my city my family my talkies in Hindi Anything by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | मेरा शहर मेरा परिवार मेरे टॉकीज

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मेरा शहर मेरा परिवार मेरे टॉकीज

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हर शहर में सिनेमाहाल होते थे जो एक जमाने में इतना चलते थे कि टिकिट के लिए लंबी लाइनें लगती थीं। शो छूटता तो ट्रैफिक जाम होता पर फिर भी लोग शांति से धीरे धीरे फिल्म की गुनगुनी, प्यारी बातों को लेकर निकल जाते। फिर वह बातें हफ्ते दस दिन तक घर, दफ्तर, स्कूल में चर्चा का विषय रहती । आज के मल्टीप्लेक्स के दर्शक यह बात नहीं समझेंगे कि कभी फिल्म देखना एक पारिवारिक उत्सव होता था। जिसमें इंटरवेल में चाय, समोसा, पेस्ट्री, लिम्का, गोल्ड स्पॉट सीट पर ही मिलते थे। वह भी उसी दाम पर जो बाहर मिलते हैं। हम तो कई बार बाहर से भी कढ़ी कचोरी, मिठाई, पॉपकॉर्नले जाते थे हॉल के अंदर। कोई रोक टोक नहीं थी। आराम से जब मन किया खाते पीते थे। अब के जैसा नहीं जहां इतनी जांच करके खाली हाथ अंदर भेजते हैं कि पानी की बोतल के लिए भी कहना पड़ता है। और फिर हॉल में ही बीस रुपए का समोसा, पेटीज डेढ़ सौ रूपये में खरीदना पड़ता है। 

तो उस दौर में मेरे शहर अजमेर में छह सिनेमा हॉल थे, प्रभात, मृदंग, मैजिस्टिक, प्लाजा, श्री और अजंता। सभी में खूब फिल्में हर महीने देखीं, कभी तो महीने में दो बार भी। हमारे डैडी श्री राम गोपाल जी अवस्थी, विधि सलाहकार, पश्चिम रेलवे, और मम्मी जी, जिनके साथ मैं रहता हूं, श्रीमती बीना अवस्थी जी, दोनों कभी कभी फिल्मों और बाहर घुमाने हमें ले जाते। अक्सर फिल्म का कार्यक्रम बनता और हम तीनों भाइयों के लिए वह दिन उत्सव का दिन होता। स्कूल जाते उमंग से। वहां क्लास में, इंटरवल में बताते की आज हम फिल्म देखने जा रहे हैं। 

अब दोपहर होती, घर पर खूब पढ़ते। क्योंकि मम्मी जी बहुत सख्ती से कहती की जो बच्चा होम वर्क पूरा करेगा वहीं फिल्म जाएगा। वरना नहीं। तो जुट जाते पूरे मन से होमवर्क में। यह एक नया उत्प्रेरक होता हमारे लिए काम सही और जल्दी करने का। आज इतने दशक बाद भी यह तरीका मेरे दिमाग में ताजा है, अक्सर नवोदित लेखकों और युवा दोस्तों से काम करवाने के लिए उनके मन की इच्छा मैं पूरी कर देता हूं। 

अब जाने में दिक्कत । क्योंकि साइकिल होती थी उन दिनों। और अक्सर चर्चित और हिट फिल्म हमारे शहर अजमेर में एक महीने बाद ही आती। क्योंकि अस्सी के दशक में वीडियो कम थे और टीवी क्रांति नहीं हुई थी। 

तो यह इंतजाम होता कि डैडी जी ऑफिस से आते शाम सवा पांच तक। चाय पीकर सीधे साइकिल पर छोटे भाई, उस पर विशेष प्यार और दुलार है सदैव सभी का, मनोज, जो अब राजनीतिविज्ञान के विद्वान प्रोफेसर हैं, को लेकर सिनेमा हॉल रवाना। पीछे मम्मी रसोई में चार बजे से रात्रि के भोजन को तैयार कर रही होती। वह बनता, फिर वह तैयार होती और मुझे लेकर तांगा या टेंपो स्टैंड से टॉकीज रवाना। मध्यमवर्गीय परिवार था तो किफायत भी जरूरी थी। वहां उतरते और मिस्टर नटवरलाल देखने न्यू मैजिस्टिक सिनेमा हॉल पहुंचते। मुख्य सड़क स्टेशन रोड से थोड़ा पैदल चलना पड़ता था। वहां दूर से ही दिख जाता की भारी भीड़ है और हाउसफुल का बोर्ड लगा है। यह मैजिस्टिक सिनेमा हॉल, एक पारसी भाई मार्फतिया परिवार का था, शहर के बीचोबीच, पड़ाव रोड पर था। यहां सौ मीटर की परिधि में तीन सिनेमा हॉल थे। मैजिस्टिक से सीधी रेखा खींचो तो बाई तरफ सौ मीटर दूरी पर प्लाजा सिनेमा और ऊपर, हल्की सी चढ़ाई से निकल जाओ तो मात्र पच्चीस मीटर पीछे श्री टॉकीज। यह सड़क इसलिए आज तक सिनेमा रोड कहलाती है। इसी पर विभिन्न पत्रिकाओं की दुकानें भी होती थी उन दिनों। सारी पत्रिकाएं धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, दिनमान, हंस, कहानी आती थी पर तब मैं इनके बारे में अधिक नहीं जानता था। पर मेरी रुचि की सारी पत्रिकाएं यहां आती थीं, मैंने असंख्य बार, वर्षों तक लीं। चंपक, चंदामामा, मधु मुस्कान, दीवाना, लोटपोट, पराग, नंदन तब इनके संपादक क्रमशः हरिकृष्ण देवसरे और कन्हैयालाल नंदन थे, जादूगर मेंड्रेक, फैंटम, आर्ची, चाचा चौधरी, डायमंड कॉमिक्स, बिल्लू, बाल भारती सब कुछ पढ़ते थे हम दोनों भाई। हर महीने का मेरा जेबखर्च इसी में जाता। कम पढ़ते तो ताई जी से एक रुपया ले लेता जिससे एक पत्रिका आ जाती थी । बचपन से ही हमारे घर में सिखाया गया था कि उधार नहीं करना और चीज लो तो खरीदकर या फिर मत लो, इंतजार करो। यह फिलोसॉफी हमारे बाबा और दादी जी की रही जो उनके तीनों पुत्रों आदरणीय ताऊजी, मस्तमौला, दबंग और बहुत सरल स्वभाव के, डैडी जी टू द पॉइंट और इंग्लिश मीडियम से डबल एमए, लॉ पास सत्तर के दशक में, और चाचा जी श्री राम चंद्र अवस्थी, आधुनिक कपड़ों के शौकीन, स्पोर्ट्स शू उस वक्त इन्हीं के पास थे, हॉकी प्लेयर और रेलवे में अधिकारी, तीनो में भी यही आदत आई। यही आगे की पीढ़ी हम भाइयों बहनों में भी रही। जितनी चादर उससे भी कम पैर पसारें जाएं। मैं भी भूखा न रहूं और साधु भी भूखा न जाए। 

तो वापस हाउसफुल के बोर्ड पर। 

फिल्म थी मिस्टर नटवरलाल, अस्सी का दशक, उसमें अमिताभ की शेर से फाइट और गाना, मेरे पास आओ मेरे दोस्तों एक किस्सा सुनाऊं, बड़ा लोकप्रिय हुआ था। चौथा हफ्ता था न्यू मैजिस्टिक में और बड़ी भीड़ थी। अमिताभ का क्रेज था। दूसरे हॉल अजंता में उनकी नसीब लगी थी पिछले ही हफ्ते, जिसे अगले माह हम देखेंगे। तो उस भीड़ में मम्मी के साथ मैं पहुंचा। डैडी हॉल के सामने स्थित साइकिल स्टैंड पर खड़े चारमीनार सिगरेट पी रहे, मनोज, उस वक्त गोल मटोल और खूबसूरत तो है ही अभी भी, आराम से मुस्कराते हुए क्रीम रूल खा रहा था। उसकी डैडी की हमेशा से ट्यूनिंग रही बढ़िया जो आगे तमाम उम्र बनी रही। वह डैडी का यस मेन है, मम्मी का भी। हम ठहरे बड़े बेटे तो हर नई चीज, चुनौती पहले हम फेस करते। फिर चाहे वह साइकिल चलाना हो, बोर्ड एग्जाम फेस करना, कठिन गणित, भौतिकी और रसायन के फॉर्मूलों और सिद्धांतों से जूझना सब पहले पहल हम पर ही। उसके लिए कई बार डैडी जी, बड़े गुस्सैल थे पहले तो फिर जब बीएससी कर ली तो दोस्त से हो गए। बचपन में उनसे मैं कुछ कहता, मांग रखता, डांट खाता और कभी कभी पिटाई भी। मनोज आराम से देखते, खेलते रहते और एक शब्द नहीं कहते और डैडी के गुड बॉय रहते। जो चीज, खिलौने, शर्ट आदि मुझे ऐसे मिलते वह उन्हें बाद में अपने आप मिल जाते। शायद ऐसा हर घर में होता है जहां दो तीन भाई बहन होते हैं, बड़े वाला हमेशा कुर्बान होता है। तो सिनेमा हॉल के बाहर की भीड़ देख मुझे लगा कि हाउसफुल हो गया और टिकिट नहीं मिले। मैने छोटे भाई की तरफ परेशान निगाह से पूछा, टिकट क्या हुए? वह इतना घुस्सु की चेहरा घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगा। डैडी बोले, " हाउसफुल हो गया है कोई टिकिट नहीं है बाकी। " मैं दाएं बाएं निराशा से देखूं मम्मी का हाथ पकड़े। हमारी उम्र होगी दस और नौ बरस। दोनो ने एक जैसी हल्की ब्राऊन रंग की शर्ट पहनी हुई थी। डैडी जी और हमारे कपड़े शहर के अच्छे टेलर जो डिग्गी बाजार में अंदर था, उससे सिली हुई थी। वह उनका बड़ा सम्मान करता था, भले ही वर्ष में दो बार उससे मिलना होता पर डैडी जी सभी से सम भाव और बराबरी से मिलते। यही गुण मुझे भी विरासत में प्राप्त हुआ है, आज यह लिखते हुए समझा मैं। तभी दर्जी, ऑटो, दूध, अखबार, डिब्बे वाला सबसे अपना राब्ता है। मैकेनिक, सफाईकर्मी टीटी से लेकर चौकीदार तक सबके साथ सहजता से जुड़ जाता हूं। 

एक बार शादी ब्याह में जाने हेतु और दूसरी बार हमारे जन्मदिन पर मम्मी जी, ताई जी कपड़ा लाती और उसके हमारे शर्ट, पेंट, हॉफ पेंट बनते। उस दौर में रेडीमेड का चलन नहीं था। 

मनोज कुछ नहीं बोला, डैडी हाउसफुल बताए तो अपन निराश, चलो घर वापस। डैडी जी भी गंभीर सूरत बनाए भीड़ देखते रहे। नून शो छूट रहा था, पास की चढ़ाई वाली बीस फुट की रोड से तीनों गेट खुले थे और क्या भारी भीड़ थी। मम्मी खड़ी रहीं, गहरी सांस ली, चलो फिर मेरा हाथ पकड़ा। मनोज को जैसे इन सबसे कोई मतलब नहीं। वह अपना क्रीम रूल खत्म करके डैडी के पास खड़ा भीड़ को देख खुश हो रहा। इतना समय लगाया और टिकिट हाथ नहीं आया, सब बेकार गया। 

तभी डैडी ने ऊपर की जेब में हाथ डाला और गुलाबी रंग के टिकिट सामने किए। कुछ पल मुझे सूझा नहीं, फिर मम्मी के चेहरे पर खुशी देखी, ऊपर देखा डैडी जी को। समझ आ गया कि हम मिस्टर नटवरलाल फिल्म का आनंद लेने वाले हैं। छोटा भाई अब मुस्कुरा रहा था। इतनी देर के सस्पेंस में जरा भी उसने मम्मी या मुझ बड़े भाई पर एक प्रतिशत भी हिंट तक नहीं दिया। ऐसी वजहों से ही वह आगे डैडी मम्मी का और प्रिय बना। चमचा कहीं का। हम होते तो दूर से ही टिकट मिल गए कि घोषणा कर रहे होते। कुछ गुण अर्जित किए जाते हैं। कभी कभी कम और रिजर्व रहने से चीजों की खूबसूरती और बढ़ जाती है। 

 

*******एक बार उल्टे हालत थे। मैं डैडी के साथ श्री टॉकीज में फिल्म क्रांति के लिए पहले आया उनके साथ। मम्मी जी और छोटे वाला बाद में। तब तक हमारे तीसरा प्यारा सा भाई राजीव जिसे प्यार से जूलु कहते हैं, आ गया था। दरअसल पूरे घर ने सोचा हुआ था कि हमारे प्यारी, गुड़िया सी बहना आएगी और उसका नाम जूली रखेंगे। ताई जी, ईश्वर की कृपा थी उन पर, वह रात दिन मम्मी जी के साथ हॉस्पिटल में रहीं और सुबह पांच बजे शिशु अवतरण हुआ। डैडी जी, साढ़े छह बजे ऑफिस जाते थे तो वह पहले हॉस्पिटल गए। ताई जी देखते ही बोली, "गोपाल, लड़की हुई है। लक्ष्मी आई है। " डैडी जी बाहर से ही मुड़ गए और हॉस्पिटल से लगी सड़क पर साइकिल चलाते हुए ऑफिस निकल गए। 

फिर कुछ देर बाद मम्मी का हालचाल पूछने वापस आए। यह मैं आज भी महसूस करता हूं कि मम्मी डैडी में बहुत अच्छी समझदारी और अपनापन रहा है। कोई ऑर्थोडॉक्स, पुरातन बात डैडी जी में नहीं थी। यह रस्म, वह व्रत कुछ नहीं। जितना हो सके उतना करो। नियम से हर महीने बाहर घुमाना, खिलाना पिलाना पूरे परिवार को। ताऊजी और चाचाजी इतना नहीं कर पाते थे। मम्मी जी भी सत्तर के दशक में एमए बीएड करके सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं। सारे अवस्थी परिवार में, बहुत बड़ा है परिवार हमारा, बाबा, चाचा बाबा आदि मिला लें तो पचास के ऊपर सदस्य। और हमारे अपने बाबा श्री राम किशन जी अवस्थी जिनके छ बच्चे हुए। तीन बेटियां, बड़ी, हमारी बुआ और फिर तीन लड़के ताऊजी, डैडी, चाचा जी। पूरे खानदान में मम्मी अकेली थी जो नौकरी करती थीं। और कोई भी नौकरी नहीं करता था। वह अलग ही दौर था जब स्त्रियों को पर्दे में रखते थे। मम्मी जी, चाची जी भी ताऊजी, जेठ जी लगे के सामने उनके दूसरे लोक में हंगामा मचाने जाने तक उनसे घूंघट करती थीं। 

तो आधुनिकता और परम्परा का शिक्षित परिवार रहा है हमारा।  तो डैडी जी वापस हॉस्पिटल आए, अंदर मैटरनिटी वार्ड में गए मम्मी से मिले, हालचाल पूछा और शिशु को देखा। वह हमारा तीसरा भाई, डॉ.राजीव अवस्थी जो आज डीजीएम के पद पर हैं, उन्हें कुछ ही घंटे हुए थे इस भूमि पर आए। डैडी जी ने गोद में लिया तो पता लगा लक्ष्मी जी नहीं स्वयं नारायण की कृपा भी हुई है। वह बहुत खुश हुए। और स्टाफ को मिठाई के पैसे दिए। फिर तो घर, मोहल्ले में खूब खुशियां और गीत गवाए हमारी दादी जी, श्यामा देवी अवस्थी, ताई जी ने। मुझे याद है पूरे मुहल्ले में कमला नाइन बुलावा देकर आई थीं और अगले ही दिन गीत हुए, ढोलक बजी, सभी को बताशे, मेवे बांटे गए। क्योंकि गोपाल के तीन लड़के ही लड़के हुए। पूरे अवस्थी खानदान में खुशी, उल्लास का माहौल। वंश ही आगे नहीं बढ़ा  बल्कि खूब नाम और शोहरत कमाएंगे। ताऊजी ताई जी बेहद खुश थे। उनके विवाह के बीस बरस बाद मैं हुआ था, घर का पहली संतान फिर अगले वर्ष दूसरा भाई मनोज और चाचाजी के हमारी बहुत सौम्य, भली बहना सरोज। हम तीनों का बचपन, स्कूल, खेलकूद सब एक साथ ही हुआ। ताऊजी ताई जी ने हमें माता पिता से बढ़कर प्यार दिया l

बात वापस क्रांति फिल्म की। अस्सी के दशक की ब्लॉक बस्टर फिल्म थी। मनोज कुमार द्वारा अभिनीत और निर्देशित। दिलीप कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर कौन नहीं था? करीब दो तीन हफ्ते से हाउसफुल चल रही थी। इस शनिवार चला जाए यह तय हुआ। उन दिनों शनिवार को भी दिन भर रेलवे ऑफिस में काम होता था। डैडी पांच बजे आए, चाय पी, कपड़े बदले और साइकिल पर रवाना । इस बार मेरी बारी थी साथ जाने की। छोटा वाला हमेशा कूदता था कि मैं ही मैं जाऊंगा हर जगह। वह बचपन से ही अपने को डेढ़ साल छोटा मानने को तैयार नहीं, आज तक यही हाल है। उस वक्त हम बड़े होने के खास सभी के लाड़ प्यार से समझे और छोटे को छोटा ही मानने वाले। पर मम्मी जी बहुत संतुलित और सभी का ख्याल रखने वाली हैं, तो वह बताती " नहीं, संदीप जाएगा इस बार तुम नहीं। " तो वह पीछे रहते। मम्मी चार बजे से रात्रि का भोजन बना रही होती। यह हर फिल्म में जाने की अनिवार्य शर्त थी। इतनी तनख्वाएं नहीं थी कि बाहर खाने को जाए। वैसे किसी में भी हमारे खानदान में बाहर खाने की आदत नहीं थी। खाना जो भी खाना घर का ही खाना। तो मम्मी जी एक डेढ़ घंटे में खाना बनाकर, तैयार होकर छोटे भाई मनोज और दो वर्षीय राजीव या कहूं जुलु को लेकर आती तांगे या टेंपो से। अपन तो आराम से डैडी जी के साथ साइकिल पर आगे डंडे पर बैठकर रवाना श्री टॉकीज, जो मैजिस्टिक के ठीक पीछे, दूसरे बाजार में स्थित है। डैडी जी साइकिल बहुत तेज चलाते और हम पांच तीस पर हॉल पर। क्या भीड़, दूर से ही दिख रही। अंदर जाली और उसके पीछे टिकिट विंडो। डैडी ने साइकिल एक तरफ टिकाई मेरा हाथ पकड़ा और जाली के पीछे लगी लाइन में लग गए। टिकटों की आखिरी सीरीज थी शायद । क्योंकि जैसे ही हमारा नंबर आया, चार टिकिट मिले उसके बाद विंडो बंद। बाहर हाउसफुल का बोर्ड लग गया। 

क्या दौर था, क्या समा था, आज भी आंखों के आगे ताजा हो उठता है। कुछ भी तो धुंधला या मिटा नहीं। सब कुछ मानो आंखों के सामने हो रहा। गुलाबी रंग के कागज पर छपे टिकिट लेकर डैडी का हाथ पकड़े मैं श्री टॉकीज की चार सीढियां उतर, हाउसफुल के बोर्ड को देखता, गर्व से बाहर आ रहा हूं। क्योंकि अब हमारे पास टिकट हैं। चारदीवारी थी हॉल के चारों ओर फिर उसके बाहर, बाई तरह और सामने कुछ चाय, पान सिगरेट की दुकानें । डैडी ने मंजिल फतह करने की खुशी में दुकान से अपनी पसंद की सिगरेट सुलगाई, संतुष्टि पूर्ण ढंग से कश लिया। मैं भीड़ को और रास्ते को देख रहा था। 

श्री टॉकीज मैजिस्टिक के पास से चढ़ाई चढ़कर सामने ही आता है। यहां हमने लहू के दो रंग, महेश भट्ट, जनता हवलदार, अर्पण कई फिल्में देखीं। क्रांति उस वक्त की सुपरहिट फिल्म थी तो यहां बेहद भीड़ थी। तभी दूर से मम्मी, राजीव, तीन वर्ष को हाथ से थामे और पीछे पीछे शांत, निर्विकार मनोज को लेकर आईं। हाउसफुल पर किसी को कोई चिंता नहीं। मैने भी गंभीर मुख बना रखा था। डैडी ने आते ही कहा, जल्दी करो फिल्म शुरू होने वाली है। हम तुरंत अंदर हॉल की तरफ। 

अच्छी ऐतिहासिक फिल्म थी। हमें बहुत अच्छी लगी। तब समझ नहीं थी कि दिलीप साहब कितनी बड़ी तोप हैं। फिल्म के हीरो, निर्देशक, निर्माता मनोज कुमार क्या हस्ती हैं? बस फिल्म अच्छी लगी और मन खुश हो गया। शनिवार था तो रात्रि को घर जाकर सोना था। हमें रास्ते में ही नींद के झोंके आने लगते। मम्मी जी और मैं रात को टेंपो या तांगे में आते। नहीं मिलता तो पैदल ही साइकिल पर बैठाकर हमारे डैडी मम्मी चलते। पर पूरा परिवार एक साथ रहता। खुशी, हर्ष और साथ के सुख की कोई कीमत नहीं हो सकती दुनिया में। 

 

सांस्कृतिक रुचि वाला परिवार और सिनेमा

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अब दो हजार पच्चीस में इन छह में से पांच सिनेमा हॉल खामोशी से शॉपिंग मॉल, होटल बन चुके हैं। मृदंग अभी भी अच्छी और नई फिल्मों के साथ चल रहा है। 

यह दोनो अलग रास्ते पर थे। रेलवे कॉलोनी, लाल फाटक पार करके बिसेट पार करके मुड़कर सामने अजंता और थोड़ा आगे जाकर एक तिराहे से बाईं तरफ मार्टिंडल ब्रिज, जो शहर को एकमात्र फ्लाईओवर का लुक देता था, अंग्रेजों के समय का बना हुआ, तो थोड़ा मजबूत और पक्का, आधुनिक। वहां से दाईं तरफ मुड़ते ही थोड़ा नीचे मृदंग सिनेमा। मृदंग में नीलकमल, हमराज, जिसमें राजकुमार साहब के सफेद जूते ही दिखते थे और हम कोतुहलनुमा डर से सोचते यह कोई दुष्ट व्यक्ति होगा। पर आखिर में वही सारी हमदर्दी ले जाते। कुली, नास्तिक, देशप्रेमी, जिसमें लोहे के तारों से अमिताभ को बंधा दिखाने का दृश्य पोस्टर पर अंकित था। फिर नए जमाने में हॉल अपग्रेड हुआ तो डॉल्बी डिजिटल तकनीक आई। तब तक शहर में माया मंदिर, सिने वर्ल्ड दो आधुनिक सिनेमा बन चुके थे। उन्हीं दिनों थ्री इडियट्स, एक था टाइगर भी देखीं सपरिवार। ऐसे ही अजंता में नसीब, कालिया, सत्ते पे सत्ता, लावारिस, ऐतबार, जुर्म, इंसाफ कई फिल्मों की याद है। दिक्कत यह होती थी कि यहां से रामगंज नई बस्ती हमारे घर की रोड तक कोई सीधा परिवहन का साधन नहीं था। मुझे याद है पहलेपहल हम थोड़ा पैदल चलकर मार्टिंडल ब्रिज की सीढ़ियों से नर्सिंगहोम के पास उतरते। वहां टेंपो, तांगे का इंतजार करते, जो हमेशा भरे हुए आते। क्योंकि स्टेशन से आ रहे होते, उसी में जैसे तैसे घुसकर मम्मी और मैं तो कभी छोटा भाई मनोज आते। डैडी के साथ हम एक साइकिल पर। यह अस्सी के दशक का वह डोरी था जब टू व्हीलर क्षेत्र में लेम्बी और बजाज स्कूटर ही थे। लूना नहीं आई थी, विक्की या स्वेगा एक मोपेड थी। साइकिल ही सब तरफ दिखती थी। हम दो हमारे दो का आदर्श, सुशिक्षित, सांस्कृतिक चेतना वाला परिवार हर माह यह कवायत करता था। सरकारी तनख्वाएं बहुत सीमित थीं। मुझे याद है एच एम टी फैक्ट्री लगी लगी ही थी। वहां क्या वर्कर क्या अफसर सबका तनख्वाएं सामान्य से दुगनी थी। वह भारत सरकार का उपक्रम थी। वह दौर था जब लिहाज, योग्यता और ईमानदारी की कद्र थी। हमारी आयु नौ, दस वर्ष थी पर हमने देखा कई युवा कॉलोनी के hmt में नौकरी पा गए थे। हालांकि समय के साथ साथ वह पांच हजार वर्कर्स, अफसर की फैक्ट्री कम होती गई और आज मात्र कुछ सौ लोग ही हैं। 

अजमेर शहर की एक खास बात है कि यह संतोषी, धैर्यवानऔर इंतजार करते लोगों का शहर है। यह खुद कभी पहल या मांग नहीं करता बल्कि लंबा इंतजार करता रहता है कि कोई हमारे कष्ट, मन की बात और जरूरतों को बिना कहे समझेगा और हमें राहत देगा। स्वाभाविक है भगवान जी तो इस युग में आएंगे नहीं, और शहर के नागरिक अपनी बात रखेंगे नहीं। फिर क्या होगा शहर और उसके लोगों का यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है?वही हुआ भी। जन प्रतिनिधि भी यहीं इसी शहर के तो उसी परम्परा को आधी सदी से निभाते आ रहे, कुछ नहीं बोलेंगे। 

आज भी मेरे शहर में दो दिन में पौन घंटे के लिए ही पानी आता है। पानी की यह समस्या इस खूबसूरत शहर में कभी हल नहीं हुई। जबकि कई मंत्री और बड़े कद के सांसद इस शहर ने दिए हैं। याद नहीं पड़ता कभी उन्होंने विधानसभा और लोकसभा में अजमेर को लेकर कोई प्रश्न या चिंता व्यक्त की हो। रोजगार का कोई नया साधन फैक्ट्री, कारखाने, टेक्नोलॉजी पार्क है न होगा। रेलवे कारखाना और लोको दफ्तर, जहां आधुनिकरण के नाम पर तेजी से भर्तियों को कम किया जा रहा है। यूनियन ऐसे शहर की कैसी होगी? हर विभाग रेलवे, शिक्षा, पी डब्लू डी सभी की है पर वह दिखावा करती हैं और यूनियन के लोगों को थोड़ा सा लाभ मिल जाए तो वह चुप्पी लगा लेते हैं। कोई कुछ नहीं बोलता तो शहर चल कैसे रहा है? धार्मिक नगरी के रूप में पहचान है पर उसमें भी कोई प्रगति नहीं। महाकाल मंदिर उज्जैन, शिरडी, नासिक हो या हरिद्वार, गया सभी जगह सूरत बदली, नए रोजगार, नए ढंग विकसित हुए पर यह शहर उनसे उतना ही दूर है जितना मंगल ग्रह। इस पर आगे विस्तार से लिखूंगा। 

वापस सांस्कृतिक और परिवार पर चलते हैं। 

दादी हमारी उस समय अंग्रेजों के समय की जागरूक, सभी रीति रिवाज मानने और समझने वाली महिला थीं। बहुत दृढ़ इरादों और हिम्मती। तभी बाबा के गुजर जाने पर पांच छोटे बच्चों के साथ किस तरह उन्होंने परिवार को संभाला यह इतिहास है। इसे आगे जरूर लिखूंगा जो मुझे ताई जी और ताऊजी बड़े पुत्र उनके, कई बार बताया। दादी जी जब जॉन्सगंज से यहां नई बस्ती आई तभी से पूरे मोहल्ले के लोग उनका सम्मान और इज्जत करते हैं। तीनो भाई रेलवे में अच्छे ओहदों पर थे। मुहल्ले के कई लड़कों को रेलवे में नौकरी पाने में मदद की। अफसरों से सिफारिशें की। खुशी होती है जब वह सभी तो नहीं पर कुछ जरूर इनकी मदद को मानते और आभारी होते हैं। अवस्थी ब्रदर्स के नाम से मशहूर थे तीनों रेलवे में भी और बाहर भी। 

ताऊजी अच्छे डीलडोल के थे बचपन में तो इधर उधर छोटा मोटा काम, मजदूरी किए फिर चौदह की आयु में सोलह वर्ष लिखाकर, हमारे बाबा के सबसे बड़े भाई ने रेलवे में खलासी पर लगवा दिया। वहीं से धीरे धीरे उन्होंने घर परिवार को संभाला ही नहीं डैडी जी, चाचाजी और आयु बारह और छह वर्ष को खूब मन चाहा पढ़ाया। ताऊजी भी खुद अपने तेज दिमाग और मजबूत इच्छा शक्ति से कई डिपार्टमेंटल परीक्षाएं पास करके रेलवे में ऊंचे ओहदे तक पहुंचे। डैडी जी भी तीन चार बरस के बाद ही पढ़ाई के साथ अन्य कार्य करके घर के खर्चे में मदद करते। कान्यकुब्ज ब्राह्मण अवस्थी परिवार, जो मल्लावां गांव, जिला हरदोई से खेती बाड़ी खत्म होने के कारण उन्नीस सौ पच्चीस से राजस्थान अजमेर का हो गया है, इस लंबे संघर्ष से गुजरा। आज लड़के, उनके बच्चे डीजीएम, प्रोफेसर, इंजीनियर और साहित्यकार बन परिवार और खानदान का नाम पूरी दुनिया में फैला रहे हैं। इसमें हमारा कुछ भी नहीं है बल्कि उन्हीं पूर्वजों और ताऊजी, ताई जी, डैडी जी, मम्मी जी की मेहनत, लगन और दिए संस्कार हैं। 

परिवार ने कभी भी किसी को न सताया, न किसी का हक दबाया बल्कि हर एक की यथा संभव मदद की। कुछ शरारती तत्वों ने जरूर परेशान किया पर उनकी करनी उन्हें ही भुगतनी की सोच से भरा पूरा परिवार आगे बढ़ता रहा। 

तो अजंता सिनेमा की राह चलते है वापस। मम्मी जी ने सदा की तरह शाम चार बजे से रात्रि भोजन तैयार किया। डैडी जी घर शनिवार को भी पांच बजे आते। आए चाय पी, मनोज तैयार झट से। मैं पत्रिकाओं को उलट पलट रहा। बाद में जाऊंगा। मम्मी काम खत्म करके मुझे शर्ट और हॉफ पेंट निकाली की यह पहनो। मुझे कहने में गर्व होता है कि अग्निहोत्री परिवार कि मम्मी जी हमारी बहुत शालीन, उच्च शिक्षित, धैर्यवान और व्यहारकुशल हैं। ड्रेससेंस हमारे परिवार में मम्मी जी ही लाई। कपड़े चाहे पुराने ही हो पर उनका रखरखाव और सफाई जरूर समय पर हो, कई बार समय के पूर्व भी कर देती थी। मैं नई पुरानी सब किताबें, पत्रिकाएं ध्यान से पढ़ता और विज्ञान का विद्यार्थी रहा। उनसे कहता कि कपड़ों को बार बार धोने से उनकी ग्रेस, चमक चली जाती है। मेरे कपड़े महीने में एक बार ही धोया करे, बचपन की बात है। अब तो दो महीने में एक बार कहता हूं पर कोई मानता नहीं। कई बार मशीन चलाकर खुद ही धो देता हूं। क्योंकि वह मशीन के बाद भी कपड़े हाथ से रगड़ती हैं। चार पांच सेट कपड़ों के हम पहनते हैं तो हर एक कैसे गंदा हो सकता है? फिर उनके रंग के मुताबिक वह जल्दी या देर से गंदे होते हैं। पर नहीं! वह मेरे कपड़े खासकर बचपन में देखती, यही कहती कितना गंदा हो गया है, लाओ धो देती हूं। मैं क्रिकेट खेलने रोज शाम चार बजे से सात तक ग्राउंड पर जाता। आकर बचा हुआ होमवर्क करता और दस बजे तक सब सो जाते। 

तो मम्मी और मैं मार्टिंडल ब्रिज उतरते वहां से सीढ़ियां चढ़कर करीब दो सौ मीटर चलकर अजंता सिनेमा पहुंचते। यह सिनेमा बहुत डीसेंट और शांतिप्रिय माना जाता lक्योंकि दो मुख्य सड़कों से जुड़ा और एकदम कॉर्नर में। आसपास कोई बाजार दूर दूर तक नहीं। सिर्फ अजंता जो था दिलीप जी के पिताजी का। भीड़ ही भीड़ दिखती दूर से ही। सामने सड़क पर तांगे, ऑटो, टेंपो स्टेशन और आदर्शनगर हेतु। भीड़ के पास पहुंचते, डैडी को ढूंढते की वह हमें देखते हुए भीड़ से प्रकट हो जाते। पीछे पीछे प्रिय गोल मटोल मनोज कुमार अवस्थी। आज डैडी ने भी मना कर दिया कि आज टिकिट नहीं मिल सके पहले ही फुल हो गए। ब्लैक चल रही थी दुगनी कीमत पर टिकिट। हम साधारण लोग कहां से ब्लैक में लेते? मैं हसरत भरी निगाह से भीड़ को देखने लगा जो लाइन लगाकर अंदर जा रही थी। कुछ देर मम्मी भी देखती रहीं फिर निराश होकर बोली, "चलो अब वापस। बजरंगगढ़ मंदिर बच्चों को घुमाकर घर वापस। " डैडी भीड़ का जायजा लेते रहे। मनोज कभी हमें और कभी सिर ऊंचा कर डैडी जी को देख रहा था। 

हम मुड़े और चलने लगे अजंता के रोड से बाई तरफ सीढ़ियां थी जो ऊपर रोड पर छोड़ती। यह दो तीन हॉल ऐसे थे जिनमें सिनेमा हॉल के हर नियम का पालन होता था। सिनेमा कैंपस में ही पार्किंग, कैंटीन आदि की सुविधा थी। इसके उलट प्लाजा, प्रभात, न्यू मैजिस्टिक बीच बाजार में थे जिनमें टिकिट खिड़की रोड पर ही खुलती थी। शो छूटता तो रास्ता जाम होना आम बात थी। पर उसमें भी अपना मजा था, सुख था फिल्म देखने का। गाड़ियां कम थीं, साइकिलें अधिक थी। सिनेमा देखते वक्त हम बच्चे देखते की अच्छे गानों पर सीटिया पड़ रहीं और लोग सिक्कों की बौछार पर्दे पर कर रहे। 

 

यह दौर ए जुनून था

---------------------------अजंता हॉल पर वापसी करते समय हम इंतजार करते रहे की डैडी जी कहेंगे कि "यह रहे टिकिट" पर ऐसा हुआ नहीं। बाहर आए तो डैडी जी मम्मी से कुछ कहकर साइकिल पर मनोज को लेकर बाई तरफ मार्टिंडल ब्रिज से रामगंज जाने की जगह दाई तरफ मुड़कर चले गए। मैं कुछ समझा नहीं। मम्मी का हाथ पकड़े मैं भी चल पड़ा उसी दिशा में। 

कुछ देर में ही दिख गया हमारा गंतव्य जहां चल रही थी अमिताभ बच्चन की देशप्रेमी भीड़ कम थी। डैडी जी चार टिकिट ले चुके थे। यह हाल था कि शहर के छ सिनेमाघरों में चार में अमिताभ बच्चन विराजे हुए थे । अजंता में हाउसफुल लावारिस, प्रभात में दो और दो पांच और प्लाजा में डॉन रिपीट में। 

तो यह फिल्म देशप्रेमी देखी गई । क्योंकि घर वापस जाना तो बेकार। जल्दी खाना बनाना, सुबह से हम बच्चों की उत्सुकता, डैडी जी का दफ्तर से आते ही बिना आराम किए हॉल पर चले जाना सब पर पानी फिर जाता। तो दूसरी फिल्म का विकल्प सही था। अमिताभ हैं तो फिल्म अच्छी ही होगी। 

उस वक्त आज की तरह दूर शहर से बाहर मल्टीप्लेक्स नहीं थे न ही साधन। तो अक्सर नजदीकी सिनेमा हॉल में यही होता एक सुपर हिट हाउसफुल फिल्म पास की दूसरी फिल्म को भी चला ले जाती। यहां टिकिट नहीं मिलता तो व्यक्ति पास के दूसरे हॉल में चला जाता। 

सिनेमा घर, परिवार के सदस्य की तरह था। टीवी पर मात्र दूरदर्शन था जो हफ्ते में एक बार बीबी नातियों वाली धारावाहिक दिखाता था और शनिवार रविवार को सौ साल पुरानी लगती ब्लेक एंड वाइट फिल्म। क्योंकि टीवी ही रंगीन नहीं था घरों में। 

असली परिवार की शक्ति और बच्चों के प्रति लगाव इन दोनों हॉल से वह फिल्म देखने के बाद प्रारंभ होता। हॉल से निकलने के बाद ऑटो वाले कम होते और पैसे अधिक मांगते। तो वह अक्सर हम नहीं करते। फिर साइकिल पर डैडी मुझे आगे और छोटे को पीछे बिठाकर पैदल चलते और मम्मी भी। अजंता के थोड़ा आगे उलटे हाथ पर जाकर सड़क के पार रेलवे बिसिट होते हुए लाल फाटक पार करते। वहां से बाई तरफ मुड़कर रेलवे कॉलोनी पार करते हुए निकलते रेलवे हॉस्पिटल के आगे की चढ़ाई पर। वहां से पैदल चलते हमारा कारवां अगली ढलान उतरता रामगंज फिर नई बस्ती घर पर करीब पौने घंटे में पहुंचता। हम ऊंघते जागते मजे से बैठे रहते। कोई तकलीफ हमें नहीं होने दी डैडी जी और मम्मी जी ने। घर पर आते तो दादी जी आदि सो रहे होते फिर यही सिलसिला नए घर में भी चला तो ताई जी ताऊजी जगते होते की परिवार रात को बाहर है, घर आ जाए तो सोया जाए। 

एक दो साल यह सिलसिला रहा फिर ताऊजी ने ताई जी को भी हमारे साथ फिल्म देखने भेजना प्रारंभ कर दिया। क्योंकि ताई जी ने उनसे कहा था कि, "एजी, मुझे भी सिनेमा दिखाकर लाओ। " मैं पास ही खेल रहा था सड़क पर। देखा ताऊजी ने गुस्से से ताई जी की तरफ। उन्हें बिल्कुल भी फिल्म, सिनेमा में रुचि नहीं थी। खालिस देसी, मजबूत और राजनीतिक आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले थे। जनसंघ की स्थापना से ही उसके सदस्य थे। जब रेल हड़ताल हुई थी जॉर्ज फर्नांडिस के आव्हान पर तब ताऊजी सबसे आगे थे अपने बाइस इलाके, रेलवे में। धरना और प्रदर्शन में। वह सोचते और फिर जो फैसला करते उस पर अडिग रहते चाहे कितनी ही मुश्किलें आएं। हड़ताल तोड़ने के लिए कई हथकंडे इंदिरा सरकार ने आजमाए। यह लालच दिया कि आप हड़ताली रेलवे कर्मचारियों का साथ छोड़ काम पर आएं तो आपके लड़के को नौकरी दे दी जाएगी रेलवे में। ताऊजी ने बताया था कि नई बस्ती में, यह चार पांच गलियों का समूह है, में कुछ लोगों ने गद्दारी की थी और सरकार के आगे झुक गए और अपने बेटे की नौकरी लगा दी। उनके नाम भी बताए मुझे। पर ताऊजी दृढ़ रहे और नौकरी से निकालने की धमकी के बाद भी नहीं झुके। आगे जनसंघ से बनी बीजेपी के वह आजीवन सक्रिय कार्यकर्ता रहे। बारह लोकसभा और विधानसभा, नगर निकाय चुनावों में सक्रिय रहे। ऐसे रहे कि नब्बे के दशक में लालकृष्ण आडवाणी और वाजपई जी के समय हुए चुनावों में फर्जी वोटिंग कर रहे कांग्रेसियों को अकेले ही रोकने लगे। अन्य कार्यकर्ता दुबक गए और अवस्थी बाउजी और उनके एक साथी कलेक्टर की गाड़ी के सामने लेट गए कि यह पोलिंग बूथ पर फर्जी वोटिंग हुई है उन पर कार्यवाही हो। केंद्र में कांग्रेस, राज्य में हरिदेव जोशी, नगर विधायक दोनो कांग्रेसी मोटवानी और ललित भाटी । गुंडागर्दी कौन नहीं जानता कांग्रेस की? पर ताऊजी निर्भीक होकर पार्टी के एक एक वोट को ईमानदारी से डलवाते थे। कोई ऐब नहीं। सिगरेट तो दूर प्याज तक नहीं खाते। हमेशा घर की ही सब्जी दाल रोटी। अच्छे खासे डीलडोल के छ फुट ऊंचे, रौबदार, बुलंद आवाज के ताऊजी। कहने में कोई संकोच नहीं आज के ढुलमुल, अवसरवादी कार्यकर्ता जैसे नहीं थे वह। बल्कि ईमानदार और निस्वार्थ भाव से पार्टी के सेवक थे। पार्टी की निगाह में आए। पार्टी ने, मंत्री ने बुलवाया, परिचय लिया और शाबाशी दी। आगे जब हम लोगों पढ़ाई खत्म कर नौकरी में आए, तो पोस्टिंग और तबादले घर के पास करवाकर अकेले ताऊजी ही लाते थे। भैरों सिंह शेखावत, गुलाबचंद कटारिया, ललित किशोर चतुर्वेदी, घनश्याम तिवाड़ी से लेकर झामनानी, श्रीकृष्ण सोनगरा, अनीता बघेल, देवनानी तक उनका गहन संपर्क रहा। सबसे बुजुर्ग और भरोसेमंद कार्यकर्ता रहे। मुझे याद पड़ता है तीन बार उन्हें वार्ड पार्षद का टिकिट ऑफर हुआ। जब मीटिंग होती बीजेपी की उन्हें घर से लेने के लिए कार लेकर कार्यकर्ता आते। कभी उनके सहयोगी गर्ग, कभी जैन तो कभी उनकी बहन सम विद्या कमलाकर जोशी पर दो बार तो वह गए ही नहीं। लेकिन उनका नाम तय हुआ। फिर वह गए .....प्रभारी मंत्री पहले सोनगरा जी और आगे के वर्षों में अनीता भदेल से मिलते...... टिकिट के लिए खुशी जताने? नहीं, बिल्कुल नहीं ....बल्कि उन्हें यह कहने की धन्यवाद मुझे टिकिट नहीं चाहिए। आप किसी अन्य को दे दें। अन्य में लोलुप निगाहें लिए पार्टी से लाभ लेकर अपना घर परिवार का भला करने वाले कई लोग होते। जिनका विरोध पार्टी के ही अन्य कार्यकर्ता करते। बाद में तो एक जाने माने डॉक्टर साहब भी पार्षद बनने का लोभ नहीं छोड़ पाए। पर बाबूजी ने कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। राष्ट्र और जनता की निस्वार्थ सेवा को सदैव नब्बे वर्ष की आयु में जाने तक महत्ता दी। उसी का सुफल है कि आज भी शहर के दोनों विधायक अनीता भदेल और वासुदेव देवनानी ही नहीं बल्कि गुलाबचंद कटारिया, अरुण चतुर्वेदी, तिवाड़ी जी उनका नाम और व्यवहार जानते हैं। जब भी मैं इनसे मिलता हूं तो श्री यह राम प्रसाद जी अवस्थी, वरिष्ठ कार्यकर्ता का जिक्र जरूर करते हैं। 

तो ऐसे परिवार की परम्परा में ताई जी को उन्होंने हमारे साथ आगे सिनेमा या घूमने के लिए स्वीकृत किया। वह एकदम भदेस बिल्कुल ताऊजी की सच्ची संगिनी। कोई लाग लपेट, फिल्टर नहीं। एक बार मम्मी और हमारे साथ अजंता सिनेमा हॉल की सीढ़ियों पर उतरते हुए भीड़ में एक लड़की उन्हें धक्का देकर आगे निकली तो ताई जी ने घूरा और मुस्कराते हुए कहा " जरा जवानी के जोश को काबू करो। "

तो उनके टीम में जुड़ने से अब हम दिन में नून शो भी चले जाते। ऑटो करने लगे आगे हम जाने के लिए। 

यह खूबसूरत लम्हे आज भी वैसे ही हैं मानो कल की ही बात है। लग रहा है कि मुझे मेरे डैडी, ताई जी और ताऊजी ऊपर से मुस्कराते हुए देख रहे हैं। मुझे आशीर्वाद दे रहे हो और मैं भी कह रहा हूं, " कभी भी आपके बताए मार्ग से नहीं हटूंगा। न ही मेरी यादों से आप जाओगे। कहते हैं संतान की आंखों और दिल में हमारे बड़े बुजुर्ग रहते हैं। मेरी आँखें और दिल हमेशा आपके स्वागत और आगमन लिए खुला है। बहुत कुछ सीखा हूं और बहुत कुछ सीखना बाकी रहा। 

यह थी फिल्म के बहाने शहर, घर और हमारी यात्रा। आशा है आपको कुछ रंग अपने अपने शहर और परिवार के भी मिले होंगे। 

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(डॉ.संदीप अवस्थी कथाकार, आलोचक और फिल्म लेखक हैं। देश विदेश से पुरस्कृत। जल्द प्रकाशित होने वाली किताब से यह अंश। 

संपर्क 7737407061, 8279272900)