Book in discussion: Don't love anyone in Hindi Book Reviews by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | चर्चा में पुस्तक : प्रेम न करियो कोय

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चर्चा में पुस्तक : प्रेम न करियो कोय

चर्चा में पुस्तक : प्रेम न करियो कोय

गांधी की अनलिखी प्रेम कहानी

( पुस्तक :_ गांधी और सरलारानी चौधरानी ; अलका सरावगी )

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मानव मात्र से प्रेम की भावनाएं और संवेदनाओं को दबाकर या खत्म करके उनके उत्थान और भले की बात नही की जा सकती। मनुष्य अपने आप में ही भावनाओं का सेतु भी है तो उस पर चलने वाला पथिक। वह लोकतंत्र सचमुच बड़ा है जहां के व्यक्तित्व अपनी सोच, व्यवहार को छुपाते नही बल्कि धरोहर के रूप में छोड़ जाते हैं। यह हमारे ऊपर है की समय काल से हम उसकी कैसी और किस तरह की व्याख्या करते हैं। अलका सरावगी, जिन्हे युवा अवस्था में ( हालांकि वह अभी भी युवा हैं ) ही साहित्य अकादमी पुरस्कार पहले उपन्यास कलि कथा वाया बायपास, के लिए प्रदान किया गया, ने यह पुस्तक शोध, तथ्यों का संकलन और उनका विश्लेषण करके लिखी है।

गांधी जी प्रारंभ से ही देसी विदेशी लेखकों के लिए एक ऐसी गुत्थी रहें हैं जो जितना सुलझाता है उतनी ही उलझती जाती है। वह एक सिरा पकड़कर वर्षों के शोध से उसके अंत तक पहुंचता है तो पाता है यह अंत नहीं बल्कि नई शुरुआत है।या एक और अगली कड़ी की पूर्व तैयारी।

अधिक दूर न जाते हुए अभी अभी गांधी जी पर आई कुछ पुस्तकों और उनके अलग अलग मिजाज को देखें ।"गांधी जिंदा है" एक लंबा नाटक है जो इस बात से प्रेरित है की आज के समय के मूल्य और गांधीवादी मूल्यों में कितना अंतर आ गया है। मूलत कवि और स्वभाव से चिंतक मित्र रासबिहारी गौर ने यह नाटक लिखा है। बिना किसी पर आक्षेप के चदरिया झीनी बीनी रखी गई है। दूसरी पुस्तक इतिहासकार सुधीर चंद्रा की है जो गांधी की सोच और उनके विचारों का विश्लेषण ही नही करती बल्कि कई नए और गंभीर पहलू भी सामने रखती है। तीसरी पुस्तक अधिक महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है की यह गांधी जी की प्रमुख किताबों यथा सत्य के मेरे प्रयोग, स्वदेशी की अवधारणा और किताबों के मुख्य मुख्य अंशों का संपादित स्वरूप है। और अभी वर्ष दो हजार तेईस में आई अलका सरावगी की "गांधी और सरला देवी चौधरानी "पुस्तक है। यह दरअसल एक ऐसा उपन्यास है जिसमें तथ्यों के साथ थोड़ी छूट भी ली गई है और एक दिलचस्प वितान बुना है। (मैं यह जरूर जानना चाहूंगा की यह शीर्षक क्या अलका जी ने मूल पांडुलिपि पर दिया था या बाद में प्रकाशक और मित्रों के दबाव में दिया गया?) । कुछ अनछुए पहलुओं, यथा गांधी का पति, दोस्त, देश के लिए जुनून और सबसे बढ़कर एक इनोवेटिव लर्नर के स्वरूप को यह किताब हमारे सामने लाती है। जब आप किसी के प्रभाव में उन चीजों को भी करने लगते हैं जो कभी की नही। जब आप उन रास्तों पर चल पड़ते हैं जहां चलने की हिम्मत कोई दे नही पा रहा था। जब आप बिना बहस के हर बात मानते हो और जब आप इंतजार करते हो की अगला कुछ और कहे और उसे मैं सबसे अच्छे से करके दिखाऊं। तो इसे प्यार कहेंगे या गांधी के प्रति सरलादेवी का सहज आकर्षण या देश के लिए कुछ करने का जज्बा यह पाठक खुद अपने दिल से पूछें जवाब मिल जाएगा। और मेरा सवाल है गांधी नही जानते होंगे देश विदेश की इन प्रबुद्ध, कुलीन महिलाओं का उनके प्रति ( या उनके कार्यों के प्रति) आकर्षण? वह चतुर बनिया, राजकोट के दीवान का बेटा और लंदन से बैरिस्टरी तीन साल पढ़कर आया वहां रहा सब जानता समझता था।और एक ही वक्त में चार से पांच महिलाएं उनकी दोस्त रहीं।आज की तरह उन्होंने उन्हे बहन (या कुछ महिला करतीं हैं आज भी भइया भईया पसंद के पुरुष को भी) नही कहा बल्कि दोस्ती का ही व्यवहार किया ।किसी को भी धोखा या छुपाया नही न ही ढोल पीटा। संबंधों को निभाने की यही खूबसूरती भी गांधी से सीखी जा सकती है। और यह नही भूलना चाहिए की उसी टाइम जोन में वह लॉर्ड इरविन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, एटली, वायसराय से लेकर तिलक, गोखले, पटेल, नेहरू, अंबेडकर, जिन्ना से भी बराबर बातचीत कर रहे थे और भूलना नहीं चाहिए जनता के मध्य यात्राएं भी कर रहे थे और सविनय अवज्ञा, नील आंदोलन, दांडी मार्च से लेकर रॉलेट एक्ट विरोध सहित कई आंदोलन भी कर रहे थे।पूरे विश्व में ऐसा ऊर्जावान व्यक्तित्व नही मिलता।

यह किताब एक नए दृष्टिकोण से गांधी को जानने और समझने का अवसर देती है। हालांकि गलप अधिक है और कुछ प्रसंगों की व्याख्या लेखिका ने अपनी कल्पना और सुविधा से की है।

यह पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए?_:

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अंग्रेजों के रॉलेट एक्ट और जलियांवाला कांड के साथ यह उपन्यास प्रारंभ होता है। उन्नीस सौ उन्नीस का भारत और उससे पहले उन्नीस सौ पांच का बंगाल और वहां की गतिविधियों की की जानकारी के लिए पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए।

दूसरे किस तरह टैगोर ननिहाल पक्ष की प्रखर विदुषी सरला, अपने विचारों और सोच से राष्ट्रवादी गतिविधियों से जुड़ती और भाग लेती है। अर्थात महिलाओं की स्थिति भारत में प्राचीनकाल ही नही आधुनिक काल में भी सुदृढ़ रही है।

तीसरी और जरूरी बात जो आज भी प्रासंगिक है की एक महिला का (प्रबुद्ध, सामाजिक विचारक)पुरुष से मित्रता का संबंध। क्या आज भी एक विवाहित महिला अपने मित्र को अपने घर बुला और ठहरा सकती है? पति की अनुपस्थिति और सास की मौजूदगी में? यह उस वक्त हुआ।

और गांधी जी की कार्य प्रणाली, उनका धैर्य और रोज एक पत्र सरला देवी को लिखने का समय निकालना और अंडर द करेंट एक सहज, स्वस्थ आकर्षण, कुछ घटनाओं का महत्व और उस पर गांधी का दृष्टिकोण (अध्याय दो, पृष्ठ 28, 29, 30) । साथ ही कस्तूर (बा) के प्रति उनका एक सख्त और टिपिकल पतिनुमा रवैया ।पति चाहे गांधी ही क्यों न हो वह भारत में पति ही रहता है, हालांकि जल्द ही अपनी गलती को महसूस कर सुधार कर लेते हैं, (पृष्ठ 32)। और एक रोचक बात पुस्तक बताती है की ट्रांसवाल आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रही के रूप में जेल जाने वाली कस्तूर पहली महिला थीं। बड़े ही दिलचस्प ढंग से दो अलग परिवेश की महिलाओं की तुलना कर अलका सरावगी पाठकों के मन में एक सवाल छोड़ती हैं।लगभग अनपढ़ और ठेठ ग्रामीण कस्तूर और उच्च शिक्षित, कुलीन वर्ग की सरला रानी दोनो में देश हित की भावना। पर जहां कदम से कदम मिलाकर चलने का साहस, अंग्रेजों के सामने बेबाकी से डट जाने का होंसला और उसी समर्पण से गांधी और अपनी गृहस्थी को भी देखना, साथ ही समय समय पर गांधी और उनके छह बच्चों का जन्म।यह भारतीय संस्कृति और प्राचीन परंपरा का ही प्रभाव है जो कस्तूर और उन जैसी अनगिनत नारियों को सरला देवी से कई गुना आगे कर देता है। पढ़ने वाले के जहन में खुद बखुद कस्तूर जगह बना लेती हैं।(यह याद रखें पाठकगण की उस वक्त कोई नौकर नही थे कस्तूर की मदद के लिए।यह सब कुछ इस देश की नारी की ताकत और इच्छाशक्ति ही करवाती है।)

"आनंद लोके, मंगला लोके / बिराजो सत्य सुंदर " बंकिमचंद्र के सामने कई बार यह गाना मामा रविंद्रनाथ टैगोर की उपस्तिथि में सरला गाई हैं। आगे यह भी है की बंगालियों के लिए पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र के लोगों जैसा मजबूत बनाने हेतु अखाड़े, व्यायामशाला आदि सरला रानी ने कोलकाता में विवाह पूर्व खोली। युवकों की राष्ट्रप्रेम की भावना को दिशा दी। अर्थ यह की वह स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी जी के कार्यों और विचारों को अपने मन से समर्थन दे रहीं थीं।

तो इन सब बातों के लिए यह उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए। हालांकि इसका गठन और शिल्प इसे एक शोधपरक पुस्तक, गंभीरता से लिखा आख्यान बताते हैं पर जब काशी का अस्सी, अलग अलग, बिलकुल पृथक संमरण का संकलन, एक उपन्यास हो सकता है, बकौल लेखक के बड़े भाई नामवर सिंह जी द्वारा तो यह तो बाकायदा जुड़ी हुई और मजबूत पटकथा से बुनी हुई सशक्त कहानी है।यह उपन्यास लेखिका की ख्याति में चार चांद लगाता है, कुछ खामियों के बावजूद। स्त्रियों की कमजोर स्थिति, भावनात्मक रूप से जुड़ जाना और निर्णय लेने की अक्षमता मुख्य रूप से उभरकर सामने आती हैं।

 

गांधी :_अनफ्लिटर्ड कॉन्टेंट का खजनाऔर विदुषी, सुंदर, आकर्षक, विवाहित सरला रानी

____________________पुस्तक पढ़ते हुए कई बार लगता है कि हम तत्कालीन भारत के कई अनछुए पहलुओं से दो चार हो रहे हैं। साथ ही प्रबुद्ध और उच्च वर्ग की गतिविधियों को भी देख रहे हैं। हालांकि कुछ जगह एक पक्षीय भी हुआ लेखिका के द्वारा। जैसे कुलीन, उच्च वर्ग का व्यक्ति राय बहादुर की पदवी से भी अलंकृत है, जो अंग्रेजों के खासमखास और भारतीयों के खिलाफ हुए इंसान को मिलती है। फिर वही व्यक्ति आगे देशभक्तों की थोड़ी मदद करते लिखा है हालांकि स्पष्ट नही है। ऐसी कुछ विसंगतियां हैं पर चूंकि यह उपन्यास कल्पनाशीलता और यथार्थ को लेकर चलता है तो यह बातें दब जाती हैं ।

अलका जी की खास शैली है जिससे लगता है सारा घटनाक्रम मानो हमारे सामने ही हो रहा है।

कहानी, जैसा बताया रॉलेट एक्ट और पंजाब की घटनाओं के बाद से प्रारंभ होती है। गांधी जी और उनका "औरा " कार्य प्रणाली है तो उधर उन्नीस सौ एक की युवा, विदुषी । जो दस वर्ष अपने नाना के साथ पेंटिंग, कविता करती हुई क्रांतिकारियों और सामाजिक विसंगतियों के बारे में अखबारों में लेख लिखने लगती है (अध्याय एक, पृष्ठ 16, 17, 21, 23)। यह भविष्य की मजबूत, साहसी और अपने पर विश्वास करने वाली स्त्री की छवि बताती है। परंतु उस वक्त की कुलीन, बेबाक, सही को सही और गलत को गलत कहने वाली सुंदर, युवा सरला किस तरह और क्यों दस वर्षों बाद, लगभग बत्तीस वर्ष की आयु में लाहौर के सफल उद्यमी और वय में काफी बड़े की तीसरी पत्नी बनना कुबूल करती है? जाने क्या मजबूरी रही होगी अन्यथा यह बात कहानी और उपन्यास को कमजोर बनाती है।क्योंकि ऐसी स्थिति तो बंगाल की लगभग अनपढ़ स्त्री जो परिवार के फैसले को मानती है, के साथ भी मजबूरी हो तो हो, वरना नही होती। हो सकता है उस काल खंड, जो दस वर्षों का है, की कोई अलग कहानी हो, जिसे लेखिका फास्ट फॉरवर्ड कर देती हैं।

उनका विदुषी, बोल्ड महिला के प्रति आकर्षण, जिसे न जाने क्यों और किसने एक प्रेम कहानी का स्वरूप दिया है जबकि ऐसा नही है। स्त्री, सरला रानी का सहज आकर्षण गांधी के कार्यों और व्यक्तित्व के प्रति।उधर देश के लिए, खासकर स्त्रियों में जागृति और चेतना के लिए, उन्नीस सौ उन्नीस के भारत में, जब स्त्रियों का बाहर निकलना कम था और आंदोलनों में भाग लेना तो और भी कम, तब मंचों से पंजाब, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र आदि की सभाओं में गांधी सरला रानी चौधरानी को माइक पर संबोधन और स्वदेशी की भावना का प्रतीक बनाकर भाषण करवाते। राष्ट्रहित में यदि परस्पर संबंधों और दोस्ती का उपयोग होता है तो यह मणिकांचन योग है।

 

प्यार एक व्यक्तिगत सच्चाई, न कि सार्वभौमिक

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यह बात सच है कि प्यार, प्रेम की अनुभूति बेहद व्यक्तिगत और उतनी ही गोपनीय होती है।जब दिल और आँखें मौन संवाद करते हैं तब कोई भाषा, शब्द नहीं होते। यह स्पष्ट है कि उस वक्त, आजादी के पूर्व उन्नीस सौ बारह से बीस का समय की आधुनिक, शिक्षित भारतीय स्त्री जिसे मोहनदास गांधी ने नोटिस भी किया और उसकी तरफ आकर्षित हुए।सरला देवी भी प्रेम में पड़ी एक महानायक (?)के।उनके लिखे पत्र जिनमें भावनाओं की अभिव्यक्ति हैं वह महात्मा बनने के बाद गांधी ने सार्वजनिक कर दिए कि ऐसी कोई बात नहीं। मुझे लगता है वह अपनी इमेज के प्रति अतिरिक्त सावधान और जागरूक थे जितने जवाहर लाल नेहरू अपनी इमेज से बेफ्रिक और बेलौस। क्या ख्याति और जनसेवा हमें कमजोर बनाती है? क्या हम प्रेम को अपराध या अस्पृश्य मानते हैं? दोस्ती ही बेहतर नाम होता इस रिश्ते के लिए पर वह भी गांधी ने नहीं दिया। मीरा की तरह सरला रानी ने कई पत्रों में गांधी के प्रति अपने खूबसूरत रिश्तों का उल्लेख किया। परंतु गांधी एक खास मोड़ के बाद उससे बचते रहे, रिश्ते की गहराई से भी और अपनी मनुष्य जनित कमियों को भी काबू करते रहे। जिस अफसाने को मंजिल तक ले जाना न हो मुमकिन/ उसे एक खूबसूरत मोड देकर छोड़ना अच्छा (साहिर, जिन्हें अमृता ने धोखा दिया, उस पर अलग लिखा है विस्तार से)। यही गांधी ने किया। उन्होंने आगे सरला रानी को खादी की साड़ी में अनेक महिला समारोह और जागरूकता अभियान में महिलाओं की रोल मॉडल की तरह आमंत्रित किया।

अपने पति के विरोध के बावजूद भी वह क्या जज्बा और चीज थी जो सरला रानी को गांधी की बातें मानने को मजबूर करती थी? पति ने कई बार विरोध भी किया पर वह गईं तो यह महज आकर्षण नहीं था। परंतु एक विवाहिता का एकतरफा प्रेम भी नहीं था। गांधी की तरफ से भी यह आकर्षण था, जो बढ़ता ही गया। परंतु उस बेहद तेज राजनीतिज्ञ ने भारतीय राजनीति में अपनी महत्ता और भूमिका को अच्छे से समझ लिया था।तभी उन्नीस सौ बीस के बाद से वह धीरे धीरे इसे राष्ट्रप्रेम और "देश की खातिर" के लिए संबंधों का इस्तेमाल के रूप में खुद से कहते रहे।या कहें झूठा दिलासा देते रहे। सरलादेवी, कुलीन वर्ग की आजाद ख्याल स्त्री, टैगोर के खानदान से, गांधी के प्यार और आकर्षण से प्रभावित हो संभवतः तलाक़ भी ले लेती।पर पुरुष, भले ही वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हो अथवा सिद्धार्थ और गौतम, (बुद्ध और महावीर स्वामी)वह स्त्री के प्रेम, विश्वास और भरोसे को हमेशा तोड़ता ही रहा है।वह भी खुद के महान बनने और दुनिया के सामने एक उद्धरण बनने। आप बनिए परन्तु स्त्री के अरमानों, स्वप्न, खुशियां, दिल सभी को कुचलकर नहीं। क्या प्यार ही ईश्वर कहने वाले तब नहीं थे? इश्क खुदा है खुदा ही इश्क है, अपनी सुविधानुसार ही प्रयोग होता है? स्त्रियों ने ऐसा नहीं किया बस एक अपवाद हैं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी। जिनके पारसी पति फिरोज गांधी को उन्होंने देश के सुखद और मजबूत भविष्य के लिए ऐसे किनारे किया कि उनके दोनों पुत्र भी कभी उनका नाम नहीं लेते थे।

स्त्री महज अपने प्यार को निखारना और प्यार के बदले प्यार पाना चाहती है और कोई उसकी लंबी चौड़ी इच्छाएं, महत्वकांक्षाएं नहीं होती। वह दिलचस्प है जब गांधी सरलादेवी से सुरक्षित दूरी बना रहे थे और उन्हें पब्लिक डोमेन में जबरदस्ती आगे बढ़ा रहे थे। एक प्रसंग है जो अहमदाबाद में गांधी स्मृति पुस्तकालय में सरलादेवी द्वारा लिखित पत्रों में संरक्षित है। वह लिखती हैं, " उन्होंने मुझे रेशमी साड़ी की जगह खद्दर की मोटी साड़ी पहनकर आने के लिए कहा।पति उपस्थित थे और उनकी पसंद की साड़ी उन्होंने पहनी थी।" पर गांधी तो गांधी थे, अपने मन की करवाने में माहिर। ऐसे अनेक पत्रों के संदर्भों से यह प्रेम कथा उभरती है। और आगे गांधी से मोहभंग के बाद उन्नीस सौ तीस में टीबी की बीमारी से एक खूबसूरत युवती की कम उम्र में मौत होती है। क्या इसे भी गांधी का देशहित में बलिदान देना कहेंगे? क्या हर मौके पर बचने और खुद को पवित्र, साफ रखने में स्त्रियों का ही खून, अस्थि मज्जा लगाया जाएगा?

एक और दिलचस्प यात्रा है जब गांधी के बुलावे पर अकेली स्त्री साबरमती आश्रम आती हैं। वह और गांधी ही होते हैं, वर्ष उन्नीस सौ इक्कीस, तब भी प्यार और संवेदना के तंतु विकसित होते हैं। वहीं कस्तूर (जगत बा वह बाद में बनी, उनका जन्म नाम कस्तूर था)से भी मुलाकात होती है जो शौचालय, कपड़े धोने, गृहस्थी चलाने से लेकर पति सेवा भी करती हैं। छ बच्चे होना प्रमाण है कि राष्ट्र सेवा के साथ पतिधर्म और दाम्पत्य संबंधों का निर्वहन भी अच्छे से करना चाहिए।

वह कुलीन वर्ग की स्त्री, जिसे अपने राय बहादुर वर्ग के उच्च श्रेणी जीवन में कभी कोई काम करना ही नहीं पड़ा होगा, देखती है कस्तूर, गांधी के साथ जीवन बिताने का यथार्थ, निर्मम यथार्थ।यह सारे कार्य जो बैक स्टेज होते हैं उन्हें कस्तूर या किसी भी बड़े व्यक्तित्व, नेता, समाज सुधारक या आधुनिक संत की पत्नी करती हैं। तब हर जगह वह यात्राएं कर पाता, बड़ी बड़ी बातें, भाषण दे पाता है हजारों की भीड़ के सामने। लेकिन उसकी पत्नी, स्त्री पता नहीं कहां पीछे छूट जाती है।

 

मोहभंग या मजबूरी

--------------------------;_ यहां से मोहभंग शुरू होता है जो गांधी प्रारंभ के कुछ वर्षों बाद ही समझ गए थे कि, "उच्च वर्ग की यह स्त्री आकर्षण, फिनॉमिना के तहत जुड़ तो रही है परंतु उसकी भूमिका और व्यवहार किन किन चीजों के लिए उपर्युक्त है, यह वह समझते थे।" यहां गांधी बिल्कुल सही और कहा जाए एक राह भी खोलते है असंख्य प्रेम, आकर्षण में बंधे प्रबुद्ध स्त्री पुरुषों के लिए। आप धोखा मत दें और सामने वाले की भावनाओं का आदर भी करें पर उसे दुख न पहुंचे इस तरह से अपने व्यवहार से उसे संकेत कर दें।

पत्रों के प्रमाण से अलका सरावगी यह स्थापित करने में सफल रहीं कि दोनों ही समझदार थे। संकेतों को बखूबी समझते थे इसीलिए दोनों ने अपने इस खूबसूरत रिश्ते को अलग मोड़ दे दिया। बाद में पति की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने अपने पुत्र को भी गांधी आश्रम साबरमती में कुछ समय छोड़ा।

पर क्या यह मोड़ देना सरला देवी के लिए जानलेवा नहीं हुआ? क्या उन्हें अहसास हुआ कि उनका बड़ी चतुराई से देश और समाज सेवा के नाम पर इस्तेमाल कर किया गया? बिलकुल हुआ, किताब में लेखिका पत्रों के माध्यम से यह बताती हैं। किस तरह कई पत्रों में वह इशारे से अपनी भावनाएं और गांधी की बेरुखी को जाहिर करती हैं। कुछ जगह वह आलोचना भी करती हैं गांधी शैली की। "क्या इस तरीके से ही सब होगा? क्या जो उच्च वर्ग है वह अपना सब बांटकर कंगाल बन जाए तो ही वह राष्ट्रसेवा के लिए उपर्युक्त माना जाएगा? क्या देश की लाखों की जनसंख्या एक सोच, एक सिद्धांत पर कैसे चलेगी? बंगाल, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार आदि के निवासी और उनकी सोच, व्यवहार, स्तर अलग अलग है। गांधी के पत्र वैसे ही थे जो प्रेम की राह छोड़ चुका पुरुष लिखता है।औपचारिक और राष्ट्र सेवा, स्त्रियों के लिए रोल मॉडल बनने की बधाई देते हुए।

पुस्तक रोचक शैली में लिखी है और आजादी के वक्त के घटनाक्रम के दूसरे पहलू को भी सामने रखती है। लेकिन मुख्य कहानी, भाव जो दोनों के लिखे पत्रों से उभरकर सामने आता है एक स्त्री की चाहत और प्रेम की अनछुई भावना का। कीमत स्त्री ही चुकाती है सरला देवी ने भी चुकाई कम आयु में यह नश्वर संसार छोड़कर। वह दृश्य जो पत्र के आधार पर रचा है जब गांधी गए थे सरला से मिलने। अंत समय से कुछ दिन पूर्व, "उत्साह से चमकती, खिलखिलाती रविंद्रनाथ की पुत्री सम, हर असंभव कार्य को करने की चाह रखने वाली युवती को क्षय, टीबी की बीमारी ने खोखला कर दिया था l बेहद कमजोर और हिलने डुलने में असमर्थ सरला के सिर पर हाथ फेरते गांधी l दोनों की आँखें मिलती हैं, बात भी हुई होगी। " यही है तुम्हे चाहने, तुम्हारे फिनॉमिना में डूबने का परिणाम?" शायद यही कहना चाहा होगा। प्रेम न करियो कोय।

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी, जाने माने आलोचक और लेखक।

संपर्क ;7737407061, 8279272900)