जब कोई चीज़ को बार-बार बोलना पड़े, फिर इन सब का मतलब शून्य हो जाता है।
कई बार लगता है कि मैं शब्दों का गुलाम हूँ। हर भावना को, हर चोट को, हर उम्मीद को शब्दों में पिरोना पड़ता है ताकि लोग समझ सकें।
पर क्या सच में समझते हैं?
या बस सुनते हैं, सर हिलाते हैं, और फिर भूल जाते हैं?
1. संवाद का भ्रम
राघव एक साधारण इंसान था—न ज़्यादा बोलने वाला, न ज़्यादा चुप रहने वाला।
पर हाल के कुछ वर्षों में, वह धीरे-धीरे खुद से बातें करने लगा था। वजह सिर्फ़ इतनी थी कि जिनसे उसे उम्मीद थी, वही बार-बार उसे अनसुना करते जा रहे थे।
“तुम बहुत सोचते हो, राघव,” उसकी पत्नी अक्सर कहती।
“नहीं,” राघव मन ही मन जवाब देता, “मैं बस समझना चाहता हूँ।”
वो दिन भी याद है जब राघव ने अपने दोस्त समीर से कहा था, “यार, तुमसे कुछ बात करनी है।”
समीर ने मोबाइल पर स्क्रॉल करते हुए कहा, “बोल ना, मैं सुन रहा हूँ।”
राघव चुप हो गया।
कुछ बातें तब नहीं कही जातीं जब कोई ‘सुन’ रहा हो,
वो तब कही जाती हैं जब कोई ‘समझ’ रहा हो।
2. उम्मीदों की गलती
राघव को सबसे बड़ी गलती यही लगती थी कि उसने सबसे वैसी ही उम्मीद रखी जैसी वो खुद होता था—ईमानदार, सच्चा, और जुड़ाव महसूस करने वाला।
उसे लगा था कि लोग उसकी तरह होंगे।
पर हर बार जब उसने दिल खोलकर कुछ कहा, जवाब में या तो चुप्पी मिली, या मज़ाक।
“तू बहुत सेंटी हो गया है यार।”
“इतना क्यों सोचता है?”
“तेरे जैसे लोग ही परेशान रहते हैं।”
हर एक वाक्य, एक नया घाव बनकर उसकी उम्मीदों को तोड़ता चला गया।
3. अकेलापन और आत्मस्वीकृति
राघव अब ज़्यादा नहीं कहता था।
उसे अहसास हो गया था कि जब हर बार एक बात दोहरानी पड़े, तो या तो सामने वाला बहरा है, या फिर उसे सुनना ही नहीं है।
और तभी उसने लिखा अपने डायरी में—
“ग़लत मैं हूँ, जो सबसे अपनी जैसी उम्मीद रखता हूँ।
मैं अकेला था और हूँ।
मुझे कोई समझे या नहीं, पर मैं खुद को समझता हूँ।
और शायद ये ही सबसे बड़ी समझदारी है।”
ये शब्द उस रात उसकी आत्मा को सुकून दे गए।
पहली बार, उसे किसी और की ज़रूरत नहीं थी उसे समझने के लिए।
4. कड़वी ज़ुबान या सच्चा दिल?
राघव की जुबान अब पहले से अलग हो गई थी।
वो ज़रा ज़्यादा साफ बोलने लगा था—कभी तीखा, कभी कड़वा।
“तू पहले ऐसा नहीं था,” लोग कहते।
वो मुस्कराता और सोचता,
“पहले तुम सुनते नहीं थे,
अब जब सुन पा रहे हो, तो बुरा लग रहा है?”
उसने एक बात कही थी अपने एक पुराने दोस्त को—
“मेरी ज़ुबान कड़वी है, इसका मतलब ये नहीं कि मेरा दिल भी कड़वा है।
सच हमेशा मीठा नहीं होता।”
उस दिन के बाद वो दोस्त भी चला गया।
5. आत्मबोध का क्षण
राघव अब लोगों से कम और खुद से ज़्यादा बात करने लगा था।
उसकी डायरी उसकी सबसे अच्छी दोस्त बन गई थी।
“मुझे किसी से कुछ कहना नहीं,
बस खुद को रोज़ समझाना है
कि ये दुनिया वैसी नहीं, जैसी मैंने चाही थी
पर मैं वैसा बनूँगा, जैसा मैं चाहता हूँ।”
अब वो खुद को शून्य कहने की बजाए,
खुद में सम्पूर्णता देखने लगा था।
6. अंत नहीं, शुरुआत है
राघव अब वो इंसान नहीं रहा जो सबकी मंज़ूरी चाहता था।
अब वो सिर्फ़ उस मंज़ूरी को चाहता था जो आईने में दिखती थी।
उसने बोलना कम कर दिया, लेकिन लिखना नहीं छोड़ा।
उसकी चुप्पी में आवाज़ थी, और उसकी खामोशी में आत्मा की गरज।
किसी ने पूछा, “अब क्या पाता है इस दुनिया से?”
उसने मुस्कराकर जवाब दिया,
“कुछ नहीं। अब तो बस खुद को खोकर खुद को पाना है।
जब बोल-बोलकर थक जाओ, तब चुप्पी सबसे ऊँची चीख बन जाती है।”
अंतिम पंक्तियाँ
“जब कोई चीज़ बार-बार कहनी पड़े,
तो शायद वो चीज़ कहने लायक नहीं रही।
या शायद कहने वाला अब समझ गया है
कि समझाने से समझा नहीं जा सकता।
और फिर वो चुप हो जाता है—
पर उसकी चुप्पी भी एक कहानी होती है।
एक ऐसी कहानी, जो किसी दिन किताब बन जाती है।”
लेखक परिचय
धीरेन्द्र सिंह बिष्ट
लेखक – “मन की हार, ज़िंदगी की जीत”, “अग्निपथ”, “काठगोदाम की गर्मियाँ”
धीरेन्द्र सिंह बिष्ट हिंदी साहित्य के एक संवेदनशील और सशक्त लेखक हैं, जिनकी कहानियाँ पाठकों के दिल से संवाद करती हैं। वे जीवन की सरल लेकिन गहरी सच्चाइयों को शब्दों में पिरोते हैं—इसीलिए उनकी रचनाएँ सिर्फ़ पढ़ी नहीं, महसूस की जाती हैं।
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