10 Motivational Stories: From Struggle to Success in Hindi Short Stories by missnayak books and stories PDF | 10 प्रेरक कहानियाँ: संघर्ष से सफलता तक

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10 प्रेरक कहानियाँ: संघर्ष से सफलता तक





1.रेत में उगे फूल

राजस्थान के एक दूर-दराज़ गाँव में एक छोटी-सी लड़की रहती थी — गुलाबी। नाम के जैसे ही उसका स्वभाव भी कोमल था, लेकिन उसका सपना था — रेगिस्तान की तपती रेत में स्कूल बनाना।

उसके गाँव में न तो पक्की सड़क थी, न स्कूल, न ही बिजली। बच्चियाँ या तो शादी कर दी जाती थीं या घर का काम सिखा दिया जाता। लेकिन गुलाबी बचपन से ही पढ़ने की ज़िद्दी थी। वह रोज़ 5 किलोमीटर दूर दूसरे गाँव जाती थी — नंगे पाँव, सिर पर पानी का मटका और कंधे पर किताबें।

रास्ते में लोग हँसते, ताने मारते, कहते — “पढ़-लिखकर क्या करेगी? औरत तो चूल्हा-चौका ही करती है।” लेकिन गुलाबी मुस्कुराती और कहती,
“अगर रेत में फूल उग सकते हैं, तो बेटियाँ भी उड़ सकती हैं।”

वह कक्षा में बहुत होशियार थी। जो टीचर समझा नहीं पाते, वह अपने दोस्तों को खुद पढ़ाती। उसका सपना था — एक दिन ऐसा स्कूल बनाऊँगी, जहाँ गाँव की हर बच्ची आए, किताबें पकड़े, सपने देखे।

धीरे-धीरे उसकी मेहनत दिखने लगी। जब वह आठवीं कक्षा में पहुँची, तो उसने राज्य स्तर की छात्रवृत्ति परीक्षा पास की। गाँव के सरपंच को भी उसकी प्रतिभा पर गर्व हुआ, और उन्होंने पहली बार उसके लिए पंचायत भवन में एक छोटा पुस्तकालय शुरू कराया।

लेकिन मुसीबत तब आई जब उसके पिता ने उसकी शादी तय कर दी। गुलाबी ने मना किया। यह गाँव में पहली बार हुआ जब एक लड़की ने अपने पिता के निर्णय के खिलाफ आवाज़ उठाई। विवाद हुआ, लोग नाराज़ हुए, लेकिन उसकी माँ ने साथ दिया — उसने कहा, “मेरी बेटी फूल है, उसे मत मुरझाने दो।”

गुलाबी ने दसवीं में टॉप किया। फिर ग्यारहवीं और बारहवीं में भी ज़िले में अव्वल आई। एक NGO ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए सहायता दी, और उसने बी.एड किया — शिक्षिका बनने के लिए।

फिर वही गुलाबी, जो कभी रेत पर चलकर स्कूल जाती थी, अब उसी गाँव की पहली महिला शिक्षक बनी।

उसने गाँव की पंचायत को मनाया और खाली ज़मीन पर खुद के हाथों से स्कूल की नींव रखी। वहाँ अब सैकड़ों बच्चियाँ पढ़ती हैं। गुलाबी अब भी रोज़ उसी उत्साह से पढ़ाती है और हर बच्ची से कहती है:
“तुम फूल हो — चाहे ज़मीन रेत जैसी हो, तुम खिल सकती हो।”


सीख:
“जहाँ उम्मीद हो, वहाँ रेत में भी फूल उगते हैं। और जहाँ बेटियाँ हों, वहाँ अंधेरे में भी उजाला होता है।”



2.कल का सूरज

छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गाँव में आरव नाम का एक लड़का रहता था। पहाड़ों के बीच बसे उस गाँव में न बिजली थी, न मोबाइल नेटवर्क, और न ही पक्के रास्ते। वहाँ लोग कहते थे, “हमारे भाग्य में सिर्फ अंधेरा है।” मगर आरव कहता था,
“आज भले अंधेरा हो, पर कल का सूरज मेरा होगा।”

आरव बचपन से ही जिज्ञासु था। जब उसके पिता लकड़ी काटने जाते और माँ खेतों में काम करती, वह पेड़ों की छाँव में बैठकर पत्तों पर मिट्टी से अक्षर लिखता। उसके पास किताबें नहीं थीं, लेकिन ज़मीन उसकी कॉपी थी और आसमान उसकी प्रेरणा।

एक दिन गाँव में सरकारी स्कूल खुला। आरव सबसे पहले दाखिला लेने गया। उसके पास जूते नहीं थे, न स्कूल बैग, लेकिन आँखों में उम्मीद की चमक थी। वह रोज़ स्कूल में सबसे पहले पहुँचता और सबसे बाद में लौटता।

वह जो भी सीखता, गाँव के बच्चों को भी सिखाता। धीरे-धीरे उसके अंदर शिक्षक जैसा गुण उभरने लगा। शिक्षक भी उसे “छोटा मास्टरजी” कहकर पुकारने लगे।

लेकिन फिर उसके पिता की तबीयत बिगड़ गई। घर चलाना मुश्किल हो गया। स्कूल छोड़ने की नौबत आ गई। आरव ने खेतों में काम करना शुरू कर दिया — दिन में मज़दूरी और रात में टॉर्च की रौशनी में पढ़ाई।

वह कहता,
“मैं अगर आज रुक गया, तो मेरे जैसे सैकड़ों आरव कभी सूरज नहीं देख पाएँगे।”

एक दिन एक सरकारी अफसर उनके गाँव आया। उसने बच्चों से सवाल पूछे — सब चुप थे, मगर आरव ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया। अफसर चकित रह गया। उसने आरव की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी ली और उसे शहर के अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवाया।

शहर की ज़िंदगी अलग थी। सबकुछ नया था — भाषा, माहौल, और प्रतियोगिता। लेकिन आरव ने गाँव की मिट्टी को अपनी ताक़त बनाया। उसने हर परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया। फिर उसने IIT में दाखिला लिया — गाँव का पहला लड़का जो इंजीनियर बनने निकला।

IIT से निकलकर उसने अपने गाँव में सोलर लाइटिंग प्रोजेक्ट शुरू किया। उसने हर घर को रौशन किया, स्कूल में कंप्यूटर लैब शुरू की और बच्चों के लिए लाइब्रेरी बनवाई।

एक दिन गाँव की पहाड़ी पर खड़े होकर उसने सूरज को देख कहा,
“अब ये सूरज सिर्फ उजाला नहीं लाता, ये उम्मीद, शिक्षा और बदलाव की रोशनी लाता है।”


सीख:
“जो आज अंधेरे में भी चलना सीख लेता है, वही कल सूरज बनकर दूसरों का रास्ता रोशन करता है।”


3. सपनों की उड़ान

बिहार के एक छोटे से गाँव की लड़की अनामिका का सपना था — आसमान की ऊँचाइयों को छूना। जब गाँव की लड़कियाँ गुड्डे-गुड़ियों से खेलतीं, अनामिका खेत में लेटकर आकाश में उड़ते जहाज़ों को निहारती और धीरे से कहती,
“एक दिन मैं भी उड़ूँगी — पायलट बनकर।”

पर उसके सपने हकीकत से बहुत दूर थे। उसके पिता एक रिक्शा चालक थे और माँ घरों में बर्तन मांजती थी। पढ़ाई के लिए भी घर में माहौल अच्छा नहीं था, पर अनामिका के हौसले बुलंद थे। वह कहती,
“हालात से हार मानने वाला उड़ नहीं सकता — सपनों को उड़ान तभी मिलती है, जब हौसला पंख बन जाए।”

वह स्कूल में हमेशा अव्वल आती। जब उसने आठवीं कक्षा में ‘मेरी पहली उड़ान’ नामक निबंध प्रतियोगिता में राज्य स्तरीय इनाम जीता, तब पहली बार उसके पिता को एहसास हुआ कि उनकी बेटी कुछ खास कर सकती है।

लेकिन राह आसान नहीं थी। जब उसने दसवीं के बाद साइंस लेकर पायलट बनने की बात की, तो गाँव के लोगों ने ताने दिए — “लड़की होकर जहाज़ उड़ाएगी?” “इतने पैसे कहाँ से आएँगे?”

अनामिका ने हार नहीं मानी। उसने YouTube से पायलट की ट्रेनिंग, फीस, कोर्स सब जानकारी निकाली और एक सपना बनाकर दीवार पर चिपका दिया — “2028: मैं एक पायलट बनूँगी।” वह रोज़ उस लक्ष्य को देखकर पढ़ती, दौड़ती, सीखती।

उसकी मेहनत रंग लाई — उसने इंटरमीडिएट में टॉप किया। एक NGO ने उसकी कहानी पढ़ी और आगे की पढ़ाई का ज़िम्मा लिया। फिर वह दिल्ली गई, जहाँ उसने एविएशन का कोर्स शुरू किया।

शहर में भी संघर्ष कम नहीं था। भाषा की समस्या, आर्थिक परेशानी, अकेलापन — सब कुछ उसे गिराने की कोशिश करता रहा। पर अनामिका ने अपने सपनों को हारने नहीं दिया। उसने खुद से कहा,
“अगर मैं उड़ान से डर जाऊँ, तो कभी ऊँचाई नहीं देख पाऊँगी।”

तीन साल की कठिन ट्रेनिंग के बाद जब उसने अपने पहले सोलो फ्लाइट की — तो वह सिर्फ एक जहाज़ नहीं उड़ा रही थी, वह अपने पूरे गाँव का सपना, अपनी माँ की आँखों की चमक और अपने संघर्षों की जीत उड़ा रही थी।

जब वह पहली बार पायलट की वर्दी में गाँव पहुँची, तो लोग उसे देखकर दंग रह गए। वही लड़की, जिसे एक समय पायलट बनने के सपने के लिए हँसी का पात्र बनाया गया था, अब असली पायलट बन चुकी थी।

अनामिका ने कहा,
“मेरे पंख किताबें थीं, मेरा ईंधन हौसला था — और मेरी उड़ान मेरे सपनों की थी।”


सीख:
“सपनों को पंख चाहिए होते हैं, और वो पंख बनते हैं मेहनत और विश्वास से — तब जाकर होती है उड़ान


4.दीप तले उजाला

उत्तर प्रदेश के एक प्राचीन नगर में नेहा नाम की एक लड़की रहती थी। उसका घर एक छोटे से मंदिर के पास था, जहाँ रोज़ शाम को दिया जलाया जाता था। कहते हैं, “दीप तले अंधेरा होता है।” लेकिन नेहा ने साबित किया कि कभी-कभी दीप तले भी उजाला खिलता है।

नेहा का परिवार बहुत साधारण था। माँ बीमार रहती थीं और पिता एक छोटे दुकान में काम करते थे। घर में इतने पैसे नहीं थे कि रोज़ खाना भी पूरा मिल सके, लेकिन नेहा के पास एक अनमोल चीज़ थी — ज्ञान की भूख।

जब वह सात साल की थी, तो मंदिर के पुजारी ने उसे मिट्टी से बना एक पुराना दीपक दिया और कहा,
“इसमें रोज़ एक सपना डालो, एक उम्मीद जलाओ।”
तब से नेहा हर दिन उस दीपक के सामने बैठती, किताब लेकर पढ़ती, और कहती — “एक दिन मैं भी दूसरों के अंधेरे को उजाले में बदलूँगी।”

उसने अपने स्कूल में टॉप करना शुरू किया। लेकिन आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि कई बार उसे अपनी कॉपी और पेन तक उधार लेने पड़ते। बिजली न होने के कारण वह मंदिर के दीपक के उजाले में पढ़ाई करती थी। लोग मज़ाक उड़ाते — “दीए की लौ में पढ़कर कौन अफसर बनेगा?” मगर नेहा चुपचाप मुस्कुरा देती।

जब वह दसवीं में आई, तो उसके गाँव में पहली बार एक NGO के लोग आए और होनहार छात्रों की सूची तैयार करने लगे। नेहा उस सूची में सबसे ऊपर थी। उन्होंने उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने की ज़िम्मेदारी ली। नेहा ने इस मौके को ज़िंदगी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मानकर पढ़ाई की।

बारहवीं में उसने जिले में टॉप किया। फिर UPSC की तैयारी शुरू की। हर दिन सुबह 4 बजे उठती, पाँच घंटे की कोचिंग के बाद बचे समय में मंदिर आकर फिर से वही दीपक जलाती और कहती,
“तू ही गवाह बन, मेरे उजाले की कहानी का।”

कई बार उसे असफलता भी मिली। पहले प्रयास में वह पास नहीं हो सकी। रिश्तेदारों ने ताना दिया, गाँव के लोग बोले — “बहुत उड़ रही थी, अब देखो नीचे आ गई।” लेकिन नेहा ने हार नहीं मानी। उसने कहा,
“मैं असफल नहीं हुई, मैं बस थोड़ा और मजबूत हो गई हूँ।”

दूसरे प्रयास में नेहा ने UPSC में ऑल इंडिया 37वीं रैंक हासिल की। उसका चयन IAS अधिकारी के रूप में हुआ। जब उसने वर्दी पहनी और पहली बार उस मंदिर के सामने सिर झुकाया, तो दीपक की लौ पहले से भी तेज़ जल रही थी।

उसने वहाँ खड़े होकर कहा,
“यही दीप था, जिसने मेरा रास्ता रोशन किया — अंधेरे में भी।”


सीख:
“अगर विश्वास का दीप जलता रहे, तो सबसे घना अंधेरा भी हार मान जाता है — और दीप तले भी उजाला हो जाता है।”


5.मिट्टी का हीरा

झारखंड के एक छोटे से गाँव में विराट नाम का एक लड़का रहता था। उसका रंग सांवला था, कपड़े साधारण थे, और पैरों में अक्सर चप्पल भी नहीं होती थी। लेकिन उसकी आँखों में एक चमक थी — जो किसी हीरे से कम नहीं थी।

विराट का परिवार बेहद ग़रीब था। उसके पिता खेतों में मज़दूरी करते थे और माँ दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा। हर रोज़ का संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा था। लेकिन विराट का सपना था — क्रिकेटर बनना।

जब बाकी बच्चे प्लास्टिक की गेंद से खेलते, विराट खुद से गेंद बनाता — कपड़ों की गड्डी को रस्सी से बाँधकर। उसके पास बल्ला नहीं था, तो वह टूटी लकड़ी से ही खेलता। जब कोई पूछता कि “कहाँ खेलेगा, बेटा? तेरा क्या सपना है?”, वह मुस्कुरा कर कहता,
“मिट्टी में हीरे भी मिलते हैं — मैं वही हूँ।”

गाँव के मैदान में वह घंटों अकेले अभ्यास करता। कभी धूप में, कभी बारिश में, लेकिन वह थकता नहीं था। उसके स्ट्रोक्स में एक गज़ब की ताक़त थी। एक बार गाँव के मेले में जब एक क्लब की टीम आई और विराट ने उनके खिलाफ खेला, तो सब दंग रह गए। एक के बाद एक छक्के, चौके — जैसे उसकी हर गेंद आत्मविश्वास से भरी हो।

टीम के कोच ने उससे पूछा, “कहाँ से सीखा इतना?”
विराट बोला, “खुद से, गिरकर, लड़कर, हर दिन खेल ही मेरा गुरु बना।”

उसके टैलेंट को देखकर कोच ने उसे शहर बुलाया। लेकिन वहाँ पहुँचने पर विराट को कई ताने मिले — “गाँव से आया है, ठीक से बोल भी नहीं सकता”, “कैसा बैट पकड़ता है?” लेकिन विराट ने किसी की बात को अपने आत्मसम्मान से बड़ा नहीं बनने दिया।

उसने दिन-रात मेहनत की। सुबह दौड़, दिन में नेट प्रैक्टिस, रात में वीडियो देख-देखकर सीखना — यही उसकी दुनिया बन गई। उसके कोच ने भी कहा, “इस लड़के में आग है।”

कुछ सालों बाद जब राज्य स्तरीय टूर्नामेंट हुआ, तो विराट ने अकेले दम पर टीम को जीत दिलाई। फिर उसे नेशनल लेवल पर चुना गया। उसके घर में जब लेटर आया, तो माँ की आँखों से आँसू बहने लगे — “मेरा बेटा हीरा है, पर उसने खुद को तराशा है।”

आज विराट एक प्रोफेशनल क्रिकेटर है। लेकिन जब भी उसे मंच से बोलना होता है, वह कहता है:
“मैं मिट्टी से बना हीरा हूँ — मेरी चमक मेरे हौसले से आई है, किस्मत से नहीं।”


सीख:
“हीरे की पहचान उसके रंग-रूप से नहीं, उसकी चमक से होती है — और वह चमक आती है संघर्ष से।

Bahut accha! Ab main turant पाँचवीं कहानी "छोटे कदम, बड़ी सोच" को विस्तार से (500+ शब्दों में) likhkar bhej rahi hoon:




5. छोटे कदम, बड़ी सोच

एक छोटे से पहाड़ी गाँव में एक लड़का रहता था — मनोज। वह बचपन से ही बहुत शांत और गंभीर था, लेकिन उसके भीतर एक जिज्ञासु आत्मा थी। गाँव में स्कूल बहुत दूर था, और रास्ता ऊबड़-खाबड़, पहाड़ी और खतरनाक था। रोज़ स्कूल आने-जाने में उसे 6 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता।

गाँव के अधिकतर बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी थी क्योंकि उन्हें लगता था कि इतनी मेहनत करने से कुछ नहीं होगा। लेकिन मनोज अलग था। वह रोज़ सुबह अँधेरे में उठता, बस्ता उठाता और एक लकड़ी की छड़ी लेकर पहाड़ की चढ़ाई शुरू कर देता। कई बार बारिश, कीचड़, या बर्फ़ भी उसे नहीं रोक पाती थी।

स्कूल पहुँचने पर उसके जूते गीले होते, कपड़े गंदे होते, लेकिन उसकी आँखों में चमक होती — सीखने की चमक।

एक दिन स्कूल में टीचर ने पूछा, “तुम इतनी मेहनत क्यों करते हो?”
मनोज ने जवाब दिया, “हर दिन का एक छोटा कदम, मुझे उस मंज़िल तक ले जाएगा, जहाँ कोई नहीं सोच सकता।”

धीरे-धीरे उसकी लगन रंग लाने लगी। वह हर कक्षा में टॉप करता गया। गाँव वालों ने भी ध्यान देना शुरू किया कि यह लड़का कुछ अलग कर रहा है। मनोज को किताबों से बेहद लगाव था, लेकिन उसके पास ज़्यादा किताबें नहीं थीं। वह गाँव के मंदिर की पुरानी लाइब्रेरी में धूल जमी किताबों को साफ करके पढ़ता था।

मनोज को विज्ञान में गहरी रुचि थी। जब दसवीं कक्षा में उसने विज्ञान प्रदर्शनी में एक छोटा सा “सोलर कुकर” बनाया और ज़िला स्तर पर इनाम जीता, तो पहली बार गाँव का नाम अख़बार में छपा।

फिर उसने ठान लिया कि अब वह इंजीनियर बनेगा। पर आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना ज़रूरी था — और पैसों की भारी कमी थी। तभी गाँव के कुछ लोगों ने मिलकर उसके लिए चंदा इकट्ठा किया। उसे छात्रवृत्ति भी मिली, और वह शहर की एक बड़ी कोचिंग में पहुँच गया।

शुरुआत में सब कुछ नया था, लेकिन मनोज ने हार नहीं मानी। हर दिन वह अपने छोटे कदमों को बनाए रखता — सुबह की पढ़ाई, क्लास, लाइब्रेरी और रात की रिविज़न। धीरे-धीरे, उसने उन छात्रों को भी पीछे छोड़ दिया जो महंगे स्कूलों से आए थे।

फिर वह दिन आया — जब IIT का रिजल्ट निकला। मनोज का नाम टॉप 100 में था। गाँव में खुशी का माहौल था। माँ की आँखों में आँसू थे, और मनोज बस मुस्कुरा रहा था।



6. कागज़ की नाव

बरसात का मौसम था। छोटे-से कस्बे के एक कोने में बैठा था निखिल, जिसकी उम्र मुश्किल से 10 साल रही होगी। उसके हाथों में एक पुराना अख़बार था, जिसे वह बड़े ध्यान से मोड़ रहा था। थोड़ी ही देर में उसने उससे एक कागज़ की नाव बना ली और उसे बारिश के पानी में बहा दिया।

लोग सोचते कि वह बस खेल रहा है, पर निखिल की माँ जानती थी कि ये नावें उसके सपनों की प्रतीक हैं। उसका पिता नहीं था, और माँ दूसरों के घरों में काम करके मुश्किल से गुज़ारा करती थी। निखिल हर रोज़ शाम को कचरे से पुराने कागज़ चुनता, और उनमें से साफ पन्नों को जमा करता — जिससे वह नावें बना सके।

एक दिन माँ ने उससे पूछा, “बेटा, तू इतनी नावें क्यों बनाता है?”
निखिल ने मुस्कुराकर कहा, “माँ, एक दिन मेरी नाव सपनों के शहर तक पहुँचेगी, और मैं वहाँ पढ़ने जाऊँगा।”

वह ग़रीबी में जी रहा था, लेकिन उसका मन समृद्ध था। वह स्कूल जाने से पहले हर दिन एक नई नाव बनाता और बारिश के पानी में उसे बहाता। हर नाव पर वह कुछ न कुछ लिखता — कभी "मैं डॉक्टर बनूँगा", कभी "माँ के लिए घर लाऊँगा", कभी "मैं हार नहीं मानूँगा"।

कभी-कभी लोग उसे पागल समझते, हँसते भी थे। लेकिन वह बस मुस्कुराता और कहता, "सपनों को मज़ाक समझने वाले उन्हें कभी पूरा नहीं कर सकते।"

एक दिन उसकी मासूम आदत पर एक पत्रकार की नज़र पड़ी। उसने निखिल की कुछ नावें उठाईं और पढ़ा — उन नावों पर लिखे छोटे-छोटे सपने किसी कविता से कम नहीं थे। पत्रकार ने उसके ऊपर एक लेख लिखा:
“कागज़ की नावों में बहते सपने”

अगले ही हफ्ते, शहर के एक NGO ने निखिल की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी उठाई। उसे अच्छे स्कूल में दाखिला मिला, किताबें, यूनिफॉर्म, सब कुछ मिला। लेकिन निखिल ने अपनी नाव बनाना नहीं छोड़ा — अब वे नावें और सुंदर थीं, उन पर सपने और भी बड़े लिखे जाते।

सालों बाद, वही निखिल एक बड़ा इंजीनियर बन गया। जब उसे अमेरिका की एक नामी कंपनी से नौकरी का ऑफर मिला, तो वह इंटरव्यू में सिर्फ़ एक चीज़ लेकर गया — एक छोटी-सी कागज़ की नाव।

उसने कहा, “यह सिर्फ़ कागज़ नहीं है, यह मेरी हिम्मत है। मैंने इससे सपनों को बहाना सीखा, और जब वे लौटे, तो वे पूरे हो चुके थे।”


सीख:
“सपने चाहे जितने भी छोटे दिखें, अगर उन्हें दिल से बहाओ — तो वे समंदर तक पहुँचते हैं।”




7. विकलांग विजेता

नाम था अर्जुन — एक ऐसा लड़का जो बचपन में ही एक सड़क हादसे का शिकार हो गया था। उस हादसे में उसने अपना एक पैर खो दिया। जब वह होश में आया, तो डॉक्टर ने कहा, “अब तुम सामान्य बच्चों की तरह नहीं चल पाओगे।” ये शब्द उसके माता-पिता के लिए तोड़ने वाले थे, लेकिन अर्जुन की आँखों में आँसू नहीं, जिद थी।

अर्जुन के गाँव में सभी लोग सहानुभूति जताते थे — कोई कहता "बेचारा", कोई कहता "अब ये क्या कर पाएगा?" पर उसकी माँ ने एक दिन उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, “बेटा, अगर शरीर साथ न दे तो मन को मजबूत बना लेना।” बस यही वाक्य उसके जीवन का मंत्र बन गया।

अर्जुन ने लकड़ी की एक साधारण बैसाखी से चलना शुरू किया। पहले कुछ कदम चलने में घंटों लगते थे, लेकिन हर दिन वह खुद से कहता, “कल से एक कदम और आगे।” स्कूल जाने में मुश्किल होती, लेकिन वह रोज़ जाता — कभी बारिश, कभी धूप, कभी कीचड़, पर वह रुका नहीं।

एक दिन स्कूल में खेल प्रतियोगिता हुई। जब टीचर ने कहा कि स्पोर्ट्स में वही बच्चे भाग लेंगे जो पूरी तरह स्वस्थ हैं, तो अर्जुन खामोश रह गया। लेकिन उसके दोस्त ने चुपके से उसका नाम रजिस्टर कर दिया — व्हीलचेयर रेस में। पहले तो वह झिझका, लेकिन फिर अंदर की आवाज़ ने कहा — "तू हारा नहीं है!"

अर्जुन ने अभ्यास शुरू किया। वो व्हीलचेयर को तेज़ चलाने, मोड़ने और बैलेंस करने की लगातार कोशिश करता। चोटें भी लगीं, हाथ छिल गए, पर हिम्मत नहीं टूटी। रेस के दिन मैदान में लोगों की भीड़ थी। जब उसका नाम पुकारा गया, तो सबकी नज़रें एक पल को उस पर टिक गईं।

रेस शुरू हुई — और अर्जुन ने जैसे अपनी आत्मा दौड़ा दी। अंतिम क्षणों में जब सामने वाला लड़का थोड़ी दूरी पर था, अर्जुन ने पूरी ताक़त लगाकर अपनी व्हीलचेयर को ऐसे धकेला कि आख़िरी सेकंड में वह विजेता बन गया।

तालियों की गूंज, आँखों में आँसू और चेहरे पर मुस्कान — अर्जुन ने न सिर्फ़ रेस जीती थी, बल्कि अपनी पहचान भी।

उस दिन वह मंच पर खड़ा था, ट्रॉफी हाथ में थी, और चेहरे पर गर्व। मंच से बोलते हुए उसने कहा:
"शारीरिक कमी कमजोरी नहीं होती — हार तो तब होती है जब मन हार मान ले।"



8.दीये की लौ

एक छोटे से गाँव में एक लड़की थी — सिया। वह पढ़ाई में बहुत होशियार थी, पर उसके घर की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी। उसका पिता एक मोची था और माँ खेतों में मज़दूरी करती थी। घर में बिजली नहीं थी, और रात को पढ़ने के लिए वह केवल एक छोटे से दीये पर निर्भर रहती थी।

हर रात जब बाकी गाँव के बच्चे मोबाइल या ट्यूबलाइट की रोशनी में पढ़ते थे, सिया दीये की मद्धम लौ के सामने बैठ जाती। कभी-कभी तेज़ हवा में लौ बुझ जाती, तो वह हाथों से उसे ढंक कर बचाती। उसकी आँखें थक जातीं, लेकिन उसका मन नहीं। माँ कई बार कहती, “इतनी देर मत पढ़ा कर, आँखें खराब हो जाएँगी,” पर सिया मुस्कुराकर कहती, “माँ, यही दीया एक दिन मेरी किस्मत रोशन करेगा।”

गाँव के स्कूल में वह हमेशा अव्वल आती थी, लेकिन उसे आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना था — और उसके पास न फीस थी, न साधन। पर उसकी मेहनत रंग लाई। एक दिन उसके गाँव में एक स्वयंसेवी संस्था आई जो गरीब बच्चों को स्कॉलरशिप देती थी। उन्होंने जब सिया का टेस्ट लिया, तो वह सबसे आगे निकली।

उसे स्कॉलरशिप मिली और वह शहर के बड़े स्कूल में दाखिल हो गई। वहाँ सब कुछ नया था — क्लासरूम, कंप्यूटर, अंग्रेज़ी भाषा, और तेज़ रफ़्तार जिंदगी। शुरू में वह डर गई। सब उसका मज़ाक उड़ाते कि “ये गाँव की लड़की यहाँ क्या करेगी?” लेकिन उसने फिर से वही दीये वाली जिद दिखाई — छोटी रोशनी, लेकिन अडिग लौ।

रातों को जब सब सो जाते, वह लाइब्रेरी में पढ़ती रहती। धीरे-धीरे उसके नंबर बढ़ने लगे, टीचर उसका सम्मान करने लगे, और वही छात्र जो कभी हँसते थे, अब उससे मदद माँगने लगे।

सालों बाद, जब उसने राज्य स्तर की परीक्षा में टॉप किया, तो न्यूज़ चैनलों पर उसका इंटरव्यू आया। एक रिपोर्टर ने उससे पूछा, “इतनी गरीबी और मुश्किलों के बावजूद आपने कैसे ये सब किया?”

सिया ने बस मुस्कुराकर जवाब दिया —
“मैंने दीये की लौ को कभी बुझने नहीं दिया।”



9.आख़िरी दौड़

गाँव का एक साधारण लड़का राघव, बचपन से ही तेज़ दौड़ने का शौकीन था। मिट्टी से सनी पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ते हुए, वह हर रोज़ सपने देखा करता — एक दिन वह ज़िले की सबसे बड़ी दौड़ में जीत हासिल करेगा। पर उसके सपने पर लोग हँसते थे। "तेरे जैसे लड़के सिर्फ़ खेतों में दौड़ते हैं, ट्रैक पर नहीं," लोग कहते। मगर राघव के सपने की रफ्तार उन बातों से कहीं ज़्यादा तेज़ थी।

हर बार जब वह स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेता, वह दूसरे या तीसरे स्थान पर आता। उसकी हार उसकी मेहनत को रोकती नहीं थी, बल्कि और तेज़ कर देती थी। लेकिन एक दिन एक प्रतियोगिता में हार के बाद, उसने ठान लिया कि अब की बार वह आख़िरी बार दौड़ेगा — लेकिन हार मानकर नहीं, जीतने के लिए।

वह अपने गाँव के कोच, बुजुर्ग रमेश काका के पास गया। काका ने उसे सिर पर हाथ रखकर कहा, “बेटा, दौड़ सिर्फ़ पैरों से नहीं, हौसले से जीती जाती है।” यह बात राघव के दिल में घर कर गई। उसने अपने शरीर के साथ-साथ अपने मन को भी मज़बूत करना शुरू किया।

हर सुबह सूरज उगने से पहले वह खेतों की पगडंडियों पर दौड़ता, फिर स्कूल जाता, और शाम को दोबारा अभ्यास करता। वह अपने खाने, नींद, और अनुशासन का पूरी तरह पालन करने लगा। कई बार थक कर गिर जाता, पर हर बार उठता यह सोचकर कि जीत उसका इंतज़ार कर रही है।

आख़िरकार वह दिन आया — ज़िले की सबसे प्रतिष्ठित दौड़ प्रतियोगिता। मैदान लोगों से खचाखच भरा था। जब राघव ने लाइन में खड़े होकर अपने आस-पास के धावकों को देखा, तो डर ज़रूर लगा, लेकिन उसने अपनी आँखें बंद कीं और काका की बात याद की — "हौसला रख बेटा।"

सीटी बजी और राघव दौड़ा। शुरुआत में वह बीच में था, लेकिन धीरे-धीरे उसने अपनी रफ्तार बढ़ाई। आख़िरी 100 मीटर में, वह सबसे आगे निकल गया। भीड़ तालियों से गूंज उठी, और राघव की आँखों में आँसू थे — यह आँसू जीत के नहीं, अपने सपने को सच होते देखने के थे।

उसने न सिर्फ़ दौड़ जीती, बल्कि अपने जैसे हज़ारों बच्चों को ये संदेश दिया —
“सपने बड़े हो सकते हैं, पर हौसला उनसे भी बड़ा होना चाहिए।





10.कागज़ की कस्ती

मध्यप्रदेश के एक छोटे से गाँव में एक लड़का रहता था, जिसका नाम था अमित। गाँव में उसकी उम्र के बच्चे अक्सर क्रिकेट खेलते, कंचे खेलते, और कुछ नहीं तो पेड़ के नीचे बैठकर बातें करते। लेकिन अमित कुछ अलग था। उसे किताबें पढ़ने का शौक था। वह कभी-कभी घंटों तक नदी किनारे बैठकर सोचता — "मुझे कुछ ऐसा करना है, जो मुझे दूसरों से अलग बनाए।"

गाँव के बाकी बच्चे उसे चिढ़ाते, "किताबी कीड़ा! क्या पढ़ाई से कुछ बड़ा मिलेगा?" लेकिन अमित पर इन बातों का कोई असर नहीं होता था। उसकी आँखों में एक सपना था — वो दिन आएगा, जब उसकी मेहनत रंग लाएगी।

एक दिन अमित नदी के किनारे बैठकर कुछ बनाने की सोच रहा था। उसकी आँखों में एक आइडिया चमका। उसने पास पड़ी एक पुरानी कागज़ की कृति से एक छोटी सी कस्ती बनाई। वह कस्ती थी, मगर उसे बनाने के बाद उसने अपने दिमाग में एक बड़ा ख्वाब पलना शुरू किया — "अगर मैं इस कागज़ की कस्ती को सच्चे रास्ते पर चला सकूँ, तो मैं अपने जीवन को भी सफलता की ओर मोड़ सकता हूँ।"

अमित ने अपनी कागज़ की कस्ती को नदी में डाला। वह कस्ती तेज़ बहाव में बहने लगी, लेकिन बीच में आते छोटे पत्थर उसे रोकने लगे। अमित ने देखा, कस्ती हर बार रुक रही थी, लेकिन वह उसे निरंतर आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। उसे समझ में आ गया कि जीवन में जब भी हम किसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, रास्ते में कई मुश्किलें आएँगी। लेकिन अगर हमारी मेहनत सही दिशा में हो, तो हम उन मुश्किलों को पार कर सकते हैं।

अमित ने कागज़ की कस्ती की ओर एक नया रास्ता निकाला। उसने उस कस्ती को वापस लिया और उसे थोड़ा मजबूत बनाया। अब जब वह कस्ती पानी में डाली, तो वह आसानी से बहने लगी, और पूरे रास्ते में रुकने की बजाय वह बिना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ती चली गई।

यह देखकर अमित को अहसास हुआ कि कागज़ की कस्ती सिर्फ एक खिलौना नहीं थी, बल्कि यह उसके जीवन की यात्रा का प्रतीक बन गई थी। कागज़ की कस्ती की तरह, जो हर बार रुकने के बाद फिर से आगे बढ़ती है, वैसे ही अमित ने भी अपने जीवन में आने वाली मुश्किलों को पार करते हुए सफलता की ओर कदम बढ़ाए।

समाप्त होते-होते अमित ने सोचा,
“अगर कागज़ की कस्ती बिना रुके आगे बढ़ सकती है, तो मैं क्यों नहीं?”



सीख:
“जीवन में मुश्किलें आएँगी, लेकिन हमें हमेशा कागज़ की कस्ती की तरह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए, चाहे रास्ते में कितनी भी रुकावटें क्यों न आएं।