"उस रात वो सिर्फ़ मेरी थी"
(भाग 1)
✍️ रचना: Abhay Pandit
रात का वक़्त था। खिड़की के उस पार हल्की बारिश धीमी थपकियों में भीग रही थी और कमरा एक सर्द नमी से भरा हुआ था। हर चीज़ जैसे अपनी साँस रोककर किसी आने वाले पल का इंतज़ार कर रही थी। दीवारों पर टंगी तस्वीरें, जो अब तक मौन थीं, अब आँखें फाड़े उस एक पल को देख रही थीं जो धीरे-धीरे पास आ रहा था – और उस पल का नाम था नेहा।
वो सामने खड़ी थी। हल्के काले रंग की साड़ी में, बाल खुले, और आँखों में एक अजीब सी चुप्पी। जैसे कुछ कहने को थी, मगर शब्दों से भरोसा उठ चुका हो। मैं वहीं खड़ा उसे देखता रहा। कुछ सेकंड के लिए वक़्त जैसे फिसल गया था — या शायद थम गया था।
"क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?" नेहा ने धीमे स्वर में पूछा।
मैंने दरवाज़ा और थोड़ा खोल दिया, लेकिन जवाब नहीं दिया। कुछ चीज़ों के लिए शब्द ज़रूरी नहीं होते। वो अंदर आई, और उसकी साँसों की गर्मी कमरे के ठंडेपन से उलझने लगी।
काफी देर तक हम दोनों चुप रहे। वो खिड़की के पास जा बैठी, जहाँ से बारिश की बूँदें धीरे-धीरे काँच पर फिसल रही थीं — ठीक वैसे जैसे कोई बीता हुआ एहसास मन से टपक रहा हो।
"आरव…" उसने कहा, उसकी आवाज़ कंपकंपा रही थी, "क्या तुम जानते हो कि उस रात मैं क्यों आई थी?"
मैंने उसकी ओर देखा, पर कुछ नहीं कहा। उसने आगे कहा, "मैं टूटी हुई थी... मगर उस रात तुमने मुझे महसूस किया, जैसे मैं अब भी क़ीमती हूँ किसी के लिए।"
मैंने अपने हाथ में पकड़ा हुआ कप धीरे से टेबल पर रख दिया। उस वक़्त मैं बस एक बात समझ पाया — कि कुछ रातें, सिर्फ़ जिस्म की भूख नहीं होतीं। वो रूह की दरारों को भरने की कोशिश होती हैं।
मैं धीरे से उसके पास गया। वो कांप रही थी। मैंने उसके हाथ थामे, और कहा, "उस रात तुम सिर्फ़ मेरी नहीं थी, नेहा... मैं भी तो सिर्फ़ तुम्हारा था।"
वो पल… शायद पूरे जीवन का सबसे सच्चा पल था।
नेहा ने अपनी आँखें बंद कीं, और अपने माथे को मेरे सीने पर टिका दिया। उसकी साँसों की गर्मी मेरे सीने में धड़कती साँसों से मिल गई। उस रात हमारी कोई योजना नहीं थी, कोई इरादा नहीं था — बस एक मजबूरी थी, एक खालीपन जो हमें एक-दूसरे की बाँहों में खींच लाया था।
मैंने उसके गाल को धीरे से छुआ, और देखा कि वो काँप रही है। उसकी आँखों में आँसू थे, मगर उनमें डर नहीं था — बस स्वीकृति थी।
धीरे-धीरे हम एक-दूसरे के बेहद क़रीब आ गए। वो पल इतना सघन था कि हर सांस एक वादा बन गई थी। वो मेरी बाहों में सिमट गई, जैसे किसी पुराने दर्द से छुटकारा पाने आई हो।
उसने मेरी आँखों में देखा — वो देखना, कोई नज़र नहीं थी… वो जैसे आत्मा की खिड़की थी। उसने कहा, "क्या तुम भी उतने ही अधूरे हो, जितनी मैं हूँ?"
मैंने हाँ में सिर हिलाया।
और फिर, हम दोनों उस रात के अंधेरे में एक-दूसरे के लिए उजाला बन गए। ना कोई मजबूरी रही, ना कोई अतीत। बस दो रूहें थीं, जो टूट चुकी थीं, और एक-दूसरे में मरहम ढूँढ रही थीं।
उसकी साँसें मेरी गर्दन से लिपटी थीं, और मेरी उंगलियाँ उसकी पीठ पर चल रही थीं, जैसे मैं उस दुख की कहानी को पढ़ रहा हूँ जो उसने कभी किसी को नहीं सुनाई।
वो पल किसी कविता जैसा था — बिना तुक का, मगर सच्चा।
कमरे में एक धीमा संगीत बज रहा था — बाहर बारिश का, भीतर धड़कनों का।
जब मैंने उसे चूमा, वो कांपी नहीं, भागी नहीं, हिचकी नहीं — उसने सिर्फ़ आँखें बंद कीं और खुद को सौंप दिया, जैसे वो कह रही हो — "आज अगर बिखर भी गई, तो तुम्हारी बाँहों में टूटना बेहतर है।"
रात बीतती रही, और हम धीरे-धीरे हर उस सीमा को पार करते गए जिसे समाज, भय, या तर्क ने हमारे बीच खींचा था।
वो सिर्फ़ एक रात नहीं थी।
वो हम दोनों के जीवन की सबसे सच्ची स्वीकारोक्ति थी।
हम दोनों उस रात रोए, हँसे, एक-दूसरे में समा गए — बिना कोई नाम दिए, बिना किसी वादे के।
और फिर… जैसे वक़्त जाग गया।
घड़ी ने तीन बजने का ऐलान किया।
कमरे की खामोशी अब भारी लगने लगी थी।
नेहा उठी। उसने मेरी तरफ देखा और कहा, "क्या ये सच था?"
मैंने कहा, "अगर ये सपना था… तो मैं फिर से सोना चाहता हूँ, हमेशा के लिए।"
वो मुस्कुराई — एक थकी, बुझी सी मुस्कान… और मेरे सीने पर हाथ रखकर बोली,
"उस रात… मैं सिर्फ़ तुम्हारी थी। पहली और शायद आखिरी बार।"