल्ली में साला यहीं देखना रह गया था।"वह फुसफुसाया।"चोट के कोई निशान नहीं,ना गर्दन पर, ना छाती पर। लेकिन चेहरा ,देखो इसे…”विराट ने ध्यान से देखा। शव की आँखें पूरी खुली थीं, और उनमें भीतर तक जमा हुआ भय था। गर्दन पर दो बेहद बारीक छेद — जैसे सूइयाँ,“बिलकुल एकसमान दूरी… जैसे एकदम नाप लेकर किया हो” रेहान शव का बारीक अध्ययन कर रहा था।"तू जहां भी साथ आता है,कोई नया ही कांड हो जाता है,अबकी किसी भी केस में तेरे साथ भाई अपन तो नहीं ही आएगा"विराट ने घूरते हुए रेहान से कहा। बदले में रेहान ने उसे यूं देखा जैसे उसने कोई बहुत ही मजाकिया बात कह दी हो।"शरीर के आसपास भी रक्त की एक बूंद भी नहीं "विराट ने चौंककर कहा।“कोई कैमिकल, कोई गंध?” उसने फिर रेहान की तरफ देखा।रेहान ने हवा में कुछ सूंघा,फिर दीवार के पास गया।वहाँ लकड़ी की एक सतह पर तीन खरोंच के निशान — लहराते हुए, जैसे कोई पंजा।“ये इंसानी नाखून नहीं हैं,” रेहान बोला। “और न ही जानवरों जैसे — ये… कुछ और हैं।”कमरे में एक क्षण के लिए छाया सी हिली। रेहान चौंका, लेकिन तुरंत सँभल गया। “तुम नहीं मानोगे… लेकिन ये मामला कोई साधारण मर्डर नहीं है।”रेहान ने यूं कहा मानो वह अपने भीतर रहस्यों का पिटारा लेकर बैठा हो।“तो क्या है ये?"रेहान मुस्कुराया, लेकिन उसकी आँखें गंभीर थी। "कुछ भी हो सकता है,वक्त ही बताएगा" रेहान ने कॉन्स्टेबल को कुछ इशारा किया। फिर उसने सिगरेट सुलगा ली।तभी दरवाज़े के पास रखी पुरानी मेज़ पर एक छोटी सी लकड़ी की प्लेट मिली ।उस पर उकेरा गया था एक चिह्न — त्रिकोण में समाहित रक्तबूँद।विराट उसे उठाते ही काँप गया।“ये वही है…” रेहान बुदबुदाया। “मैंने ये चिह्न कभी किसी पुरानी तिब्बती किले की दीवारों पर देखा था… ‘रक्त की भाषा’ कहते थे इसे।”उसने सिगरेट का धुआं उगला।कमरे की दीवारें जैसे सांस ले रही थीं।माहौल में एक अजीब सा पैनापन था । कॉन्स्टेबल पुलिसिया करवाई करने में व्यस्त थे।हालांकि वे भयभीत भी दिखते थे। विराट और रेहान ने एक-दूसरे को देखा ।अब तक जो केस वे समझ रहे थे, वह अब एक लोककथा की जगी हुई परछाई बन चुका था।---केरल की गहराइयों में स्थित साइलेंट वैली, एक ऐसा वन है जहाँ जंगल न केवल जीवन, बल्कि रहस्य भी उगाते हैं।शाम के अंतिम उजाले में जब पक्षियों की आख़िरी पुकार भी थम जाती है, तब यह जंगल अपने असली रूप में उतरता है ।एक अनकहा सौंदर्य, जिसमें हर शाखा, हर फर्न, हर छाया कुछ कहती है या कुछ छुपाती है।और आज की रात साइलेंट वैली की गहराइयों में कुछ ऐसा हुआ जो वर्षों से नहीं हुआ था।मखमली काई से ढँकी ज़मीन पर तीन भेड़िए — धवल, धूसर और एक साँवली छाया की तरह।उनके बीच सबसे आगे था — ध्रुव, एक वृद्ध भेड़िया, जिसके चेहरे पर घने बालों के बीच हर ऋतु के अनुभव का भार था।पीछे-पीछे चला आ रहा था — मृगांख, उसका उत्तराधिकारी। आँखों में नई आग थी, लेकिन चाल में एक असमंजस।तीसरी थी — ताप्ति, एक मूक और तीव्र दृष्टि वाली मादा, जिसके पग सघन पत्तियों से भी हल्के पड़ते।वे तीनों मानव भेड़िए थे हालांकि अब अपने भेड़िए रूप में चल रहे थे।"क्या तुमने महसूस किया, ध्रुव?" मृगांख रुकते हुए फुसफुसाया।वह अपने मानव स्वरूप में आ चुका था।साथ ही ध्रुव और ताप्ती भी ।ध्रुव के कान तन गए, फिर धीरे से उसकी धीमी आवाज़ आई"हवा अब वह नहीं रही जो सुबह थी, जंगल के साँप अपनी बिलों में गए नहीं ,वे छिप गए हैं।और पत्तियों की छाया आज दिशाहीन है।""मैंने महसूस किया जैसे ज़मीन के नीचे कुछ हिला हो," मृगांख ने आँखें मिचमिचाते हुए कहा। "जैसे कोई पुराना श्वास फिर से जागा हो।"वे एक पत्थर की शिला पर रुके । वही जो “ऋक्त वृक्ष” के नीचे था। उस वृक्ष की शाखाओं पर कभी रक्त से लिपटी बलियाँ चढ़ाई जाती थीं । वह वृक्ष अब भी वहाँ था, मगर सूखा और चुप।ध्रुव ने फटी हुई छाल को छूते हुए कहा:"बहुत वर्ष पहले… जब जंगलों और प्राणियों के बीच केवल मौन था, एक सौदा हुआ था ,रक्त का सौदा, जो एक रक्षक के श्वास में बंद था। उसे सुला दिया गया था इस शर्त पर कि उसे न जगाया जाएगा।"मृगांख ने फुसफुसाया "रक्तपथ?"ध्रुव की आँखें एक क्षण के लिए चमकीं, फिर बुझ गईं।तभी जमीन की नमी में एक कंपन उठी — हल्की, पर स्पष्ट।ताप्ति झपटी और ज़मीन से कान लगाकर सुनने लगी।"तीन दिशाओं से एक ही गूँज आ रही है,पूर्व की लताओं से, दक्षिण के झरनों से… और उत्तर की उस चट्टान से जो वर्षों से गूँगी थी।"ध्रुव ने सिर उठाया "कुछ पुराना पुकार रहा है… कोई जो अपनी नींद में अब चैन नहीं पा रहा।"ताप्ति की आँखों में अजीब सी भयग्रस्त चमक थी"अगर वो जाग गया जो सुलाया गया था,तो जंगल अब केवल जंगली नहीं रहेगा,वो बोलेगा, और हम सिर्फ़ सुन नहीं पाएँगे ,शायद झुकना भी पड़े।"ध्रुव ने अंतिम बार ऋक्त वृक्ष को देखा और धीरे-धीरे कहा:"हम भले रक्षक हैं,लेकिन हर रक्षा की भी एक सीमा होती है। अगली रात से पहले हमें उसकी चाल पहचाननी होगी। जो रक्त का भार लेकर आ रहा है। और हमारी प्रजाती को भयभीत होने की जरूरत नहीं,वह साथी है"रात और गहरी हो चुकी थी। जंगल की छाया और भी सघन हो चुकी थी। पेड़ों पर चमगादड़ों की हल्की चीखें गूंज रही थी।साइलेंट वैली — जो सदियों से केवल वन्यजीवों की शरण थी । अब एक जागते हुए चक्र की मेज़बान बनने जा रही थी।एक युद्ध नही,पर संकेत अवश्य शुरू हो गए थे। -क्रमशः