Trouble in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | बला

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बला

( यह वृतांत मुझे अपनी एक पड़ोसिन की मां की  सन 2008 की एक डायरी में लिखा मिला, जो अमृतसर शहर में पली- बढ़ीं थीं )

 

                हर इतवार को होस्टल की लड़कियों के साथ चर्च जाना ज़रूरी रहता।

                चर्च हम लोग पैदल जातीं।

                जाते वक्त दो- दो लड़कियों की फ़ाइल के साथ कुछ टीचर्स आगे रहतीं,कुछ बीच में और वार्डन के साथ कुछ पीछे।

                चर्च के बाद कई टीचर्स और लड़कियां पहले वाली कतारों में न भी रहतीं।

स्कूल की प्रिंसीपल से इजाज़त ले कर उन्हें अपने लोकल गार्जियन या गार्जियन टीचर के साथ घूमने की आज़ादी मिल जाती।

 

                “आज अम्मी की बरसी है,” सन 1948 की उस 13 जून के दिन रहीम बख्श रोड पर उस इतवार पैर लगते ही मैं ने अपनी गार्जियन टीचर,मिस गरिफ़िंस, के सामने अपनी फ़र्माइश रखी,“चर्च से वापस आते वक्त रहीम बख्श रोड वाली रहमत बिल्डिंग में आज फिर  झांकें क्या?”

                मिस गरिफ़िंस जानतीं थीं उस रोड और उस बिल्डिंग के साथ मेरा रिश्ता गहरा था।

रहीम बख्श रोड को उस का नाम मेेरे नाना के पिता,रहीम बख्श,ने दिया था।सन 1905 में। जब उन्हों ने अपनी इकलौती औलाद के नाम पर वहां अपनी रहमत बिल्डिंग बनवाई थी जो सड़क का एक चौथाई भाग घेरे थी। जहां एक ओर सड़क की तरफ़ मुंंह किए आदमकद बारह खिड़कियों वाला उन्हों ने तिमंज़िला अपना मकान और दो मोटर गैराज रखवाए थे, वहीं मकान के पीछे एक पूरा मुहल्ला बसाए थे— जहां उन के ईंट के भट्ठों के मुलाज़िम सांझे आंगन के आर- पार रहा करते।

                यह इत्तेफाक ही था कि आगे चल कर मेरे नाना की औलाद भी इकलौती ही रही : मेरी अम्मी। जिन की पैदाइश इसी तिमंज़िले में हुई। सन 1910 में।

               और उधर सन 1925 में लाहौर से वकालत पास कर आए मेरे अब्बू की जब मेरी अम्मी से शादी हुई थी तो अब्बू ने भी अपनी वकालत और शादीशुदा ज़िंदगी एक साथ यहीं से शुरू की थी। और अम्मी की तरह हम सभी भाई बहन भी इसी रहमत बिल्डिंग के इसी तिमंज़िले मकान ही में पैदा हुए थे। वहीद भाई के बाद नसीम भाई और उन के बाद अमजद भाई तक तो अम्मी ठीक रहीं थीं मगर सन 1929 में मेरी पैदाइश के दौरान जब अम्मी का इंतकाल हुआ तो फिर मुझे मेेरी नानी ही ने देखा- भाला था। इसी तिमंज़िले में।

                सन सैंतालीस की 15 अगस्त से पहले तक।

                उस दिन फसाद के रहीम बख्श रोड पर उतर आने के आसार मिलते ही अब्बू मुझे मेरे स्कूल के होस्टल की मिस गरिफ़िंस के हाथ में एक अच्छी रकम रख कर मुझे उन्हें सौंप गए थे, ‘आएशा यहां महफ़ूज़ नहीं। हम उधर लाहौर अपने भाईजान के पास जा रहे हैं। हालात के माफ़िक होते ही मैं इसे लेने आ जाऊंगा।”

                “मैं यहां अकेली न रहूंगी,” मैं बहुत रोयी थी मगर मेरी तरफ़ देखने की अब्बू के पास फ़ुर्सत न रही थी। और बाद में भी वह कहां कभी जान पाए फसाद की वह दहशत और तन्हाई की वह तड़प मैं कैसे काटती रही थी……

 

                 “क्या मालूम आज भी मौका हाथ आए न आए?”बावन साल की मिस गरिफ़िंस के लिए किसी भी मंसूबे को शर्तिया मान लेना उन के उसूलों के खिलाफ़ था। रहीम बख्श रोड की उस बरकत बिल्डिंग के मेरी अम्मी- अब्बू वाले हिस्से में जाने की हमारी पिछली सभी कोशिशें नाकाम रही थीं।हर बार कोई न कोई पुराने मुलाज़िम ही नज़रों के सामने पड़े थे और पहचाने जाने के डर से मैं आगे बढ़ने की हिम्मत जुटा न पाई थी।

                 “यह लड़की बीमार है,” मगर उस दिन चर्च के बाद मिस गरिफ़िंस मुझे रहमत बिल्डिंग के तिमंज़िले हिस्से में ले जाने में सफल रहीं, “आप का पाखाना इस्तेमाल करेगी।”

                 दरवाज़ा खोलने वाली अजनबी औरत मिस गरिफ़िंस की पकी उम्र और रुआबदार चेहरे को देख कर ‘न’ नहीं कर सकी, “ऊपर छत पर जाना पड़ेगा…..”

                उन दिनों लोग अपने पाखाने अपनी रसोई और रिहाइश वाले कमरों से दूर रखते थे। ज़्यादातर अपनी आख़िरी मंज़िल की छत पर।

                “कहां से आ रहे हैं?” मिस गरिफ़िंस ने अजनबी औरत का ध्यान मेरी गीली हो रही आंखों से हटाना चाहा।

                “लाहौर से।अच्छे-भले, अपने-अपने  ठिकानों पर बैठे लोगों को यहां बेगाने- अनजाने शहर में धकिया दिया। और क्या बताऊं? मेरे मायके के लोगों में एक भी बंदे का कुछ पता नहीं….”

                “यहां भी कुछ कम न हुआ,” मिस गरिफ़िंस विभाजन के इतिहास पर शुरू हो लीं, “13   अगस्त को मिली रैडक्लिफ़ की रिपोर्ट मांउटबैटन ने दबाने की बजाए जग जगज़ाहिर कर दी होती तो ऐसी मार- काट……” 

               “मुझे  जल्दी जाना होगा,” मैं अधीर हो उठी।

               “जाओ तुम,” मिस गरिफ़िंस ने मुझे संकेत दिया।

                मैं छत पर चली आयी। छत अच्छी- खासी ऊंचाई पर थी और शहर की तकरीबन सभी ऊंची इमारतें मेरी नज़र के पार उतर लीं।

                एकाएक जून की लू ने गर्द की एक बुकनी मेरी आंख में डाल दी।

                छत की चौहद्दी दीवार की आड़

में बैठ कर मैं अपनी आंख मलने लगी।

                आंख मलते- मलते मेरी रुलाई छूट चली। पिछले दस महीनों की तड़प का झक्खड़ मुझ पर पूरे ज़ोर के साथ उबल पड़ा और मैं पछाड़ खा कर ज़मीन पर लोटने लगी।

                 “क्या हुआ? यह लड़की क्यों बिलख रही है?” मिस गरिफ़िंस के साथ वह अजनबी औरत भी छत पर आ पहुंचीं।

                 “मैं क्या करूं? यह मकान हमारा है। मुहल्ला हमारा है। इलाका हमारा है। शहर हमारा है। फिर मेरे नानूजान यहां क्यों नहीं? नानी जान यहां क्यों नहीं? अब्बू यहां क्यों नहीं? वहीद भाई यहां क्यों नहीं? नसीम भाई यहां क्यों नहीं? अमजद भाई यहां क्यों नहीं……”

                 “बेचारी किसी बला के काबू आ गयी लगती है,” मिस गरिफ़िंस ने मुझे अपने अंक में ले कर मुझे संभालने की कोशिश की, “वह बला इस की ज़ुबान इस्तेमाल कर रही है…….”

                 “हाय बेचारी,” अजनबी औरत ने मेरी पीठ आन थपथपाई, “क्या मालूम किस घर में किस के साथ क्या बीती है…… बेवक्त मौतें अपना हिसाब तो मांगेगी ही……”

                 “हां,” मैं फ़ौरन संभल गई, “उधर पाखाने की तरफ़ से एक औरत निकली थी। मुझे अपने साथ छत से नीचे कूदने को कह रही थी। जब मैं नहीं मानी तो मुझे दूसरी तरफ़ खींचने लगी। डर कर मैं रोने लगी तो उस ने मेरी आवाज़ अपने कब्ज़े में ले ली…….”

                 “हाए,हाए,” अजनबी औरत कांप- कांप गई,  “फिर तो हमें भी कोई नया मकान तलाशना होगा……”

                 “ कैसी तो ज़बर्दस्त रही वह!  किन किन अनजाने लोग के नाम तुम्हारी ज़ुबान पर लिवा लायी,”  मिस गरिफ़िंस हंसने लगीं, “अच्छे वक्त पर हम ऊपर आ गयीं,वरना क्या पता वह बला तुम्हें कहां ले जाती?”

 

                 सब कुछ बहुत जल्दी में घटा था। मेरी हिचकियाँ बंधी थीं और मिस गरिफ़िंस फ़ौरन मुझे नीचे रहीम बख्श रोड पर उतार लायी थी।

                मगर हमारी गढ़ी कहानी उस मकान से कभी रवाना न हुई। 

               नतीजा सामने है।

               उस सन 1948 से इस सन 2008 तक आते- आते रहीम बख्श रोड ने कई बार अपने नाम बदले हैं,और उस की इमारतों ने अपने मालिक और हुलिए।

                हमारी रहमत बिल्डिंग का मुहल्ला

अब अपने अंदर एक डाक्टर का दवाखाना और

नर्सिंग होम लिए है।

               रोड का पुराना बर्फ़ का कारखाना एक बड़े होटल में तबदील कर दिया गया है।

               सूत बनाने की फ़ैक्टरी तीन छोटे कारखानों में बंट गयी है,जहां हर कारखाने में अलग- अलग चीज़ें तैयार की जाने लगी हैं।

               बीच वाली खाली पड़ी ज़मीन पर अब एक सिनेमा हॉल खड़ा है।

               किताबों की बड़ी दुकान दो भाइयों में हुए झगड़े की वजह से कचहरी की मार्फ़त सील करवा दी गयी है।

               परचून की छोटी दुकानें भी अब शीशेदार बनवा ली गयी हैं।

               यूं समझिए, रहीम बख्श रोड का चप्पा- चप्पा नई शक्ल ले चुका है।

                बस,एक चप्पे को छोड़ कर।

                वह चप्पा मेरा पुराना तिमंज़िला है। साठ साल पहले उस अजनबी औरत के दिल में छोड़ी गयी मेरी दहशत आज भी आस- पड़ोस वालों के दिल में बरकरार है और उस तिमंज़िले के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है ।

               तिमंज़िले के साथ चस्पां ‘बला’ का ज़िक्र आज भी उस की कीमत के ऊंचे कियास को ख़ल्तमल्त कर देता है और वह वहीं का वहीं खंडहर बना बैठा है।