नैनीताल कल और आज (२०२५):
नैनीताल चर्चा में है लेकिन घृणित कृत्य के लिए। मैं उसे जानता हूँ शिक्षा के लिए, शिखरों के लिए, प्यार के लिए, शक्ति पीठ नैनादेवी के लिए। कहा जाता है सती की आँख गिरी थी यहाँ। उसकी सदाशयता के लिए। बसंत और पतझड़ के लिए। बर्फ की मोटी चादर के लिए। पैदल मार्गों के लिए। देवदार,चिनार आदि वृक्षों के लिए। खिलते-झड़ते फूलों के लिए। सैलानियों और होटलों के लिए। ठंडी हवा के झोंकों के लिए।
फिल्मों की शूटिंग के लिए(पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है, सुरमई उजाला है चम्पई अंधेरा है - साहिर लुधियान फिल्म-शगुन)। नावों और नाविकों के लिए। जब नाव में बैठने जाता हूँ तो वह कुछ डगमगाती है,जीवन की तरह। उसका नाविक/ नाव वाला एक गरीब जीवन जीने वाला मुस्कराता आदमी होता है। उसके तीन बच्चे हैं। बोलता है बहुत जगह गया काम की तलाश में, अन्त में नैनी झील में नाव खेने लगा। फिर कहता है," मैं अच्छी फोटो खींच सकता हूँ। लाइये मोबाइल मुझे दीजिये।" मैं उसकी भी दो फोटो ले लेता हूँ। मुझे कौसानी की उस महिला के शब्द याद आते हैं जिसने कहा था," पहाड़क जीवन यसै हय पै।( पहाड़ का जीवन ऐसा ही है)" उसके इस वाक्य में मुझे बौद्ध दर्शन का आभास होता है।उसके सिर पर घास की गठरी थी। शाम ठल रही थी। मुझे याद आया फिल्म "मधुमती" का किस्सा। जब वैजन्तीमाला गठरी सिर पर रखकर अभिनय नहीं कर पा रही थी तब स्थानीय महिला ने वैजन्तीमाला के डुप्लीकेट रूप में अभिनय किया था,गठरी सिर पर रखकर। जो तब वहाँ था अब नहीं है,लेकिन क्षणभर बैठने में शान्ति का अहसास होता है। आशा-आकाक्षाओं के पीछे चलना तब अच्छा लगता था। मुझे याद है वह पत्र, उस पत्र में जीवन समाया था-
"जब तुम्हें मेरी आँखों का पहला पत्र मिला था, तो तुमने चुपचाप पढ़कर उसे रख दिया था। उस पत्र को सूरज का प्रकाश ले जा रहा था,अपने सात रंगों में सजा कर। इन्द्रधनुषी रंगों में डगमगाता हुआ, वह पत्र तुम्हारी आँखों में बैठ गया था।तुमने उसके कुछ पन्ने पलटे। अस्पष्ट भाषा में लिखा हुआ, तुमने पढ़ने की कोशिश की। हर दिन उस पत्र पर कुछ नया लिखा रहता था।उसकी भाषा अद्भुत होती थी।सांसारिक बातों से अलग। उसमें न मेरा परिचय था, न मेरा व्यक्तित्व।केवल आत्म तत्व था।आँखों की वह कहानी बढ़ती थी, फिर सिकुड़ जाती थी।नवजात शिशु की तरह एक चेतना घूमती रहती थी और दूसरी चेतना में मिल जाना चाहती थी।समय की खिड़की जब भी खुलती,गुनगुनी धूप का आना-जाना आरंभ हो जाता था। दृष्टि कब उठ जाती पता ही नहीं चलता था। और कब झुकेगी उसका भी अनुमान नहीं था। वह बिना पते का पत्र जन्म के समान था।हिमालय के शिखरों को निहारने,झील को देखने,पहाड़ों से मिलने,आकाश के अवलोकन से अलग था यह अहसास। पत्र अव्यक्त में व्यक्त था। पत्र कितना लम्बा होगा इसका कोई ज्ञान नहीं था। क्षितिज पार तक की आकांक्षा लिए वह इन्द्रधनुषी होता जा रहा था। तभी तुमने आँखें बन्द की और एक दैवीय लोक की संरचना होने लगी। इस लोक में प्रश्न नहीं थे केवल असीमता थी। कुछ गिनने को नहीं था,सब पूर्ण था। मैंने तुमसे पूछा," इस पूर्णता में क्या है?" तुमने कहा था," चरैवेति, चरैवेति" का आदि वाक्य इसमें है। जो पगडण्डियां हमने बनायी वे भी हैं,जो टूट गयीं वे भी हैं।जो बनता जा रहा है वह भी है।" तुमने मेरे हाथ में कुछ रखा और पूर्णता में लीन हो गयी। इसी पूर्णता में आँख टिका कर मैं आज भी कहता हूँ-
"चलो टहल लें पुराने दिनों में,
जहाँ प्यार के सपने बुने थे।"
आज (मई २०२५) के समाचार से मन में आता है-
"इसी कुरुपता और इसी सुन्दरता के बीच
हमें प्यार को रखना है,
इसी हिंसा और इसी अहिंसा के बीच
हमें आगे बढ़ना है,
इसी सत्य और इसी झूठ के बीच
हमें चलना है।
जैसे आधे अँधेरे और आधे उजाले के बीच
धरती को घूमना है।"
इसी बीच उसने पूछा-
क्या लाये कुमाऊँ की पहाड़ियों से इस बार?
मैंने कहा," याद लाया हूँ-
सुरबिराई खेलती ठंड की,
रजाई की मोटाई की,
खिड़की-दरवाजों से घुसती ठंड की,
विद्यालय जाती लड़कियों की
जो संख्या में लड़कों से ज्यादा थीं,
बेड़ू, हिसालू, किल्लमोड़ ,काफलों को देख आया।
मन की शान्ति लाया हूँ
जो चीड़ ,बाँज और देवदार के वृक्षों में घुसी थी
जैसे बिल में चूहा रहता है।
लाया हूँ -
"प्यार की मधुरता,
सुकुमारता पहाड़ों की,
घुमाव सड़कों का,
आस्था मंदिरों की,
ठंड से ऐंठे पैरों के तलवे,
चाय की चुस्कियां।
हाँ, मैं उस ठंड को साथ लाया हूँ,
जो हिमालय में बनी और बिगड़ी।
गरीबी लाया हूँ,पिघलती हुयी।"
वर्तमान धसान के बाद पहाड़ फिर निर्मल, सुन्दर, सहृदय हो जायेंगे। हरी घास उग आयेगी उन पर और टिमटिमाता प्रकाश आकर्षक हो जायेगा।
**महेश रौतेला