अनकही सच्चाई और अंग्रेजों की क्रूरता
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जलियांवाला बाग कांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में हुआ था। करीब हजारों लोग मारे गए थे।
केसरी फिल्म प्रारंभ ही उस दृश्य से होती है जिनमें हजारों स्त्री, पुरुष, मासूम बच्चे बाग में ध्यान से भाषण सुन रहे हैं। बैसाखी का पर्व है। सब निश्चिंत, खुश हैं।
तभी ब्रिटिश फौज की बलूच और अफगानी टुकड़ी उस जगह को चारों तरफ से घेर लेते हैं। जनरल डायर उस छोटी सी जगह पर बिना चेतावनी के गोलियां बरसाने का हुकुम दे देता है। थ्री नॉट थ्री रायफल की दो इंच की पीतल, लोहे से बनी बड़ी गोली तेजी से निर्दोष भारतीयों के दिल, सिर, सीने, पांव में धंसती चली जाती हैं। वह निहत्थे भारतीय जीने के और आज़ाद भारत का सपना देख रहे थे पर उस दिन वह उनकी जिंदगी का आखिरी दिन बन गया।
हम इन क्रूर,धूर्त अंग्रेजों का हैप्पी न्यू ईयर मनाते हैं आज भी?
अनगिनत लोगों ने वहां मौजूद कुएं में कूदकर जान बचाने की कोशिश में पानी में डूबकर जान गवां दी।कहते हैं उस कुएं का पानी आज भी हमारे उन भाई बहनों की शहादत की दास्तान सुनाता है। यह घटनाक्रम आपने इतिहास की किताबों में मात्र एक पैराग्राफ की दस बारह पंक्तियों में पढ़ा होगा क्योंकि खास विचारधारा के इतिहासकारों ने इसे अधिक महत्व के काबिल नहीं समझा। वह हजारों निर्दोष भाई बहनों की हत्या को एक भूल या गलतफहमी कहकर हमारे जहन से हटा रहे थे। मर गए तो मर गए हजारों भारतीय, क्या हुआ? उसका आजादी की लड़ाई से क्या वास्ता? आजादी तो गांधी जी ही दिलाते। अंग्रेज हुक्मरानों के मित्र प्रधानमंत्री नेहरू के चुने हुए प्रिय इतिहासकारों ने यह अध्याय भी दबा दिया होता यदि उन शहीदों का खून और आत्मा इस लोकतंत्र के मंदिर में जीवित नहीं होती। उसी ने सरकार बदली और मजबूत टिकाऊ प्रधानमंत्री दिया और अब एक एक कर सारा अन्याय, झूठ और पक्षपात सामने आ रहा। जिसके जवाब में यह लोग खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे की तर्ज पर आपको भक्त और ईमानदार मीडिया का मजाक बनाते हैं। क्योंकि इनकी पोल खुल रही है।
फिल्म कई रहस्यों से तसल्ली और इत्मीनान से पर्दा उठाती है। जैसे जलियांवाला बाग में एक खुदी हुई बीस फुट लंबी और तीन फुट गहरी नींव थी तो कुछ भारतीय महिला,बच्चे उसमें जा छुपे। तो जनरल डायर ने हुकुम दिया कि वहां पहुंचकर सभी को गोलियों से भून दिया जाए। बलूच टुकड़ी पहुंची और खाई में छुपे लोगों को भी मार दिया। इस हिंसा और इसके असर को कोई भी भारतीय ढंग से उठाता तो वहीं अंग्रेजों की विश्व भर में बदनामी होती और आजादी नजदीक होती। हम संभवतः उन्नीस सौ तीस में ही आजाद हो जाते। जब चर्चिल प्रधानमंत्री थे ब्रिटेन के और गोलमेज सम्मेलन हुआ था। उसके तथ्यों पर भी कभी ध्यान जाएगा कि तीनो गोलमेज सम्मेलन में क्या हुआ? और जो अंग्रेजों की सहमति से भारतीय गए गांधी के नेतृत्व में, उन्होंने वहां क्या और कैसा पक्ष रखा भारत का?
अंग्रेजी हुकूमत चालाक और सावधान थी उसने जलियांवाला कांड के बाद जनरल डायर और ब्रिटिश क्राउन को बेदाग बताने हेतु कोर्ट कार्यवाही चलाई और एक भारतीय वकील चुना जिससे लगे कि यह कार्यवाही निष्पक्ष है ।
उसी समय में अंग्रेजों के लिए क्रांतिकारियों के खिलाफ मुकदमे लड़ने वाले एडवोकेट शंकरन नायर को सर,नाइटहुड की पदवी दी जाती है।
यह निर्देशक और टीम के गहन शोध का परिणाम है कि इतिहास के पन्नों में छुपी इस कहानी को सामने लाए। अभिनेता अक्षय कुमार भी बधाई के पात्र हैं जो निरंतर देशभक्ति और आम जनता में स्वाभिमान की मात्रा जगाने का कार्य कर रहे वहीं सारे खान अभिनेताओं में से एक भी भारतीय अस्मिता को गर्व पहुंचाने वाली एक भी फिल्म नहीं कर रहे। विचारणीय प्रश्न है कि क्या अभिनेताओं, सुपरस्टार का देश और आम जनता के लिए कोई कर्तव्य नहीं होता? क्या उनमें नैतिकता और समाज के प्रति जिम्मेदारी नहीं होती?
कथा और अभिनय बेहतरीन है
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कहानी है जनरल डायर को निर्दोष करार देने के मुकदमें और हजारों निर्दोष भारतीयों की हत्याओं की। जिसका मुकद्दमा एक भारतीय एडवोकेट, जिसकी मां विदेशी थीं, मैकेनि लड़ता है। दूसरी तरफ एक नई वकील बनी लड़की हरप्रीत कौर होती है। बड़े भारतीय वकील शंकरन नायर, सर की उपाधि के बाद इस घटना से प्रारंभ में दूर रहते हैं। फिर किस तरह युवा वकील कौर और अपनी मां,बहन को आंखों के सामने मरता देख कुछ न कर सका बालक परगट का राष्ट्र के प्रति प्रेम देखकर एडवोकेट नायर की अंतरात्मा जगती है और वह डायर के खिलाफ खड़े होते हैं।
किस तरह अंग्रेज भारतीयों की हत्याएं और जुल्म में भारतीयों का ही इस्तेमाल करते थे यह बात फिल्म बड़ी गहराई से दिखाती है। अंग्रेज कहते हैं कि यह सभी आतंकी थे।इसीलिए डायर ने गोलियां चलवाई। पर यह दलील इस तर्क के सामने बेकार हो जाती है जो शंकरन देते हैं कि, " जनरल आपने किसी को कोई वार्निंग नहीं दी? न ही वहां से कोई हथियार बरामद हुआ? फिर भी आपने सत्रह सौ बीस मौतों के सरकारी आंकड़े और सच में इससे कई गुना अधिक लोगों का नरसंहार किया।जनरल कुछ नहीं कह पाता। आगे कई रोचक और रोमांचक घटनाक्रम के बाद ब्रिटिश क्राउन न्याय करता है कि जनरल दोषी है कि बिना चेतावनी फायर करवाए। अतएव उसे वापस ब्रिटेन भेजा जाए। जहां वह आराम से रहा, कोई सजा उसे नहीं हुई। और आज तक जलियांवाले कांड के बेकसूर भारतीयों को इंसाफ नहीं मिला। उस वक्त भी कोई भी भारतीय वकील बिहार, यूपी, महाराष्ट्र का इनका मुकद्दमा लड़ने नहीं आया। दक्षिण भारत के शंकरन नायर ने यह हिम्मत दिखाई और पूरा मुकद्दमा लड़ा ही नहीं बल्कि जीता। यह जीत हालांकि नाम की थी पर प्रतीक थी कि हम हिम्मत करें, जुल्म के आगे हार नहीं माने तो ताकतवर भी पीछे हटता है।
जब पहले से ही सारी घटना मालूम हो तो उसने नई बात और रुचि पैदा करना बहुत मेहनत और लगन का कार्य होता है। मुझे मुंबई में कहानी और पटकथा लेखन के कई सफल अवसर मिले हैं तो मैं जानता हूं। जो फिल्म तीन वर्ष बाद आएगी उसकी कहानी और पटकथा पर सोचना, मीटिंग और गंभीर चर्चाएं प्रारंभ अभी से होती हैं। दिन के ग्यारह बजे कार्य प्रारंभ होता है और रात्रि के नौ बजे तक निरंतर चलता है। बीच बीच में लंच, शाम छह बजे ब्रेक आदि रहते हैं।
कथा,पटकथा और संवाद पूरी मेहनत और लगन से तैयार किए। संगीत और माहौल पूरी तरह से उस कालखंड को दिखाता ही नहीं बल्कि हमें उस काल खंड में ले जाता है।
अभिनय में काफी समय बाद अक्षय कुमार अक्षय न लगकर शंकरन नायर लगे हैं। बहुत कंट्रोल्ड और संयत अभिनय किया है। बस थोड़ा उच्चारण भी दक्षिण भारतीय टच लिए होना चाहिए था।
आर.माधवन की भूमिका छोटी है परंतु बचाव पक्ष के वकील के रूप में उनका कार्य सराहनीय है। फिल्म के प्रीमियर पर उन्होंने क्षमा मांगी कि अक्षय कुमार ने मुझे इस कहानी से जोड़ा वरना मैं खुद दक्षिण भारतीय होते हुए भी शंकरन नायर साहब के बारे में नहीं जानता था। और अब पूरा देश जानता है। एक बेहतरीन फिल्म निर्देशक करण सिंह त्यागी ने बनाई है जिसे हर भारतीय को देखनी चाहिए। जिसे अपनी मातृभूमि से प्यार है और जो अपनी जड़ों को जानने के लिए इच्छुक है। अनन्या पांडे का अभिनय पहली बार देखने को मिला।खासकर डर और सहमे हुए भाव जब उन्हें अंग्रेजों के इशारे पर तंग किया जाता है।
अभी अभी जब पहलगाम में बीस से अधिक निर्दोष पर्यटकों को मार डाला गया है तो यह प्रश्न बिल्कुल जायज है कि आजादी हमें किस कीमत पर मिली ? एक नासूर, हमेशा के लिए भारत माता के हृदय में लगा दिया गया पाकिस्तान के रूप में। सबसे अधिक नुकसान जो ब्रिटिश दो सौ वर्षों में नहीं कर पाए वह आखिर में कर गए हमारे नेताओं की सत्ता की भूख के कारण। दो टुकड़े कर गए देश के और बिना सोचे समझे उसे हमने मान लिया। चाहे गांधी हो या नेहरू, अंबेडकर सभी दोषी हैं। पूरे देश को कंगाल करके, लाखों भारतीयों को शहीद करके ऐसी जिंदगी भर की नासूर बनी आजादी आज तक हमें दुख दे रही हैं। हमेशा याद रखेंगे कि सुभाष, तिलक, भगतसिंह, चंद्रशेखर, राजगुरु, लाला लाजपत राय के रास्ते से आजादी पहले मिलती और अखंड भारत होता।ऐसी आतंकी घटनाएं नहीं होती। कौनसा रास्ता सही था यह आज वक्त ने बता दिया ।
इस फिल्म को देखें और राष्ट्र के लिए गुमनाम बलिदानियों को याद करें।
एक और अच्छी बात रही कि आखिर में सभी शहीदों के नाम दिए गए।
आइए, हम सभी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, ईसाई अपने भारत वर्ष के लिए सदैव कर्तव्य निभाएं।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, जाने माने पटकथा लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर हैं। आपको देश विदेश के पचास से अधिक अवार्ड मिल चुके हैं।
संपर्क ; 8279272900,7737407061)