भाग 1: मैं थक गई हूँ
मेरा नाम नीला है। उम्र 44 साल।
शायद ज़िंदगी में कुछ भी ऐसा नहीं था जो मैंने अपने दम पर न किया हो। पति को अचानक गए अब दस साल होने को आए हैं। उस दिन से हर सुबह, हर रात सिर्फ एक ही सवाल था — "अब क्या?"
मैंने रो कर नहीं, बल्कि खुद को संभाल कर जिया। बेटे को पढ़ाया, काम किया, रिश्तेदारों की उम्मीदों पर खरी उतरी — और खुद को हर रोज़ थोड़ा और खोती चली गई।
लोग कहते थे — "नीला कितनी मजबूत है!"
पर किसी ने नहीं पूछा — "नीला, क्या तुम थक गई हो?"
और हाँ, मैं थक चुकी हूँ। लेकिन ये थकान ऐसी नहीं जो नींद से मिट जाए। ये वो थकान है जो तब होती है जब तुम्हारा वजूद बस औरों के लिए जीता है — और तुम खुद के लिए कुछ भी नहीं हो।
भाग 2: सब समझ आने लगा है
शुरू-शुरू में जो रिश्तेदार सहानुभूति जताते थे, अब वही मुझसे "थोड़ी मदद" माँगते हैं। भाई जब भी फोन करता है, पैसों की बात करता है।
"दीदी, एक बार और भेज दो, बस आखिरी बार।"
मुझे समझ आने लगा है कि अपने कौन हैं और अपने मतलब के कौन हैं।
ऑफिस में मेरी मेहनत पर दूसरों के नाम की तारीफें मिलती हैं। स्कूल में बच्चों की माएँ कहती हैं — "नीला मैम बहुत हेल्पफुल हैं," लेकिन मेरी अपनी मदद को कभी कोई नहीं आया।
और सबसे अजीब बात?
मैं अब भी "ना" नहीं कह पाती।
भाग 3: खामोशी की कैद
मेरे भीतर एक आवाज़ थी, जो हर बार बोलने को कहती थी।
लेकिन जब भी मुँह खोलती, ज़ुबान काँप जाती।
शायद इसलिए क्योंकि मैंने सालों तक सीखा ही नहीं कि खुद को कैसे प्राथमिकता दूँ।
मुझे हमेशा दूसरों को खुश रखने की ट्रेनिंग दी गई थी।
"बहू ऐसी होनी चाहिए जो सबका ख्याल रखे।"
"माँ वो होती है जो खुद खा ले, पर बच्चों को पहले खिलाए।"
"औरतें चुप रहकर ज़्यादा सुलझी लगती हैं।"
अब मैं जानती हूँ, ये सारी बातें मेरे खिलाफ ही इस्तेमाल होती रहीं।
भाग 4: बारिश की वो शाम
एक शाम, जोर की बारिश हो रही थी। मैं बालकनी में बैठी थी — थकी हुई, भीगी हुई, और एकदम ख़ामोश।
बेटा फोन पर था, किसी दोस्त से हँसते हुए बात कर रहा था।
भाई का मैसेज था — "जल्दी पैसे भेज दो।"
ऑफिस से ईमेल आया था — "कल सबमिशन डेडलाइन है।"
और मेरे भीतर बस एक आवाज़ उठी —
"अब बस…"
उस पल मैंने फोन बंद कर दिया, लैपटॉप बंद कर दिया, और चाय का कप उठाकर बैठ गई — अकेली, शांति में।
मैंने पहली बार महसूस किया —
मैं खुद के साथ हूँ।
भाग 5: छोटे-छोटे 'ना'
उस दिन के बाद मैंने खुद से एक वादा किया —
हर हफ़्ते एक "ना" बोलूंगी। छोटे से छोटे काम के लिए।
पहला "ना" भाई को बोला —
"इस बार नहीं भेज सकती पैसे। मुझे अपनी ज़रूरतें पहले देखनी हैं।"
दूसरा "ना" ऑफिस में —
"मैं एक्स्ट्रा ड्यूटी नहीं ले सकती। मेरी तबियत ठीक नहीं है।"
तीसरा "ना" बेटे को —
"मैं तुम्हारी ज़रूरतें समझती हूँ, लेकिन मैं भी थकती हूँ। कभी मुझे भी आराम चाहिए।"
हर "ना" के साथ मैं थोड़ा डरती थी, पर हर बार थोड़ी आज़ाद भी होती थी।
भाग 6: अब मेरी बारी है
अब मैं हर रोज़ थोड़ा समय खुद के लिए निकालती हूँ। किताबें पढ़ती हूँ, सुकून भरी चाय पीती हूँ, और कभी-कभी बारिश में भीगती भी हूँ — बिना किसी को बताए।
अब मैं किसी के लिए "हीरो" बनने की कोशिश नहीं करती।
अब मैं नीला हूँ — एक औरत, जो थक गई थी, लेकिन अब खुद से प्यार करना सीख रही है।
मुझे अब भी ना कहना पूरी तरह नहीं आता।
अब भी कुछ लोग मेरी चुप्पी को कमज़ोरी समझते हैं।
लेकिन अब मेरी चुप्पी में एक आग है —
जो मुझे फिर कभी खोने नहीं देगी।
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अंतिम पंक्तियाँ:
अब मैं हर उस औरत के लिए ये कहानी लिख रही हूँ —
जो सबकुछ करते हुए भी, खुद के लिए कुछ नहीं करती।
जो लड़ते-लड़ते थक गई है, लेकिन अब भी मुस्कुरा रही है।
अगर तुम भी नीला जैसी हो, तो याद रखना —
अब भी देर नहीं हुई है खुद को चुनने की।
अब भी कह सकती हो — अब बस… अब मेरी बारी है।