अब रीमा की ज़िंदगी में एक नई परिपक्वता आ चुकी थी।
पूरे हफ्ते वो सामान्य ज़िंदगी जीती — काम, दोस्तों की मुलाकातें, किताबें, कभी-कभी अकेली शामें।
मगर जैसे ही शनिवार आता…
शाम ढलते ही रीमा का कमरा बदल जाता —
उसकी आँखों में अलग चमक आ जाती, बदन की चाल में एक नर्मी, और होंठों पर एक ख़ामोश आमंत्रण।
शनिवार, रात 8:30 बजे –
आज रीमा ने सिर्फ़ एक मेहमान बुलाया था — राहुल, एक शांत और गहरा इंसान, जो कुछ समय से उसकी ज़िंदगी में लगातार आ रहा था, लेकिन कभी रीमा की हदों को पार नहीं करता।
राहुल:
"तुम हर शनिवार कुछ और लगती हो… जैसे कोई अलग रूप में आती हो।"
रीमा (धीरे से):
"मैं वही रहती हूँ… बस अपने असली रूप में सिर्फ़ शनिवार की रातों को आती हूँ।"
उनकी रातें अब सिर्फ़ वासना नहीं थीं — उसमें एहसास था, आँखों की बात थी, और वो चुप्पियाँ जो सब कुछ कह जाती थीं।
रविवार की सुबह –
रीमा चुपचाप अपने बाल बाँधते हुए बोलती —
"अब अगला शनिवार… तब तक मेरी दुनिया मुझे संभालने दो।"
राहुल समझता था, कोई सवाल नहीं करता।
कहानी का अगला हिस्सा: "शनिवार की रात – नया मेहमान"
शनिवार, रात 9:15 बजे –
दरवाज़े की घंटी बजी।
रीमा ने दरवाज़ा खोला — सामने था अविनाश।
लंबा, थोड़ा संकोची, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी गहराई थी।
अविनाश (धीरे से):
"तुम सच में वैसी ही हो… जैसी तुम्हारी तस्वीरों में लगती हो।"
रीमा (हौले से मुस्कराते हुए):
"और तुम… थोड़े ज़्यादा सच्चे लग रहे हो, जितना मैं उम्मीद कर रही थी।"
रीमा ने कमरे में धीमी रोशनी की, म्यूज़िक लगाया, और दोनों ने वाइन के दो गिलास उठाए।
बातें शुरू हुईं — किताबों, फिल्म, जीवन के उलझे रिश्तों की।
फिर, एक ख़ामोशी आई — लेकिन वो बोझिल नहीं थी, वो आमंत्रण जैसी थी।
अविनाश:
"क्या हम… चुप रह सकते हैं थोड़ी देर… बिना किसी डर के?"
रीमा:
"कभी-कभी सबसे गहरे पल शब्दों के बिना ही होते हैं…"
और फिर एक स्पर्श… धीमा, संकोच से भरा… मगर सच्चा।
रीमा ने खुद को अविनाश की बाँहों में धीरे से ढाला —
उसने खुद को बिना जल्दबाज़ी, बिना अभिनय — बस महसूस करने दिया।
ये रात अलग थी। इसमें उत्तेजना थी, पर शांति भी।
ये कोई खेल नहीं था… ये एक सांस लेने जैसा अनुभव था। कहानी का नया हिस्सा: "रीमा का ठहराव"
रीमा अब माँ के घर आ चुकी थी। एक साल की भागती दौड़ती, चुपचाप जलती वीकेंड ज़िंदगी के बाद, अब जैसे वक्त थम गया था।
माँ का छोटा-सा घर, आँगन में तुलसी का पौधा, रसोई से आती पकवानों की खुशबू, और दीवारों पर फैली पुरानी यादें।
यहाँ ना शनिवार अलग लगता था, ना रविवार। सब दिन एक जैसे — शांति भरे।
सुबह –
रीमा माँ के साथ चाय बनाती, नैना (छोटी बहन) कॉलेज के लिए तैयार होती।
दिनभर माँ-बेटियों की बातें होतीं, कभी मोहल्ले की औरतें मिलने आ जातीं, कभी पुरानी सहेलियाँ।
रीमा (सोचते हुए):
"कितना अलग है ये सब उस दुनिया से… यहाँ किसी को फर्क नहीं पड़ता कि मैं कैसी हूँ, कितनी रातें जागती रही हूँ, या कितनी खामोशियों से भरी हूँ।"
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रात का सीन —
रात को जब सब सो जाते, रीमा छत पर चली जाती।
चाँद को देखती रहती… अपने पुराने वीकेंड्स को याद करती… उन रातों की दीवानगी, वो छुपी हुई आग, जो अब अंदर ही अंदर सुलगती थी।
लेकिन यहाँ, माँ के घर में, रीमा ने खुद से एक वादा किया था —
"जब तक मैं यहाँ हूँ… मैं खुद को शांत रखूँगी। मैं इस घर की गरिमा, माँ के विश्वास और नैना की मासूमियत का मान रखूँगी।"
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धीरे-धीरे —
रीमा अब हर सुबह योगा करने लगी थी।
दोपहर में माँ को दवाइयाँ देती, कहानियाँ सुनाती।
रात को खुद के लिए डायरी लिखती — अपने दिल के अनकहे जज़्बात उतारती।
रीमा की डायरी में एक लाइन लिखी थी उस रात:
"मैं बदल रही हूँ… या शायद मैं वही बन रही हूँ, जो हमेशा थी — सिर्फ़ अब मुझे खुद दिख रहा है।"
रीमा अब माँ के घर पर थी, और उसी मोहल्ले में उसकी छोटी बहन नैना का भी घर था।
नैना की अभी नई-नई शादी हुई थी, लेकिन उसका पति अक्सर काम के सिलसिले में बाहर शहरों में रहता था।
घर अकेला पड़ा रहता था — नैना भी अकेली, चुपचाप।
और धीरे-धीरे, रीमा को अहसास हुआ —
नैना भी कहीं न कहीं उसी आग को अपने भीतर दबाकर जी रही थी, जिसे रीमा ने अपने वीकेंड्स पर जिया था।
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एक शाम — नैना का घर
रीमा नैना के घर पहुँची — नैना ने गर्मागर्म चाय बनाई, कुछ हल्की बातें शुरू हुईं।
नैना (मुस्कुराते हुए, थोड़ी शरारत से):
"दीदी… तुम तो खुद को बहुत संभाल लेती हो…
पर सच कहूँ — कई बार दिल करता है, बस सब छोड़ दूँ… वही करूँ जो दिल चाहे।"
रीमा चुप रही, उसकी आँखों में एक गहरी मुस्कान तैर गई थी।
रीमा (धीरे से):
"दिल की सुनने से डर कैसा, नैना? जो भीतर है, वो कभी ना कभी बाहर आ ही जाता है…"
दोनों बहनें चुपचाप एक-दूसरे को देखती रहीं —
बिना शब्दों के समझ गईं कि दोनों के अंदर एक जैसी तड़प, आज़ादी की प्यास थी।
रात करीब 11:30 बजे – नैना का घर
रीमा और नैना अभी भी बातें कर रही थीं, लेकिन नैना का चेहरा थोड़ा बेचैन दिख रहा था।
वो बार-बार मोबाइल स्क्रीन देख रही थी… जैसे किसी का इंतज़ार हो।
फिर अचानक, नैना ने चुपचाप फोन उठाया, और किसी को कॉल कर दिया।
नैना (धीरे से, फुसफुसाते हुए):
"आ सकते हो...? हाँ… अभी।
दीदी मेरे साथ हैं, चिंता मत करो।"
रीमा ने ये देखा तो उसकी भौंहें हल्की उठीं, पर उसने कुछ नहीं कहा —
बस हल्की मुस्कान के साथ चाय का घूँट लिया।
करीब 20 मिनट बाद, दरवाज़े पर धीमी-सी दस्तक हुई।
नैना (धीरे से रीमा से):
"दीदी… वो आ गया।
तुम रहोगी ना मेरे साथ?"
रीमा बस उसकी आँखों में देखती रही —
कोई सवाल नहीं, कोई नफ़रत नहीं — बस एक समझदारी भरी सहमति।
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दरवाज़ा खुला।
अंदर आया एक लंबा, हैंडसम लड़का — रवि।
लगभग नैना की उम्र का, थोड़ी संकोच भरी मुस्कान के साथ।
रवि (धीरे से):
"हाय नैना... हाय दीदी।"
रीमा ने सिर झुकाकर हल्की मुस्कान दी।
कमरे में एक अजीब-सी नमी फैल गई थी — जैसे हवाओं में कोई राज़ घुल गया हो।
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रात गहराती रही —
तीनों ने कुछ देर हँसी-मज़ाक किया, बातें कीं।
रवि, नैना के बहुत करीब बैठा था — और रीमा खामोशी से सब देख रही थी, जैसे कोई पुरानी कहानी दोबारा आँखों के सामने चल रही हो।
धीरे-धीरे, नैना ने रवि का हाथ अपने हाथों में ले लिया।
रीमा ने देखा —
अब नैना भी उसी रास्ते पर थी, जिस पर कभी वह खुद चली थी।
कहानी का अगला हिस्सा: "रीमा का गुस्सा"
जब रीमा ने देखा कि नैना इतनी आसानी से रवि को अपने करीब आने दे रही है,
तो उसके अंदर एक अजीब-सी बेचैनी और गुस्सा भर गया।
वो जो खुद अपने जज़्बातों को संभालने की कड़ी मेहनत कर रही थी, अब अपनी छोटी बहन को इस रास्ते पर जाते देख नहीं पा रही थी।
रीमा (गुस्से में, उठते हुए):
"नैना!
तुम समझती भी हो, तुम क्या कर रही हो?
ऐसे कैसे किसी अजनबी को घर बुला लेती हो?"
रवि और नैना दोनों चौंक गए।
कमरे में अचानक सन्नाटा छा गया।
नैना (थोड़ी सहमी हुई, लेकिन ज़िद में):
"दीदी… मैं बच्ची नहीं हूँ।
मुझे भी अपना जीवन जीने का हक़ है।
जैसे आप...!"
नैना ने अपनी बात बीच में रोक ली, पर इशारा साफ था।
रीमा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया।
वो जानती थी कि नैना सच कह रही थी — पर वो ये भी जानती थी कि ये रास्ता जितना मोहक दिखता है, उतना ही खतरनाक भी था।
रीमा (कड़ाई से):
"तुम्हें नहीं पता नैना... ये रास्ते कहाँ ले जाते हैं।
आज तुम्हें मज़ा लगेगा, लेकिन कल पछताओगी।
मैं नहीं चाहती कि तुम मेरी तरह किसी खालीपन में गिर जाओ।"
नैना की आँखों में आँसू आ गए।
रवि चुपचाप खड़ा था, कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर रहा था।
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थोड़ी देर बाद –
रीमा ने रवि से कहा:
रीमा (सख्त आवाज़ में):
"अब तुम जा सकते हो। नैना को अकेला छोड़ दो।"
रवि ने बिना कुछ कहे सिर झुकाया और चुपचाप दरवाज़े से बाहर निकल गया।
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कमरे में सिर्फ रीमा और नैना थीं।
नैना (आँसू भरी आवाज़ में):
"दीदी... मैंने बस थोड़ी खुशी चाही थी।
मैं थक गई हूँ अकेले रहकर।"
रीमा (धीरे से, उसकी पीठ थपथपाते हुए):
"खुशी ढूंढो नैना… लेकिन ऐसे नहीं।
खुद को खोकर नहीं।"
कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा था।
नैना की आँखों में आँसू थे — रीमा का चेहरा भी भीगा हुआ-सा लग रहा था,
गुस्से और दर्द दोनों से।
तभी नैना धीरे से आगे बढ़ी, और रीमा को कस कर गले लगा लिया।
नैना (रोते हुए):
"सॉरी दीदी...
मुझे माफ कर दो।
मैं बस... अकेली हो गई थी… डर गई थी।"
रीमा भी खुद को रोक नहीं पाई।
उसने भी नैना को मजबूती से बाँहों में भर लिया।
रीमा (धीमे स्वर में, आँसू पोंछते हुए):
"नैना…
तुम मेरी बहन हो।
मैं तुम्हें किसी भी हाल में टूटने नहीं दूंगी।
हम दोनों साथ हैं ना — फिर डर किस बात का?"
दोनों बहनें एक-दूसरे से लिपटी रहीं।
उनके आँसुओं ने उस रात सारे ग़लतफ़हमियों को बहा दिया।
अब वहाँ सिर्फ प्यार था, अपनापन था, और एक वादा — कभी भी एक-दूसरे का साथ ना छोड़ने का।
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धीरे-धीरे रात ढल गई।
रवि जा चुका था, और कमरे में फिर से सुकून आ गया था।
रीमा और नैना साथ बैठीं, चाय पीते हुए चुपचाप मुस्कुरा रही थीं।
दोनों ने एक-दूसरे को पाया था — नए सिरे से।