यकीन मानिए,डेढ़ वर्ष से हमारे पड़ोस में रह रही अपनी पड़ोसिन का चेहरा पहली बार मैं फ़ोटो में देख रही हूं।
वह भी उन की मृत्यु के उपरांत।
उन की बेटी,कांति, की घनिष्ठ सहेली होने के बावजूद। जो आजकल मेरे साथ बी.ए.कर रही है।
“आंटी इतनी सुंदर थीं?” प्रशंसनीय भाव से मैं कांति की ओर देखती हूं।
“यह उनकी पुरानी तस्वीर है। लगभग दस वर्ष पहले की। किसी शादी समारोह में ली गई थी।”
“उन की बीमारी ने उन का चेहरा बदल दिया था क्या?”
पिछले डेढ वर्ष ही से मैं और मेरी मां भी जब-तब उन से मिलने की इच्छा व्यक्त करती रही थीं,किंतु हमें हमेशा टाल दिया जाता रहा था : उन्हें तपेदिक है। छूत का रोग। उन से न ही मिलें तो बेहतर।
“और क्या?” कांति कहती है, “उन की बीमारी पिछले चार- पांच साल से उन के साथ रही थी। अब ऐसी लंबी बीमारी अपना महसूल तो वसूलेगी ही न!”
“यह तपेदिक उन्हें तभी से हुआ जब आप अपने भट्ठों पर रहा करते थे?”
कांति की पृष्ठभूमि से मैं परिचित हूं।
उस का बचपन ईंट के उन भट्ठों के आस- पास बीता था जो उस के पिता के थे।
बल्कि पहली बार जब कांति अपनी छोटी बहन,मोहिनी,के साथ हमारे घर पर आई थी तो उन दोनों की गाल पर पड़ी चित्तियों की समरूपता मेरे कुतूहल का विषय बन गई थी।
जभी कांति ने मुझे बताया था उन भट्ठों में अत्याधिक तापमान पर आग में पकायी जा रही ईंटों की तपन ने उन की खाल पर झुलसन के वे चिह्न अंकित कर दिए थे।
“आप लोग क्या इसीलिए उन भट्ठों से दूर इस नए मकान में आन बसे?” मैं ने पूछा था।
“वे पुराने भट्ठे तो सरकार ने कब के बंद करवा दिए थे ,” कांति गंभीर हो गयी थी, “अपना पुराना मकान हम ने ज़रूर जभी छोड़ा जब यह नया वाला तैयार हुआ….”
“आप के वे पुराने भट्ठे क्या आम के बागों के पास तो नहीं रहे थे ?” मैं ने पूछा था। मुझे मालूम था अभी कुछेक वर्ष पहले कुछ भट्ठे खासी चर्चा में रहे थे। वे भट्ठे ऐसे स्थान पर बने थे जहां आम की एक विशेष नस्ल के बाग थे। जो नस्ल हमारे प्रांत ही नहीं,देश भर में बहुत लोकप्रिय थी और समय के साथ जैसे ही उन बागों के मालिकों की आमदनी बढ़ी थी, उन्हों ने कचहरी जा कर अपनी शिकायत दर्ज की थी कि उन ईंट के भट्ठों से उठ रही धूल,कालिख और प्रदूषित गैसें उन के आमों की नस्ल को नुकसान पहुंचा रही थीं और अन्ततोगत्वा जब उन बागों के मालिक उन भट्ठों को वहां से हटाए जाने का आदेश प्राप्त करने में सफल रहे थे तो ऐसे में उन भट्ठों का वहां बने रहना असंभव हो गया था।
“हां,वहीं थे,” कांति ने कहा।
“तो अब कहीं नहीं हैं?”
“क्यों नहीं हैं? शहर से दूर दूसरी जगह पर हैं,” मोहिनी उग्र हो उठी थी, “ पहले से भी बड़े घेरे में। एक कारखाने के रूप में। पापा ने उसे नाम भी दे रखा है : न्यू ब्रिक वर्कस। मार्किट में ब्लोअरज़ और गारा बनाने वाली मशीनों वगैैह के आ जाने से हमारे भट्ठों में अब माल भी ज़्यादा बन रहा है और बिक्री भी खूब हो रही है।”
“हां,” मैं ने हामी भरी थी, “हमारे कस्बापुर शहर में भी तो अब कितनी ही नयी सड़कें और ऊंची इमारतें खड़ी की जा रही हैं…..”
“मां के बारे में तुम सच जानना चाहती हो?” कांति एकाएक फट पड़ती है।
“हां….हां,” जिज्ञासा- मिश्रित उत्सुकता को नियंत्रण में रखना मेरे लिए कठिन साबित हो रहा है।
“आओ,कहीं एकांत में चलते हैं,”
कांति इधर-उधर देखती है।
“कहां जाएंगे?” मैं पूछती हूं। इस वैभवशाली बंगले में हर तरफ़ लोग जमा हैं। कुुछ जन आगे वाले लाॅन में बिछी, चटक हरी घास पर बैठे हैं। कुछ वहां खड़ें हैं, जहां क्यारियों में हर नस्ल के फूूल मौजूद हैं। हर रंग में खिले हैं। उत्तम पौधे हैं। देसी क्या,विलायती क्या! पेड़ अनोखी छटा के साथ-साथ विरली कटाई- छंटाई लिए है। जान्तव आकृतियों में। उन में मुंंह बाए शेर का आकार लिए एक बड़ी झाड़ी कुछ जन के लिए विशेष आकर्षण बन ली है।
“उधर चलते हैं, पीछे…”
वहां पहुंचने के लिए हमें बैठक का रास्ता पकड़ना पड़ रहा है।
वहां शोक के स्थान पर उत्सव भाव है। अपने अतिथियों के प्रति पड़ोसी अंकल के लाड़- मनुहार के कारण। जो कभी तो उन के आगमन पर सफ़ेद वर्दी में लैस अपने बैरों को ट्रे में सजाए विशिष्ट पेय एंव खाद्यपदार्थ में से कुछ लेने का आग्रह कर रहे हैं तो कभी कुुछ देर बैठ चुके जन को पिछवाड़े वाले लान में लगे विपुल एंव भव्य भोज का निमंत्रण दे रहे हैं।
बैठक के एक विशालकाय सोफ़े में धंसे। जिस में लगी एक -एक चीज़ इतनी चमकदार, इतनी उजली है मानो किसी बड़े माॅल में सजी हैं। फ़र्नीचर क्या, शीशे के टाॅप वाली छोटी-बड़ी मेज़ें क्या!
एकांत हमें मिलता है उन के स्विमिंग पूल के पास।
“सच यह है उन्हें तपेदिक नहीं था। वह बौराए रहती थीं। बदहवास सी।”
“कब से?”
“हमारे बचपन ही से….”
“भट्ठों के ताप के कारण?”
“सच कहूं तो पापा की गर्ममिज़ाजी के कारण। जो उन भट्ठों की आग से कहीं ज़्यादा ज़बर्दस्त थी…..”
“अंकल गर्म मिजाज़ हैं क्या?”
मुझे अचरज हुआ।
“मां के साथ तो बहुत ही ज़्यादा रहे। वह पीछे से अनाथ थीं। उन के चाचा मेरे दादा के मित्र थे। कोयले के डिपो के मालिक थे। लिहाज़दारी में शादी हो गयी थी। मगर दहेज न मिलने का रोष सहना पड़ा अकेली मां को। पापा उन की हर बात काटते । गुस्सा करते । उन्हें हरदम नीचा दिखाने की ताक में रहते । और उस असहाय अवस्था में वह डिप्रेशन की शिकार हो गयीं । शुुरू में तो जहां भी उन्हें अकेलापन मिलता, वह बेतहाशा रोने लगतीं। मगर फिर धीरे- धीरे पापा को सामने पाते ही अपने हाथ जोड़ कर कभी रोने- बिलखने लगतीं तो कभी दोनों हाथों से अपनी गालों पर थप्पड़ लगाने लगतीं…….”
“ऐसा क्या?”
“डाक्टर से सलाह ली गई तो उस ने उन्हें मानसिक अस्पताल में दाखिल करवाने पर ज़ोर दिया। मगर पापा फ़ौरन उन के लिए घर की छत का एक उपेक्षित कमरा तैयार करवा लिए। इस आदेश के साथ : तुम हमारे कमरों में अब दाखिल नहीं होओगी। तुम्हारी दवा और खाना- पीना वहीं ऊपर पहुंचाया जाएगा……”
“यह कब की बात है?” मैं विह्वल हो उठी।
“लगभग तीन साल पहले की। और जब यहां इस घर में आए तो उन के लिए रसोई भी ऊपर कमरे में रखवा दी गई। जहां उन्हें स्वंंय ही खाना- पकाना होता….”
“और ऊपर की सफ़ाई वगैरह ?”
“वह भी उन्हीं को स्वंंय करनी होती। बर्तन अपने भी उन्हें स्वंंय धोने होते ।कमरा अपना भी स्वंंय बुहारना होता….”
“इतने नौकर- चाकर के बावजूद?” मेरा दिल दहल गया।
“पापा नहीं चाहते थे कोई जान पाए उन्हें तपेदिक नहीं,मानसिक रोग है…..”
“और आप बहनों ने भी अंकल से कुछ नहीं कहा,उन्हें इस तरह परिवार से दूर न करें?”
“ हम तो पापा से डरती ही बहुत थीं। पापा ऊपर ताला लगाए रखते थे जिस की चाबी हमें जभी मिलती थी जब मां को ऊपर सामान पहुंचाना होता था। या फिर उन्हें सप्ताह में तीन बार इंजेक्शन देेना-दिलाना होता था। कभी बाहर से बुलाई गई नर्स द्वारा तो कभी मेरे और मोहिनी द्वारा । जिसे लगाना हम बहनों ने बाकायदा सीख लिया था।”
“और आंटी आप को मिल कर भी रोने- बिलखने लगतीं थीं?”
“सच बताऊं?”
“हां……हां……”
“वैसे तो वह इस नए घर में अपने ऊपर वाले कमरे में जब से पहुंचायी गयीं थीं, वह एकदम सहम सी गयीं थीं ।और इधर तो कुछ दिनों से चुपा भी गयीं थीं। हम लाख उन्हें बुलातीं,अंक लगातीं, वह अपलक हमें ताका करतीं। हो सकता है जो दवा उन्हें इधर दिलाई जा रही थी, उस ने उन की स्मरण- शक्ति छीन ली हो…..”
“तो क्या वह अपना खाना- पीना और अपनी साफ़-सफ़ाई भी भूले रहतीं थीं?”
“हां,” कांति रोआंसी हो चली, “हम बहनें भी अवसर पाकर जब उन्हें नहलातीं-संवारतीं और उन के कमरे को बुहारतीं- सजातीं, तब भी वह एक बुत की भांति चुप बनी रहतीं….”
“आप ने अंकल को बताया नहीं?”
“वह यही बोले इस लुकाव में तुम लड़कियों की भलाई है। पागल करार कर दी गई मां की बेटियों के लिए अच्छे रिश्ते जुटाना मुश्किल रहता है।”