एकात्म मानववाद : सर्व समन्वयकारी, दूरगामी सोच का सिद्धांत
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_डॉ.संदीप अवस्थी, पूर्व प्राध्यापक और शोध निदेशक
आलोचक और मीडिया विशेषज्ञ, कुछ पुस्तकें, पचास से अधिक शोध पत्र प्रकाशित, देश विदेश से पुरस्कृत।
अजमेर, राजस्थान।
मो 7737407061, 8279272900।
बीज शब्द:_ वेद, आधुनिक समय, एकात्म मानववाद, जड़ता, सहिष्णुता, राष्ट्र, संस्कृति, समाज।
शोध सार:_ एकात्म मानववाद सिद्धांत नहीं बल्कि जीवन जीने का मंत्र है।इस आलेख में बताया गया है कि किस तरह प्लेटो के सिद्धांत की शासक, राजा को विद्वान भी होना चाहिए, कि अवधारणा भारत में प्रारंभ से ही रही। चाहे चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, बिम्बिसार, कनिष्क हो अथवा राजस्थान मेवाड़ के राणा कुम्भा, राजा सामंत सिंह, संत नागरीदास के नाम से विख्यात एक लंबी परम्परा रही है।भारतीय लोकतंत्र में राजनेता, जनता के चुने हुए प्रतिनिधि, समाज सुधारक हो ऐसी अनेक व्यक्ति हुए जो साहित्य, जीवनमूल्य और वेद, उपनिषद, गीता जी को अपने जीवन आचरण में उतारते थे। वह लोक कल्याण और जनहित के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग करने से पीछे नहीं हटते थे। महर्षि अरविंद, विवेकानन्द, टैगोर, डॉ.बलिराम हेडगेवार, दीन दयाल उपाध्याय, राजेंद्र सिंह आदि विचारकों, समाज सेवकों की लंबी शृंखला रही है। प्रस्तुत आलेख एकात्म मानववाद की वर्तमान समय में महत्ता और नई अवधारणा को प्रस्तुत करता है। यह बताता है कि हमारा धर्म, संस्कृति जीवंत है और उसका अर्थ संकीर्ण नहीं अपितु मानवमात्र का कल्याण और विकास है। तकनीक के युग में युवा पीढ़ी और अन्यों को इससे जोड़ना और प्रेरित करना बहुत सरल है। बस हमें उनके अनुकूल और सहज उद्धरणों से अपनी बात कहनी होगी।
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ऋग्वेद की पंक्तियां हैं, " सत्यम ज्ञानं अनंतं ब्रह्म " अर्थात इन तीनों गुणयुक्त सत्ता ब्रह्म है।" वेदांत आधारित भारतीय जनमानस की व्यवस्था रही है। उसमें अद्वैत वेदांत, आचार्य शंकर, विशिष्टद्वैत रामानुज, द्वैताद्वैत माध्वाचार्य आदि को खूब पढ़ा, गुना और समझा भी।फिर एकात्म मानववाद के सिद्धांत को जाना, समझा।
इसके मूल में यही स्वर के साथ व्यावहारिक उपादेयता है। इससे यह सिद्धांत आमजन और बुद्धिजीवी वर्ग में सम रूप से लोकप्रिय हुआ। जब मैंने गहनता से पंडित जी, पंडित दीन दयाल उपाध्याय को पढ़ा और समझा तो बहुत सी नई सोच और बातें पता चली। इन बातों से यह स्पष्ट हुआ कि वह दूरदृष्टा होने के साथ साथ जड़ता के विरोधी थे। वह मानते थे कि ज्ञान, मेधा और संस्कृति सतत प्रवाहवान रहे, न कि एक ही चीज, सिद्धांत को लेकर हम पूरे समय बैठे रहे। इस सोच के साथ उन्होंने राष्ट्रसेवा का प्रण लिया और गुरुजी सदाशिव माधव गोलवलकर जी के साथ पूरे राष्ट्र में वैचारिक क्रांति का उद्घोष किया। यह इन शब्दों में बहुत सरल लगता है परंतु वास्तविक धरातल पर यह बेहद मुश्किल और श्रमसाध्य है। विविधता में एकता वाला हमारा भारत अनेक जातियों, धर्मों और बोलियों के आधार पर विभाजित है।उनमें नए विचार और प्रगतिशीलता के साथ संस्कृति को नई पीढ़ी, साठ के दशक की, में विस्तार देना बेहद जटिल और धैर्य की मांग करता है।
श्री दीनदयाल उपाध्याय के प्रमुख विचार और मान्यताएं
---------------------------------------------- प्रखर चिंतक होने के साथ वह पत्रकार, साहित्यकार, आपके दो उपन्यास तो बहुत ही लोकप्रिय और नई सोच के हैं।सम्राट चंद्रगुप्त यह भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में लिखा गया था।जहां एक और कुछ लोग बार बार अंग्रेजों की याचना करके अपने लिए चुनाव, सुविधाएं, आंदोलन में क्षमा याचना कर रहे थे वहीं संघ इससे सहमत नहीं था। वह मानते थे कि हमें अपने हक के लिए लड़ना और संघर्ष करना पड़े तो भी हम करेंगे पर याचित नहीं बनेंगे। इसी स्वर को उपन्यास में चाणक्य और चंद्रगुप्त के माध्यम से राज और संघर्ष को किस तरह किया जाता है बताने का प्रयत्न किया है। दूसरा उपन्यास भी बेहद महत्वपूर्ण है। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष में अखंडता और एकता की मुहिम चलाने वाले वेदांती आचार्य शंकर पर जगतगुरू शंकराचार्य है।इसमें रोचक ढंग से कथा के माध्यम से यह बताया गया है कि बालकों को यथा समय गुरुकुल में राष्ट्र संस्कृतिऔर विद्या अर्जन के लिए भेजना चाहिए।जिससे वह नास्तिकवादी अथवा वामी न बने। वह यह भी कहते हैं कि हमें व्यक्तिगत धनार्जन की जगह समाज के आर्थिक कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए। यह तथ्य सर्वविदित है कि इसी सिद्धांत को आगे महात्मा गांधी ने भी ट्रस्टीशिप के तहत प्रस्तुत किया।
"विज्ञानं ब्रह्मेती व्यजानात..." तैत्तिरीयोपनिषद (5/1) विज्ञान ब्रह्म है ऐसा जाना क्योंकि। निश्चय ही विज्ञान से ही ये सब जीव उत्पन्न होते हैं। ऐसी सोच के उपाध्याय जी हमेशा कट्टरपन और मूढ़ता के विरोधी थे। वह मानते थे कि एकात्म मानववाद हिंदुत्व की तरह से प्रवाहवान धारा है जिसमें सब समाहित है।
वह कहते हैं, "अनेक बार धर्म को मत या मजहब समझकर उसके गलत अर्थ लगाए जाते हैं।यह गलती अंग्रेजी के रिलिजन शब्द का धर्म से अनुवाद के कारण हुई। धर्म का वास्तविक अर्थ है_ वे सनातन नियम जिनके आधार पर किसी सत्ता की धारणा और जिनका पालन कर मनुष्य अभ्युदय और निश्चयस की प्राप्ति कर सके। किसी स्थिति विशेष या वस्तु विशेष का विचार करते समय सनातन शब्द सापेक्ष हो जाता है।जहां ध्युती, क्षमा आदि धर्म के लक्षणों में कोई परिवर्तन नहीं होता, वहीं देशकाल एवं स्थितियों के परिवर्तन के साथ अन्य धर्म बदल जाते हैं।इस परिवर्तनशील जगत में धर्म ही वह तत्व है जो स्थायित्व लाता है। इसलिए धर्म को ही नियंता माना गया है एवं प्रभुता उसी में निहित है।
आगे वह धर्म के राज की वह परिभाषा देते हैं जो सभी को सदैव याद रखनी चाहिए।
" भारतीय राज्य का आदर्श धर्म राज्य रहा है।धर्मराज्य थियोक्रेसी अथवा मजहबी राज्य नहीं यह एक असंप्रदायिक राज्य है। सभी पंथों और उपासना पद्धतियों के प्रति सहिष्णुता एवं समादर का भाव भारतीय राज्य का आवश्यक गुण है।अपनी श्रद्धा और अंतःकरण की प्रवृत्ति के अनुसार प्रत्येक नागरिक को उपासना का अधिकार अक्षुण्ण्य है तथा राज्य के संचालन अथवा नीति निर्देशन में किसी भी व्यक्ति के साथ मत या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं हो सकता।धर्मराज्य किसी व्यक्ति अथवा संस्था को सर्वसत्ता संपन्न नहीं मानता। प्रत्येक व्यक्ति नियमों और कर्तव्यों से बंधा हुआ है lकार्यपालिका, विधायिका और जनता सब के अधिकार धर्माधीन ही है।धर्मराज्य की कल्पना को व्यक्त करने वाला निकटतम शब्द है रूल आफ लॉ।धर्मराज्य कर्तव्य भाव प्रधान है।
धर्म और राज्य की यह व्याख्या निसंदेह आज के भारत की रीढ़ की हड्डी है।इसी पर हमारे सर्वधर्म समभाव और सर्वे भवन्तु सुखिन का आदर्श स्थापित है।यही एकात्म मानववाद के आधारभूत तत्व हैं।
एकात्म मानववाद की अवधारणा
-------------------- मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि आज से आधी शताब्दी पूर्व ऐसी प्रगतिगामी और वैज्ञानिक सोच का दर्शन दीनदयाल उपाध्याय जी ने सोचा और दिया भी। यह इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत को भी संदर्भित करता है तो वहीं यह आजादी के भारत को भी आगे बढ़ने का संदेश देता है।
यह दर्शन नहीं दरअसल रूढ़िवादिता और बेकार हो चुकी मान्यताओं को त्यागने, अपने दोषों अपनी संस्कृति की पुरातन, जो समय के साथ खत्म हो चुकीं अवधारणाएं हैं उन्हें बड़े दिल से स्वीकारने और दूर करने का सिद्धांत है। कुछ इससे जुड़े उद्धरण देखें, "संस्कृति के रूपों और तत्वों में भेद करना आवश्यक है।संस्कृति के कतिपय उपकरण तो रूप मात्र हैं और कतिपय उसके आधारभूत तत्व हैं।ऐसा कभी-कभी प्रतीत होता है कि इस युग प्रवाह में हिंदू जीवन दर्शन और भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के कुछ अंग अर्थहीन और अनावश्यक हो गए हैं।आज के बदले हुए संदर्भ में रूपों का मोह नहीं करना चाहिए। हमें अपनी दृष्टि तत्वों की ओर केंद्रित करनी चाहिए।अब जैसे जाति व्यवस्था है, यह तो रूप है। तत्व है एकात्मा के आधार पर समाज की व्यवस्था ।जब तक यह रूप उपयोगी है अथवा हानिकारक नहीं है हम इन्हें चलने दें परंतु तत्व की रक्षा महत्वपूर्ण है, हम उसकी रक्षा अवश्य करें।
हमारी संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र मानव होना चाहिए, जो "यत पिंडे तत् ब्रह्मांड" के न्याय के अनुसार समष्टि का जीव मात्र प्रतिनिधि एवं उसका उपकरण है।भौतिक उपकरण मानव के सुख के साधन है साध्य नहीं।जिस व्यवस्था में भिन्न रुचि, प्रवृत्तियों से युक्त मानव का विचार केवल एक औसत मानव से हो अथवा अनेक इच्छाओं से प्रेरित पुरुषार्थ चतुष्टशील संपूर्ण मानव के स्थान पर एकांगी मानव का ही विचार किया गया हो, वह अधूरी है। हमारा आधार एकात्म मानव है जो अनेक एकात्मक समष्टियो का एक साथ प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता है।मानवतावाद अथवा एकात्मक मानवतावाद के आधार पर हमें संपूर्ण व्यवस्था का विकास करना होगा ।(राष्ट्रधर्म मार्च1965, दीनदयाल उपाध्याय, सम्पूर्ण वांग्मय)।
स्पष्ट है कि यह ऐसा मानवतावाद है जो गतिशील, सृजनशील, संस्कृति के उपयोगी तत्वों का पुरोधा और कहा जाए गुणयुक्त मानव, जो यह लेख पढ़ने के बाद हम में से अनेक अपने में महसूस करेंगे।
विवेकानंद के दर्शन और विचारों से भी इन्हें प्रेरणा मिली ।वह कहते हैं"मैं आत्मा हूं। मुझे फिर कैसा रोग? सब दूर हो जाएगा। तुम सब सोचो, हम अनंत बलशाली आत्मा हैं, फिर देखो कैसा बल मिलता है। नास्ति का भाव ना रहे सब में अस्ति का भाव चाहिए ।कहो मैं हूं, ईश्वर हैं और सब कुछ मुझ में है। मेरे लिए जो कुछ चाहिए स्वास्थ्य, पवित्रता, ज्ञान सब मैं अवश्य अपने भीतर से जगाऊंगा। अरे यह विदेशी तक मेरी बातें समझते हैं और तुम मेरे भारतीय बैठे हुए हो दीन भाव की बीमारी में कराहते हो?अरे उतार फेंको यह सब और बोलो बलमसि बलम, ओजोएसी ओज, सहोअसी सहो मई ध्हि।
मुझे ओज दो, तुम सामर्थ्यवान हो मुझे सामर्थ्य दो।
निष्कर्ष
----------------इन्हीं विचारों को लेकर चलने वाले विचारक और चिन्तक दीन दयाल उपाध्याय ( जन्म धानक्या गांव, जयपुर 1916__ 1965) ने पच्चीस अप्रैल से मुंबई में उन्नीस सौ पेसठ में चार व्याख्यानों के द्वारा एकात्म मानववाद का सिद्धांत दिया था। उस वक्त भी और आज भी यह चर्चित, सारगर्भित और उपयोगी है।आवयश्कता इसकी मूलभूत अवधारणाओं को युवाओं को पाठ्यक्रम और विस्तारित व्याख्यानों के द्वारा उनके मध्य लोकप्रिय बनाने की है। यह एकमेव भारत और राष्ट्र भाव को जागृत करते हैं। साथ ही उनके विचार आधुनिकता का प्राचीनकाल की उपयोग करने वाली चीजों और विचारों का समन्वय हैं। "पुराने की महत्ता और प्रासंगिकता थी और उसने अपना काम बखूबी किया पर हम अब सैकड़ों सालों बाद भी उसे लेकर बैठे रहेंगे तो यह बिल्कुल भी उचित नहीं है।"ऐसे प्रगतिशील विचारों के जनक और इन पर अमल करने वाले उपाध्याय जी जनसंघ के संस्थापकों में श्यामाप्रसाद मुखर्जी, प्रोफेसर बलराज मधोक के साथ सम्मिलित थे। आज सब तरफ भारतीय संस्कृति, आधुनिकता, तकनीक और आईटी की बात हो रही है तो ऐसे में दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार, लेखन और व्यक्तित्व बहुत प्रासंगिक हो गया है।
हम उनके बताए मार्ग और विचारों पर चलकर निसंदेह देश और अपनी उन्नति, प्रगति में सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
एक छोटी सी घटना से लेख पूर्ण करता हूं।
दीनदयाल जी यथास्थितिवाद को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। किसी भी कार्य को उसके सैद्धांतिक और व्यावहारिक आधार पर खड़ा करना उनका स्वभाव था।हाथ में लिए हुए काम को किसी भी तरह चलाए रखने में उनकी रुचि नहीं थी।वह किसी व्यक्ति अथवा विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रही होने के विरुद्ध थे। राष्ट्रीय धर्म मासिक पत्रिका के संपादक के रूप में उनका पहला काम था।उनके सहयोगी थे श्री अटल बिहारी वाजपेई। पत्रकारिता के विषय में उन्होंने समस्त जानकारी अपने अध्ययन और अनुभव से प्राप्त की। दीनदयाल जी ने संपादन करना ही नहीं सीखा बल्कि अटल जी के साथ-साथ दूसरों को भी सिखा दिया।अटल जी ने लिखा है कि जब मुझे पता चला कि पत्र का संपादन करना पड़ेगा यह सुनकर मेरी सिट्टी पट्टी गुम हो गई थी। लेकिन यह जानकर ढाढस बंधा की मैं नाम का ही संपादक हूं।काम करने और करवाने के लिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय मौजूद रहेंगे।तो ऐसा था दीनदयाल जी का व्यक्तित्व जो दूसरों को भी प्रेरित करते थे और साथ में नवाचार भी करते चलते थे।वह अपने समय के आगे की सोच और व्यवहार रखने वाले दूरदृष्टा थे। उनके विचार और संकल्प आज पहले से अधिक प्रासंगिक और उपयोगी हैं।
संदर्भ
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1. उपाध्याय दीनदयाल, सम्पूर्ण वांग्मय, 2016, राष्ट्रीय प्रकाशन, नागपुर
2. तैत्तिरीयोपनिषद, शंकर भाष्य सहित, गीता प्रेस गोरखपुर, संस्करण 1992.
3. अवस्थी संदीप, संपादक, आलोचना का लोकतंत्र,
4. विवेकानंद, पत्रावली, 1988, प्रकाशक रामकृष्ण मठ, धनतोली, नागपुर ।
5. तत्पुरुष इंदुशेखर, संपादक, मधुमति, दीनदयाल विशेषांक, सितंबर, 2017, पृष्ट 9, 11, 27, 51, 74, 122
राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर।
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