मेरे पचहत्तरवें जन्मदिन पर मेरी दोनों बेटियां एक साथ मेरे घर पर आयीं हैं।
अपने- अपने पति के साथ।
पद्धति के विपरीत।
बताता चलूं, मेरी इन दो बेटियों के बीच चौदह साल का लंबा अंतराल है। और दोनों शुरू ही से असमान रही हैं। स्वभाव- अभ्यास में । रूप- रंग में । कद- काठी में । दिखाव-बनाव में । मूल्य- मान्यताओं में।
कारण, दोनों अपनी- अपनी मां पर गयीं हैं। जो अलग-अलग थीं। बड़ी की मां मेरे चालीसवें वर्ष में जब मुझे विधुर बना गई तो मैं अपने लिए नई पत्नी ले आया था। जिस की समझ और रुचि पहली से एकदम भिन्न रही थी।
मेरे ये दामाद भी एक दूसरे से कम भिन्न नहीं ।शिक्षा- प्राप्ति में। धन- संपदा में। जाति-बिरादरी में।
विवाह के मामले में बेटियों ने अपने निर्णय स्वंंय लिए थे। छोटी ने पति चुनने में यदि उतावली दिखाई थी तो बड़ी ने हड़बड़ी।
पहल छोटी ने की थी।अपने सत्रहवें वर्ष ही में एक व्यवसायी- पुत्र के साथ भाग निकली थी।चौथे ही दिन लौटने के लिए। ताकि जाति- भेद के बावजूद दोनों पक्ष के परिवार फ़ालतू वाद- विवाद से बचने के लिए उन्हें विवाह के लिए अपनी अनुज्ञा प्रदान कर दें।
उस समय बड़ी अपने इकतीसवें वर्ष में चल रही थी और पिछले छः वर्ष से एक डिग्री कालेज में पढ़ा रही थी। अविवाहिता । किंतु छोटी के विवाह बंधन में बंधते ही उस ने भी अपना वर चुन लिया।अपने से सात साल छोटा। अपना नया सहकर्मी। जो किराए के दो कमरों में अपने एक साथी के साथ हमारे पड़ोस के एक मकान में रहता था और विवाह के बाद हमारे घर में आन खिसका था।
यह अलग बात है कि मेरी दूसरी पत्नी ने फिर जल्दी ही उन्हें अलग घर लेने के लिए बाध्य कर दिया था। बल्कि उस के बाद उन सौतेली मां- बेटी के संबंध इतने बिगड़ गए थे कि बड़ी मेरे पास जभी आती जब वह दूसरी उधर छोटी की ससुराल में उस के बुटीक में हुआ करती।
छोटी ने अपने ससुर के बंगले के दो कमरे अपने इस बुटीक में बदल लिए हैं जहां लड़कियों व स्त्रियों की सजीली वेषभूषा आदेशानुसार तैयार की जाती है । आदेश लेने वाली उस की मां ही हुआ करती थी, जिसे सिलाई-कटाई का अच्छा ज्ञान था। अचरज नहीं,जो पिछले वर्ष हुई उस की मृत्यु के बाद छोटी के बुटीक की बिक्री में मंदी आई है।
छोटी के हाथों बना मेरा बर्थ-डे केक और बड़ी के हाथों लिवाए गए सैंडविच खत्म होने अभी बाकी हैं, कि छोटी ने पहली ईंट ला जमाई है , “मनु ने कल बताया आप अपनी आत्मकथा लिखने जा रहे हैं,पापा….”
मनु उस का उन्नीस- वर्षीय बेटा है। बेपेंदी का लोटा। अपनी इंटर के बाद तीन विभिन्न कोर्स पकड़ चुका है। बीच ही में छोड़ देने के लिए। आजकल एक एनीमेशन कोर्स कर रहा है और मेरा लैपटॉप जब कल अपने साथ ले जाना चाहता था तो मैं ने उसे नहीं दिया था।
“लिखने जा नहीं रहा। लिख रहा हूं। अपने लैपटॉप पर।”
“इस उम्र में? जब लोग नाम- शेष होने से पहले अपने नाम की बजाए राम- नाम जपते हैं…..” छोटी के पति ने भी ईंट उठा ली है ।
“आत्म- चिंतन की बजाए प्रभु- चिंतन में डूबा करते हैं,” बड़ी का पति भी मैदान में आन कूदा है।
“वे सूखे पानी में डूबें तो डूबें,” मैं झल्लाता हूं , “ मैं पानीदार हूं। पानी काटना जानता हूं….”
मैं सच कह रहा हूं। मैं पानीदार ही हूं। सभ्य समाज का एक प्रतिष्ठित सदस्य। राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े शैक्षिक संस्थान के निर्देशक पद से सेवानिवृत्त हो जाने के बाद दो विश्वविद्यालयों का उपकुलपति रह चुका हूं और आज भी जिन गोष्ठियों में भाग लेने के लिए मुझे निमंत्रण मिलते हैं,वहां या तो मुख्य अतिथि के रूप में जाया करता हूं या फिर अध्यक्ष का आसन ग्रहण करने के लिए।
“पानी से याद आया,आप का पानी- देवा मनु ही तो है,” छोटी बड़ी की ओर देख कर अपनी आंखें मटकाती है।
अनुमोदनार्थ। बड़ी के पास बेटा नहीं । दो बेटियां हैं। मनु की भी एक बहन ही है। भाई कोई नहीं।
“ बिल्कुल। अग्नि- कर्म, पितृ- तीर्थ, पितृ- भोजन सभी उसी के हाथों ही तो होना है। होगा,” बड़ी घेरे में अपनी ईंट ला जोड़ती है ।
“किसी के भी हाथों कुछ भी नहीं कराना मुझे,” मैं कुपित होता हूं, “मुझे कोई अग्नि-क्रिया या पितृ- तर्पण नहीं चाहिए। मैं अपना शरीर दान में देने वाला हूं। चिकित्सीय अध्ययन के लिए।”
“शरीर ही दान करिएगा,” छोटी का पति ठीं- ठीं छोड़ता है , “अपनी जमा- पूंजी नहीं….”
“पापा के पास कीमती केवल जमा- पूंजी ही है क्या?” बड़ी का पति अपने साढ़ू की ओर अपनी हीं- हीं फेंकता है, “कीमती यह फ़्लैट है। नीचे खड़ी वह बड़ी गाड़ी है और उधर बैंक के लौकर में तमाम रत्न और मणिजड़ित तोलों के तोले सोना भी तो है….”
“तोलों के तोले?” छोटी का पति बनावटी हैरानी से अपनी आंखें फैलाता है।
“सवा सेर तोला तो मेरी मां ही अपने दायजा में लाई रहीं,” बड़ी ने डींग हांकी, “सन 1966 में जब उन की शादी हुई थी तो लोगबाग शादी में तोलों के हिसाब से नहीं, सेर के हिसाब से सोना दिया करते थे…..”
“सवा सेर माने?” छोटी का पति अपनी आंखों के साथ अपने हाथ भी हरकत में ले आया।
“एक सेर में अस्सी तोले हुआ करते हैं,” बड़ी का पति मुस्कराया है, “और अब पूछिए हमारी छोटी मम्मी के दहेज ने सोने के उस तौल- ताल में कितनी बढ़ौतरी की थी?”
कपटी जानता है छोटी की मां अपने दहेज- स्वरूप केवल अपना उन्नीस वर्षीया लावण्य और लोभ ही लाई थी, जिस के अंतर्गत उस ने आते ही मेरी पहली पत्नी के माल- असबाब पर कब्ज़ा कर लिया था। और फिर जिस में से बड़ी को विवाह के समय छोटी की तुलना में बहुत कम दिया था। यह कह कर कि छोटी को तो हज़ार अमीर घरानों में आना-जाना पड़ता है जब कि बड़ी का आवागमन उस के कालेज तक ही सीमित रहा करता है।
“बढ़ौतरी या घटी की जानकारी तो पापा के लाकॅर खुलवाने पर ही ली जा सकती है,” बड़ी भी कुटिल हो ली है।
“स्वाभाविक है,घटी ही होगी,” छोटी पति की ओर देखती है, “कितनी ही बार सोने को तुड़वा कर हीरे खरीदे गए होंगें। अभी कुछ साल पहले तक सोने को पूछता ही कौन था? हीरे ही पसंद किए जाते थे। और उस समय सोने का भाव भी इतना ज़्यादा ऊंचा कहां था?”
“बिल्कुल,” बड़ी छोटी की हां मे हां मिलाती है। उदारतापूर्वक ।
“मैं यही तो कह रही हूं….”
“बल्कि मैं तो कहूंगी क्यों न हम दोनों बहनें कल- परसों ही में पापा के साथ उन के बैंक जा कर उन के लाॅकर खुलवा कर देख ही आएं उस में क्या भरा है, कितना धरा है….”
“बल्कि पापा को लगे हाथ उस लाॅकर के सामान का बटवारा भी कर देना चाहिए । अपने हाथों। जीते- जी….” छोटी कहती है ।
“और क्या? वे गहने अब उन के तो किसी काम आने नहीं,” छोटी का पति ठिठोली पर उतर आया है।
“हां,इस उम्र में वह अपनी तीसरी शादी करने से तो रहे,” बड़ी का पति साढ़ू के साथ हो लिया है।
“कर भी सकता हूं,” मैं तीर
छोड़ता हूं ।
“नहीं,पापा,” दोनों बेटियां एक साथ चीखती हैं।
“क्यों नहीं?” उन्हें चिढ़ाने में मुझे मज़ा आने लगा है, “आप लोग को देखता हूं तो मन करता है, मुझे एक जमा- मार और जमा कर लेना चाहिए…..”
“नहीं पापा,” जितनी तत्परता से बेटियां मुझे आलिंगन में लेने के लिए मेरी ओर एक साथ बढ़ती हैं, उतनी ही ढिठाई से उन के पति एक- दूसरे की ओर देख कर ठठा रहे हैं।