बनारस… सिर्फ़ एक शहर नहीं है, ये तो जैसे समय की गोद में बैठा हुआ एक सपना है—जिसके हर घाट पर कहानियाँ बहती हैं, और हर गली में कोई याद रुकी हुई मिलती है।
ठीक वैसे ही, राजेन्द्र प्रसाद घाट के एक कोने में, हर शाम एक लड़की बैठा करती थी।
नाम उसका अवनि था। उम्र कोई 26–27 की होगी। लंबे, सीधे बाल जिन्हें वो अक्सर ढीली चोटी में बाँध लेती थी। चेहरे पर कोई खास साज-श्रृंगार नहीं, पर आँखों में कुछ ऐसा था जो हर आते-जाते को कुछ देर के लिए रोक ले।
वो चुप रहती थी, मगर उसकी मौनता में भी एक किस्सा पलता था।
उसके पास हमेशा एक पुरानी, भूरे रंग की डायरी होती थी—कवर थोड़ा घिसा हुआ, कोनों पर हल्की सिलवटें। वो डायरी ही उसका संसार थी, उसकी हमराज़, उसकी आवाज़।
घाट पर रोज़ लोग आते—कोई मोबाइल में तस्वीरें खींचता, कोई गंगा आरती में खो जाता। मगर अवनि, अपनी जगह पर स्थिर रहती… जैसे वक़्त को बाँध लिया हो किसी खामोश लम्हे में।
उसका नियम था—शाम के ठीक 5:15 पर आना, उसी सीढ़ी पर बैठना, और गंगा की तरफ़ देखना।
पहले 15 मिनट तक वो बस देखती रहती—नदी के बहाव को, नावों को, और चुपचाप बहती रौशनी को। फिर अपने बैग से डायरी निकालती, और कुछ लिखने लगती।
कभी मुस्कराती, कभी आँखें नम हो जातीं।
जैसे हर शब्द किसी भूले हुए लम्हे की चिठ्ठी हो।
घाट के आसपास के लोग अब उसे पहचानने लगे थे—पर कोई उसके बारे में कुछ नहीं जानता था।
बस एक पुरानी अम्मा कहती थीं,
"बिटिया, जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो… पर खुद भी नहीं जानती किसका।"
दरअसल, अवनि का इंतज़ार सिर्फ़ किसी इंसान का नहीं था। वो उस एहसास का इंतज़ार कर रही थी, जो खो गया था कहीं—किसी पुराने रिश्ते की गहराई में… या शायद किसी अधूरी बात के पीछे।
कुछ लोग उसे अकेली समझते थे, कुछ रहस्यमयी।
पर सच्चाई ये थी—अवनि अकेली नहीं थी, वो अपने भीतर एक पूरी दुनिया लेकर चलती थी।
वो लिखती थी—उन रिश्तों के लिए जो रह गए, उन बातों के लिए जो कहे नहीं गए, और उस प्यार के लिए जो अधूरा था… मगर खत्म नहीं हुआ।
अगर अवनि उस कहानी की कविता थी, तो आरव उसका अधूरा गद्य।
घाट से कुछ ही दूरी पर एक तंग-सी गली में एक चाय का ठेला था—छोटा-सा, लकड़ी का बना हुआ, जिस पर “काशी चाय भंडार” लिखा था। बहुत कुछ खास नहीं था वहाँ, पर एक बात थी जो उसे बाकियों से अलग बनाती थी—वहाँ की चाय में एक अलग सी गर्माहट थी… जैसे उसमें किसी अधूरी दुआ की मिठास घुली हो।
इस ठेले को चलाता था आरव।
कोई उसे एक मामूली चायवाला समझता, कोई उसे ‘काफी सोचने वाला लड़का’।
पर उसके भीतर एक अलग ही दुनिया बसती थी।
आरव दिन में चाय बेचता, और रात में कहानियाँ लिखता।
वो लेखक नहीं था, पर शायद बनने की कोशिश करता था।
उसके पास एक पुरानी डायरी थी—अवनि जैसी ही। बस, उसमें लफ्ज़ कम और अधूरे ख्वाब ज़्यादा थे।
🌿 अवनि से पहली मुलाकात
वो हर शाम घाट पर चाय पहुँचाया करता था।
ग्राहकों की भीड़ में एक चेहरा उसे रोज़ खींचता था—वही लड़की, जो सीढ़ियों पर बैठकर कुछ लिखती रहती थी।
वो एक अजीब-सी शांति लिए बैठी रहती थी, जैसे उसके आसपास की दुनिया की आवाज़ें उससे टकराकर लौट जाती हों।
एक दिन, आरव ने हिम्मत की।
चाय का कप हाथ में लिया और उसके पास गया।
"चाय?" उसने पूछा।
अवनि ने सिर उठाया—पहली बार उसकी आँखें आरव से मिलीं।
"मगर मैंने ऑर्डर नहीं किया।"
"पता है," आरव मुस्कराया, "पर शायद ज़रूरत हो।"
अवनि ने हल्की मुस्कान दी और चाय ले ली।
वो चाय नहीं थी—पहली बातचीत थी।
✍️ बातें जो चाय के साथ घुलती रहीं
अब ये रोज़ की बात हो गई।
आरव बिना कुछ पूछे एक चाय लेकर आता, और अवनि बिना कुछ कहे उसे स्वीकार कर लेती।
धीरे-धीरे उनके बीच कुछ शब्द भी आने लगे।
आरव पूछता—
"क्या लिखती हैं आप?"
अवनि जवाब देती—
"जिनसे कह नहीं सकती, उनके लिए।"
कभी वो चुप रहती, तो आरव कहता,
"चुप्पियाँ भी कहानियाँ होती हैं… सिर्फ़ पढ़ने वाला चाहिए।"
और ये कहकर मुस्कुरा देता।
आरव ने कभी ज़्यादा जानने की कोशिश नहीं की। वो बस उसे देखना चाहता था—उसे उस तरह महसूस करना चाहता था, जैसे कोई लेखक अपने किरदार को समझता है… धैर्य से, आदर से।
🌸 आरव का अपना अकेलापन
लोगों को आरव चायवाला दिखता था, पर किसी ने नहीं देखा कि वो भी किसी का इंतज़ार कर रहा है—किसी कहानी का, किसी अंत का, या शायद किसी शुरुआत का।
उसकी रातें उन अधूरी पंक्तियों में कटती थीं, जिन्हें वो डायरी में लिखकर खुद ही काट देता था।
वो जानता था—अवनि सिर्फ़ लड़की नहीं, एक अधूरी कहानी है।
और वो उस कहानी का हिस्सा बनना चाहता था—कोई बड़ा किरदार नहीं, बस एक छोटा-सा वाक्य… जो उसके पन्नों पर हमेशा जिंदा रहे।
"चाय से ज़्यादा वो उन निगाहों में दिलचस्पी रखता था, जो हर घूंट के साथ कुछ यादें पीती थीं।"
अब घाट की हर शाम बस दो चीज़ों पर ठहर जाती थी—
एक, अवनि की डायरी…
और दूसरा, आरव का चाय का कप।
जहाँ एक लिखती थी, और दूसरा पढ़ने की कोशिश करता था—बिना पन्ना पलटे।