"सरहद पर तनाव है, देखो कहीं देश में चुनाव तो नहीं है?"
हर बार जब देश चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा होता है, सीमा पर तनाव अचानक बढ़ जाता है। टीवी पर एंकर ऊँची आवाज़ में 'राष्ट्र खतरे में है' का ऐलान करने लगते हैं, और सोशल मीडिया देशभक्ति से भर जाता है। लेकिन क्या यह एक संयोग है या किसी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा?"
2019 का पुलवामा हमला याद है?
14 फरवरी को हुआ वह हमला, जिसमें 40 से अधिक CRPF जवान शहीद हुए। देश भर में गुस्सा फूटा, सरकार ने एयर स्ट्राइक की, और राष्ट्रवाद के ज्वार पर सवार होकर चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल की।
अब 2025 का पहलगाम आतंकी हमला। वही स्क्रिप्ट, बस मंच नया। लोग फिर मरे, माताएँ फिर रोईं, नीती निर्मातावो ने फिर राजनीति शुरू की, इसे बिहार और बंगाल चुनाव अभियान का हिस्सा बना कर, कहा जा रहा 'देखो-देखो, धर्म पूछकर मारा, जाति नहीं', धर्म संकट में है, हमें ही वोट दो।
नेतृत्व की प्राथमिकताएँ :
22 अप्रैल को जब पहलगाम में गोलियाँ चल रही थीं, तब हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री सऊदी अरब में थे, शायद अपने मित्रों के लिए कारोबारी सौदे पक्के करने और दुनिया को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का पाठ पढ़ा रहे थे। प्रधानमंत्री मोदी 23 अप्रैल को विदेश से दिल्ली लौटे। जब वे 23 को दिल्ली पहुँचे थे, तो क्या वे उसी दिन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए देशवासियों को संबोधित नहीं कर सकते थे? मगर BJP–RSS के चुनावी ब्रांड-एम्बेसेडर मोदीजी ने सोचा... "जब बिहार में चुनावी मुनाफ़ा लिया जा सकता है, वहाँ सहानुभूति से वोट बन सकते हैं तो सीधा देश कि राजधानी दिल्ली से क्यों बोलूं?"
24 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने बिहार से देश को संबोधित किया। बता दे, यह वही बिहार है जहाँ आगामी चरण में चुनाव होने हैं। बिहार से शोक प्रकट करना एक रणनीतिक चुनावी फ़ैसला था।
फिर वही भाषण, शहीदों का ज़िक्र, लाल आँखें, घड़ियाली आँसू, गीदड़ भभकी, ढेर सारे वादे, बयानबाज़ी, "Action Soon" के नारे...
लेकिन सवाल वही हैं:
पुलवामा में RDX कहाँ से आया था?
हमले की खुफिया जानकारी क्यों नहीं थी?
काफिले की सुरक्षा में चूक कैसे हुई?
CRPF को एयरलिफ्ट करने की माँग ठुकरा दी गई थी,
एक स्वयंघोषित देशभक्त पार्टी सत्ता में होने के बावजूद भी
कोई ठोस जाँच, कार्रवाई या जवाबदेही तय क्यो नहीं हुई?
इन सवालों पर सरकार चूप क्यो है?...
आज हालात ये हैं कि जो भी सत्ता से प्रश्न करता है, उसे देशद्रोह की मुहर लगा दी जाती है। जो भी जवाब माँगता है, उसकी नीयत पर संदेह किया जाता है, उसे साजिशकर्ता घोषित कर दिया जाता है। 'यह वक्त आलोचना का नहीं है, एकता का है' यह वाक्य अब एक भावनात्मक ढाल बन गया है, जिसके पीछे सरकार अपनी हर विफलता, हर अनदेखी को छिपा लेती है। सवाल अब गुनाह बन चुका है, और समर्थन राष्ट्रभक्ति का नया प्रमाण-पत्र।
("हा-हा, मैं 'मोदी सरकार' पर सीधा और आक्रामक रुख दिखा रहा हूँ क्योंकि पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से वही सत्ता में है।")
अब पाकिस्तान बूँद-बूँद पानी के लिए तरसेगा:
कहाँ गया वह 'पाकिस्तान जाने वाला पानी', जिसे हर हमले के बाद 'बंद' करने की बात कही जाती है?
सिंधु जल समझौता एक अंतरराष्ट्रीय संधि है, जिसे तोड़ना "EVM" हैक करने जितना आसान नहीं है। अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार, किसी भी दो देशों से गुजरने वाली नदियों पर कोई एक देश अपनी मनमानी नहीं चला सकता।
याद रखें, ये हिमालयन नदियाँ हैं, हमारे मैदानी क्षेत्रों जैसी छोटी नदियाँ नहीं। इन नदियों में इतना पानी होता है कि ये नदियाँ पाकिस्तान को वैसे ही कई बार डुबो चुकी हैं। इतना ज्यादा पानी आप डेम बना कर रोकेंगे या कोरोना के दौरान Non-Biological के आवाहन पर "Go-Corona-Go" के नारों के साथ Budhhihin Janta Party के बुद्धिहीन समर्थकों द्वारा बजाए गए बर्तनों में भरकर रखोगे?
आज तक इस दिशा में न कोई ठोस नीति बनी, न कोई बड़ा डेम बना, न ऐसी नहरें बनीं जो पानी को प्रभावी ढंग से मोड़ सकें। सब कुछ सिर्फ भाषणों और मीडिया घोषणाओं तक सीमित रह गया।
न्यूज़ चैनल्स या प्रचार एजेंसियाँ :
हमारे देश में मीडिया अब सूचना का माध्यम नहीं, भावना का बाज़ार बन चुका है। जैसे ही कोई आतंकी हमला होता है, एंकर युद्ध पोशाक में आ जाते हैं, स्क्रीन लाल हो जाती है, और युद्ध की जटिलताओं व परिणामों को नजरअंदाज करते हुए हथियारों की तुलना कर के बचकानी हरकतें करने लगती है।
'राष्ट्रविरोधी कौन?' बहस होती है। स्क्रीन पर हिंदू बनाम मुसलमान का घिनौना तमाशा शुरू हो जाता है। कोई नहीं पूछता कि सरकार के सुरक्षा बढ़ाने के वादों का क्या हुआ, या इंटेलिजेंस फेलियर की जाँच कहाँ तक पहुँची। मीडिया का काम जाँच और जवाबदेही पर सवाल पूछने की जगह सिर्फ समाज को बाँटना और सरकार की असफलता को ढँकना रह गया है।
सेना और शहीदों की शहादत को भावनात्मक ढाल नहीं, नीति-निर्माण की प्राथमिकता बनाना होगा।
जवाबदेही तय होनी चाहिए, सिर्फ आतंकियों की नहीं, सिस्टम की भी। जब तक हम अपने सुरक्षा तंत्र की कमजोरियों को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक इस तरह के हमलों का सिलसिला थमेगा नहीं। शहीदों की शहादत को राजनीतिक हथियार बनाने से अधिक जरूरी है, उस नीतिगत दृष्टिकोण की ओर बढ़ना जो आतंकवाद और असुरक्षा के असल कारणों को खत्म करने में मदद करे।
हमें यह समझना होगा कि राष्ट्र की सुरक्षा केवल सेना या पुलिस की जिम्मेदारी नहीं है, यह एक समग्र राष्ट्रीय दायित्व है। जब सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर सिर्फ चुनावी लाभ के लिए संकटों का फायदा उठाती है, तो यह न केवल जनता के साथ धोखा है, बल्कि देश की एकता और अखंडता के लिए भी खतरे की घंटी है।
सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए ठोस और दीर्घकालिक नीतियों की आवश्यकता है। यह समय की मांग है कि हम अपने सुरक्षा बलों के साथ-साथ नागरिकों की भी सुरक्षा के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएँ। जो भी सरकार सत्ता में है, उसे यह समझना होगा कि केवल जनता से वोट पाने के लिए भावनाओं का खेल खेलना, एक राष्ट्र के तौर पर हमें ज्यादा दिनों तक नहीं चलने देगा। हमें ऐसी नीतियों की जरूरत है जो केवल चुनावी लाभ के बजाय, राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दे।
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में, हमें हर पहलू पर काम करना होगा इंटेलिजेंस नेटवर्क को मजबूत करना, समग्र सुरक्षा रणनीतियाँ बनाना, और आतंकवाद के वित्तीय स्रोतों पर कड़ी निगरानी रखना। साथ ही, समाज में आतंकवाद के समर्थन को खत्म करने के लिए शिक्षा, जागरूकता और विकास के मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा।
फिलहाल, शहीदों के नाम पर केवल वोट की राजनीति करना, देश के लिए सबसे बड़ा गद्दारी साबित हो सकता है। देशवासियों को यह अधिकार है कि वे उन सवालों के जवाब जानें जिनसे सुरक्षा व्यवस्था की कमी और सरकार की निष्क्रियता उजागर होती है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि शहीदों की शहादत केवल एक राजनीतिक शस्त्र न बने, बल्कि एक मजबूत और सुरक्षित राष्ट्र के निर्माण की प्रेरणा बने।