1. गौतम बुद्ध की जन्म कथा
गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था। वे कपिलवस्तु के राजा थे। बात उस समय की है, जब गौतम बुद्ध का जन्म भी नहीं हुआ था। राजा शुद्धोधन के कोई संतान ना थी। इसी कारण संतान प्राप्ति की चाह में वे सदैव विचार मग्न रहते थे। संतान प्राप्ति की चाह में ही उन्होंने दो विवाह किए थे।
राजा शुद्धोधन की बड़ी रानी का नाम महामाया और छोटी का नाम प्रजावति था। धीरे–धीरे समय व्यतीत हो रहा था। राजा शुद्धोधन अधेड़ अवस्था से वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होने लगे थे। देवी–देवताओं की पूजा–अर्चना और दान–पुंय आदि करने के बाद भी उन्हें संतान का सुख न मिल सका। समय बितने के साथ-साथ राजा की तृष्णा भी बलवती होती जा रही थी। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे भाग्य के देवता राजा शुद्धोधन से कुपीत हो गए हैं, तभी तो उनकी श्रद्धा और निष्ठा भी कोई रंग न ला सकी थी। अब राजा की तृष्णा चिंता और गहन चिंता में बदलने लगी थी। राज्य में चारों ओर सुख, शांति और समृद्धि थी, किंतु अपना उत्तराधिकारी न होने के कारण यह सब कुछ राजा को निरर्थक की प्रतीत होता था।
निःसंतान होने का दुख राजा शुद्धोधन को ही नहीं, रानी महामाया और रानी प्रजावति को भी था। इस चिंता को दूर करने का उपाय किसी के हाथ में न था। अतः वे सभी मौन थे।
एक समय की बात है कि रानी महामाया रात्रिकाल में अपने इष्टदेव का स्मरण कर शैय्या पर लेट गई। लेटते ही उनकी आंख लग गई और उनकी आंखों के सामने भिन्न भिन्न प्रकार के सुखद स्वप्न–चित्र तैरने लगे। स्वप्नों का तांता रात भर लगा रहा। स्वप्न आते रहे और सुखद अनुभूति देकर विस्मृत होते रहे। रात्रि का अंतिम प्रहार चल रहा था। रानी महामाया ने स्वप्न में देखा कि चार यक्ष, जिनके मुख्य मंडल तेज से प्रदीप्त थे, उनके निकट आए। यक्षो ने रानी को प्रणाम किया और पुष्प के समान बड़ी कोमलता से उन्हें उठाकर एक ओर को उड़ चले। जिस वायुमंडल से होकर यक्ष रानी को लेकर उड़ रहे थे, उसमें बड़ी मनमोहक सुगंध व्याप्त थी। इस भीनी–झीनी सुगंध ने रानी के अंतर्मन को प्रफुल्लित कर दिया।
यक्षो ने रानी महामाया को ले जाकर एक सर्वोन्नत पर्वत के शिखर पर बैठा दिया। वहां एक बहुत सुंदर आसन बना हुआ था। इस आसन पर विराजमान होकर रानी को बड़ा आत्मिक सुख मिला। रानी महामाया का तन–मन प्रसन्नता से झूम रहा था। इसी बीच स्वर्गलोक में निवास करने वाली सुंदरता की प्रति मूर्ति अप्सराएं वहां एकाएक प्रकट हुई। अप्सराओं ने करबद्ध हो, शीश झुकाकर रानी को प्रणाम किया।
‘देवी!’ एक अप्सरा रानी से बोली, ‘आपके स्नान का समय हो गया है। कृपया स्नान के लिए प्रस्थान कीजिए।’
रानी कुछ न बोली, उठकर उनके साथ चल दी।
अप्सराएं रानी को ले, मंगलगीत गाती हुई एक सरोवर के पास पहुंची।सरोवर अत्यंत सुंदर था और उसमें श्वेत कमल–पुष्प शोभायमान थे। अप्सरा होने रानी को ले जाकर सरोवर के मध्य खड़ा कर दिया और मल–मल कर स्नान कराने लगी।
सरोवर का जल रानी के शरीर पर पढ़ते ही उनकी काया कंचन जैसी हो गई। इस दिव्य जल के स्नान से रानी का शरीर भी अप्सराओं के समान ही सुंदर हो गया।
रानी महामाया आश्चर्यचकित होकर अपने रुप–सौंदर्य को निहार रही थी। दिव्य जल से स्नान करने के बाद उनकी काया अत्यंत कमनीय और सुंदर हो गई थी। शरीर पर पड़ी हुई झुर्रियां भी पूरी तरह मिट चुकी थीं। उन्हें ऐसा लगा था मानों उनका यौवन दिव्य रूप–राशि के साथ पुनः लौट आया हो। उनका मन मुदित था।
स्नान के बाद अप्सराओं ने रानी को अत्यंत सुंदर और बहुमूल्य वस्त्र पहनाएं। भिन्न–भिन्न प्रकार के आभूषणों से उनका श्रृंगार किया। इसके बाद अप्सराएं रानी को एक श्वेत मरमरी महान में ले गई। विभिन्न प्रकार से उनका स्वागत–सत्कार किया गया।
एक अप्सरा अपने हाथों में दिव्य सामग्री से भरा थाल लेकर प्रकट हुई। उस खाद्य सामग्री से स्वादिष्ट सुगंध उठ रही थी। उसने खाद्य सामग्री रानी के सामने प्रस्तुत की। जब रानी ने उसका स्वाद चखा तो उनका तन–मन आह्लादित हो उठा।
दिव्य खाद्य सामग्री खिलाने के बाद अप्सराएं रानी महामाया को महल के एक दूसरे कक्ष में ले गई । उस कक्ष मे एक पुष्पसेज सजी हुई थी। अप्सराओ के आग्रह पर रानी पुष्प सज्जित सेज पर विश्राम करने लगी। उस सेज के सामने ही रानी को स्वर्ण शैल और उस पर मंडराता सुंदर हांथी अपने अत्यंत निकट प्रतीत हुआ। हाथी ने कमल पुष्प से रानी के दाएं अंग पर धीरे से प्रहार किया और फिर लघु से लघुतर स्वरुप धरकर वह एकाएक रानी के गर्भ में समा गया।
रानी ने भय और आश्चर्य से तुरंत अपनी आंखें खोल दी। अब रानी को पता चला कि वह स्वप्न देख रही थी। बड़ा ही आश्चर्यचकित कर देने वाला और सुखद स्वप्न था, आँख खुलते ही जिसका समापन हो गया था।
जब राज ज्योतिषी ने स्वप्न के फल की गणना कर बताया कि उनके यहां एक यशस्वी पुत्र रत्न का जन्म होगा तो उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। राजज्योतिषी की घोषणा ने जैसे राजा, रानी और प्रजा के ऊपर से चिंता की कालीमा को समाप्त कर दिया था। राजमहल में छाया सन्नाटा धीरे-धीरे सिमटने लगा।
ज्यों–ज्यों रानी महामाया का गर्भ काल पूर्ण होने की ओर अग्रसर हो रहा था, त्यों–त्यों राजमहल में प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी। अब गर्भ काल लगभग पूर्ण होने को था। उस काल की प्रथा के अनुसार रानी अपने प्रथम शिशु को अपने माता-पिता के गृह पर ही जन्म देती थी। इसे अत्यंत शुभ माना जाता था। ऐसा ही विचार कर रानी महामाया को उनके माता-पिता के पास भेजने की व्यवस्था की गई, ताकि वे प्रथम शिशु को वहीं पर जन्म दे सके।
राजा की आज्ञा से एक सुंदर रथ को फूल–मालाओं और मोती– मणियों से सुसज्जित किया गया। उस रथ में रानी के साथ उनकी प्रिय दासियाँ औरपरिचारिकाएँ बैठीं। रथ के आगे-आगे छह घोड़ों पर सवार योद्धा सैनिक चले और इसी प्रकार पीछे भी घुड़सवार सैनिक चले।
धीरे-धीरे रानी का यह काफिला आगे बढ़ा जा रहा था कि लुंबिनी वन के निकट रानी को तीन प्रसव पीड़ा होने लगी। परिचारिकाओं के कहने पर रथ को लुबिनी वन में ही एक उचित स्थान देखकर रोक दिया गया।
वैशाख मास की पूर्णिमा थी। गगन पर पूर्ण चंद्र जगमगा रहा था। लुंबिनी वन का कोना-कोना जैसे पूर्णिमा की शीतल चाँदनी में अपनी मधुरिमा के साथ शोभायमान हो रहा थ। इस वैशाख पूर्णिमा को जैसे सदियों से लुबिनी वन में इस महान् घटना के घटने की ही प्रतीक्षा थी और प्रतीक्षा की घड़ियाँ धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही थीं।
यह घटना ईसा से लगभग 564 वर्ष पूर्व की है। रानी महामाया प्रसव पीड़ा से आकुल लुबिनी वन में पुष्पों से आच्छादित वृक्ष के नीचे विश्राम कर रही थी। परिचारिकाएँ उनकी तरह-तरह से सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं।
प्रकृति द्वारा निर्धारित शुभ घड़ी और शुभ पलों में रानी महामाया ने एक सुंदर-स्वस्थ शिशु को जन्म दिया। शिशु के जन्म की शुभ सूचना अविलंब कपिलवस्तु भेज दी गई।
कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन और रानी प्रजावती के हर्ष की सीमा न थी। पूरा राजमहल विभिन्न प्रकार के मोतियों-मणिक्यों और दीपमालाओं से सज्जित किया गया।
राजा शुद्धोधन और रानी प्रजावती ने पुत्र प्राप्ति से प्रसन्न होकर निर्धनों और ब्राह्मणों को खुले हाथों से दान देना प्रारंभ कर दिया।
राजा ने अपनी प्रिय पत्नी महामाया और नवजात शिशु को लुंबिनी वन से कपिलवस्तु बुला लिया था। राजमहल में उनका बड़े हर्ष के साथ स्वागत किया गया।
एक दिन असित ऋषि दरबार में पधारे। राजा शुद्धोधन ने ऋषि का यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया और नवजात शिशु को आशीर्वाद देने का आग्रह किया।
"राजन!" असित ऋषि बोले, "आपके पुत्र का भविष्य बड़ा उज्ज्वल प्रतीत होता है।"
"आपकी कृपा का फल है, ऋषिदेव!" राजा शुद्धोधन सिर झुकाकर बोले, "अब कृपया शिशु को अपना आशीर्वाद दीजिए।"
"राजन! यह शिशु आगे चलकर आपके शाक्य वंश का नाम विश्व भर में फैला देगा और किसी के आशीर्वाद की नहीं, बल्कि संसार को इसके आशीर्वाद की आवश्यकता पड़ेगी।" कहकर असित ऋषि ने शिशु के मस्तक पर अपना हाथ रखा।