बेधड़क दरोगा जी
-देवेन्द्र कुमार
ठाकुर शिव सिंह राणा न तो अब मुद्दत से दरोगा जी थे, न ही वह कभी ठाकुर थे| पर अपने समय के बड़े नामी-गरामी हस्ती थे,पुलिस विभाग और इलाके में आदर से नाम लिया जाता था, ठाकुर अंग्रेजों ने उनके नाम में अपने आप जोड दिया था जो जाति वाचक न होकर सम्मान सूचक था| हमने जब उन्हें देखा वे पिच्छत्तर वर्ष की आयु, के थे| लम्बे मज़बूत कद काठी, गौरे-चिट्टे, और सफ़ेद लम्बी मूछें, कुछ महाराणा प्रताप जैसी अब पूरी ध्वल थी| उस इलाके में उनका खूब दबदबा था, लोग बाग़ उनका सम्मान करते थे, तथा कुछ भय भी खाते थे| अगर बिलकुल ही अनजान व्यक्ति भी उनसे मिलता तो बिना जाने भी यही सोचता होगा कि कोई साधारण व्यक्ति न होकर कोई बड़ा आदमी है| पूरे मोहल्ले में सबसे बडे प्लाट पर उनका दुमंजला पुराना मकान था| उस सारी सडक पर सबसे पहला मकान उन्होंने बनाया था जब उधर घर बनाने की हिम्मत नहीं करता था| उनके दो खाली पड़े प्लाट भी थे| कोई बीस पच्चीस साल पहले उन्होंने सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर के पद से इस्त्तीफा दे दिया था और स्वेच्छिक रिटायरमेंट ले लिया था| इसका कारण बाद में पता लगा|
यह अंग्रेजों के जमाने की बात पुरानी बात है| सन 1920-22 या उस से कुछ आगे पीछे की| प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था, गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर स्वतंत्रता की मांग की शुरुआत कर दी थी| दुनिया में भारी आर्थिक मंदी का दौर था| शिव सिंह दरोगा जी के परिवार में शिक्षा थोडी पहले आई थी, उनके दादा बड़ी खेती की ज़मीन के स्वामी थे तथा पिछली शताब्दी के अंतिम एक दो दशक के आसपास के समय के अच्छे खाते-पीते संपन्न किसानो में से थे| उन्होंने अपने एक बेटे को अपने पास गाँव में खेती के काम के लिये रोका और बाकी दो बेटों दरियाव सिंह व संग्राम सिंह को मुरादाबाद के स्कूल और इंटर कॉलेज तक पढाई करा दी थी तथा अपने रसूक से पुलिस में भी भर्ती करा दिया था| दोनों बेटों को मुरादाबाद के पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के अंग्रेज प्रिंसिपल ने उन्हें सब-इंस्पेक्टर की नुकरी के लिये उपयुक्त समझा और दोनों बन भी गए| यह बात तो उस समय के लिये उनके गाँव व आसपास के गांव गवांढ के लिये बहुत बड़ी बात मानी गयी थी, दूर दुर्राज शोर मचा था|
पुलिस का पेशा रोब-दोब का पेशा माना जाता था | उस समय तो एक सिपाही किसी गाँव में आ जाता तो शोर मच जाता था| थानेदार तो बहुत बड़ी बात होती थी| जिस परिवार में दो दो हों तो उनका क्या कहना? उनकी नौकरी लगने के बाद उनके अलीगढ जिले व मुरादाबाद जिले के बड़े किसानों के घर शादी बड़ी धूमधाम के साथ हुई| परिवार धीरे बढ़ता जा रहा था| कई साल बीतने पर भी बड़े भाई दरियाव सिंह के कोई बच्चा नहीं हुआ छोटे संग्राम सिंह के लगातार दो दो वर्ष के अंतराल में तीन बेटे हुए| शिव सिंह, भोला सिंह व शंकर सिंह – तीनों के नाम गाँव के शिवालय के पंडित जी ने रखवाए थे|
जब दरियाव सिंह के शादी के बाद भी कोई बच्चा नहीं हुआ तब उनके घरवाले उन पर दूसरी शादी के लिये जोर डालने लगे थे उनकी पत्नी भागीरथी ने अपनी सहर्ष सहमति दे दी| पर दरियाव सिंह ने इस के लिये हामी नहीं भरी| परिवार की सर्वसम्मति से संग्राम सिंह के बड़े बेटे को गोद लेने का सुझाव आया और उन्होंने व उनकी पत्नी ने सहर्ष स्वीकार किया और इस तरह शिव सिंह, दरियाव सिंह के पुत्र और उनके वारिस बन गए|
भागरथी बहुत ममतामयी थी उन्होंने शिव सिंह को बहुत प्यार और दुलार से पाला पोसा व बड़ा किया| खाने पीने का बहुत ध्यान किया जिसके कारण उनकी तंदरुस्ती घर में सबसे अच्छी थी| उन्हें अपनी अम्मा से बेहद प्यार था व उसकी किसी भी बात को जरा भी नहीं टालता था जैसे पत्थर पर लकीर हो | शिव सिंह में स्वभावतः गुस्सा था पर अगर अम्मा ने कह दिया -
“बस बाबू चुप”
उस के बाद एक शब्द जोर से नहीं बोलता था, और जो वह कह देती वही उसके लिये माननीय हो जाता था| इतना माँ बेटे का प्रेम व आपसी समझ कम ही देखने को मिलता थी|
दरियाव सिंह जी का परिवार बिश्नोई जाट थे अतः खाने पीने के,रीति रिवाजों में उनतीस नियम थे जिनका कमोबेश सब लोग पालन करते थे| अपने काम में भी वे बिलकुल क़ानून, ईमानदारी और निष्ठा के साथ करने के लिये जाने जाते थे| उनके अंग्रेज ऑफिसर्स उनके गुण जानते हुए जान बूझ कर ज्यादा जिम्मेंदारी के साथ के स्थान पर पोस्ट करते थे| कई जगह उन्होंने बड़े मुश्किल अपराधों को इलाके से खत्म किया था| बहुत बड़े बदमाश उनके पोस्ट होते ही थाने के पास के इलाके से भाग जाते थे| वैसे कई जगह काम से भी उनके नाम का प्रभाव होता था| उनके अच्छे रिकॉर्ड के आधार पर उन्हें इंस्पेक्टर से डीएसपी 1920 में बनाया गया, यह भी उस समय के लिये बड़ी उपलब्धि थी, उन्हें विश्व युद्ध के समय अपने इलाके में रिकॉर्ड नंबर जवानों की ब्रिटिश आर्मी के लिये भर्ती के उपलक्ष्य में राय बहादुर का ख़िताब भी अंग्रेज सरकार बहादुर ने प्रदान किया| और बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी गई- वह थी यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ़ आगरा एंड अवध की राजधानी लखनऊ के सिटी कोतवाल की| यह एक बड़ी जिम्मेदारी तथा साथ में प्रतिष्ठा का पद था| उस समय सर विलियम सिनक्लैर मोर्रिस यूनाइटेड प्रोविन्स के मशहूर इंस्पेक्टर जनरल थे| वे लखनऊ कोतवाली में अक्सर आकर शहर के स्थिति का मुलाहजा, और पूरी जानकारी जानते रहते थे| शहर कोतवाल दरियाव सिंह की काबलियत जिम्मेदारी से काम करने से वे बहुत खुश थे उन्होंने ही खुश होकर कोतवाल दरियाव सिंह को राय बहादुर का ख़िताब दिलवाया, उन्होंने ही अपने कार्य काल में गवर्नर बनने से ज़रा पहले ही उनके एकलौते बेटे शिव सिंह राणा को पुलिस में डायरेक्ट सब-इंस्पेक्टर बिना किसी परीक्षा के नियुक्ति कर एक तोहफा और दे दिया था| उस समय शिव सिंह राणा बी.ऐ. के प्रथम वर्ष में ही थे| वह आगे की पढाई छोड़ कर ट्रेनिंग के लिये पुलिस ट्रेनिंग के लिये मुरादाबाद भेज दिया गया था|
उन दिनों पुलिस ट्रेनिंग बड़ी सख्त होती थी शिव सिंह राणा हट्टे- कट्टे-मज़बूत थे, वालीबाल और कबडडी के खिलाडी भी थे पर इतनी सख्त ट्रेनिंग और रगडा पट्टी के तो कतई आदि नहीं थे, अतः हिम्मत पस्त हो गयी थी, एक महीने में कई किलो वज़न घट गया था| घर पर तो आराम तलबी से रहते थे माँ ज्यादा ही देखभाल करती थी और यहाँ सोने को मुश्किल से मिलता| हाथ पैर की मांसपेशियां दर्द करती, लंगर का खाना नहीं रुचता अपने खाने के बर्तन साफ़ करने पड़ते, जाने से पहले अपना बिस्तर झाड साफ़ कर अच्छी तरह से डिस्प्ले करना पड़ता| केवल रविवार को एक दिन की छुट्टी मिलती| पर शनिवार की शाम को पोच-पिठ्ठू राइफल, वाटर बोतल लटका कर तीन मील दौड़ कर लॉन्ग मार्च करा कर इतना थका देते थे कि अगले दिन गरमपानी में नमक डाल कर सिकाई कर सोमवार के लिये तैयारी करनी पड़ती थी|
उन्होंने अपनी माँ को चिट्ठी लिख कर अपनी व्यथा बताई, लिखा इस तरह वह दस महीने नहीं काट पायेगा|
“ इसके लिये तुम भी जिम्मेदार हो, कितना आराम तलब बनाया हुआ था? इतनी आदतें बिगाड़ी हुई थी? हमने भी ट्रेनिंग ऐसे ही की हुई है| कर लेगा सब कर लेते हैं कोई छोड़ कर नहीं जाता, हाँ कोई नहीं योग्य व कमज़ोर तो उसे ट्रेनिंग स्कूल निकाल देते हैं| आग में जल कर ही सोना निखरता है|”
माँ का हृदय तो माँ को होता है उसे तर्क से तसल्ली कहाँ होती है? चुप तो हो गयी थी| रात भर सोचती रही, क्या करना चाहिए? नींद भी ठीक से नहीं आई, करवटे बदलती रही? कुछ ठीक उपाय समझ में नहीं आ रहा था|
सुबह सवेरे अपने पति से कहा के अगर हम दोनों अगले शनिवार को मुरादाबाद जाकर बच्चे से रविवार की उसकी छुट्टी के दौरान बेटे से मिल आते हैं, उसकी दिक्कत को समझ कर और उसे समझा आते हैं| दरियाव सिंह मज़बूत हृदय के थे पर अपनी पत्नी भागीरथी कि भावनाओं को भी खूब समझते थे, सो उन्होंने थोड रूक कर सोच कर कहा,-
“कुछ करता हूँ, दोपहर के बाद बात इस बारे में बात करता हूँ| अभी कुछ बहुत ज़रूरी काम फंसे है| बस चिंता मत करो| रास्ता निकलेगा, मैंने भी सुना था इन दिनों मुरादाबाद पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के अंग्रेज इंचार्ज मिस्टर एच जी हाल्स काफी सख्त हैं, खुद भी बेहद फिट हैं, अभी तक खूब दौड़ते हैं, फर्स्ट क्लास रस्सा चढ़ कर अपना नमूना देते हैं| मुझे थोडा सा वक़्त दो अभी कई दिन पड़े हैं शनिवार के| फिलहाल कुछ खाने को मिलेगा या नहीं?”
भागीरथी सुन कर काफी हल्का हो गयी थी अन्दर का बोझ काफी हल्का हो गया था और रसोई में चली गय दरियाव सिंह का खाना तैयार कराने|
बाद में यह तय हुआ की दरियाव सिंह इस हफ्ते नहीं जा सकते सो इस हफ्ते भागीरथी ट्रेन में एक सिपाही के साथ चली जाएगी तथा उनके जानने वाले थाना सिविल लाइन्स के थानेदार के घर रात को ठहरने का उनका इंतजाम कर देंगे और अगले दिन रविवार को उन्ही के घर पर शिवसिंह राणा आकर अपनी माँ से मिल लेगा| वह थाना और घर देखाभाला था 15-16 वर्ष पहले वे उसी में रह भी चुके थे, शिव सिंह तब छोटा था| मिलने के बाद दोपहर उपरान की ट्रेन से वापिस आने का प्रोग्राम बनाया|
इस तरह किसी पराये आदमी के साथ जाने का तथा इस तरह रुकने का उसका मन तो नहीं करता था पर यह परेशानी कम और बेटे से मिलने की आशा बड़ी लगी और वह मान गयी| उसी दिन उसने घर में तैयारी करनी शुरू कर दी,अपने बेटे के लिये बादाम पीस कर बेसन के लड्डू, गाज़र का हलवा व एक दो अन्य खाने पीने के सामान बना कर तैयार किये| जानने वाले सिपाही ने को असुविधा नहीं होने दी थी|
माँ बेटे को मिल कर बड़ा संतोष हुआ, माँ ने पूछ ही लिया, “बेटा क्या टू क्या सबसे कमज़ोर है? या कुछ और बात है? तेरे बाबू जी कह रहे थे कि अगले एक आध हफ्ते में वे भी आयेंगे जो भी बात हो खुल कर बता, यह भी कह रहे थे कि जो अंग्रेज तेरा सबसे बड़ा अफसर है खुद भी बहुत चुस्त दुरुस्त है और सबको ही अपने जैसा चुस्त-दुरुस्त बनाना चाहता है| अपना बता दे अगर तेरे बसका ना हो तो मार लात मरी दरोगागिरी में अपनी खेती बाड़ी करवा लेना|”
एक साँस में इतनी बात कह गयी थे भागीरथी| उसे हंसी आई और उसने कहा, “ ना माँ ना माँ , तेरा बेटा क्यों सबसे कमज़ोर होता, मैं तो ज्यादातर से इक्कीस हूँ| जिस दिन चिट्ठी लिखी ज्यादा थक गया था, मेरे बस की नहीं खेती बारी| चिंता मत कर बस महीने में एक बार मिल जाया कर|”
माँ को बड़ी तसल्ली हुई उस ने अपने थैले से निकाल कर उसको अपना बनाया सामान दिया| दोपहर तीन बजे के करीब वह ख़ुशी ख़ुशी अपने स्कूल लौट गया और शाम के गाड़ी में बैठ कर अगले भोर वह अपनी सफल यात्रा कर वापिस लौट आयी| उस के आठ महीने बाद तो बस अपनी सफल ट्रेनिंग करके और आउटडोर ट्रेनिंग का मैडल और सर्टिफिकेट लेकर पुलिस की वर्दी में लखनऊ पहुंचा| उसको दो हफ्ते के ब्रेक सीतापुर कि कोतवाली के एस.एच.ओ. के पास नौकरी और प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिये जाना था- जो लखनऊ से ज्यादा दूर नहीं था| दरियाव सिंह भी खुश हुए उसकी पीठ थपथपाई उनकी पहली बड़ी जिम्मेदारी बेटे को अपने पैरों पर खड़ा करने की थी, पूरी हो गयी थी| उनकी नौकरी के लगभग तीन साल बचे थे, शिव सिंह बीस साल का जवान था, दूसरी जिम्मेदारी भी वे जल्दी से पूरा करना चाहते थे वह थी उस का घर बसवा दें उसकी अच्छी जगह शादी करके| उनके विचार से फिर तो वे गंगा नहा जायेंगें, उनके बूढ़े पिता भी अपने पोते की शादी देख लेंगे जो उनकी बड़ी हार्दिक इच्छा थी|
यह बात नहीं थी कि उनके पास रिश्ते लेकर नहीं आये थे, पर ट्रेनिंग चलते इस बारे में वे बात करना नहीं चाहते थे| उनके पिता बड़े कृषक थे राय बहादुर का खिताब मिलने पर उन्हें एक छोटे गाँव की ज़मींदारी भी सरकार बहादुर से मिली थी पर वह कोई ख़ास बड़ी नहीं थी पर उन्हें संतोष था| कुछ दिन बाद पास ही उनके पास एक बड़े घर से रिश्ता आया वे भी राय बहादुर थे तथा बड़े ज़मींदार थे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी साथ में उनकी बेटी थोडी पढीलिखी भी थे, पर सुशीलबिचोलिये ने बताया कि वे छोटी ज़मीदारी के कारण थोडा सा हिचक रहे हैं| और सलाह दे डाली कि कम से कम दो गाँव की ज़मीदारी और खरीद लें तो अच्छा रहे| दरियाव सिंह को सलाह ज्यादा अच्छी नहीं लगी थी सो उन्होंने बीचोलिये से कह दिया कि वे परिवार से सलाह लेगें|
खैर इस विषय को ज्यादा न खींच कर बता दे कि उन्होंने दो गाँवों की और ज़मीदारी खरीद ली और उसी बड़े घराने से शादी हुई और शिव सिंह राणा नौकरी और अपने परिवार दोनों की तरफ से बड़ी अच्छी तरह से बड़े खुश थे| उनकीं पत्नी सत्यवती सुंदर, सुशील थी, सास ने तो पहले दिन से ही उसे बेटी से ज्यादा प्यार् दिया बिलकुल सहेली की तरह उसके साथ घुल मिल गयी थी| शुरू शुरू में तो उसे अपने पास रखा क्योंकि अकेले घर सँभालने के लिये अभी काफी छोटी थी| अपने पास रख कर घर गृहस्थी के काम धीरे धीरे सिखाये| भागरथी कई कई रोले कर रही थी. सास, माँ और सहेली, और शांता ने भी भरपूर आदर किया और इन सास बहू का रिश्ता बड़ा ख़ास बन गया| बड़ी बड़ी लगातार तीन बेटियां हुई और भागरथी के तीन पोतियाँ, पर उसने कतई भी मुंह नहीं बिगाड़ा कि बेटी हो रहीं थी बेटा नहीं जैसा उन दिनों आम बात थी औसत सासें तो मुंह बिगाडती तथा दोष बहू के सर थोपती|
शिव सिंह भी माँ के असर से कहो या खुद के सोच विचार से बेटियों को लेकर खूब खुश रहता था| नौ संतान होना तो काफी प्रचलित था| दरियाव सिंह रिटायरमेंट के बाद जाकर अपनी जमीन जायदाद, खेती बाड़ी का काम संभाल लिया था| उन्होंने अपनी पुश्तनी हवेली में काफी खर्चा के काफी बड़ा व शानदार बना लिया था| शिवसिंह व शांता को भी अपने गाँव के मकान से काफी लगाव था वे अक्सर वहीँ डेरा जमाते थे| खूब मजे से जिंदगी चल रही थी, पर समय कब हमेशा एक सा रहता है?
सब कुछ ठीक चलते चलते दरियाव सिंह अपने खेतों की देखभाल करने अपनी घोड़ी पर सवार होकर चले जा रहे थे कि उनके सीने मे अचानक तेज दर्द हुआ, बड़ी घबराहट ही पसीना आया, वे उतर कर एक खेत की मेढ पर बैठ गए, दर्द धीरे धीरे कम हो गया पर कमजोरी सी अभी भी लग रही थी, सो उन्होंने अपने झोले में रखे पानी को पिया| और आगे बढ़ने को छोड़, धीरे धीरे घर वापिस आ गए| पत्नी को बताया कि ठीक महसूस नहीं कर रहे थे इसलिये वापिस आ गए|
पूरा नहीं बताया था कि नाहक उस लेकर परेशान होंगे, बस आराम कर रहे थे, अभी भी सीने में भारीपन था| मन में भी आया कि दिल का मामला हो सकता है पर गरम हल्दी का दूध पी कर सो गए| उनके पुराने जानकार डाo कुमार थे उन्ही पर उनका विश्वास था से मिलने के लिये अगले दिन मुरादाबाद जाने का इरादा कर लिया तथा अपने भतीजे सज्जन सिंह के बेटे को बुला भेजा कि आकर मिले| आने पर उससे बताया कि कल सुबह अपनी बैलों की बहली तैयार रखे उसे डाo कुमार के पास जाकर दिखाना है| उसने कहा कि अभी घंटे में चल पड़ते हैं शफाखाना बंद भी कर दिया हो तो घर पर दिखा देंगे| उन्होंने बताया कि नहीं सुबह ही चलेंगे| भतीजा काफी देर तक बैठा रहा बात करता रहा, फिर गाँव से वैद्य जी को भी बुला लाया, उन्होंने सारी बात सुनी नब्ज़ देखी, बताया कि थोडी तेज़ है, अच्छा हो अंग्रेजी दवाई वाले डॉक्टर को दिखा लें|
पत्नी और शांता सब सुन कर काफी परेशान हुए| सुबह तक अच्छे भले घर से गए थे, अचानक यह सब कैसे हो गया? अब तो नौकरी के भी कोई दबाब नहीं हैं| सारी उम्र तो कभी बुखार तक नहीं हुआ कोई दवाई-ववाई खाने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी|
अगले दिन डॉक्टर कुमार के पास गए उन्होंने अपने आले से कई बार उनका बी पी लिया और कहा आप को तो काफी ज्यादा रहता है| आप घी खाना कम करो, नमक कम करो मैं जो दवाई दे रहा हूँ उसे खाते रहो| अनार का रस रोजाना पियो और अर्जुन की छाल का काढ़ा बन आकर भी पीना अच्छा बताया है| यह पूछने पर कि उन्हें हुआ क्या था? भई लक्षण तोदिल के दौरे का है, पर बात आई गई हो गयी है अब आगे की सुध लो वाली बात है|
डॉक्टर कुमार काफी पुराने अनुभवी डॉक्टर थे, उस समय के लखनऊ मेडिकल कॉलेज के एल.एस.एम.ऍफ़.| उस समय तो उनकी धाक थी उनका बेटा अब वहां से बड़ी एमबीबीएस की पढाई कर रहा था| उनके पिता वैद्य मुसद्दीलाल का भी वहां नाम था| वापिस जाने के बाद फिर बड़े सवेरे उसी तरह की घबराहट हुई, छाती में दर्द हुआ पर उतना जो का नहीं था| अब तो यह चिंता का बड़ा कारण हो गया था, खाने पीने में सावधानी बरतनी शुरू हो गयी, नमक बहुत कम कर दिया हालाकि खाना उन्हें बेस्वादा लगता पर उन्होंने पाबंदी निभाई| इन दो झटकों के बाद वे अपने आपको काफी कमज़ोर समझने लगे थे| शिव सिंह को सूचित किया गया और वे बिना देर करे अवकाश लेकर आ गए| डाo कुमार ने भी मशवरा दिया कि किसी बड़े दिल को दिखाना ठीक रहेगा| अत सबकी सलाह से उन्हें दिल्ली के बड़े दिल के डॉक्टर को दिखाया गया , उन्होंने कई टेस्ट और मशीन से चेक कर उन्हें बताया,
इनके दो दिल के दोरे पड़ चुके है,अच्छी सेहत होने की वजह से वे झेल गए थे, दिल कमज़ोर हो गया है, दवाई खाए, चिंता ज्यादा न करें, पहली के अलावा एक और दवाई उन्हें दी|”
पर वे दिन ब दिन कमज़ोर होते जा रहे थे| फिर एक दिन रात को दवाई खाकर सोये बस सुबह नहीं उठे| कब चले गए किसी को पता नहीं चला| शिव सिंह राणा आये, उन्होंने अन्तिम संस्कार गढ़ मुक्तेश्वर में किया गया, सब संस्कार पूरी धार्मिक विधि से किये गए| तेहरवीं में बहुत भारी संख्या में लोग आये| उनके बड़े बड़े कारनामें याद किये| यह भी एक पुराने मित्र में जो उनके नीचे लखनऊ में एक थाने में कम् कर चुके थी कि पंडित मोतीलाल और जवाहर लाल नेहरु दोनों को छह महीने की हिरासत में उन्ही के नीचे रखा गया था| और सब जेल के नियम का पालन करने के बावजूद दोनों राजनैतिक कैदी उनके प्रशासन के बारे बहुत अच्छे रिमार्क्स दे कर गए थे| उनके पशासन, ड्यूटी के प्रति निष्ठां की प्रशंसा करते रहते थे, जाते हुए भी विशेष रूप से मिल कर आभार प्रगट कर के गए थे| एक दूसरा उनका साथी बता रहा था कि उनके थाना क्षेत्र से अपराधी कैसे भग जाते थे तथा साधारण आदमी की भी खूब सुनवाई होती, एक उनकी निष्पक्षता की बडाई कर रहा था| वैसे भी मरने के बाद लोग जितनी प्रशंसा करते है, या गुणों का बखान करते है, जीते जी पता क्यों इस में कंजूसी क्यों करते हैं?
सबसे ज्यादा दुखी उनकी पत्नी थी चीज़ों को देखती उनको याद करती| उन दिनों की क्या अभी भी होता है, जब भी कोई नई महिला आती है रोती हुई आती है, घर की महिलाओं को भी साथ रोना पड़ता है या स्वतः ही रोना आ जाता है इस तरह का क्रम चलता ही रहता है| भले ही आने वाली दो मिनट के बाद फिर किसी अन्य की बात कर छिपे छिपे हंसती रहें, बुराई कर निंदा सुख लेती रहें| या मुहल्लेवालों के बारे में चटपटे किस्से एक दूसरे को सुनाते रहें और उन पर अपनी तरफ से भी नमक मिर्च लगाती रहें|
जैसे ही सब कार्य ख़त्म हो गए, शिव सिंह राणा ने अपनी माँ से अपने साथ शेरगढ़ में चलने का आग्रह किया, उसने कुछ दिन और रूकने की बात की| वह स्वयं भी अकेले नहीं रहना चाहती थी| रूकने का एक कारण और भी था उनके पास चांदी के बहुत सारे सिक्के थे जो उन्होंने दो अलग जगह अपने कोठे में जमीन में दबाये हुए थे उनको चुपचाप निकाल कर ले जाना था| दोनों सास बहु ने मिल कर रात में जब नौकर चाकर नहीं होते थे खुद खोद कर निकाल कर मिट्टी दोबारा भर कर लीप-पोत दिया था| उन दोनों सास बहू ने आपस में तय किया कि उनके इस गुप्त धन की हवा शिव सिंह को बिलकुल नहीं देनी थी| सारे सिक्के तीन अलग अलग थैलियों में भरा और उन्हें भागरती ने अपने लोहे के बक्से में रखा ऊपर से कपडे रखे और ताला लटका दिया जो हमेशा ही रहता था, इस बक्से की ताली कहाँ रहती थी यह सिर्फ भागरथी जानती आई थी|
इसी तरह बाकी सामान जो साथ जाने वाले थे उनको बाँधना शुरु कर दिया था, वे इस बात का भे ध्यान रख रहे थे कि थानेदारों को जो क्वार्टर या जगह थाने में मिल् पाती है उसमें आराम से आ जाए| कुछ सामान इस तरह से भी जमाया कि दोनों जगह, पूरी तरह से रहने के लिये रहने के लिए हमेशा तैयार रहें| सामान की एक खेप नौकर के साथ भेज भी गयी थी| इस तरह तैयारी करने के बाद वे सब अपना सब सामान लाध कर एक छोटे ट्रक में भर कर हल्द्वानी के लिये प्रस्थान कर गए| साथ में एक सिपाही था जो ट्रक के साथ आया था जो उन्हें हल्द्वानी के लिये लिवाने आया था|
हल्द्वानी जाने पर उनके जीवन की एक नई इनिंग शुरू हुई| माँ भी इस तरह के जीवन को खूब अच्छी तरह से जानती थी| अतः घर अच्छी तरह से जम गया| बड़ी बेटियों की पढाई गाँव में शुरू करा दी थी| एक मास्टर भी उनको गाँव में पढ़ने आता था क्योंकि गाँव में स्कूल बहुत साधारण सा था पढाई का ज्यादा माहौल नहीं था| हल्द्वानी एक अच्छा साफ सुथरा साफ सुथरा टाउन था, सीधे सच्चे लोग थे ज्यादा अपराध भी नहीं थे| वहां के स्कूल दोनों बड़ी बेटियों को दाखिल कर दिया था, घर का सारा प्रबंध शांता नें शुरू कर दिया था, हालाकि सास भी उसका मार्ग दर्शन करती रहती थी और बहुत से काम में पूरा सहयोग|
यहाँ वे कोतवाली पुलिस स्टेशन के इंचार्ज थे| नगर के आम आदमी तो सीधे सादे ईमानदार व मेहनती थे| आस पास के गाँवों से लोग इसी शहर से अपना सामान खरीदने आया करते थे| इलाके के आम लोग गरीब थे, कुछ काठ के बड़े व्यापारी अमीर थे, वे जंगलों से पेड़ कटवाकर आरा मशीन से चिरवा व कटवा कर दूर दूर तक इमारती लकड़ी भिजवाते थे, मकान बनवाने वाले दूर दूर से आकर अपने लिये मकान की जरुरत की इमारती लकड़ो खरीदने आते थे|
उनमें से एक व्यापारी चन्दन सिंह भंडारी का परिवार दरोगा परिवार का बड़ा घनिष्ट हो गया था| भंडारी जी की बड़ी बेटी और दरोगा जी की छोटी बेटी एक ही स्कूल की एक ही कक्षा की सहपाठी और सहेली थी, परिवार बच्चों के कारण आपस में घनिष्ट हुआ था| उस समय हल्द्वानी में नगर कोतवाल का दबदबा था|
एक अँधेरी रात में भंडारी जी के घर में डाका पड़ा तीन चार डाकू घर में घुसे बन्दूक की नौक पर डरा कर नगदी और जेवरात लूट कर ले गए उन्हें बांध कर तथा घर की औरतों को अलग कमरे में बंद कर गए सुबह जब नौकर चाकर आये तब उन्हें खोला गया उनके घर की महिलाओं को बंद कमरे से निकाला गया| एक नौकर ने जाकर कोतवाली में जाकर खबर की| कोतवाल साहेब को थाने पर ड्यूटी पर तैनात हेड कांस्टेबल ने घर आकर खबर दी| ज़ल्दी से तैयार होकर दरोगा शिव सिंह राणा मौका-ऐ-वारदात पर पहुंचे| पूरी जानकारी ली| भंडारी जी को आश्वासन दिया| उन दिनों सी सी कैमरे तो होते नहीं थे, न ही दूसरे साजो सामान इसलिये बीट कांस्टेबल, चौकीदारों, पुराने रिकॉर्ड, पुरानी वारदातों, पुराने अपराधियों को पकड़ पूछताछ, पुलिस मुखबिर की खबर पर ज्यादा निर्भर करता था| और सबसे ज्यादा कांम करता था सहज ज्ञान और अटकल और ई ओ का अनुभव| उसी दिन सवेरे चन्दन सिंह के पास एक ग्राहक से बड़ी नगदी आई थी, जिसे बैंक न ले जाकर घर ले गए थे अतः अन्दर का कोई व्यक्ति था जिसने सीधे या किसी अन्य के द्वारा खबर पहुंचाई होगी| इस सब का सहारा लेकर शिव सिंह ने जिन लोगों को पकड़ा उनसे कुछ नगदी और जेवर तो बरामद हो गए तथा बाकि अपराधियों को बाद में पकड़ तो लिया पर पैसा या पूरी बरामदगी नहीं हो पाई थी| मुकदमा चला और चार अपराधियों को सजा भी हुई| चन्दन सिंह के दफ्तर का खजांची भी मामले में शामिल होने के कारण सजा पाया था| इस केस को सुलझाने और अपराधियों को पकड सजा कराने के लिए नैनीताल के एस.पी जे. ओसवाल्ड ने एक दिन के इलाके के दौरे पर उन्हें शाबाशी दी तथा बीस रूपये का नगद पुरस्कार भे दिया जो उनके सर्विस रिकॉर्ड में भी दर्ज किया गया तथा इलाके के दौरे की रिपोर्ट में लिखा गया|
असल में इस तरह की सफलताओं की दर्जनों उपलब्धियां दरोगा जी के रिकॉर्ड में, बदमाश लोग उनसे बड़ा घबराते थे, उनकी नीति थी ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’ डंडे चलाने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती लम्बे तंदरुस्त रोबीले दरोगा जी के सामने उनके हाथ में डंडा आते ही बड़े से बड़ा घाघ गुण्डा भी इसी में अपनी गनीमत समझता था कि जल्दी क़बूलकर ले वर्ना शामत आने में देर नहीं लगती थी, मुंह से भी इतनी बुलंद आवाज़ में गरजते थे कि थाने के पास घर में भी बच्चों को दहशत लगने लगती थी| फिर उनकी गिरफ्त वाले के रोने और चीखने की आवाज़| केवल उनकी माँ ही उन्हें टोकने का साहस करती रहती थी, “बाबू, इतना गुस्सा क्यों करता है? इतनी ज़ल्लादी करना ठीक नहीं है|” सुनकर शांत भी हो जाता था और वायदा करता कि कम करने कि कोशिश करेगा| वह ऐसा ही समय था जब थर्ड डिग्री सबसे कारगर पूछताछ का तरीका माना जाता था| अंग्रेज़ अफसर इसे बिलकुल गलत नहीं मानते थे|
क्योंकि एसपी साहेब उनके काम से बेहद खुश थे और जनता में भी लोग उनको जाने नहीं देना चाहते थे क्योंकि उनके रहने से चोरी चकारी, गुंडागर्दी से सबका पीछा छुटा हुआ था| इस पुलिस स्टेशन में रहते उनके दो बच्चे पैदा हुए बड़ा बेटा और एक बेटी| समय खूब अच्छा बीता| काम भी अच्छा और नाम भी बहुत अच्छा| यहाँ मौसम भी खूब अच्छा रहता था|
साढ़े तीन साल बाद उनका तबादला कर दिया गया था बदायूं शहर के थाना सिविल लाइन में| यहाँ भी एस पी अंग्रेज ही थे यहाँ पर भी कोई ज्यादा दिक्कत का काम नहीं था| ड्यूटी का प्रकार बदल गया था{ यहाँ भी तीन साल रहे और एक बेटी और छोटा बेटा| अब परिवार बड़ा हो गया था| यहाँ भी अपनी दिलदारी और बहादुरी से एक बड़े काम का अंजाम किया| इस जिले से में कुछ डाके की घटना हुई थी| डाकूओं का कुछ खास सुराग अभी तक नहीं मिला था| शिव सिंह राणा ने अपने पिता से एक बात सीखी थी कि पुलिस के काम में ज्यादा सफलता उसे मिलती है जो अपने कुछ सिपाहियों को रूटीन ड्यूटी से हटा कर ज्यादा से ज्यादा खबर रखें और मज़बूत मुखबिर या सोर्स का इस्तेमाल करे जो चुपचाप काम के ख़बरें उन तक पहुंचाए| सो एक मुखबिर ने उन्हें पक्की खबर देने का वायदा किया कि उसके पास खास खबर है पर उसका नाम किसी को पता नहीं चलना चाहिए और बड़ा इनाम भी मिलना चाहिए| फिर उसने बताया कि दो डाकू सुबह सवेरे स्टेशन से निकलेंगे जो यहाँ किसी सेठ के घर डाका डालने की फिराक में हैं| दूसरे कोई भी पुलिस साथ नहीं जानी चाहिए| यह जोखिम भरा काम था उन्होंने एक मज़बूत सिपाही को सादे कपड़ों में तथा खुद का भेष एक ग्रामीण जिस ने सर पर पगड़ी बाँध कम्बल ओढ़ कर चले, स्टेशन से थोडा पहले एक एक गठरी लेकर स्टेशन की बेंच पर बैठ गए| सिपाही अलग बेंच पर बैठ कर बिडी पीने लगा| बहुत थोड़े लोग उस समय प्लेटफ़ॉर्म पर थे और गाडी का इंतजार कर रहे थे| दोनों डाकू आये आर बहत चौकस थे, सब पर निगाह रख रहे थे| मुखबिर ने दूर से इशारे से निशानदेही का इशारा किया, जैसे ही उनके पास से गुजर रहे थे अचानक से बिजली की तेजी से दोनों को अपनी बाँहों की गिरफ्त में ले लिये उन दोनों ने उनकी बेहद मज़बूत गिरफ्त से उन्होंने निकल कर भगने की भरपूर कोशिश की पर उन्होंने नहीं छोड़ा| सिपाही भी दौड़ कर आया| और दोनों ने लाई रस्सी से डाकूओं को बाँध लिया सरे आम पीटते पीटते थाने में लेकर बंद कर दिया था और पूरी कानूनी कागज़ी करवाई तो उन्होंने स्टेशन पर ही पंचनामा, चश्मदीद गवाहों के बयान, नाम पते, रेलवे के सहायक स्टेशन मास्टर आदि के बयान भी ले लिख कर ऊपर भेज अगले दिन कोर्ट में उन्हें हाज़िर कर कस्टडी में ले लिया गया| एक डाकू ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका बदला ज़रूर लेगा, कभी तो छूटेगा ही| अगले दिन एसपी महोदय खुद पुलिस स्टेशन आये उन डाकूओं को भी देखा, उनमे से एक के सर पर 500 रूपया ईनाम था वह तुरंत ही जेब से निकाल कर दे दिया| फिर स्वयं जाकर स्टेशन पर साथ ले जाकर पूरे मौके वारदात पर जाकर देखा स्टेशन के सहायक स्टेशन से मिल कर तसल्ली कर यह भी ऐलान किया कि इस बहादुरी के लिये वे वीरता के इंडियन पुलिस मैडल(आईपीएम) की सिफारिश करने जा रहें है|
उन्होंने मुखबिर को 500 से 200 रुपये ईनाम तुरंत उसे दे दिया| उन दिनों के 200 रुपये अच्छी बड़ी धन राशि थी| उनकीं माँ और पत्नी खुश थी पर इतना बड़ा जोखिम लेने के लिये माँ ने आगे के लिये मना किया| सात बच्चों के पिता को बिना पुलिस को साथ लेकर जाने का काम अक्लमंदी का नहीं था,आगे कहा कि अगर कुछ ऊक चूक हो जाती तो उन सब का क्या होता?
अंग्रेज़ एस.पी.जो मेकेंजी साहेब ने जो ‘साइटेशन’ भेजा था वह यूनाइटेड प्रोविंस (यूपी) के आई.जी.से होकर उन्हें गवर्नर जनरल के कार्यालय से वीरता \के लिये आईपीएम की सरकारी घोषणा भी हो गयी थी| इस पदक पर एक नगद मैडल अलाउंस भी हुआ करता था| इस से उनकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी थी| अब तक उनका आठ बच्चो का बड़ा परिवार हो गया था, माँ भी जहाँ जहाँ पोस्टिंग होती जाती वहीँ साथ रहती थी| बीच बीच अपने गाँव जा कर अपने कारिंदों का काम देख आती थी तथा खेती से जो आमदनी होती थी उसे भी ले आती थी| बड़े परिवार का काफी खर्चा था| अपनी दो बेटियों की शादी उन्होंने अच्छे परिवार में जोरशोर से अपने गाँव से की थी| दोनों दामाद सरकारी नौकरी में थे एक मार्केटिंग इंस्पेक्टर, तथा दूसरे कोर्ट इंस्पेक्टर| दोनों शादियों में हाथी पर बारात की चढत हुई थी| काफी खर्चा हुआ था जिसका काफी पैसा उनकी माँ ने अपनी खेती की आमदनी की बचत से बहुत खर्चे की भर पाई की थी|
असल में शिव सिंह राणा के हाथ में पैसा टिकता नहीं था, जितना भी पास आता उसे खर्च करने में ज़रा भी देर नहीं करते थे| इसलिये सास बहू कुछ पैसा दबा कर रखती थी जो उनके शब्दों में ‘हारी बीमारी में काम आ सके और किसी के सामने हाथ न पसारना पड़े|
कुछ ऐसे आसार बने उनका दोबारा तबदला हल्द्वानी हो गया| हाला कि एक थाने में दोबारा बेहद कम ही हो पाती होंगी | एक बात और हुई जिन दो बड़ी बेटीयों की शादी साल भर पहले की थी वे और उनकी माँ अर्थात शांता तीनो ही गर्भवती हो गई थी| तीनों के बच्चे कुछ चार महीने के अंतराल में होने थे|
माँ और छोटी बेटी के बेटियां ही और जेठी बेटी को बेटा,हालाकि उस समय यह हो जाता था फिर भी माँ को काफी शर्म आ रही थी| अब वे सात बेटी और दो बेटों के बड़े परिवार वाले हो गए थे|
जब यह नवां बच्चा और सातवीं बेटी थी, घर के अन्दर से रोने की आवाज़ आयी, दरोगा जी बाहर बरामदे में खबर का इंतजार ही कर रहे थे, ऐसे समय में मन में जिज्ञासा तो होती है ही, सो निगाहें और कान बंद दरवाजे पर थे, छोटे बच्चे की रोने की आवाज़ आने से यह तो पता लग गया कि अन्दर सब कुछ ठीक हुआ| भगवान को सब ठीक होने पर मन ही मन धन्यवाद दिया, औरत के लिये यह दूसरा जन्म सा ही होता है, पर यह जानने कि भी बड़ी प्रबल जिज्ञासा हो रही थी कि बेटा हुआ है या बेटी? उठ कर दरवाजे पर कान लगा कर अन्दर की बातें सुनने की कोशिश भी की, फिर आकर कुर्सी पर बैठ गए| जैसे ही बैठे दरवाजा खुला माँ और दाई दोनों थे माँ ने कहा,
“ इस बार भी पोती हुई है|”
माँ थोडा गंभीर थी, शायद बहुत प्रसन्न नहीं थी, दाई ज्यादा निराश लग रही थी, अगर लड़का होता तो दाई ईनाम मांगती| उन्होंने जेब में से 21 रुपये जो ईनाम के लिये लाये थे अगर बेटा होता, पर उसे दुखी देखते देख दाई के हाथ में रख दिए, दाई को सुखद आश्चर्य और ख़ुशी दोनों हुए, उस का चेहरा खिल गया|
फिर दरवाजे के पास गए परदे के बाहर से ही कहा, “चौधरन, परेशान मत होना, लक्ष्मी आई है, सब अपने भाग्य का साथ लाती हैं, क्या पता यह सबसे ज्यादा भाग्य लेकर आई हो, इस लिये भगवान ने हमें भेजा हो|” वे जानते थे इस समय पत्नी को पति के ढाढस की बड़ी आवश्यकता होती है| पति का साथ हो तो वे बहुत साहसी बन जाती हैं नहीं तो बेहद कमज़ोर पड़ जाती हैं|
उस दिन दरोगा जी की जबान पर शायद साक्षात सरस्वती बैठी हुई थी, बाद में यही उनकी अंतिम संतान उनके अंत तक उनके लिये हमेशा सबसे भाग्यशाली भी सिद्ध हुई थी| शादी होने के बाद ससुराल चले जाने पर उसने अपनी ससुराल की बहुत अधिक जिम्मेदारी उठाई थी, दामाद का भाग्योदय भी उसके साथ शादी के बाद ही हुआ था| इसी ने दरोगा जी का सबसे ज्यादा ध्यान रखा था| दरोगा जी का गुस्सा मशहूर था पर यह अकेली उनके पास जा कर इतना कह दे, “बस बाबू जी बस“ तो मामला ठंडा पड़ जाता था| कम से कम उस समय के लिये|
भाई बहने सोचते थे कि बाबू जी उसका पक्ष ले कर उसकी आदत बिगाड़ रहे थे, सर पर चढ़ा रहे थे|
उन दिनों शिकार पर कोई कानूनी पाबंदी नहीं थी, सिर्फ परमिट लेना होता था अतः शिव सिंह राणा ने भी इस का शौक् पाला हुआ था| वे कई कई दिन के लिये जंगल में चले जाते थे| कभी शेर का शिकार तो नहीं कर पाए हैं एक बार एक तेंदुए का ज़रूर शिकार कर पाए थे| जिसकी खाल को अपने ड्राइंग रूम में आख़िरी दिनों तक लगाते रहे थे| एक बार अपने सब बड़े बच्चों को भी जंगल में रात भर बैठा कर जंगली जानवरों को दिखलाया था|
तेंदुआ काफी बड़ा था, जिसको ज्यादा पहचान नहीं है वे सब तो शेर की खाल ही समझते थे| वैसे ‘बिग कैट्स’ बाघ, शेर, चीता,पैंथर का शिकार करने वाले अंग्रेजों राजा महाराजों, बड़े अफसरों, या चोरी चोरी से इन्हें मार कर पैसे कमाने वाले शिकारी लोगों के कारण भारत से इन्हें विलुप्ति की कगार पर खड़ा कर दिया था|
देश के हालत तेज़ से बदले थे, 1947 में पार्टीशन और स्वतंत्रता दोनों हुए, दंगे फसाद भी हुए, और सरकारी नौकरी में के कामधाम करने और तौर तरीकों में बहुत अंतर आता जा रहा था अंग्रेज़ अफसरों की निष्पक्षता और ईमानदारी पसन्द थी| अंग्रेजों के बाद बने बहुत से हिन्दुस्तानी अफसरों ने गिरगिट की तरह रंग बदले, अंग्रेज़ अफसरों के जाने के बाद हुई रिक्त स्थानों को भरने के लिये उस समय अच्छों के साथ कुछ अयोग्य और अवसरवादी जूनियर अफसरों की लाटरी खुल गयी थी| दरोगा शिवसिंह राणा को देश के स्वतंत्र होने की तो ख़ुशी थी पर उन्हें सरकारी काम मे ऐसे लोगों से बड़ी चिड थी| अंग्रेज़ विदेशी थे, पर जिनके साथ शिव सिंह राणा ने काम किया उनकी निष्पक्षता, ईमानदारी और अनुशासन के वे कायल थे. वे काम को देखते थे तथा उसमें दखलंदाजी नहीं करते थे| काम करने वाले को उनकी खुशामद की ज़रूरत नहीं होती थी, कुछ लोग जो कभी सर्किल अफसर नहीं बनने वाले थे वे एस.पी, बन गए थे| सिफारिस, पक्षपात व् रिश्वत बढ़ती जा रही थी| ऐसे ही जे.एन.माथुर एस.पी. नैनीताल में आ गए थे| हल्द्वानी आकर काम करने के बारे में न पूछ कर अपनी रहने ठहरने की व्यवस्था, खाने पीने के बारे में ज्यादा रूचि दिखाई खैर यह सब तो डाक बंगले में इंतजाम किया हुआ था| अगले दिन वे व उनकी पत्नी बाज़ार देखने निकले शिव सिंह राणा भी साथ थे कुछ जेवर का सामान खरीदा और पेमेंट के बारे में शिव सिंह की तरफ देख कर दुकानदार से कहा कि अभी अपना पर्स लाना भूल गए हैं थानेदार के द्वारा भिजवा देंगे| दुकानदार को क्यों उज्र होता सामान उन्हें सौंप दिया|
जब कुछ दिन तक पैसा नहीं आया तो दुकानदार ने दरोगाजी को बताया| एस.पी.,जे एन माथुर साहेब की नीयत समझ गए थे, उन्होंने बिल को एक सिपाही के साथ नैनीताल भेज दिया| शर्मा-शर्मी में पैसा तो दुकानदार का आगया था पर एस.पी.माथुर नाराज हो गए और अपने इंस्पेक्शन नोट में थाने की दसियों गलतियाँ लिख कर अपनी भड़ास निकाली| शिवसिंह राणा को कहाँ ऐसे सुनना मंज़ूर था? जाकर जे एन माथुर को भला बुरा सुना दिया| यहाँ तक कह दिया कि ‘वे अब उनके नीचे नौकरी नहीं करेंगे, चाहे छोड़ने पड़े’|
घर वापिस लौटते ही उन्होंने अपने ट्रान्सफर के लिये डी.आई.जी को एप्लीकेशन भेज दी, जिसकी कॉपी एसपी को भेज दी| सिर्फ यहीं तक नहीं बैठे, डी.आई.जी. महोदय से मिलने के लिये समय भी माँगा| डीआईजी एस.एन,सक्सेना आई.पी.थे अपनी निष्पक्षता व् ईमानदारी के लिये जाने जाते थे|
डीआईजी ने एक हफ्ते बाद ही बुला लिया, ट्रान्सफर के कारण पूछने पर शिव सिंह राणा ने पूरी घटना सुना दी, डीआईजी ने तुरंत ही उनके बैठे बैठे एस.पी.के लिये फ़ोन मिलवाया और पूछा, जिसको टाल गया कि वे तो खुद ही पैसा भेजने वाले थे| तथा कहा कि शिव सिंह राणा का स्वभाव ही झगडालू है, पर डीआईजी समझ गए थे उन्होंने शिव सिंह राणा के अनुरोध को स्वीकार कर तुरंत ही शिव सिंह राणा को कुछ समय के लिये मुरादाबाद के थाना मुढापांडे में पोस्ट कर दिया था| यह कह कर फिलहाल यही जगह हो सकता है बाद में किसी बड़े थाने में बदली कर देंगे|
इस तरह से वे अपने प्रिय स्थान को छोड़ कर एक छोटे स्थान पर आ गए थे| अपने तीन बच्चों को तो वहीँ के स्कूल में दाखिल किया और दो को एक बेटे और एक बेटी को आध घंटे के रास्ते पर रामपुर में दाखिल करना पड़ा| एक समय पर तो एक पैसेंजर ट्रेन चलती थी उसमें जारे थे तथा दूस्र्री तरफ से पढने के बाद बस में आना पड़ता था दूरी तो 9 मील(14 किमी) थी पर देर काफी लगती थी| दो छोटी अभी स्कूल नहीं जाती थी| यह कोई ज्यादा अच्छा इंतजाम नहीं था| पर कोइ उपाय नहीं था|
इन्ही दिनों उन्हें अपनी ज़मीदारी को लेकर बड़ा झटका लगा, उत्तर प्रदेश सरकार ने ज़मीदारी उन्मूलन कानून लागू कर ज़मींदारी सिस्टम को ख़त्म कर दिया था, जो किसान ज़मींदार की खेत कर रहे थे अर्थात जोतदार थे उनको ज़मीन दे दी थी| उसके एवज में कुछ मुवायजे की रकम भी नगद न देकर ज़मींदारी बांड के रूप में देय थी, जिनका भुगतान भी 10 वर्ष से शुरु किया था, अर्थात 10 वर्ष का लॉकिंग पीरियड था| इस तरह वे ज़मीदार न रहकर साधारण श्रेणी में आ गए और वह आमदनी भी नहीं रही| अब उन्हें अपने रहन-सहन और खर्चे को कम करने की आवश्यकता आन पड़ी थी| उनकी समझदार माँ और पत्नी ने इस समय पूरा साथ दिया| अतः थोडी आर्थिक कठिनाई तो आई पर उन्होंने खर्चे सिकोड़ कर घर चलाना शुरू कर दिया था|
डी.आई.जी ने अपनी बात याद रखी शिव सिंह राणा को एक वर्ष होते ही अपने पास कोतवाली लखनऊ का कोतवाल बना कर पोस्ट किया, उन्हें आने पर नए आई.पी.एस. घमण्डी सिंह के नीचे काम करना था| ये कम उम्र के डायरेक्ट अफसर थे जिनकी पुलिस में सर्विस केवल छह वर्ष हुई थी, अनुभव कम होने के बावजूद वे काम में बहुत तेज़ तर्रार थे, काफी बहादुर भी थे| उन्हें जब अनुभवी, ईमानदार और उनकी तरह रिस्क लेकर भी काम करने वाला मिला तो शहर में गुंडागिरी और अपराध में भारी गिरावट आ गयी| अपराधी कितना भी ख़तरनाक और पैसेवाला हो उस पर हाथ डालते बिलकुल भी नहीं घबराते थे| कुछ भीड़ भाड़ के इलाके में कुछ अपराधी किस्म के मुसल्मान दुकानदारों से माहवारी वसुलते थे| एसपी घमण्डी सिंह ने वेश बदल कर एक बड़े व्यापारी दुकानदार के साथ बैठ कर गुंडे व् उसके गुर्गों को वसूली में देर करने के लिये दुकानदार को गाली गुफ्तार की और डराया, घमंडी सिंह व् वहीँ उन्हें खुद पकड़ा और पास छिपाए सिपाहियों ने सब गुर्गों को हथकड़ी पहना कर सरे बाज़ार पीटते पीटते हवालात में बंद कर दिया, बाकी थाने में कोतवाल साहेब ने सारी कानूनी कार्यवाही, जैसे सबूत,पंचनामा, चस्मदीद गवाह, पकड़ी और उगाही धनराशि सब इतने ढ़ंग से किया के सब को कोर्ट से सजा हुई|
उन्ही दिनों कुछ बिगडैल जवान लड़कों ने गर्ल्स कॉलेज में हॉस्टल में घुस कर एक लड़की के साथ बदसलूकी की करने की कोशिश की| हॉस्टल की वार्डन और लड़कियों ने गार्ड की मदद से एक लड़के को पकड़ लिया और थाने में फ़ोन कर दिया| पकडे जाने वाला लड़का अपने आप को कानपुर के डीआईजी का बेटा बता कर पकड़ने वाले सिपाहियों को डराने की कोशिस कर रहा था| थाने में जब उसके बाकि साथियों का नाम बताने में और उल्टा शिवसिंह को रोब व धमकी देने लगा तो शिव सिंह ने उसकी ज़बरदस्त पिटाई कर सब अपराधियों के नाम पते लिये तथा उठवा लिया| गर्ल्स कॉलेज और वार्डन को बुलवा कर उनसे पूरी वारदात की ऍफ़आईआर थाने के रजिस्टर में दर्ज करा ली| बाकि अपराधी में पकडे नवयुवको ने लड़के के पिता डीआईजी को फ़ोन किया जिसने कोतवाली थाने में फ़ोन कराया, ड्यूटी हेड कांस्टेबल ने आकर बताने पर शिवसिंह राणा ने बात नहीं की कहलवा दिया की मौजूद नहीं है| डीआईजी बार बार फ़ोन करते रहे पर उन्होंने फ़ोन पर बात नहीं करनी थी नहीं की| अगले दिन सवेरे उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दिया और पूर्री जाँच के लिये पांच दिन की पुलिस रिमांड भी ले ली|
शिवसिंह राणा जांच में तत्परता से लग गये, अपने थाने से एक होशियार हेड कांस्टेबल को जाँच अधिकारी नियुक्त कर दिया और उसे गाइड करते रहे उन्हें अंदाजा हो गया था उन पर दबाब डाला जाएगा| अभियुक्त युवकों के बयान दर्ज करवा लिए थे, जांच अधिकारी को हॉस्टल में भेज कर सताई हुई लड़की, व अन्य प्रत्यक्षदर्शियों, वार्डन और गेट के गार्ड के बयान भी भी दर्ज करा पुलिस स्टेशन के रोजनामचे में दर्ज करा दिया था| उन्होंने अपने एस.पी. को भी पूरे मामले की जानकारी दे दी थी, उनसे अनुरोध भी कर दिया था कि वे स्वयं अभियुक्त के पिता डीआईजी के दबाब आने पर उनका साथ न दें| वैसे भी पुलिस स्टेशन के सभी रिकॉर्ड में लिखा चुका है|
यह डी.आई.जी. कोई और नहीं थे बल्कि उनके डेढ़ साल पहले नैनीताल के एस.पी. थे जो लोकल प्रोमोटी थे जो अंग्रेज अफसरों और बहुत से अफसरों के नए बने पाकिस्तान में जाने के कारण प्रमोशन तो ज़रूर पा गए थे पर अपने पद के लेवल की गरिमा पर न पहुँच कर छोटी छोटी हरकतें करने वाले चिन्दी-चोर-थे| डीआईजी एस एन सक्सेना आई.पी( इम्पीरियल पुलिस) आदि की तुलना में कहीं नहीं बैठते थे|
अगले दिन ही जे.एन.माथुर सीधे थाने में पहुँच गए, तब तक शिव सिंह राणा अपने क्वार्टर में ही थे| आते ही माथुर ने अपना परिचय दिया और राणा के बारे में पूछा तो ड्यूटी अफसर ने बताया कि थोडी देर पहले आकर अपने इलाके में गश्त के लिये निकल गए हैं| उन्होंने थाने से एस पी को फ़ोन किया तो वहां से पता लगा कि वे रेंज डीआईजी के ऑफिस में गए हुए हैं| उन्होंने इन्क्वारी ऑफिसर जिसने इन्क्वारी की थी उसको बुलवाया तो उसने बताया कि उसने बताया कि फाइल तो उसने थाना अधिकारी को करने के बाद सोंप दी थी| अब वे वहां बैठे बैठे इंतजार कर रहे थे, अपने नालायक बेटे को मन ही मन कोस रहे थे कि उसके कारण उन्हें हिमाकत का सामना करना पड़ रहा था| अपने बीवी को अपने आप को भी कोस रहे थे कि क्यों शिवसिंह राणा से पंगा ले लिया था| एक घंटे के बाद शिवसिंह राणा आये डीआईजी माथुर को उचित ढंग से सम्मान दिया, माथुर साहेब मौके की नजाकत समझते हुए बहुत नरमी से पेश आये कहा, “आपके बच्चे ने गलती कर दी है उसका क्या करना है? जवान बच्चे हैं गलती कर डालते हैं?”
शालीनता से बेहिचक जबाब दिया, “ हमें मुजरिम का जो करना था नियम से कर चुके हैं, आगे कि कारवाई तो कोर्ट ही करेगा| डीआईजी महोदय अब जो कुछ करना कराना है कोर्ट से हो पायेगा मैं कुछ नहीं कर सकता, बेटे को पहले रोकना था|”
गरमा गर्मी बढ़ती गयी, डीआईजी ने ऍफ़आईआर देखनी चाही तो रजिस्टर न दिखा कर रिपोर्ट की नक़ल बनवा कर दे दी, पावती के तौर के लिये यही नियम कहता था| उन्होंने इन्क्वारी फाइल दिखाने को कहा उसे दिखाने के लिये मना कर दिया|
माथुर साहेब गरम हो गए कुछ उनको उल्टा सीधा कहते चले गए, “मैं तुम्हे सिखाऊंगा की अब तुम कैसे नौक्र्री करते हो?”
शिवसिंह राणा कहाँ चूकने वाले थे, जबाब दिया “किसी के बाप की नौकरी नहीं कर रहा हूँ, सरकार की कर रहा हूँ|”
शिवसिंह राणा ने थाने के रिकॉर्ड के लिये रोजनामचे में माथुर जी के आने की, कहा सुनी, उनके सरकारी ड्यूटी में दखलंदाजी, कोर्ट केस में अपने बेटे का बचाने के लिये कहना व धमकी की बात, उपस्थित स्टाफ के नाम नंबर के तौर पर दर्ज कर दी| अंग्रेजों के समय पहले ऐसा नहीं हुआ था, कि ओरों के लिये कुछ और अपनों के लिये| आगर उनके बेटे ने यह किया होता तो भी वो ऐसा ही करते|
मजिस्ट्रेट के कोर्ट मे तीनों चारों अभियुक्तों को ट्रायल के बाद ए महीने की सजा और 1500 रुपये के जुर्माने की सजा उसे दी| माथुर साहेब बहुत खिन्न हुए और शिव सिंह के प्रति और भी क्रुद्ध हो गए थे तथा उन्हें सबक सिखाने के लिये जल्दी से जल्दी कुछ करने कि ठान ली थी और ऐलान भी कर गए|
माथुर हाथ मलते रह गए, ऊँची सेशन अदालत से भी राहत नहीं मिली| उनकी किरकिरी हुई, डीआईजी ने उनकी सीनियर के साथ बदसलूकी की शिकायत उस समय के आईजी से की, उन्होंने इन्क्वारी कराई तो उलटे थाने के रोजनामचे में दर्ज रिकॉर्ड को मद्दे नजर माथुर को दोषी पाया गया| और उन्हें लिखित में ‘डिसप्लेज़र’ इशू किया गया| यह एक जूनियर के हाथों एक और हार हो गयी| घर पहुचे ने बीवी ने अलग उन्हें ताना दिया|
डीआईजी माथुर अपनी रैंक के कारण भूल गए थे, भारत के मूल कानून इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) और सीआरपीसी अर्थात भारतीय दंड संहिता और प्रक्रिया संहिता हर जगह सिर्फ दो पदाधिकारियों को अपने अपने क्षेत्र में विस्तृत पॉवर देते हैं वे हैं जिला मजिस्ट्रेट और थाना क्षेत्र में स्टेशन हाउस ऑफिसर अर्थात थानेदार या दरोगा जी वे किसी भी केस को बना सकते हैं या बिगाड़ने की क्षमता रखते हैं| उनसे ऊपर के अफसर सुपरवाइजरी ऑफिसर को सिर्फ डेलिगेटेड पॉवर हैं| अतः थानेदार को कभी कमज़ोर मान कर न चलें|
एस.पी. घमंडी सिंह ने अपने आप को इस सब मामले से जान बूझ कर अलग रखा, वह एक तरह से शिवसिंह राणा की एक तरह से मदद थी वर्ना माथुर साहेब उन पर दबाब डालने के लिये जोर ने दें| वैसे इन सब झमेलों के कारण इस पक्ष में थे आगे चल कर इस नए समय में जब अयोग्य लोग उन के ऊपर कण्ट्रोल करेंगे तो नौकरी करना कठिन होगा इस से अच्छा अब स्वच्छिक रिटायरमेंट रहेगा| एसपी घमंडी सिंह जी के सामने जिक्र आने पर उन्होंने इस मसले से शांति से विचार करने के लिये कहा| समझाया लोग तो नौकरी मे रिटायर होने पर एक्सटेंशन के लिये जी तौड़ कोशिश करते हैं और आप इस पर लात मार रहे हो तीन साढ़े तीन साल बचे हैं,फॅमिली भी अभी कच्ची है, चलने दो| आगे यह भी कहा कि जब तक वे हैं तब तक तो चालू रखो फिर सोचना| पर नहीं मानना था नहीं माने|
पर उनका गाँव नजदीक था इसलिये अब वे हर छुट्टी वाले दिन अपने गाँव में रहने जाने लगे थे, उन्होंने अपनी हवेली को साफ़ सुथरा करा लिया था ताकि जब वे आयें आराम से वहां रह सकें| उन्होंने अपने पिता के नाम से अपने गाँव के घेर में बने कमरों में एक बच्चों के प्राइमरी स्कूल खोलने का निर्णय किया, ताकि गाँव के बच्चे विशेष रूप से लड़कियां वहां पढ़ सकें| एक टीचर को रख कर पहली कक्षा शुरू करवा दी थी| अपनी माँ से उसका उद्घाटन कराया| स्कूल का नाम रखा ‘राय बहादुर दरियाव सिंह प्राइमरी पाठशाला|’ गाँव वाले इस पहल से बहुत खुश हुए| पहले ही दिन 12 बच्चों ने स्कूल में नाम लिखा लिया| बच्चों की फीस बहुत कम रखी गयी क्योंकि यह तो मूल रूप से धर्मार्थ कार्य था|
शिवसिंह राणा ने मुरादाबाद के बेसिक शिक्षा अधिकारी से संपर्क कर बताया कि वे उनके गाँव में जाकर पाठशाला को देख आयें अगर संभव हो तो वहां का स्थान आदि शिक्षा विभाग को बिना कुछ लिये दे देंगे पर अध्यापक आदि कि व्यवस्था कराने का काम उनका विभाग ले ले बस उनके पिता का नाम स्कूल में रहना चाहिए| उन्हें सुझाव अच्छा लगा और उन्होंने इस पर विचार करने पर हामी भर ली|
डीआईजी माथुर की घटना के लगभग छह महीने हुए होंगे शिवसिंह को आदेश हुआ की उनका ट्रान्सफर इटावा के डाकू विरोधी टीम में किया गया है| अब उनकी उम्र बावन की होने वाली थी परिवार कि जिम्मेवारी थी उन्हें यह ट्रांसफर बिलकुल समझ में नहीं आया| उन्होंने जाकर एसपी घमंडी सिंह से जाकर मामले के बारे में बात की और न जाने कि इच्छा बताई| उन्होंने आश्वासन दिया कि वे इस मामले में पता करते हैं|
इस बात को दस दिन हे हुए थे कि उन्हें आदेश आया के उनको अगले 15 दिन में रिपोर्ट करना है और उनकी जगह दूसरे इंस्पेक्टर को पोस्ट कर दिया जो अगले कुछ दिन में उनको रिलीव करने आ भी गया| उड़ते उड़ते यह खबर भी आ रही थी यह खतरनाक पोस्टिंग जो नए लोगों की जगह पचास से ज्यादा उम्र के शिवसिंह के पीछे श्रीमान जे एन माथुर का हाथ है|
क्योंकि इस नए माहौल में शिवसिंह का दम तो पहले ही घुट रहा था सो उन्होंने किसी भी तरह से ‘एंटी ड़ेकोईटी ग्रुप’ में न जाने का पक्का मन बना लिया| उन्होंने रोडवेज के पीछे खेतों में एक कॉलोनी बनाने के लिये सस्ते प्लाट मिल रहे थे उनमे से लिये उन्होंने पूरी कालोनी में अच्छे साफ़ सुथरे एरिया में प्लाट छांट कर ले लिये थे| मोहल्ला असलात पुरा के नजदीक होने के कारण बहुत कम लोगों ने उस तरफ प्लाट खरीदने में रूचि दिलाई थी| लोगबाग इंतजार देख रहे थे कि दूसरे लोग खरीद लें तभी लें| रोबदार कोतवाल के खरीदने के बाद लोगों में थोडा उत्साह बढ़ गया था कि ऐसे लोग कॉलोनी में आयेंगे तो खतरा कम रहेगा| उनके नाम का अच्छा रुतबा था, जिसमें लोगों को विश्वास और सुरक्षा बढ़ा था|
खबर आने के बाद शिवसिंह ने अपनी पत्नी और माँ और से इस बारे रिटायरमेंट लेने की बात की, वे इस बात के लिये तो सहमत थे कि डाकुओं की ड्यूटी पर न जाने वाली बात तो ठीक है पर उनके अनुसार ऊपर के अधिकारियों से अनुरोध करने में तो कोई हर्ज़ नहीं है कि उस के अलावा दूसरी ड्यूटी दे दी जाए| उन्होंने दोनों की बात] केवल सुन ली पर मन ही मन पेंशन पर जाने का तो वे बना चुके थे ही सो उसी उस पर अड़े रहे| अपना मन शांत कर सोच विचार करने के लिये उन्होंने अपने छोटे बच्चों के साथ दो तीन दिन के लिये अपने गाँव में जाना ठीक समझा|
प्राइवेट कार्यों में प्रयोग के लिये सरकारी पुलिस जीप का इस्तेमाल नहीं करते थे पर अपना स्तर भी बना कर रखते थे| उन्होंने अपनी प्राइवेट जीप रख छोड़ी थी उसी में अपनी पत्नी, माँ तीन कुंवारी बेटियों और छोटे बेटे को लाद कर गाँव के लिये चले थे कोई सवा घंटे का रास्ता था| अभी गाँव पहुँचने में बस पंद्रह मिनट में पहुँचने वाले थे कि सामने से आने वाले एक तेज ट्रक से बचने के लिये गाडी को कच्चे में बाएं कटा वहां एक छोटा गड्ढा पर व्हील आने पर गाड़ी पलट गयी| एकेक कर सब को निकाला थोडी बहुत चोट सब को थी बच्चे रो रहे थे| माँ और बीबी अपना दुःख भूल कर बच्चों को चुप करने में लगी थी| भगवान् को याद कर धन्यवाद कर रही थी कि उनकी सबकी जान बच गयी| चोट से ज्यादा शॉक में थे| सुराही में पानी ले कर चले थे सभी को पिलाया| आसपास कोई आदमी नहीं था| शिवसिंह खूब अच्छे मज़बूत थे उन्होंने गाड़ी को सीधा करने के लिये जोर लगाया गाड़ी उठ पा रही थी फिर पूरा साँस भर पूरा जोर लगा के उन्होंने उसे उठा कर सीधा कर दिया| इस प्रयास के बाद उनकी अंकों के सामने अँधेरा हो कर चक्कर आया वे नीचे बैठ गए फिर धीरे धीरे पानी पिया कमर में काफी जोर का झटका आ गया था उसे मसला और कुछ सामान्य से हो गए.धीरे धीरे अपनी पुरानी बरेली जाट रेजिमेंटल सेंटर बरेली केन्ट से खरीदी पुरानी फौजी जीप को चलाते हुए अपनी गाँव की पुश्तनी हवेली में पहुँच गए|
घर पहुंच कर अपने पलंग पर जा कर लेट गए, बताया कि कमर और छाती में काफी दर्द है| उन्हें जल्दी ही हल्दी का गरम दूध पिलाया, उनके भतीजे ने गरम तेल में लहसुन पका कर कमर की मालिश की, गरम तवे पर गरम रुई से सिकाई की गयी| जिससे काफी राहत मिली|
रात भर काफी परेशान हुए| उनके सीने में काफी दर्द था उन्हें लगा कि कहीं दिल में तो कहीं कुछ गड़बड़ नहीं हुई है| अगले दिन बेहतर थे पर कमर और सीने के दर्द बीच बीच में तंग करते रहे| उन्होंने अपनी माँ और पत्नी को बता दिया कि उन्होंने पक्का तय कर लिया है कि इस हालत में अब और नौकरी नहीं करेंगे| अपनी योजना के अनुसार चार दिन के बाद अपनी माँ और दो सबसे छोटी बेटियों को गाँव में छोड़ कर वे वापिस मुरादाबाद चले गए| दोनों छोटी बेटियों ने गाँव में अपने स्कूल में पढना शुरू कर दिया था|
मुरादाबाद में जाकर वहां के मशहूर डाक्टर एस कुमार को दिखाया, उन्होंने कमर का एक्स-रे कराया कहा कि हड्डियाँ तो ठीक हैं शायद मांसपेशियां और टेंडन में गड़बड़ हो सकती है| ब्लडप्रेशर थोडा ज्यादा निकला वहां भी छाती की मांसपेशियों में ही ज्यादा वज़न उठाना से हानि की सम्भावना ज्यादा बताई| दर्द की दवा दे दी और पूरा रेस्ट करने के लिये सलाह का मेडिकल रेस्ट सर्टिफिकेट भी दे दिया| पहले से ही मन खट्टा था अब तो मन पूरा उखड गया, दूसरे स्वाथ्य की तरफ से घबराये हुए थे कि बिलकुल कच्ची फॅमिली है, अतः उन्हें अपने ही नहीं परिवार के लिये भी अभी दुनिया में रहने की ज़रूरत थी, तीसरे वे जे एन माथुर की तरह के सीनियर अफसरों के नीचे नौकरी करना अपनी हिमाकत समझते थे| अतः पहले तो उन्होंने कई महीने तक मेडिकल ग्राउंड पर छुट्टी रक्खी फिर रिटायरमेंट की एप्लीकेशन भेज ही दी, उन्हें एस पी घमंडी सिंह ने भी बड़ा समझाया, यहाँ तक कि डीआईजी सक्सेना साहेब ने भी रूकने की सलाह दी थी पर 27 वर्ष की सर्विस में काफी अपनी पहचान और अच्छा नाम छोड़ कर पेंशन पर चले गए| इन कई महीनों में स्वास्थ्य में धीरे धीरे काफी सुधार आता गया था| वैसे भी उनके व्यस्त रहने में कोई कमी नहीं आई थी, अपना नियम से उठना बैठना, टहलना, समय पर खाना, चाय के अलावा उन्होंने स्कूल को भी खूब ठीक करा दिया था, शिक्षा अधिकारी की तेम देख कर संतुष्ट थे, अब शिक्षा विभाग से मंजूरी का इंतजार था| सुचारू पढाई के कारण विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही थी|
उन्होंने अपनी खेती की ज़मींन और फसल में भी रूचि दिखलाई और इंतजाम का बेहतर प्रंबधन करना शुरू कर दिया था| इस तरह से रिटायर्ड ज़िन्दगी को अच्छी से अच्छी तरह से रहने की कोशिश कर रहे थे| उनकी वेतन से आमदनी आधी रह गयी थे, मेडल अलाउंस और खेती में बढी आमदनी से वह कमी कुछ हद तक पूरी हो जाती थी अतः अपना जीवन स्तर ठीक रख रहे थे| यहाँ रहते उन्होंने अपनी पांचवी कन्या की शादी अच्छे परिवार में कर दी| बड़े बेटे ने शिव सिंह ने उन्हें अपनी बी.एस.सी की पढाई पूरी कर ली थी अतः उसने कई स्थानों में नौकरी के लिये आवेदन के फार्म भेज दिए थे|
इन्ही दिनों उनके एक मित्र जो पुलिस इन्स्पेटर थे और मुरादाबाद में ही एक थाने के थानेदार भी थे, ने उन्हें सलाह दी कि क्यों न दोनों मिल कर नए मोहल्ले में अपने अपने मकान बना लें ताकि बच्चों की पढाई भी बेहतर हो जायेगी और शहर का रहना भी हो जाएगा| इस तरह उस कॉलोनी हरपाल नगर की शुरुवात हुई और धीरे धीरे बसती चली गई| दरोगा जी ने अपना स्तर बनाये रखा, धीरे धीरे मुरादाबाद में ज्यादा तथा अपने गाँव की हवेली में कम से कम| उनके द्वारा लगाया गया उनके पिता के नाम का पौधा पौधा खूब फला फूला अगले 10 वर्ष में हाई स्कूल बन गया| लगभग अढाई सौ बच्चे हो गए थे जगह कम पड़ रही थी, उन्होंने अपनी चार बीघे ज़मींन और लगी ही अपने चचेरे भाई की दो बीघे जमीन स्कूल को दान कर दी
जिससे स्कूल की दो ब्रांच बन गयी, बिल्डिंग शिक्षा विभाग में बनवा दी| स्कूल उनाती करता चला गया| इस बीच एक मजेदार घटना हुई| एक दिन जब दरोगा जी स्कूल से होकर मुरादाबाद जा रहे थे तब पतली सडक पर जा रहे थे रास्ते में सडक पर एक पेड़ की टहनी टूटी हुई रास्ते को रोके हई थी सो उनके ड्राईवर ने गाडी रोक कर उसे उठाने के लिये जा रहा था, तभी एक व्यक्ति ने जिसने मुंह पर कपडा लपेटा हुआ था, पास आकर दरोगा जी के पैर को पकड़ कर खींच कर बाहर निकलना चाहा, दरोगा जी पूरा जोर लगा कर जोर से उसे पैर से जोर का धक्का मारा जिससे वह पतला सा आदमी गिर गया, 65 वर्षीय मज़बूत दरोगा जी ने बाहर निकल कर उसके पेट में जोर से लात लगाई और अपने होल्स्टर से अपना रिवाल्वर उस पर तान दिया| कड़क कर उसे मुंह से कपडा हटाने के लिये कहा और पूछा “कौन हो, क्या चाहते हो”|
उन्हें चेहरा देखा हुआ तो लगा पर याद नहीं आया| उस ने दोनों हाथ जोड़ कर जान बक्शने की भीख मांगी, और कहा, “माई बाप बता दूंगा” | “जा बक्श दी बता क्या बात है|” दरोगा जी ने कहा और रिवोल्वर को हटा लिया| उसने बताया “मैं कालू गडरिया हूँ जिसे आपने पकड़ कर 14 वर्ष की जेल में डलवाया था| मेरी मति मारी गयी जब जेल काटकर बाहर निकला तो उसे किसी ने आपको मारने के लिये 100 रुपये की सुपारी दी और यह चाक़ू दिया और पूरा पता ठिकाना बताया था|” उसने चाक़ू उनके क़दमों में रख दिया|
दरोगा जी ने कहा “बस सच सच यह बता दो कौन था सुपारी वाला|”
“मैं नहीं जानता उसे किसी ने भेजा था पुलिस में किसी के बेटे को आपने सजा दिलाई थी कुछ ऐसी बात कान में पड़ी थी”|
आगे कहा, “मेरी जिन्दगी आपने बक्श दी है, यह उपकार आपने इस पापी पर किया है|”
कुछ रूक आगे कहा “मै आप को भगवन मानता हूँ, चाहे अब मैं मजदूरी करूं या भीख मांगूं अब पुराने रास्ते पर कभी नहीं चलूँगा| अब इधर कभी नहीं फटकूगां”| और वह खेत में अन्दर चला गया |
दरोगा जी चल दिए उन्हें याद आया कि जिन दो डाकूओं को उन्होंने निहत्त्ते पकड़ा था उनमे से एक था उसी केस में तो उन्हें ‘किंग’स पुलिस मैडल फॉर गैलेंट्री’ मिला था| आगे यह भी सोच रहे थे क्या डीआईजी माथुर ने ये सुपारी दिलवाई होगी, क्या कोई इतना सीनियर गिर सकता है?
यह है दरोगा जी की कहानी, आगे अगले दस वर्षों में मुरादाबाद का हरपाल नगर एक अच्छी, खासी कॉलोनी बन गया था| जो ज़मींन, घर बनाते समय दरोगा जी ने खरीदी थी वह सब पड़ी पड़ी काफी महँगी हो गयी थी, दरोगा जी के दोनों बेटे ठीक पढ़ कर ठीक ठाक सरकारी नौकरी में लग गए थे, उनकी माता जी ने अपनी सौ वर्ष की आयु के बाद जीवन लीला समाप्त की| छोटी सातवीं बेटी कि सबसे साधारण स्थान पर शादी हुई, पर वह तो ‘लकी चार्म’ थी, उसकेपति का ही नहीं पूरे परिवार का भी पाने मायके की तरह भाग्योदय होता गया|
एक बड़ा ही अजीब संयोग हुआ, वहीँ डीआईजी जे एन माथुर ने एक छोटा प्लाट हरपाल नगर में ही खरीदा और उनका मकान भी अच्छा न बना कर बहुत ही साधारण सा बन पाया बल्कि कुछ अधुरा सा बिना बना हिस्सा भी रह गया| उनकी पत्नी जो शायद उठ नहीं पाती थी सहारा देकर खुद उठाते बैठाते थे| दरवाजा खुला हो तो सडक से ही सा दिखलाई पड़ता था| सब कुछ देख कर आश्चर्य होता कि उनकी बड़े पद से रिटायर होने के कारण बावजूद ऐसी दयनीय हालत कैसे हो सकती है? धीरे धीरे पता चला कि नौकरी में किसी गबन के मामले में अभी तक विभागीय जांच चल रही है, जिसका फैसला अभी तक नहीं हुआ है रिटायरमेंट के बाद भी चल रहा है| उनका एकलौता बिगड़ा हुआ बेटा उनके जमा नगद पैसा उडा ले गया है| वह शराब और शबाब में पैसा उडाता है| बीच बीच भी आकर उन्हें डरा धमका कर ले जाता रहता है|
माथुर साहेब द्वारा की गयी कारवाई व व्यवहार के कारण दरोगा जी ने खीज कर रिटायरमेंट का फैसला किया था| उस वक़्त फैसला गलत लगता था जैसे उन्होंने अच्छी खासी नौकरी पर लात मारी थी| माथुर साहेब का विचार था कि उससे घबरा कर ही शिव सिंह राणा मैदान छोड़ कर भाग गए| वास्तव में छोड़ने के उन्हें लाभ हुए खेती बाड़ी समय से संभाल ली, मुरादाबाद में सस्ते में बहुत अच्छा मकान हो गया| एक अन्य प्लाट में मकान बना कर किराए पर चढ़ाने से आमदनी होने लगी| कॉलनी में रुतबा केवल दरोगाजी का था डी आई जी माथुर की कमज़ोर हालत थी| वहां से निकलते हुए अगर डी आई जी सामने से आते हुए दरोगा जी तो देख लेता तो मुंह फेर कर अन्दर लपक जाते या छिप जाते| पद की बात रही उनका सबसे छोटा शीघ्र प्रमोशन पाकर डी.आई.जी. बन गया तब दरोगा जी बहुत खुश हुए और माथुर साहेब को बड़ी निराशा| माथुर साहेब किसी किसी दिन अपनी को सुनाते, ‘ पूत कुपूत तो फिर क्या धन संचय, और पूत सुपुत तोफिर क्या धन संचय|’ माँ बेटे की बुराई नहीं सुन सकती थी तिलमिला जाती|
और दरोगा जी कहते हुए देखे गए ‘मुद्दई लाख बुरा चाहे क्या होता है, वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है|’