मकान के गेट पर कुंडी लगी है।
कुंडी से मेरी पहचान पुरानी होने के कारण उसे खोलना मेरे लिए सुगम रहा।
मकान की सीढ़ियां मैं एक साथ चढ़ ली हूं।
दरवाज़ा अंदर से बंद है,मगर मैं अंदर दाखिल हो ली हूं।
सीढ़ियों के ऐन बाद आंगन पड़ता है, जिस का दो तिहाई हिस्सा बीच में खुला है और एक तिहाई हिस्सा छतदार। दांए ढके हिस्से में रसोई है और बांए ढके हिस्से में गुसलखाना। आंगन के दोनों तरफ़ दो- दो कमरें हैं।आगे के कमरे सड़क की तरफ़ खुलते हैं और पीछे के गली की तरफ़।
मेरा कमरा पीछे की तरफ़ है। मैं उसी तरफ़ बढ़ ली हूंl कमरे की दीवार- घड़ी दस बज कर चार मिनट दिखा रही है।
कमरे में बृजेश्वरी अपनी बहन, मालती, के साथ मेरी आलमारी की चीज़ें मेरे बिस्तर पर बिछा रही है। बेखटके।
अपनी दूसरी आलमारी के जड़े शीशे के उस कोण पर मैं जा खड़ी होती हूं, जहां से मेरी प्रतिछाया बृजेश्वरी पर प्रकट हो सके।
उस ने ज़रूर मुझे मरीचिका माना है । मात्र एक छायाभास।
जभी वह अभी चौंकी नहीं। उस की दिशा में अब मैं ने अपने अंदाज़ में अपने होंठ मुड़का कर अपना दांया हाथ अपने चेहरे के आर- पार लहराया है और वह चीख पड़ी है, “अम्मा…..”
“क्या बात है, दीदी?”मालती चौंकी है।
“ वह इस कमरे में है….” बृजेश्वरी के माथे पर पसीना जमा हो रहा है।
“कौन?”
“सुमेर की अम्मा…..”
“तुम्हारी बुढ़िया उधर अस्पताल में है, यहां कैसे टपक सकती है?” इन बहनों की भाषा शुरू ही से सुधार मांगती रही है।
“नहीं,” बृजेश्वरी कांप रही है, “वह यहीं है……”
“पगलैट,” मालती बहन को अंक में भर रही है, “तुम जानती हो, सुमेर उसे अस्पताल में दाखिल कराए है । वह उसे कैसे इधर अकेले खिसक लेने देगा?”
अपने से बारह साल बड़े सुमेरनाथ को मालती जिस सहज भाव से सुमेर कहती है, वह मेरी नज़र में उस के पालन-पोषण में उस के मां- बाप द्वारा बरती गई लापरवाही का परिणाम है । बृजेश्वरी भी उसी लापरवाही की निष्पत्ति है।
“बृजेश्वरी,” मैं उस के कान में जा फुसफुसाती हूं , “मैं यहीं हूं…....”
“देख तो,” एक झटके के साथ बहन को एक तरफ़ सरका कर बृजेश्वरी मेरे बिस्तर से उठ खड़ी हुई है , “मैं कह रही हूं, वह यहीं है……”
“बृजेश्वरी,” मैं अपनी फुसफुसाहट जारी रखती हूं , “तुम ने मेरे साथ भली नहीं की ……”
“सुन तो,” अपने कानों पर अपनी हथेलियां चिपका कर बृजेश्वरी इधर-उधर उछलने लगी है, “वह कल रात की बात फिर दुहरा रही है……”
( 2 )
कल रात मेरी बुरी कटी थी।
बल्कि कल दोपहर ही से मेरा मन उखड़ लिया था।
खाना खा चुकने के लगभग आधे घंटे बाद बृजेश्वरी को अपने और बच्चों के बाहर जाने वाले कीमती कपड़ों में जब मैं ने रसोई में से आंगन पार करते हुए देखा था तो विक्की से पूछ बैठी थी, ‘कहां जा रही हो, विक्की?’
तीन वर्षीय अपने पोते, चुन्नू, से चार वर्ष बड़ी अपनी पोती,विक्की, के माध्यम से उधर की खबर लेने पर मैं बाध्य रही थी। पिछले तीन दिन से बृजेश्वरी ने मुझ से बोलचाल बंद कर रखी थी। एकाएक। बिना कारण। मेरे साथ वह अक्सर ऐसा किया करती। मुझे टाॅप मारने का यह भी उस का तरीका रहा। इधर मैं ठिनकती- गरजती रहती और उधर वह अपनी ज़ुबान अपने तालू से चिपकाए रखती ।
“नहीं बताऊंगी,” मां की तरफ़ देख कर विक्की ने एक दबी हंसी के साथ जवाब दिया था , “बताऊंगी तो तुम जाने नहीं दोगी….”
हक्की- बक्की मैं खड़ी- की- खड़ी रह गई थी और आड़ी काट की अपनी नाक के नथुने फुलाए- फुलाए बृजेश्वरी मेरी आंखों के सामने बच्चों को सीढ़ियों से नीचे उतार ले गई थी।
गेट की कुंडी चढ़ाए जाने की आवाज़ फिर जैसे ही मुझ तक पहुंची थी, बैठक के दरवाज़े से सड़क की तरफ़ खुलने वाली बालकनी की ओर मैं लपक ली थी।
वहीं से मैं ने देखा था सड़क पर बृजेश्वरी की नज़र में जो पहला रिक्शा उतरा था,उस ने उसी को इशारे से बुलाया था और बिना किराया तय किए उस पर बच्चों समेत सवार हो ली थी और फिर उस ने ऊपर बालकनी की तरफ़ नज़र दौड़ाई थी।
मुझ से उस की नज़रें चार भी हुईं थीं,लेकिन बेशर्मी के साथ उस ने अपने पतले होंठ अपने चौकोर गालों पर फैला लिए थे।
एक धृष्ट, विजयी मुस्कान रही थी वह।
सारी दोपहर मैं ने बेचैनी में काटी थी। फिर पांच बजे अपने लिए चाय बनाई थी और फ़्रिज में से करेले निकाल लाई थी।
शाम का खाना मैं ही बनाया करती थी।बृजेश्वरी के आने पर मेरी सास ने दोपहर का खाना ज़रूर बृजेश्वरी के ज़िम्मे डाल दिया था,किंतु शाम के खाने से मुझे छुट्टी न दी थी। मेरे संग अपनी बेमुरव्वती के कारण।
पच्चीस साल पहले जब सुमेरनाथ तीन साल का था और उस के पिता का कैंसर से देहांत हुआ था और मुझे अपनी सौतेली मां की वजह से अपने और सुमेरनाथ के लिए अपने मायके की छत नसीब न हुई थी तो मेरी सास ने अपने घर में मेरी दखलदारी की कीमत निर्धारित कर दी थी : मुझे नौकरी करनी होगी, स्कूल की अध्यापिकी की और घर में उन के हाथ की पुतली की।
करेले मैं ने बड़ी मेहनत से तैयार किए थे। हमेशा की तरह।अपने मन की क्लांति को अपनी कवायद पर मैं कभी हावी न होने देती थी।
हां,अपने लिए ज़रूर मैं ने कोई चपाती न सेंकी थी। केवल उन्हीं की चपातियां बनाईं थीं : चार सुमेरनाथ की,चार बृजेश्वरी की,और पांच विक्की और चुन्नू की।
खाना बनाते- बनाते साढ़े सात बज गए थे और वे लोग तब भी घर न लौटे थे।
मेरा गुस्सा चिंता में बदलने लगा था। इतने तो गहने बृजेश्वरी पहनती थी । तिस पर कितने तो रुपए अपने बटुए में ठूंसे रखती थी। बतौर पहनावे के मेरे लिए केवल सफ़ेद साड़ी और बतौर आभूषण के मेरे लिए केवल हाथ की घड़ी तय करने वाली मेरी सास ने बृजेश्वरी के रंग-ढंग को कोई झटका न दिया था। उलटे अपनी उस निहंग लाड़ली की हिम्मत ही बढ़ाई थी। परिणामस्वरूप उन की मृत्यु के दो- अढ़ाई वर्ष बाद भी बृजेश्वरी को आए दिन अपने लिए कुछ न कुछ खरीदना ज़रूरी लगता और खरीदारी की अपनी धुन में उसे अंधेरे- उजाले का बोध बिसर जाता।
रसोई का काम निपटा कर मैं ने अपनी विनय- पत्रिका पकड़ ली थी।
अपने त्रिविधताप, संदेह- शोक- संशय- भय के समय मैं अपने श्री गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी में ही अपने ‘दुखहरन मुरारी’, अपने ‘करुणा हरे’ को पुकारा करती थी :
‘तो सम देव न कोउ कृपालु,समझौं मनमाहीं।
तुलसीदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं।।’
सुमेरनाथ की मोटर के दरवाज़े खुलने और बंद होने की आवाज़ रात नौ बज कर पचास मिनट पर आयी थी । स्पष्ट था, बृजेश्वरी और बच्चे बाज़ार से सुमेरनाथ के दफ़्तर चले गए थे। अपने दफ़्तर से उठते- उठते सुमेरनाथ को अक्सर आठ बज ही जाया करते थे।
सब एक साथ सीढ़ियां चढ़े थे : हंसते हुए, बतियाते हुए और उन के साथ हंस- बतिया रही थी बृजेश्वरी की यही बहन,मालती।
“आज मालती का जन्मदिन है, मां,” आंगन में सब से पहले सुमेरनाथ प्रकट हुआ था, “आप भी इसे कोई उपहार दीजिए ..…..”
“नमस्कार, आंटी!” बृजेश्वरी के परिवार जन मेरे साथ अपनी लिहाज़दारी बनाए रखते थे।
“आज कितने साल की हो गई, मालती?” मैं ने पूछा था। मर्यादा बनाए रखना मुझे भी आता था।
उधर बिना मुझ से कुछ कहे- सुने, बच्चों को ले कर बृजेश्वरी अपने कमरे की ओर कदम बढ़ा ले गई थी। हमारे पास रुकी नहीं थी।
“अठारह की,आंटी…..”
“आज से यह शादी लायक है,” सुमेरनाथ ने चुटकी ली थी, “आज इसे उसी लायक कोई अच्छी- सी चीज़ दीजिए,मां…..”
मालती के प्रति सुमेरनाथ के आकर्षण को मैं पहचानती थी और निश्चित रूप से बृजेश्वरी भी। लेकिन वह ठहरी विपरीत बुद्धि की। मालती से चौकन्नी होने की बजाए वह इस बात को अपने हक में इस्तेमाल करती थी। अपने सैर- सपाटे और अपनी फ़िज़ूलखर्ची पर पर्दा डालने का काम उस से लिया करती थी।
“तुम जो कहो,” मैं हंस पड़ी थी। सुमेरनाथ का कहा- बेकहा करना मेरे लिए असंभव था। यों भी सुमेरनाथ मेरे संग अल्पतम संवाद रखता था। बचपन में उसे मेरे पास आने में मेरी सास बाधा डालती रही थी और जब तक वह भेद करने की अवस्था में पहुंचा था,उसे आवासीय सैनिक स्कूल में दाखिल करा दिया गया था। सैनिक स्कूल से फिर वह सीधे रुड़की आई.आई.टी. चला गया था और वहां से वापस आने पर उसे बृजेश्वरी के संग सहबद्ध कर दिया गया था।
“इसे अपना वह नया शाल दे दीजिए जो आप के स्कूल वालों ने आप की पचासवीं वर्षगांठ पर आप को भेंट में दिया था,” मालती की ओर देख कर सुमेरनाथ मुस्कराया था।
“अभी लो,” मैं ने उत्साह दिखाया था, “मालती पर वह नीला रंग फबेगा भी खूब……”
“और आप उसे कभी पहनेंगी भी नहीं,” सुमेरनाथ ने जोड़ा था, “सफ़ेद रंग जो नहीं…….”
पिछले वर्ष मेरे स्कूल में मेरी पच्चीस वर्ष की लगातार सेवा के रहते जब ‘पुरस्कार दिवस’ पर मुझे मान्यता देने का निर्णय लिया गया था तो मेरी प्रशंसिका- सहकर्मिणियों ने उस संयोग का उल्लेख भी सार्वजनिक रूप से कर दिया था कि उसी दिन मेरी पचासवीं वर्षगांठ भी पड़ रही थी। फलस्वरूप मुझे उस दिन दो उपहार दिए गए थे: एक दीवार- घड़ी स्कूल की ओर से और यह शाल मेरी सहकर्मिणियों की ओर से। दीवार- घड़ी को बैठक में लगाने का मेरा प्रस्ताव बृजेश्वरी ने यह कह कर ठुकरा दिया था, ‘इस के अंदर अम्मा का और उन के स्कूल का नाम लिखा है,’ और सुमेरनाथ ने वह घड़ी फिर मेरे कमरे की दीवार पर लगा दी थी। शाॅल को फिर मैं ने ज्यों -का -त्यों अपने बक्से में डाल दिया था।
खाना वे सभी खा कर आए थे।और रसोई समेटने में मुझे अधिक समय न लगा था।
दस बज कर बीस मिनट पर मैं अपने बिस्तर की ऊपर वाली चादर तहा रही थी कि मेरा शाल हाथ में लिए बृजेश्वरी मेरे कमरे में आन दाखिल हुई थी।
“इसे संभाल लीजिए,” वह बोली थी, “हम आप का शाल नहीं लेंगी।”
“क्यों नहीं लेंगी?” दोपहर की सारी भड़ास मेरे अंदर सक्रिय हो ली थी , “तुम हमेशा गलत ही क्यों बोलती हो? गलत ही क्यों सोचती हो?”
“आप की तरह अपनी गलतियां ढकनी जो नहीं आतीं……”
“गलतियां? मेरी गलतियां? कौन सी गलतियां?” मैं हकबकायी थी।
“बड़ी मौसी ने मुझे सब बता रखा है,” मेरी सास को बृजेश्वरी बड़ी मौसी कहा करती थी। वह उन की एक परम सखी की भांजी थी और इस घर में वही बृजेश्वरी को लाईं रहीं थीं। मेरी आपत्ति के बावजूद। बृजेश्वरी का पैर फैला कर बैठना और मुंह भर कर खाना मुझे बहुत चुभा था, किंतु मेरी सास सुमेरनाथ पर अपने अधिकार को ज़्यादा तूल देती थीं ।
“क्या बता रखा है?”
“ पापा जी के चले जाने के बाद उन की सौत बन कर रहना चाहतीं थीं आप।उन से दो बित्ता ऊपर उठने की खातिर…..”
यह केवल एक आरोप नहीं था। वज्रपात था। किंतु साथ में एक खुलासा भी।
तो क्या मेरी सास जिस चौकसी से मुझे मेरे ससुर से दूर रखती रहीं थीं,उस के पीछे कोई खोट रहा था? और मैं यह भी कभी जान न पाई थी खोट किस की नज़र में रहा था!
देखने- सुनने में सदाचारी और स्नेही मगर वास्तव में कुत्सित और दुरूह मेरे ससुर की नज़र में?
अथवा देखने- सुनने में निष्ठुर और कठोर मगर वास्तव में सूक्ष्मदर्शी और
असुरक्षित मेरी सास की नज़र में?
उस खोट का यथार्थ कुछ भी क्यों न रहा होगा, मगर मेेरी सास द्वारा उस खोट को इस घिनौने लांछन के रूप में मेरे विरुद्ध एक हथियार बना कर बृजेश्ववरी के सुपुर्द कर जाना कहां का न्याय था?
“आज यह फ़ैसला हो जाना चाहिए,” मैं ने हिम्मत जुटाई थी, “यहां तुम अपनी बड़ी मौसी की तख्ती बन कर रहोगी या मेरी बहू? उन की गलत-सलत और भ्रामक बातों को सच मानोगी या मेरे कहे को सच?”
“फ़ैसला ही करना है तो अपने बेटे से कहिए,” बृजेश्वरी ने मेरी बात को अपना ही वक्र मरोड़ दे डाला था।
“क्या कहूं? तुम मेरा अपमान करती हो? मेरे उलट चलती हो?”
“जो भी आप को कहना है, आप कहिए। बस यह याद रहे, आप का बेटा आप को छोड़ सकता है,हमें नहीं.”
“तुम भली नहीं कर रही,बृजेश्वरी,” मैं ज़मीन में धंस ली थी, “इतना बुरा न करो। बाद में तुम्हीं को भुगतना पड़े…….”
“अपना बुरा जैसे आप आज भुगत रहीं हैं?” वह ठठाई थी और चली गई थी।
उस के शब्दों में मैं ने प्राणदंड पाया था।
नए दुख भोगने अब मेरे लिए असंभव थे……
और नए कष्ट झेलने दुष्कर……
नींद की अपनी गोलियों के दो पत्ते मैं निगल ली थी ……..
( 3 )
सुमेरनाथ मेरे कमरे में आन खड़ा हुआ है।
उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं हैं।
“अम्मा कहां हैं?” बृजेश्वरी की हड़बड़ाहट में वृद्धि हुई है।
“उधर अस्पताल में,” सुमेरनाथ कहता है, “डाक्टरों ने अभी कई औपचारिकताएं पूरी करनी हैं……”
“खतरा टल गया है न?” पूरी तरह से आश्वस्त होने के लिए बृजेश्वरी अबोध बन रही है, “वह होश में आ गईं हैं न?”
“नहीं। डाक्टर उन की मूर्च्छा नहीं तोड़ पाए।नींद की वे गोलियां घातक सिद्ध हुईं…….”
“उन की बेहोशी एक बार भी नहीं टूटी क्या?” मालती पूछती है।
“टूटी तो मृत्यु में टूटी। जैसे ही उन्हें आक्सीजन देने की चेष्टा की गई,उन की देह पल-भर के लिए हरकत में आई और फिर निश्चल हो गई…….”
एकाएक सुमेरनाथ की आंखें मेरी दीवार- घड़ी पर आन जमती हैं…….
“यह घड़ी शायद खड़ी है,” मालती अपने हाथ की घड़ी पर नज़र दौड़ाती है, “इस समय तो ग्यारह बजने को है……..”
“मां की घड़ी ठीक खड़ी है,” सुमेरनाथ मेरी घड़ी पर अपने हाथ फेरता है , “ठीक इसी घड़ी वह हमें छोड़ कर गईं रहीं। ठीक दस बज कर चार मिनट पर…….”
“ठीक उसी समय दीदी भी यहां चिल्लाईं थीं…..अम्मा…..अम्मा…..”
“अम्मा……?” सुमेरनाथ की आंखों में आंसू उतर रहे हैं….....
सागर के सागर……
इतने आंसू मैं ने कमाए हैं क्या?
अपने पिता के देहांत पर, अपने दादा- दादी की मृत्यु पर भी सुमेरनाथ ने ढेरों आंसू बहाए थे, मगर उस रोदन में ऐसा विलाप,ऐसा शोक न रहा था…….
अपनी हिचकियों के बीच सुमेरनाथ ने मेरी दीवार- घड़ी अपनी छाती से ला चिपकाई है, “आप जैसा धीर भी किसी और में भला होगा क्या, मां?”
“आप जैसा चरित्रबल?”
“ आप जैसा प्रेम?”
“ आप जैसा त्याग?”
“मेरे लिए अब कौन रोज़ प्रार्थना करेगा,मां?”
“और किस की प्रार्थना आप जैसी पुण्यात्मा की प्रार्थना जैसी प्रभावी होगी,मां?”
पुण्यात्मा?
सुमेरनाथ पुण्यात्मा कह रहा है मुझे………
बिचले तल्ले में फिर मेरा क्या काम रहा अब?
मेरी रवानगी ज़रूरी है…… ..और मैं अलख हो ली हूं……
******