The Cotton Ghost in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | कपास का भूत

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कपास का भूत

बस बुरी तरह से भरी हुई थी। ऊपर, पीछे, दरवाजों पर लोग लटके हुए थे। अंदर तीन की सीट पर पांच- पांच ठुंसे हुए। ढेरों खड़े हुए।
कुछ दूरी पर खड़े हुए जब मैंने इस बस को छोड़ देने का मन बना लिया तो मुझे हंसी आ गई।अकेले खड़े- खड़े हंसने के पीछे वो दृश्य था जो मैंने अभी कुछ देर पहले ही देखा था।
टिकिट बूथ पर एक छोटे से लड़के ने भीतर बैठे आदमी से पूछा था- अंकल, तानसेन नगर की बस कहां से मिलेगी?
आदमी ने बड़ी ज़िम्मेदारी से कहा- अभी कोई बस स्टेंड के भीतर नहीं आ रही है, तुम बाहर सड़क से ही पकड़ लो।
लड़के ने सड़क की ओर मायूसी से देखा। वहां जो भी बस आती थी वह बुरी तरह आदमियों से भरी हुई होती। ऊपर - नीचे हर तरफ़ जानवरों की तरह लोग ठुंसे हुए होते। बस, ठीक से रुकती भी नहीं, कुछ धीमी होती और उसके साथ बीस- पच्चीस लोग और दौड़ते। फ़िर बिना कोई सवारी लिए बस जैसे जान छुड़ा कर भाग जाती।
लड़का कुछ देर कौतूहल से देखता रहा, फ़िर बूथ में बैठे आदमी से बोला- अंकल, प्लीज़ एक पकड़ के बता दो, कैसे पकड़नी है?आसपास के लोग हंस पड़े और बस पकड़ने की सलाह देने वाला बूथकर्मी झेंप कर रह गया।
लेकिन थोड़ी ही देर में माइक से घोषणा हुई कि ये आख़िरी बस है। इसके बाद कर्फ्यू लगने वाला है, फ़िर कोई गाड़ी नहीं आयेगी और किसी को यहां खड़े भी रहने नहीं दिया जाएगा।घोषणा के साथ ही सड़क पर पुलिस वालों के जूतों की खट- खट सुनाई देने लगी जो कर्फ़्यू की ड्यूटी संभालने की तैयारी करने लगे थे।
घबरा कर मैं उस बस की पीछे वाली सीढ़ी पर एक पांव रख कर लटक गया। लगता था कि हल्के से झटके से ही कभी भी हाथ छूट सकता था और फ़िर चलती बस से नीचे गिरने से कोई नहीं बचा सकता था।लेकिन बस रवाना होते ही मैंने थोड़ी राहत महसूस की क्योंकि मेरे पीछे से एक और लड़के ने बस की नंबर प्लेट पर पैर जमा कर सीढ़ी को पकड़ लिया था। अब जब तक वो न गिरे, मैं सुरक्षित था।
बस चल पड़ी।लेकिन जैसे ही मेरी नज़र पीछे खड़े उस लड़के पर गई मैं विचलित हो उठा क्योंकि ये सोलह- सत्रह साल का वही किशोर था जो अभी बूथ पर बस पकड़ने का तरीक़ा पूछ रहा था।ओह, बच्चा गिर न जाए, ऐसा सोचते हुए मैंने लड़के को थोड़ी सी जगह और देकर आगे होने का मौक़ा दिया और अपने दूसरे हाथ से उसकी कमर को घेरे में लेते हुए सीढ़ी पकड़ ली। निश्चय ही लड़का इससे कुछ सुरक्षित हो गया और उसने राहत महसूस की।लड़के की उम्र की उष्णता ने मेरे धूल- पसीना भरे परिवेश को थोड़ा महका दिया।
तानसेन नगर पहुंच कर पता चला कि लड़के को भी उसी होटल में जाना था जिसमें मैं रुका हुआ था।कर्फ़्यू यहां भी लगना था। हम बस रुकते ही जल्दी- जल्दी डग भरते हुए होटल में आ गए।वास्तव में कर्फ्यू पिछले कुछ दिनों से लगा हुआ ही था, बस शाम को दो घंटे के लिए खुलता था। उसमें लोग भाग दौड़ कर अपने ज़रूरी काम कर लेते थे।
मैं भी कर्फ़्यू खुलते ही स्टेशन पर यही देखने गया था कि गाड़ियां जानी शुरू हुई या नहीं। शायद वह लड़का भी यही देखने गया होगा।
मैं चार दिन से इसी होटल में ठहरा हुआ था।यहां ठहरने वाले ज़्यादातर लोग एक - दो दिन के लिए ही यहां आए थे, पर अचानक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में पुलिस प्रवेश की घटना के बाद हुए दंगों के कारण वहां से यहां ट्रेनों का आना - जाना तो बंद हुआ ही,  शहर में कर्फ़्यू भी लग गया।सभी की हालत खराब हो गई। ज़्यादातर लोग पैसे की तंगी में आ गए।
ये लड़का जो मेरे साथ ही बस में आया था इसी होटल में नीचे की मंज़िल पर एक कॉमन डोरमेट्री में ठहरा हुआ था।मैं ऊपर की मंज़िल पर एक सिंगल कमरे में था। अब लोगों के पास पैसे ख़त्म हो जाने के कारण होटल मालिक ने उनसे कमरे या डोरमेट्री ख़ाली तो कराना शुरू कर दिया था पर इंसानियत के नाते उन्हें होटल से बाहर न निकाल कर बरामदों और कॉमन गलियारों में शिफ्ट कर दिया था। 
लोग भी विवश थे। इस परिस्थिति में और कुछ किया नहीं जा सकता था।पैसे किसी के पास न होने और कर्फ़्यू लगे होने के कारण खाने की व्यवस्था भी आसपास के मंदिर और धर्मशालाएं निशुल्क कर रही थीं। ट्रेक्टर ट्रॉली में कुछ टोकरे रख कर सेवाभावी लड़के आते और अख़बार के काग़ज़ में पूड़ियां रख सब्ज़ी के साथ दे जाते।
गर्मी के दिन थे, बाहर गैलरी में बिना पंखों के समय काटना भी बेहद कठिन था।मेरे पास भी पैसे की कुछ तंगी दिखने लगी थी पर मैं अभी तक अपने कमरे में ही था। मेरे पास दो - चार दिन ठहरने लायक़ पैसे अभी बचे थे।अपने कमरे के बाहर खड़े होकर मैं नीचे की ओर देख ही रहा था कि मुझे नीचे के बरामदे में वही लड़का खड़ा हुआ दिखा। वह निरीह सी कातर दृष्टि से मेरी ओर देख रहा था। कपड़े का एक छोटा सा थैला उसकी बगल में दबा हुआ था। शायद हमारी आंखों के बीच कुछ परिचित होने का आत्मीयता भरा आदान - प्रदान हुआ हो, वह मेरे पास चला आया। 
लड़के का नाम बादल था।ये जानकर कि लड़का अकेला ही है और पैसे ख़त्म हो जाने के कारण संकट में है, मैंने उसे अपने कमरे में आ जाने की पेशकश कर दी। वह कृतज्ञ सा पीछे - पीछे चला आया।कमरे में घुसते ही उसे सबसे पहली राहत तो वहां चलते पंखे के कारण गर्मी से मिली। उसने कुछ संकोच के साथ अपना थैला दीवार में बनी अलमारी में रख दिया और बिस्तर पर मेरे पास ही बैठ गया।
रात को खाना लाने वाले ट्रेक्टर की आवाज़ जैसे ही आई, बादल जल्दी से चप्पल पहनकर नीचे जाने लगा। जाते - जाते मुझसे बोला- आप आराम से बैठो अंकल, आपका खाना भी मैं ले आऊंगा।
कुछ तो उम्र का सम्मान और कुछ कृतज्ञ होने के कारण बादल जैसे मेरे उपकार का बोझ कम करने की कोशिश कर रहा हो।होटल की भारी भीड़ के कारण नीचे कुछ अफरा- तफरी मची। तभी बादल की आवाज़ आई, वह मुझे पुकार रहा था। मैंने कमरे से बाहर निकल कर झांका और नीचे उतर कर जाने लगा। पर बादल वहीं से बोला- आप आओ मत अंकल, बस, ये खाना देने वाला लड़का देखना चाहता था कि मैं दो आदमियों का खाना किसके लिए ले जा रहा हूं।
मैं मुस्कुरा कर वापस कमरे में भीतर आ गया।हम दोनों ने साथ ही बैठ कर खाना खाया।गर्मी के कारण गैलरी में पड़े लोग सोने के लिए ऊपर छत पर जा रहे थे।हमने कमरा भीतर से बंद कर लिया और सोने की तैयारी करने लगे।
बादल पहले कुछ सकुचाया किंतु फ़िर हम दोनों ने ही संकोच छोड़ कर अपनी कमीज़ और पैंट खोल कर खूंटी पर टांग दी।उसने तो बनियान भी नहीं पहन रखी थी। मैंने अपनी बनियान उतार कर टांग दी, भीषण गर्मी में बदन पर कपड़ा बिल्कुल भी सुहा नहीं रहा था।अभी मैं बिस्तर पर लेटने ही जा रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक होने लगी।
मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने होटल का मैनेजर खड़ा था। वह भीतर बैठे बादल को देखते हुए बोला- सर, ये लड़का आपके पास सोएगा?
- हां
- सर, आपसे सिंगल कमरे का चार्ज दो सौ ही ले रहे हैं, डबल का तो साढ़े तीन सौ हो जाएगा।
ये सुनते ही बादल उठ बैठा और बोला- सर, मैं छत पर ही सो जाता हूं।
- अरे नहीं- नहीं, डेढ़ सौ रुपए और दे देंगे, पर फ़िर एक्स्ट्रा बिस्तर तो दोगे न? मैंने मैनेजर से कहा।
- सॉरी सर, आज इतनी भीड़ है, एक चादर भी एक्स्ट्रा नहीं है। आपको एक साथ ही एडजेस्ट होना पड़ेगा। आप डेढ़ सौ की जगह सौ ही दे देना।
कहता हुआ मैनेजर जैसे अहसान सा करता हुआ चला गया। मैंने कमरा भीतर से वापस बंद कर लिया।
बादल कुछ बेचैन सा दिखा। शायद उस किशोर के मन में ये चिंता घर कर गई कि उसके कारण मेरे सौ रुपए बिना बात के लग गए।
कुछ देर चुप रह कर वो फ़िर बोला- कल से मैं छत पर ही सो जाऊंगा अंकल। छत पर सोने वालों से ये मैनेजर बीस - बीस रुपए ही लेता है।
मैंने लड़के की चिंता देख कर उसे आश्वस्त किया- फ़िक्र मत कर, आराम से सो, यहां कम से कम अपने पास सुबह नहाने- धोने के लिए अलग बाथरूम तो है, छत वाले लोग तो सुबह नीचे लंबी कतार लगाएंगे।
- पर अंकल, आपको परेशानी भी तो हो जाएगी पैसे की। क्या जाने अपने को कितने दिन और रुकना पड़ जाए? वह बोला।
- देखा जाएगा। मुसीबत आयेगी तो कोई रास्ता भी निकलेगा... मेरे ऐसा कहते ही वह कुछ बेफिक्र सा हो गया। बिस्तर छोटा सा था, वह संकोच के कारण एक किनारे सिकुड़ा हुआ सा ही पड़ा था। थोड़ी देर बाद मैंने लाइट ऑफ़ कर दी। कमरे की खिड़की होटल के पिछवाड़े खुलती थी। उससे सड़क के लैंपपोस्ट का थोड़ा उजाला आ रहा था। छत पर लोगों की गहमा- गहमी धीरे- धीरे मंद पड़ती जा रही थी। चंद्रमा अपनी किरणें छिड़क कर उन्हें सुलाने लगा था।
हम बातें करते - करते अब सोए ही थे कि दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक हुई।मैं उठ कर बैठ गया। दस्तक फ़िर हुई, ऐसा लगा जैसे कोई हाथ की अंगुलियों से दरवाज़े को कुरेदता हुआ आवाज़ कर रहा है।
मैंने बिना लाइट जलाए ही उठ कर दरवाज़ा खोल दिया। सामने एक अधेड़ सी औरत खड़ी थी। मैं कुछ पूछ पाता उससे पहले ही उसकी बगल में एक लड़की और आकर खड़ी हो गई।औरत बोली- बाबूजी, माफ़ करना, आपकी नींद खराब की। मगर मजबूरी है, आप अपने कमरे में इस लड़की को यहां नीचे कौने में पड़ी रहने की जगह दे दो।
मैं बगलें झांकने लगा। आवाज़ सुन कर बादल भी उठ कर बैठ गया।
औरत फ़िर बोली- छत पर तो मुस्टंडे चादरें बिछा- बिछा कर पड़े हैं, तिल धरने को भी जगह नहीं है। मैं तो फ़िर भी उनके बीच कहीं जगह देख कर घुसड़ जाऊंगी, ये बेचारी कहां पिसेगी? ऊपर से वो बीस- बीस रुपए और मांग रहा है, यहां तो ज़हर खाने को पैसे नहीं हैं... आपकी कृपा होगी, ज़मीन पर पड़ी रहेगी एक तरफ़।
मैंने एक बार बादल की ओर देखा। वो तो ख़ुद सपाट से चेहरे से टुकुर- टुकुर ताक रहा था।औरत चली गई। लड़की भीतर आ गई। मैंने दरवाज़ा बंद कर लिया।हमने फ़िर सोने की कोशिश की।
दूर से आती खिड़की की रोशनी से जब कमरे में हल्का- हल्का सा दिखाई देना शुरू हुआ तो देखा कि लड़की दीवार से सटी पड़ी हुई थी।अंधेरे में भी इतना तो समझ में आ ही रहा था कि लड़की बार - बार आंखें खोल कर पंखे की ओर देखती थी फ़िर पेट पर से अपने कुर्ते को उठा कर उससे हवा करने लग जाती थी। शायद किनारे पर होने से हवा न आने और चलता हुआ पंखा दिखाई देने से उसकी बेचैनी और बढ़ गई थी।
मैंने देखा कि बादल भी थोड़ी- थोड़ी देर में आंख खोल कर उसकी ओर देख लेता था। कभी- कभी हम दोनों की आंखें भी मिल जातीं, फ़िर हम आंखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगते। पतले से फूलदार कपड़े का वो ढीला सा कुछ मैला कुर्ता लड़की का पंखा भी बना हुआ था जिसे वो पेट पर से उठा कर बार - बार झलती। लड़की कभी- कभी मुंह से अजीब सी आवाजें भी निकालती। लड़की बादल से दो- एक साल बड़ी ही होगी। गर्मी से ज़्यादा परेशान होकर जब वो अपने कुर्ते का पंखा ज़ोर से झलती तो उसका पेट काफ़ी ऊपर तक दिख जाता।शायद उसे ये देख कर और भी बेचैनी होती हो कि हम दोनों तो केवल चड्डी में होते हुए भी पंखे के बिल्कुल नीचे हैं और उसे किनारे पर होने के कारण हवा नहीं मिल रही, ऊपर से सलवार और कुर्ता उसके बदन पर है। ढीला ही सही।
लड़की सिसकारी सी भरती हुई कभी करवट लेती और कभी हाथ को उठा कर हमारे बिस्तर के कौने पर मारती। कभी - कभी उसका हाथ मेरे पैर पर पड़ जाता। मेरी नींद और भी उचट जाती। लगभग यही हाल बादल का भी था। शायद वह इसी तरह बादल को भी संकेत दे रही हो। बादल धीरे से अपना मुंह मेरे एकदम पास लाया और फुसफुसा कर बोला- अंकल, हम पलंग को एक ओर खड़ा करके बिस्तर ज़मीन पर बिछालें?
- क्यों?
- शायद उसे गर्मी ज़्यादा लग रही है, देखो...मैंने देखा, लड़की ने सचमुच अपना कुर्ता अब पूरी तरह ऊपर उठा दिया था। उसकी छातियां अंधेरे में भी दिख रही थीं। शायद कपास के इन बुने हुए टुकड़ों में कोई प्रेत पनाह लिए हुए था जो छटपटा कर मुक्ति के लिए मचल रहा था। हमने ऐसा ही किया। पलंग को उठा कर खड़ा कर दिया। बिस्तर ज़मीन पर फ़ैला लिया। लगभग चार बजे सुबह के धुंधलके में ही लड़की उठी और धीरे से बोली- बाबूजी, दरवाज़ा बंद कर लो, मैं जा रही हूं।
मैं उठ कर दरवाज़ा बंद करने के लिए खड़ा हुआ तो लड़की कुछ गिड़गिड़ा कर बोली- बाबूजी, पचास रुपए दे दो, कल से कुछ खाया नहीं है..मैंने दीवार पर टंगी पैंट की जेब टटोली तो मुझे छुट्टे पैसे ज़्यादा मिले ही नहीं, एक सौ का नोट हाथ में आया। नोट मेरे हाथ में फड़फड़ा ही रहा था कि उसने निरीह सी शक्ल बना कर हाथ पसार दिया। मैंने जल्दी उससे पीछा छुड़ाने के लिए नोट उसे पकड़ाया और धड़ाक से दरवाज़ा बंद कर लिया।मैं वापस आकर बिस्तर पर लेटने को ही था कि बादल बोल पड़ा- पलंग बिछा लें अंकल!
- अरे, तू भी जाग गया जल्दी?
हमने जल्दी - जल्दी पलंग बिछा कर उस पर बिस्तर फ़ैलाया और एक दूसरे से लिपट कर उस पर आ सोए।
मैंने कहा- पचास रुपए मांग रही थी!
बादल ने फुसफुसा कर पूछा - एक के? या दोनों के।
मैंने धीरे से उसका गाल थपथपाया और हम सो गए।जब आंख खुली तो धूप काफ़ी चढ़ आई थी।लेकिन बाहर से काफ़ी चहल- पहल होने की आवाज़ें आ रही थीं। कमरे का दरवाज़ा खोलते ही सूचना मिली कि कर्फ़्यू हट गया और गाड़ियां, बाज़ार सब खुल गए। एक चाय वाला कमरे में चाय भी दे गया।
जल्दी - जल्दी हम दोनों शौच जाकर नहाए और फटाफट तैयार होकर स्टेशन जाने के लिए निकल पड़े। जब मैं होटल का बिल देने के लिए काउंटर पर गया तब तक सब सामान्य हो चुका था।ऑटोरिक्शा हमें होटल के बाहर ही मिल गया। बादल को हिमाचल प्रदेश जाना था। टिकिट लेकर जब वो वापस आया तो उसके पास पंद्रह- बीस रुपए बचे थे।
- और दूं? रास्ते में ज़रूरत पड़ेगी। मैंने कहा।
- नहीं अंकल, दोपहर बाद तो घर पहुंच ही जाऊंगा।
- फ़िर खाना कहां खाओगे? मैंने कहा।
- आपने इतना नाश्ता करवा दिया, अब खाने के समय तो मैं पहुंच ही जाऊंगा। उसने कहा।
उसकी गाड़ी जाने के आधा घंटा बाद मेरी गाड़ी जाने वाली थी। रास्ते में जाने कुछ मिले न मिले, मैंने दो ब्रेड सैंडविच पैक करा के साथ रख लिए थे।
तभी प्लेटफॉर्म पर दूर से हमें रात वाली अधेड़ औरत भी दिखी। उसकी वही लड़की एक हाथ में छोले - भटूरे और दूसरे में ऑमलेट लिए पीछे खड़ी थी और वो स्वयं बिसलरी की बोतल ख़रीद रही थी। शायद उनकी ट्रेन भी आने वाली थी।चारों तरफ़ गहमा- गहमी हो गई थी। ऐसा लगता था मानो अब तक सारा शहर किसी प्रेत की गिरफ्त में था, सहसा पिछली रात को उस प्रेत से सबकी मुक्ति हो गई।
बादल ने मेरे पैर छुए और ख़ुश होकर अपनी गाड़ी में सवार हो गया।
- प्रबोध कुमार गोविल