The colorful magic of the blue-eyed Raj in Hindi Biography by VIRENDER VEER MEHTA books and stories PDF | नीली आँखों वाले राज का रंगीन तिलिस्म

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नीली आँखों वाले राज का रंगीन तिलिस्म

कल खेल में, हम हों न हों

गर्दिश में तारे रहेंगे सदा

भूलोगे तुम, भूलेंगे वो

पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा!

           आज की युवा पीढ़ी को भले ही उस फ़नकार का अभिनय 'आउट डेटेड' लगे, लेकिन अभिनय और फ़िल्मों के असली रंग समझने वाले लोग आज भी उस शख्स की प्रतिभा के कायल हैं। वह शख्स यानी रणवीर राज कपूर, जो एक दिग्गज अभिनेता और निर्माता-निर्देशक होने के साथ एक बेहतरीन इंसान भी था। बॉलीवुड के इस शो-मैन ने अपनी नीली आँखों से न केवल भारतीय सिने प्रेमियों को सपने देखना सिखाया, बल्कि महान चार्ली चैपलिन के किरदार को भी आम जनमानस में फिर से जिंदा किया था। वैसे तो एक बड़े कैनवास पर लिखी गई राज साहब की ज़िन्दगी को चंद शब्दों में समेट पाना आसान नहीं है, फिर भी उनके चाहने वालों के लिए एक छोटा सा प्रयास है ये शब्दों का फ़लसफ़ा।

करीब साढ़े तीन दशक पहले दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किए जाने के दौरान तबीयत खराब होने के बाद दिल्ली के 'एम्स' में एक महीना जिंदगी और मौत के बीच की जद्दोजहद के बाद (दो जून 1988 को) इस फ़ानी दुनिया को छोड़कर जाने वाले 'राज साहब' की उम्र का बीते वर्ष शतक पूरा हो चुका है।राज कपूर एक सदी पहले वर्ष 1924 की 15 दिसंबर को पाकिस्तान के लायल पुर में पृथ्वीराज कपूर साहब (बॉलिवुड के 'मुग़ल-ए-आज़म') के यहाँ जन्मे थे। यहाँ ये जानना भी ग़ौरतलब रहेगा कि कपूर परिवार फ़िल्म जगत का वह पहला परिवार है, जिसकी पांच पीढ़ियों का जुड़ाव फिल्मों से रहा है। (जिनमें विशेश्वर नाथ कपूर, पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर, ऋषि कपूर, रणबीर कपूर के नाम देखे जा सकते हैं) वैसे फिल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माने वाले कपूर परिवार की पहली कड़ी पृथ्वीराज कपूर ही थे, जिन्होंने अपनी फ़िल्म यात्रा संयुक्त भारत की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' (1931) से की थी।

बहरहाल राज कपूर पृथ्वीराज जी के सबसे बड़े बेटे थे और उनका फिल्मों में पहला प्रवेश फ़िल्म 'इंकलाब' (1935) से 11 वर्ष की उम्र में बतौर बाल कलाकार हुआ था। वैसे उनके कैरियर की शुरुआत एक साधारण 'क्लैपर बॉय' के काम से हुई। लेकिन सुनहरे पर्दे की ललक ने उन्हें एक दिन फ़िल्म के निर्देशक केदार शर्मा के गुस्से का शिकार बना दिया; जब फ़िल्म के सेट पर ही उनके क्लैप देते हुए बार-बार अपने बाल संवारने की आदत को बरदाश्त नहीं कर पाए, और सब के सामने केदार शर्मा ने उन पर हाथ उठा दिया। हालाँकि बाद में इन्हीं केदार शर्मा ने उन्हें अपनी अगली फ़िल्म 'नीलकमल' में बतौर नायक अवसर दिया और नीली ऑंखों वाले राज के साथ फ़िल्म की ख़ूबसूरत नायिका मधुबाला को दर्शकों ने बेहद पसंद किया और राज कपूर बतौर नायक चल निकले।

और फिर, जल्दी ही उन्होंने अपने अगले कदम के रूप में  'आर. के. फिल्मस' की स्थापना के साथ 'आग' जैसी फ़िल्म दर्शकों को सामने प्रस्तुत कर दी। फ़िल्म आर्थिक स्तर पर फ़ायदे का सौदा नहीं रही, लेकिन ख़ास बात यह रही कि निर्माता, निर्देशक और नायक की भूमिका निभाने वाले मात्र चौबीस के वर्ष के राज की चर्चा उस दौर के हर समीक्षक की ज़ुबान पर थी। और उसके बाद सिर्फ अगले एक दशक में ही राज साहब ने 'आवारा' और 'श्री 420' जैसी फ़िल्में सिने जगत को दे कर जो जगह बना ली थी, वह जगह आज भी कोई नहीं बना पाया है। उनकी फिल्मी कहानियों का 'कंसेप्ट' और तीक्ष्ण दृष्टि से फिल्माया गया सौंदर्यबोध (चाहे वह उनकी फिल्मों में कैमरे की आँख से दिखाई दिया हो या संगीत के जादू में सुनाई दिया हो) उनकी फिल्मों का एक ख़ास हिस्सा रहा है। जिसका चमत्कार दर्शक कमोबेश उनकी हर फ़िल्म में देख चुके हैं। संगीत और सौंदर्य को ही राज कपूर अपनी फिल्म की आत्मा मानते थे। इसी का एक जीवंत उदाहरण 'आर. के. फिल्मस' के प्रतीक, (एक हाथ में वायलिन यानि संगीत और दूसरे हाथ में झूलती नरगिस यानि सौंदर्य) के रूप में दर्शक बरसों से महसूस करते आ रहे हैं।

हालांकि राज साहब भारतीय सिनेमा में केवल मनोरंजक तत्व के ही पक्षधर नहीं थे, वह सिनेमा के ज़रिए समाज की मुख्य धारा का प्रतिनिधित्व भी करना जानते थे। उनकी 'बूट पॉलिश', 'जागते रहो', 'जिस देश में गंगा बहती है' और 'अब दिल्ली दूर नहीं' जैसी फिल्में इन्हीं प्रयोगों की एक कड़ी थी। उनकी फ़िल्मों के विषय बेबाक होते थे और कहानियों की जड़ें कहीं न कहीं हमारे समाज की विसंगतियों से जुड़ी होती थीं, चाहे वह वर्ण भेद हों, वर्ग भेद हों या फिर सामाजिक प्रथाएँ हों।

वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राज साहब की सफलता के पीछे उनकी दूरदर्शिता और अपनी फिल्मों के प्रति समर्पण भावना थी। फ़िल्म की स्क्रिप्ट हो, गीत संगीत हो, फ़िल्मांकन हो या उससे जुड़े अन्य प्रोसेस हों; वे हर काम में ख़ुद दिलचस्पी लिया करते थे। इसके अलावा उनकी सफलता का एक और बड़ा कारण उनकी 'टीम -पॉलिसी' को भी माना जा सकता है, जिसमें शंकर जयकिशन (संगीत), शलैंद्र, हसरत जयपुरी (गीत) मुकेश, मन्ना डे,लता (गायकी) और ख़्वाजा अहमद अब्बास, वीपी साठे (लेखन) जैसे धुरंधर लोग जुड़े हुए थे।

कहते हैं एक बार एक विदेशी पत्रकार ने जब राज साहब से उनकी उम्र के लिए पूछा तो उन्होंने बड़ी गंभीरता से  जवाब दिया था कि 'अभी मेरी उम्र सिर्फ़ सात फ़िल्में हैं।'

सात फिल्मों को अपनी उम्र बताने वाले राज कपूर के पाँच दशक (1935-1985) के फ़िल्मी कैरियर में उनका क़रीब सत्तर फिल्मों से जुड़ाव रहा, जिनमें से पचास फ़िल्मों से वह मुख्य तौर पर किसी न किसी रूप में (अभिनय, निर्माण या निर्देशन) जुड़े रहे। यदि बात करें उनकी कुछ ख़ास चर्चित फिल्मों की, जिनसे वह पूरी तरह सीधे तौर पर जुड़े रहे, तो इनमें सबसे पहले नाम आता है फ़िल्म 'आग' का।

देश की आज़ादी को बीते क़रीब एक वर्ष हुआ था, जब राज साहब ने बतौर निर्माता-निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'आग' (1948) को दर्शकों के सामने रखा था। बाहरी सुंदरता की अपेक्षा इंसान की आंतरिक  सुंदरता कहीं अधिक मूल्यवान होती है, इस कंसेप्ट को सामने रखती इस फ़िल्म को भले ही बॉक्स ऑफिस पर अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी लेकिन उनकी फिल्मांकन शैली को देखकर सभी आश्चर्य चकित रह गए थे।

इस फ़िल्म के तीन वर्ष बाद उनके बैनर में आई फ़िल्म 'आवारा' (1951) वह पहली फ़िल्म थी, जिसने राज कपूर के  निर्माण, निर्देशन और अभिनय, तीनों ही स्तर पर किए गए काम की  अंतराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा दी थी।  फ़िल्म का थीम सॉन्ग, आवारा हूँ. . . आज तक सुना जाता है। कान फिल्म फेस्टिवल (1953) में ग्रैंड पुरस्कार के लिए नामांकित इस फ़िल्म की लोकप्रियता का यह आलम था कि बाद में इस फ़िल्म और इसके गानों को रशियन भाषा में में डब किया गया था।

आवारा के बाद आर. के. फिल्मस बैनर तले आई फ़िल्म 'श्री 420' (1955) ने सिद्ध कर दिया गया कि उनकी दर्शकों की नब्ज़ पर गहरी पकड़ है, और वो इसे पहचानने में भी माहिर हैं। बॉक्स ऑफिस की सफलता के साथ इसे क्रिटिक्स तौर पर भी बहुत वाह-वाही मिली। फ़िल्म का गीत 'मेरा जूता है जापानी' ना केवल लोगों की जुबां पर थिरकने लगा, बल्कि आज़ाद भारत की लाइफ़ लाइन बन गया था।

साठ का दशक आते-आते भारतीय सिनेमा में रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हो गया था और ब्लैक-वाइट फिल्मों का दौर लगभग खत्म हो चला था, जब राज कपूर की उस दौर की अंतिम ब्लैक-व्हाइट फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' (1960) प्रदर्शित हुई थी। उनके बैनर में ही बनी इस फ़िल्म को सिनेमैटोग्राफर राधू करमाकर द्वारा निर्देशित किया गया था। डकैतों के पुनर्वास पर बनी इस फ़िल्म में एक गरीब, मिलनसार नवयुवक इत्तेफाक से डाकुओं के गैंग के बीच फंस जाता है और अंत में उन्हें हथियार डालने और समर्पण के लिए मना लेता है, ये कंसेप्ट फ़िल्म इतिहास में निःसन्देह अनूठा और नवीनतम था। फ़िल्म की फोटोग्राफी और गीत-संगीत बहुत ही सरल और मन को मोहने वाला था।

रंगीन फिल्मों के दौर में कमर्शियल एंगल से बनाई गई राज कपूर की पहली रंगीन फिल्म 'संगम' (1964) एक लव ट्रायंगल फ़िल्म थी, जिसका निर्देशन और निर्माण उन्होंने स्वयं ही किया था। पेरिस और स्विट्जरलैंड जैसी लोकेशन पर फिल्माई गई इस फ़िल्म के फिल्मांकन के साथ इसका गीत-संगीत आज भी जन मानस के बीच गुनगुनाया जाता है।

प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' की शॉर्ट स्टोरी 'मारे गए गुलफाम' पर बनी फ़िल्म 'तीसरी कसम' (1966) राज साहब की एक बेहतरीन, चर्चित फिल्म रही है। बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी यह फ़िल्म भले ही व्यवसायिक तौर पर सफल नहीं हुई, लेकिन फ़िल्म इतिहास में कल्ट साबित हुई इस फ़िल्म के गाड़ीवान 'हीरामन' और नर्तकी 'हीराबाई' आज भी लोगों के दिलों में ज़िंदा हैं।

'कल खेल में हम हों ना हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा' इस थीम लाइन को सामने रखती फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' (1970) राज कपूर के कैरियर की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी, जिसकी उन्होंने निर्माण, निर्देशन अभिनय, सभी जिम्मेदारियों को दिल से निभाया था। सर्कस के जोकर 'राजू' की जीवन-गाथा को विस्तार से (साढ़े तीन घँटे, दो मध्यांतर के साथ) दर्शाती यह फ़िल्म इतिहास में जितनी क्लासिक मानी गई, उतना ही आर्थिक स्तर पर इस फ़िल्म ने राज कपूर को दुःख दिया, और उन्हें ज़बरदस्त नुक़सान दिया।

उसके बाद शायद इसी नुक़सान को पूरा करने के लिए उन्होंने 'टीन एज लव' के विषय को लेकर एक मसाला फ़िल्म बॉबी (1973) को बनाया। इस फ़िल्म से राज साहब ने अपने दूसरे बेटे ऋषि कपूर और टीन एज डिम्पल कपाड़िया को लांच किया था। उस दौर में फ़िल्म के गीत-संगीत ने धूम मचा दी थी और फ़िल्म न सिर्फ ब्लॉकबस्टर बल्कि ट्रेंड सेटर बन गई जिसने आगे की प्रेम कथा फिल्मों का ट्रेंड ही बदल दिया था।

राज कपूर द्वारा ही निर्मित-निर्देशित फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' (1978) हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में एक मानी जाती है। अपनी पहली फ़िल्म 'आग' के कंसेप्ट को एक बार फ़िर उन्होंने नारी के किरदार के ज़रिए एक नए अंदाज़ में आंतरिक सौंदर्य की परिभाषा के साथ सामने रखा था। फिल्म का गीत-संगीत और फ़िल्म का फिल्मांकन बहुत ही पसंद किया गया था। हालाँकि फिल्म की नायिका जीनत अमान का एक तरफ़ से जला हुआ चेहरा और उनका 'बोल्ड लुक' भी काफी विवादस्पद बना था।

अस्सी के दशक में बनी फिल्म 'प्रेम रोग' (1982) का निर्माण और निर्देशन दोनों ही राज साहब द्वारा किया गया था। विधवा पुनर्विवाह के विषय पर लिखी गई कहानी न केवल जमींदार परिवारों में महिलाओं के हालात को सामने रखती है, बल्कि महिला सशक्तिकरण के संदेश के साथ एक ख़ूबसूरत प्रेम कथा को भी पर्दे पर साकार करती है। इस फ़िल्म के संगीत को आज भी उतने ही चाव से सुना जाता है, जितना चार दशक पहले इसकी रिलीज़ के समय में सुना जाता था।

बतौर निर्देशक राज साहब की आख़िरी फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' (1985) रही, जिसमें उन्होंने अभिनेत्री मंदाकिनि को अपने छोटे बेटे राजीव कपूर के साथ भव्य स्तर पर लांच किया था। हालाँकि यह फ़िल्म पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति के मद्देनज़र गँगा नदी के उद्गमस्थल से अंत (गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी) के बीच की यात्रा के राजनीतिक संदर्भ को दिखाने का प्रयास थी, लेकिन फ़िल्म अपने विषय से कहीं अधिक फिल्म की नायिका के दृश्यों को लेकर चर्चित रही। लेकिन तमाम चर्चाओं और विरोध के बावजूद फ़िल्म अपने गीत-संगीत के साथ बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त सफल रही।

हालांकि अपने अंतिम समय में भी राज साहब अपने होम प्रोजेक्ट 'प्रेम ग्रंथ' पर काम कर रहे थे, लेकिन ईश्वर ने उन्हें समय नही दिया। बाद में (1996 में) इसे उनके पुत्र राजीव कपूर ने पूरा किया, लेकिन 'आर. के. फिल्मस' का जादू नहीं दोहरा सके। बहरहाल अगर सम्रग रूप से राज साहब के लिए एक वाक्य में कुछ कहा जाए, तो ये कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि आज़ाद भारत में बॉलीवुड (हिंदी सिनेमा) के रंगीन तिलिस्म का जो इतिहास लिखा गया है, उसमें इस नीली आँखों वाले के रंगों का भी एक अहम और बेशक़ीमती हिस्सा रहा है, जिसे भुलाना मुश्किल ही नहीं नामुमिकन भी है।

. . . विरेंदर 'वीर' मेहता