Prem ke Do Phool - 1 in Hindi Love Stories by Satveer Singh books and stories PDF | प्रेम के दो फूल - भाग 1

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प्रेम के दो फूल - भाग 1


भाग-  १ 

 

    फाल्गुन की सुबह जब सूर्य निकलने वाला हो और उसकी तरुण रतनारी क्षितिज के वक्ष पर बिखरी-सी नज़र आए। और साथ में फूलों की सुगंध। मंगल प्रदा और शीशम की मंजरि को छू कर आने वाले वो स्वछन्द महकते झोंके मानों हमें अपने बाहुपाश में बांध से रहे हों। प्रभाती गाते पक्षियों का कलरव और खेतों की ठंडी, महकती उन्मुक्त हवा जिसके जादू में हम बंध से जाते हैं। 

    सप्त रंग से रंजित वसुधा दुल्हन-सी सज रही होती हैं। चंग की ताल पर नृत्य करता मोर, बंसी की धुन से मोहित मृग, अपने स्नेह की मधु धारा बरसातें मेघ और हल्की सर्दी जो केवल सुबह महसूस होती है। मनभावन धूप और रोहिड़े के हृदय हारी फूलों में छुपी मधु रस-सी ठंडी ओस की बूंदे! वृक्ष की टहनियों पर हवा के साथ रमती तरुण कोंपलें और मधुगंध से महकती फ़िज़ा जो हृदय को आत्मविभोर कर दे। 

    समशंकु के वक्त सूर्य रश्मि के साथ घुल कर सुस्ती भी चेहरे पर चमकने लगती है। दिन भर हवा के विद्रोही झोंके अपने साथ ब्यालू उड़ाने लगते हैं और शाम होते-होते वही झोंके हृदयोन्मादिनी में परिवर्तित हो जाते हैं। एक दम शांत, मनभावन! 

    एक ऐसी ही हृदय हारी, मनभावन, शांत और मासूम-सी सुबह थी। आयुष मधुमत्त हो कर प्रभाती फूल-सा खिला मटरगश्ती कर घर लौटा। घर आते ही वह लाइब्रेरी में गया और घड़ी देखी। “दी, आठ बज गए। नाश्ता बना दिया क्या?” उसने कहा और पास में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। 

      “मैंने कहा था ना कि आते वक्त मूंग की दाल ले आना। लाए?” अवंतिका ने लाइब्रेरी की ओर आते हुए कहा।

    आयुष ने कुछ झल्लाकर कहा। “हे भगवान! मतलब आज नाश्ता नहीं मिलेगा?” 

      “मिलेगा क्यों नहीं, रात की सब्जी पड़ी है गोभी वाली। ले आऊँ?”  अवंतिका ने पास आकर पूछा।

    आयुष ने मुँह बिगाड़ा! “धत्! एक तो रात की बासी सब्जी और ऊपर से गोभी। मैं नहीं खाऊंगा।” 

      “लेकिन तुम रोज तो जल्दी आ जाते हो। आज देर क्यों कर दी?” अवंतिका ने कुछ क्षुब्ध होकर पूछा।

    आयुष कुछ मुस्कुराया और बोला! “वो दी, आज मैं अभय अंकल के यहाँ चला गया था उनकी लड़की है न निशा, उसने रोक लिया था। 

      “ओह! तो तुम वहां गए थे।” उसने कुछ अजीब स्वर में कहा।

    आयुष झेंप गया गालों पर सुर्खी उमड़ पड़ी! उसने बात काटते हुए कहा। “अब क्या खाऊं, बताओं?” 

      “खैर, अब दाल तो बन नहीं सकती। सब्जी गर्म कर देती हूँ। तब तक बाजार से कुछ ले आओ।” 

    आयुष ने कुछ मुस्कुराकर  और कुछ डर कर कहा! “ समोसे ले आऊँ?” 

      “तुम जानते हो कि मुझे फास्ट फूड बिलकुल भी पसंद नहीं है। स्किन भी खराब होती है। फिर समोसे से पेट तो नहीं भरेगा।” 

    आयुष ने बात काटते हुए कहा। “आप मत खाना; मैं खा लूँगा।”

      “अच्छा! मैं क्यों न खाऊँ फिर? लेकिन आज ही, इसके बाद फिर कभी-भी समोसे का नाम भी मत लेना।” 

    आयुष ने सिर हिलाया और स्वीकृति प्रकट की। “हाँ, आज के बाद कभी नहीं कहूँगा।” 

      “कितने रुपये हैं तुम्हारे पास?” अवंतिका ने पुछा। 

    उनसे जेब टटोलते हुए कहा। “पचास रुपये तो होंगे?”  

      “यह लो पचास रुपये और समोसे के साथ कुछ और भी ले आना।” अवंतिका ने ब्लाउज से पचास का नोट निकाल कर देते हुए कहा। 

      “और क्या लाऊं?” 

      “कुछ भी ले आना। तब तक मैं रोटी बना लेती हूँ, लेकिन सब्जी गोभी वाली ही हैं।” अवंतिका ने रसोई की ओर जातें हुए कहा।

      “हाँ, अब कुछ भी बना लो।” और वह बाजार चला गया। 

    आयुष गाँव में पला-बढ़ा था। आठवीं तक गांव के ही एक स्कुल मे पढा और नवी कक्षा में उसके मामा यानी अवंतिका के पिता कमलेश्वर सिंह ने उसे शहर बुला लिया। कमलेश्वर सिंह के मित्र अभय शर्मा की लड़की निशा भी आयुष के साथ पढती थी। निशा ने बारहवीं में आर्ट ले रखी थी और आयुष ने काॅमर्स। अर्थशास्त्र की अध्यापिका मिस ज्योति निशा की किराएदार थी। आयुष की ज्योति के साथ अच्छी बनती इसलिए आयुष अक्सर शाम को पढने के लिए निशा के घर जाया करता। और जिस दिन न जा पाता उस दिन निशा और अभय जी दोनों डांटते। 

    अभय जी ऑफिस के काम में व्यस्त रहते। इसलिए घर के छोटे-मोटे काम आयुष संभालता जैसे; बाजार जाना, सब्जी लाना, बिजली का बिल भरना आदि और निशा को पढ़ाना, खिजाना, रूलाना और मनाना तो जैसे उसकी अपनी निजी जिम्मेदारी थी जो वह बखूबी निभाता भी था। इसलिए निशा का घर भी उसका अपना घर था जहां वह निसंकोच जाता। 

     आयुष पढ़ने-लिखने में होशियार, कुछ बातूनी, हंसमुख और व्यवहार का सीधा-साधा और हृदय से ईमानदार, कद-काठी का लम्बा देह से हष्ट-पुष्ट, दिखने में सुंदर था! 

    आयुष कुछ देर बाद बाजार से लोटा तब तक अवंतिका ने रोटियां बना ली थी, उसी का इंतजार कर रही थी। वह आया हॉल में सोफे पर बैठ गया और समोसे निकालते हुए बोला। “दी, आ जाओ।” 

    अवंतिका पास आ कर बैठ गई। और बोली। “पहले तुम खा लो, मैं बाद में खा लूंगी।” 

    आयुष ने अवंतिका के हाथ में प्लेट थमा दी। और बोला। “खाओ, नहीं तो हम भी नहीं खाएंगे।” 

      “अच्छा! ठीक है, दे दो।” और दोनों बैठ कर खाने लगे। खाते-खाते अवंतिका को एक मजाक सूझी। “आयुष! निशा कैसी लगती है तुम्हें?” 

    आयुष झेंप गया! वह उठ कर जाने लगा तो अवंतिका ने हाथ पकड़कर बैठा लिया। “ जा कहाँ रहे हो? पहले बताओ, कैसी लगती है?” 

    वह कुछ बिगड़ कर बोला। “देखो दी, खाने दो मुझे!” लेकिन उसके मुँह की लाली ने उसका साथ न दिया।

      “हम रोक थोड़ी रहें हैं, खा लो। हम तो केवल यह पूछ रहे हैं कि अच्छी लगती है या नहीं? अगर पसंद है तो तुम्हारे ब्याह की बात कर ले।” अवंतिका ने हँसी को दाँतो तले दबाते हुए कहा। 

      “मैं वहां पढने जाता हूँ। समझी आप?” उसने चीड़ कर कहा।  

      “क्या पढ़ते हो वहाँ जा कर?” 

      “अर्थशास्त्र।” 

      “और जब दसवीं में थे तब, तब क्यों जाते थे जनाब? प्रेम शास्त्र पढनें!” उसने आँखों से इशारा करते हुए पुछा। 

      “तब अभय अंकल बुलाते थे।” 

      “अच्छा! अभय अंकल बुलाते थे या निशा?” अवंतिका की हँसी छूट गई, वह बोलते-बोलते हँस दी! “बताओं, बताओं!” 

      “छिः! शर्म नहीं आती!”

      “जी नहीं, भला मुझे शर्म क्यों आएंगी?” 

    आयुष ने कोई उत्तर नहीं दिया, नाश्ता करता रहा। अवंतिका बैठी मुस्कुराती रही और कुछ देर बाद वह नाश्ता निपटा कर स्कूल के लिए निकल गया।

      “अरे! तुमने तो कुछ खाया ही नहीं। पेट भर खा तो लो।” अवंतिका ने कहा।

      “दी, पेट भर गया, अब आप खा लो। अच्छा मैं चलता हूँ।” और वह चला गया पीछे से अवंतिका ने आवाज दी। “अर्थशास्त्र की किताब भूल तो नहीं गए?”

    और वह झेंप कर भाग गया अवंतिका आयुष की बहन भी है और परम मित्र भी। आयुष जो बात निशा को नहीं बता सकता वह अवंतिका को बता सकता था और मित्र होने के नाते आयुष की टांग रोज खींची जाती थी। 

      दोपहर के तीन बज रहे थे और पता नहीं क्यों मिस्टर विजय आज स्कूल नहीं आए इसलिए कक्षा का एक पीरियड खाली था इसलिए आयुष लाइब्रेरी में जाकर पढ़ने लगा। कुछ देर बाद वहाँ निशा और मीनाक्षी आ गई। 

      “ओ मिस्टर! क्या पढ़ रहे हो?’ मीनाक्षी ने पूछा। 

      “तुम से मतलब!” उसने कुछ क्षुब्ध होकर उत्तर दिया। 

      “भई, हमें तो कोई मतलब नहीं।” और उसने एक किताब निकाली और ऊंची आवाज़ में पढ़ने लगी। आयुष कुछ परेशान-सा हो कर बैठ गया।  

      “बड़ी कर्कश आवाज़ है तुम्हारी, बिलकुल किसी कवे की तरह! आयुष ने कहा और निशा हँस पड़ी! 

      “धन्यवाद!” मीनाक्षी ने मुँह बिचकाकर कहा और वह फिर पढ़ने लगी। 

      “लाओ, अब हम पढ़ते हैं।” निशा ने किताब छीनते हुए कहा। और वह पढ़ने लगी। मीनाक्षी उठ कर आयुष के पास आ गई और कंधे पर हाथ रखते हुए तकल्लुफ से बोली। “अच्छा! एक बात बताओ आयुष?” 

      “पुछो।” 

      “क्या बनने का इरादा है?”

    निशा किताब रख कर बीच में बोली। “आयुष बिजनेसमैन बनेगा। और तुम?” 

      “मैं?” वह कुछ मुस्कुराई “हूँऊऊऊ! आयुष की पत्नी।” 

    निशा और आयुष झेंप गए। आयुष किताब उठा कर जाने लगा तो मीनाक्षी ने रोक लिया। “अरे! तुम तो लज्जा गए। बिलकुल झुई-मुई की तरह! बैठो हमारे पास।” और उसने हाथ पकड़ कर नीचे बैठा लिया। 

      “बेशर्म कहीं की!” आयुष ने चपत मारते हुए कहा। और फिर बोला। “देखा निशा, मैंने कहा था ना उस दिन, कि तुम लड़कियां हमेशा बुद्धि से काम लेती हो। भावनाओं से नहीं।” 

      “मतलब?” मीनाक्षी ने पुछा। 

      “मतलब कुछ नहीं। मेरे और निशा के बीच में शर्त लगी थी कि लड़कियां लोभी होती हैं, धन के पीछे भागती है वह हमेशा सफल पुरुषो का हाथ थामती हैं और आज तुमने सिद्ध भी कर दिया। 

      “ऐसा बिलकुल नहीं है। समझे?” उसने कुछ बिगड़कर कहा। 

      “ऐसा ही है।” 

      “निशा इसे एक रुपया भी मत देना।” 

      “मैं भी देखता हूँ कैसे नहीं देती है।” आयुष ने गुस्से से कहा और मीनाक्षी के गालों पर एक चपत मारी। वह रो कर जाने लगी तो निशा ने हाथ पकड़कर बैठा लिया। “स्त्रियाँ भला कब से लोभी होंने लगी?” निशा ने मीनाक्षी को एक अंगूर खिलाया और बड़े दुलार से बोली। “ इनकी तो आदत ही खराब है! हमेशा  व्यर्थ का बखेड़ा खड़ा कर देते हैं।” 

      “मैंने कुछ नहीं किया। बेवजह रो रही है यह।” आयुष ने कहा। 

      “मीनू, पानी पिओगी?” निशा ने पुछा। 

      “हाँ।” 

      “लाती हूँ।” और निशा पानी लाने के लिए चली गई। आयुष पहले तो कुछ डरा लेकिन बाद में पास गया और गालों को बड़े दुलार से छू कर बोला। “मीनू, घाव हो गया है! बहुत बड़ा ज़ख्म लगता है।” और मीनाक्षी हँस दी। 

      “अच्छा! अंगूर कहां से आए? मुझे भी दो।” आयुष ने कहा। 

      “लोभी कहीं का, भिखारी।” मीनाक्षी ने मुँह बिचकाकर कुछ गुस्से से कहा।

    इतने में निशा आ गई। “लो पानी पी लो।” निशा ने मीनाक्षी को पानी देते हुए कहा। और वह फिर बोली। “आयुष, तुम्हें मिस ज्योति बुला रही है।” आयुष चला गया। निशा वहीं दीवार के सहारे बैठ गई, मीनाक्षी स्टूल पर बैठी किताब पढ़ती रही और सहसा वह बोली। “निशा, एक बात पूछूँ?” 

      “हाँ, पूछो।” निशा ने किताब पर नज़रें गाड़े हुए कहा। 

      “सच बताना। तुम्हें आयुष कैसा लगता है?” मीनाक्षी ने पुछा। 

    निशा ने कुछ देर मीनाक्षी की तरफ देखा और बोली। “मतलब?’ 

      “मतलब यही कि क्या तुम उससे प्रेम करती हो?” उसने गंभीर से कहा।

    वह झेंप गई! उसने पैन फेंक कर मारा। “चल पागल, कुछ भी बोलती रहती है। मैं कब से प्रेम करने लगी भला?” 

      “नहीं, मुझे ऐसा लगा कि तुम दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हो। और एक दूसरे से दूर नहीं रह सकते। अब तुम ही बताओ, तुम दोनों दिन में कितनी बार मिलते हो?” 

      “न जाने कितनी बार।” 

      “मैं बताती हूँ। असेम्बली में तुम लोगे का नयन मटका चलता ही है!” उसने कुछ हँस कर कहा। और वह फिर बोलने लगी। “और लाइब्रेरी में, दो तीन बार कक्षा में, शाम को और रात को। तुम लोग साथ में बाजार जाते हो, साथ में टीवी देखते हो, साथ में पढते हो और मैंने तुम्हें आयुष के बिना कुछ रुखा-सा और बेचैन-सा होते भी देखा है।” 

      “लेकिन ऐसा होता, तो मैं तुम्हें बता देती; तुमसे कभी नहीं छुपाती। और अच्छा लगने का अर्थ प्यार तो नहीं होता। मित्रता भी हो सकती है।” 

    मीनाक्षी कुछ क्षण शांत रही फिर बोली। “लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि तुम प्रेम करती हो और तुम्हें ही पता ही न हो।” 

      “ऐसा भी कभी होता है!” निशा ने कहा। 

      “तुम एक काम क्यों नहीं करती।” मीनाक्षी ने कहा 

       “क्या?” 

      “आयुष से दूर रह कर देख लो। अगर ना रहा जाए तो समझ लेना की प्रेम है!” मीनाक्षी ने कहा। 

      “जब ऐसा कुछ है ही नहीं। तो मैं दूर क्यों रहूं?”

      “अच्छा! आयुष से पुछ लो।” मीनाक्षी ने कहा। 

    निशा कुछ परेशानी-सी हो कर बोली। “कभी नहीं, क्या सोचेगा वो मेरे बारे में? मुँह दिखाने के योग्य नहीं रहूंगी। और तुम तो जानती ही हो कि आज-कल का प्रेम हरिद्राराग हो गया है।” 

      “मैं पूछ लूँ?” 

      “नहीं! पागल हो गई है क्या?” 

    मीनाक्षी कुछ गंभीर हुई! और बोली। “उसके जाने के बाद यह पता चला कि तुम उससे प्रेम करती हो तब, तब क्या करोगी?” 

      “बात तो सही है।” निशा ने कहा। 

      “इसलिए तो कह रही हूँ कि दूर रह कर देख लो।” 

      “हूँ।” निशा ने कहा और वह कुछ शांत और गंभीर हो कर बेठी रही इतने में आयुष आ गया। और बोला। “मिस्टर खरे हिंदी की किताब पढा रहे हैं, जाओ।” 

      “और तुम?” मीनाक्षी ने पूछा। 

      “मैं नहीं आऊँगा।” 

      “अच्छा तो हम जाते हैं।” और वह दोनों चली गई। कुछ देर बाद निशा आई और आयुष के हाथ में अंगूरों का एक गुच्छा थमा दिया। “यह लो।” 

      “क्या है?” 

      “अंगूर।” 

     “तुमने खाए?” आयुष ने पुछा। निशा ने सिर हिलाया। “हां, खा लिए।” 

    स्कूल का हर दिन, हर पल एसे ही हँसी-खुसी में कट जाता है। पांच घंटे का यह समय लाइब्रेरी से लेकर स्कूल के मैदान और कक्षा में और कुछ बातों में, कुछ तवालत में, कुछ पढ़ाई-लिखाई में और कुछ लाड़-प्यार और दूलार में न जानें कब पूरा हो जाता। 

    कहीं न कहीं आयुष को यह महसूस होने लगा था कि यह जो कुछ घटती हो रहा है। यह सब चिरस्थायी है। यह शहर, इसके लोग, गलियाँ, घर, कमरे और हवा यह सब उसके अपने है और अंत काल तक सब ऐसा ही रहेगा। 

    निशा के लिए सबसे जरूरी था आयुष का सदा-सदा के लिए यहाँ रहना। क्योंकि चार साल में वह आयुष के साथ इतनी घुल-मिल गई थी कि अकेले रहने की कल्पना से भी उसे डर लगने लगा था। वह सोचती थी कि आयुष के गांव लौटने के बाद कौन उसे दुलार करेगा, और जब वह रूठ कर बैठ जाएंगी तो कौन मनाएंगा? वह इन्हीं विचारों में खोई रहती।

    शाम को अवंतिका को सब्जी देने के बाद आयुष निशा के यहाँ आ गया। उसने कमरे में देखा तो वहां कोई नहीं था; बस एक उपन्यास खुला पड़ा था और उसके पन्ने हवा के साथ पलट रहे थे। दीवार पर टंगी घड़ी में छः बज रहे थे और सूर्यास्त होने वाला था उसकी सुनहली पराग बादलों पर बिखरी थी। आयुष ने उपन्यास उठाया और छत पर आ गया। जहाँ पुरवाई अपने साथ शीशम की मंजरि की मीठी, मनभावन महक अपने साथ ला रही थी। आयुष छत पर पड़ी खाट को डूबते सूरज के सामने डाल कर बैठ गया। और उसने आवाज दी। “निशा, सब्जी ले आया मैं।” और वह उपन्यास पढ़ने लगा। 

    इतने में निशा आ गई। उसने सब्जी उठाकर मुँह बिगाड़ते हुए कहा। “यह गलत बात है। 

      “क्या हुआ?” 

      “यह कोई सब्जी है? तुम सब्जी नहीं लाते अत्याचार करते हो मुझ पर। आज फिर खिरे उठा लाए?” 

     आयुष ने निशा की तरफ देखा। और बोला। “इसे अत्याचार नहीं सेवा कहते हैं।” 

      “हूँउ! यह सेवा है?” उसने मुँह बिचका कर कहा और पास में बैठ गई। आयुष ने उपन्यास का एक पन्ना पलटा और बोला। “अच्छा! कल से तुम जो कहोगे वो ले आऊँगा। अब जरा एक कप चाय बना दो। सिर दर्द से फटा जा रहा है!” 

      “दिखाओ तो।” उसने माथे पर हाथ रखते हुए कहा। “कहाँ हो रहा है दर्द? झूठ बोलते हो।” 

      “सिर दर्द होता है, तो आँखों से दिखाई देता है?” आयुष ने कुछ झल्लाकर कहा।

      “जी हाँ, चेहरे पर साफ नजर आ जाता है। निशा ने मजाकिया लहजे में कहा। “अच्छा! तुम बैठो मैं बना लाती हूँ।” और वह रसोई की तरफ चली गई। 

      “मैडम नहीं आई?” आयुष ने उपन्यास के पन्ने पलटते हुए पुछा। निशा ने रसोई की ओर जाते हुए कहा। “अभी तक तो नहीं आई।” 

    कुछ देर बाद निशा चाय बना लाई। “लो चाय ले लो।” और वह बैठ गई। 

      “साल भर यह उपन्यास ही पढें हैं या पढ़ाई भी की है कुछ”? आयुष ने तीखे स्वर में पूछा। 

      “हाँ की है न, इस बार पचास प्रतिशत से तो ज़्यादा ही अंक आएँगे; देखना तुम। उसने चाय का घूंट लेते हुए नरमाई से कहा। 

      “और हिंदी साहित्य में?”  

      “पचहत्तर तो बन ही जाएंगे।” उसने कुछ मुस्कुरा कर कहा! आयुष गंभीरता से चाय पीता रहा। कुछ देर खामोशी रही फिर निशा बोली। “तुम कितने बना लोगे?” 

      “यही कोई बत्तीस।” आयुष ने गंभीरता से कहा और निशा उसकी गम्भीरता पर हँस पड़ी! 

    “क्या हुआ, हँसी क्यों?” आयुष ने पुछा। तो निशा ने सिर हिलाया। “कुछ नहीं ऐसे ही।” 

      “पागल बंदरिया-सी लग रही हो।” आयुष ने कहा। 

      “हूँऊ! तुम से तो सुंदर हूँ!” और वह चाय पीने लगी। आयुष एक विचित्र-सी दृष्टि से उसे देखता रहा। तो वह झेंप कर बोली। “ऐसे क्या देख रहे हो?” 

      “कुछ नहीं।” 

      “अच्छा! आज शाम को आओगे न?” 

      “मैं, अर्थशास्त्र को तीन दफा पढ चुका हूँ। पूरी किताब कंठस्थ हो गई।” उसने चाय का कप नीचे रखते हुए कहा। 

      “मतलब आज नहीं आओगे?” निशा ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा। 

    उसने एक कृत्रिम हँसी हँस कर कहा । “आऊंगा ना, अगर एक दफा और पढ़ लूँगा तो क्या बिगड़ जाएगा।” फिर उसने बात बदलते हुए पूछा। “आंटी कहां गई आज? दिखाई नहीं दे रही है।”

      “लो तुम अब पूछ रहे हो। माँ तो आज सुबह ही नानी के यहाँ चली गई थी।” 

      “क्यों कुछ काम था?” आयुष ने पुछा। 

      “नहीं वैसे तो कोई काम नहीं था।” 

      “और ऐसे क्या काम था?” आयुष ने मुस्कुरा कर  पूछा। निशा भी मुस्कुरा दी! “अरे! मामा जी ने नई दुकान बनाई है उसी के उद्घाटन में गई है। कल तक तो आ भी जाएंगी।” 

      “अच्छा, यह बात है।” आयुष ने कहा। 

      “हाँ।” 

    आयुष ने कलाई पर बंधी घड़ी देखी। “अच्छा! मैं चलता हूँ।” 

     “कुछ देर बाद चले जाना। तुम तो आते ही भागने लगते हो।” उसने कुछ नाराज होकर कहा। आयुष दुलारते हुए बोला। “मीनू से फाइल लानी है। तुम्हें तो पता है परसों परीक्षा है और कल फाइल जमा करवानी है।” 

      “लेकिन कल तो इतवार है।” 

      “हाँ, लेकिन मैं स्कूल जा कर दे आऊँगा; विजय सर स्कूल आएंगे कल।” 

     “अच्छा तो आठ बजे आ जाना, समझें?” निशा ने कहा। 

     “हाँ, पक्का आ जाऊँगा। और कुछ?” आयुष ने पुछा। 

      “कुछ नहीं!” और वह इठलाकर चली गई।

    आयुष और निशा नजदीकी थे, बेहद नजदीक। लेकिन उनकी निकटता के बीच एक दीवार थी; मर्यादा की दीवार, जिम्मेदारी की दीवार जिसे आयुष नहीं लांघ सकता था। उसे निशा से प्रेम तो था पर वह कह नहीं सकता। निशा उसके लिए एक जिम्मेदारी थी जो अभय जी ने सौंपी थी और वह निशा से प्रेम कर के विश्वासघाती नहीं बन सकता था। 

    इसलिए वह कुछ भी नहीं कहता, हाँ निशा उसे परेशान करती या पढाई न करती तो बिलकुल बड़े भाई की तरह डांट देता और नाराज होने पर दुलार भी देता। लेकिन हृदय में पनपे  प्रेम को वह शब्दों का आकार नहीं दे सकता था। 

    और सबसे मजे की बात तो यह है कि आयुष और निशा के बीच इतनी समिपता होने के बाद भी वासना जैसी मेली भावना दोनों के मन में नहीं थी वे दोनों पवित्र थे बिलकुल मंदिर में रखे फूलों की तरह और अब तो उन दोनो का गंतव्य था उस प्रेम रूपी नदी की बहती पवित्र धारा में विलीन होना। 

    निशा को यह अहसास हो गया था कि चाहे आयुष को उससे प्रेम ना करता हो पर वह प्रेम करती है। उसके दुलार, लाड़-प्यार, गुस्से और सानिध्य के बिना वह जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। उसे अब याद आया कि महीने बाद वह गांव लौट जाएगा और वह अकेली रह जाएगी। वह डर गई। “नहीं मैं उसे जाने नहीं दूंगी; रोक लुंगी। पापा से कहलवा दूंगा कि कॉलेज यहीं से कर ले। चाहे तो महीने भर गांव चला जाए। बस, यही करना है! और आज आने दो पुछ लुंगी की प्रेम करता है तो कहता क्यों नहीं?”

    सहसा उसकी अंतहीन स्वप्न श्रृंखला में एक विराम लगा उसे याद आया कि आज मां घर में नहीं है और घर का सारा काम उसे ही करना है और पापा भी आते होंगे।  और वह उठ कर नीचे चली गई। 

    ठीक आठ बजे आयुष निशा के यहां आ गया और सीधा स्टेडी रूम में चला गया और किताब खोल कर बैठ गया। कुछ देर बाद निशा वहाँ आई। और बोली। “लो तुम तो आते ही बैठ गए। चलो पहले खाना खा लो।” निशा ने आयुष का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा। 

      “हम खा कर आए हैं।” 

      “मुँह तो देखो, खा के आए हैं। और कल माँ से कहोगे कि निशा ने खाना नहीं दिया। चलो खा लो।” 

      “जिद मत करो निशा। कहा ना कि खा कर आया हूँ।” 

      “अच्छा! दूध तो पी लो।” 

      “अच्छा! ले आओ।” आयुष ने हार मानते हुए कहा। कुछ देर बाद वह दूध ले आई और हाथ में थमा दिया। और बोली । “आज ज्योति मैडम नहीं आई। अब तुम कहोगे। ‘क्यों?’ तो मैं बता दूं कि आज स्कूल का पूरा स्टाप मालती मैडम की बर्थडे पार्टी में गया है। और रात को उन्हीं के यहां रहेंगे सब लोग।” 

      “फिर तो मेरा आना व्यर्थ हो गया।” उसने दूध का घूँट लेते हुए कहा। 

      “व्यर्थ क्यों हो गया? परसों अर्थशास्त्र की परीक्षा है, तो वह पढ़ लो। अच्छा! तुम दूध पियो। मैं कुछ काम कर आती हूँ।” और वह उठ कर रसोई ओर चली गई। आयुष किताब के पन्नों पर नज़रें गाड़े बैठा रहा। 

    कुछ देर बाद निशा मेहंदी की कूंपी लेकर आई और बैठ गई। आयुष तीखे स्वर में डाँटते हुए बोला। “यह क्या ले कर आई हो? किताब ले आओ, जाओ!” 

      “परसों राजनीति की परीक्षा है और हमें राजनीति में सब आता है। और वह बैठ गई। 

    “तुम इसी वहम में बैठी रहती हो और रिजल्ट के बाद कुछ आता है तो वह है अंकल का गुस्सा!” 

    वह मुँह पर गर्व के भाव लाकर बोली। “इस बार देखना तुम।” 

      “क्या?” 

      “यही कि कैसे हम अच्छे अंकों से पास आते हैं!” और वह मेहंदी की कूंपी को खोलने लगी और आयुष की तरफ देख कर मुस्कुराने लगी। आयुष ने गुस्से से कहा। “अगर मेरे हाथ पर यह मेहंदी लगा दी तो मारूंगा।” 

      “देवता को भोग लगाए बिना भला हम प्रसाद खा सकते हैं? हम तो लगाएँगे।” और उसने आयुष का हाथ पकड़कर खींचा। आयुष ने हाथ छुड़ा कर कूंपी छीन ली और अभय जी के कमरे की ओर भाग गया और पीछे निशा। 

      “देखो पापा यह हमें मेहंदी नहीं लगाने देते।” निशा ने शिकायत करते हुए कहा। 

      “अंकल परसों इसकी परीक्षा है, और यह मेहंदी लगा रही है।” आयुष ने कहा। 

      “नहीं पापा। हम तो आयुष को लगा रहे हैं, यह लगवा ही नहीं रहा। आप कहिए ना कि लगवा ले।” उसने बिलकुल किस अल्हड़ बच्चे की तरह कहा।

      “नहीं लगाना आयुष। और तुम भीतर जाओ और पढ़ो।” उन्होंने कृत्रिम क्रोध से कहा। निशा आँखों में आँसुओं को सजा कर स्टडी-रूम की ओर भाग गई अभय जी ने हँसते हुए कहा। “अब क्या करोगे आयुष?” आयुष मुस्कुराता हुआ निशा के पीछे-पीछे आ गया। और निशा के आँसू पोंछता हुआ बड़े दुलारे से बोला। “लगा दो। लेकिन थोड़ी-सी लगाना।” और निशा मेहंदी लगाने लगी। 

        आज निशा को कुछ विचित्र-सा अनुभव हो रहा था आज कि हवा में महक थी, ताजी थी और एक मिठास-सा था। रात न केवल ठंडी थी बल्कि धवल और स्पष्ट थी, सितारों का मिजाज कुछ रोमांटिक था और चंद्रकांती सरजमीं के आँचल पर बिखरी थी और फूलों की खुशबू से जमीन का कोई कोना वंचित नहीं था। निशा को ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी महकते चमन की घास पर बिछी शबनम की तरी पर चल रही है, और फूलों की गंध से मिश्रित हवा में वह खो गई है। कुछ देर बाद वह उस मीठी कल्पना से जागी तो कमरे में खामोशी थी। निशा ने देखा आयुष दुलार से उसे देख रहा है।  निशा ने उसकी ओर देखा और अपने पैर के अंगूठे से उसका पैर दबा कर बोली। “ऐसे क्या देख रहे हो?” 

    आयुष ने मुस्कुराकर कहा। “कुछ नहीं, तुम लगाती रहो।” 

    निशा के अधरों पर एक हल्की स्मिता आ गई और कपोलों पर लाज की लाली। उसका लावण्य निखरकर चरम पर आ गया। वह आयुष के कुछ और निकट सरक गई। जहाँ से आयुष को उसके हृदय का स्पंदन साफ सुनाई दे, और उसकी गर्म सांसें उसे महसूस हो। 

    आयुष तड़प उठा! 

      “एक बात पूछूँ?” निशा ने कहा। 

      “हाँ, पूछो।” 

      “तुम कॉलेज कहाँ से करोगे?” 

      “क्या पता? जहाँ पापा भेजेंगे वहीं से कर लूँगा” 

      “महीने बाद तुम तो पराए हो जाओगे फिर क्या पता कब और कहाँ मिले। क्या पता मिलेंगे भी या नहीं?”निशा ने एक गहरी सांस लेकर कहा। 

    वह मुस्कुराया! “तुम भी हमारे साथ चलो।” 

      “हाँ, ले चलो हमें भी अपने साथ।” निशा ने कुछ भराए गले से कहा। “तुम कॉलेज यहीं से क्यों नहीं कर लेते।” 

    आयुष निशब्द-सा बैठा रहा कुछ बोला नहीं निशा मेहंदी लगाती रही वह भी आगे कुछ नहीं बोल पाई। उसको भी एक अज्ञात लाज ने खामोश कर दिया। लेकिन हृदय में पनपि भावना बाहर आने का मार्ग खोज ही लेती है। निशा की आँखों से एक गर्म आंसू आयुष के हाथ पर आ गिरा। 

      “निशा, तुम रो रही हो?” उसने दुसरे हाथ से उसके आँसू पोंछे। और बोला। “पागल! अभी एक महीना बचा है अभी तो तुम्हें और सताना है! और फिर क्या पता मैं कॉलेज यहीं से कर लूँ और तुम्हें हमेशा सताता रहूँ!” 

     “नहीं आयुष, यह आंसू बता रहे हैं कि हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।” निशा ने सिसकते हुए कहा। “और फिर क्या पता तुम्हें या हमें ब्याह दिया जाए!”  निशा ने उदास स्वर में कहा और वह चुप हो गई। 

      “निशा, यह तो जीवन की सचाई है। हमें आज नहीं तो कल अलग होना ही पड़ेगा, जीवन भर तो ऐसे न निभेगी।” 

      “निभेगी क्यों नहीं? मैं कहूँगी पापा से कि मुझे प्रेम है तुम से और,,,!” आयुष ने निशा को रोक दिया। “ऐसा कभी मत करना निशा। पता है, अंकल का कितना विश्वास है, हम दोनों पर? उनके विश्वास की हत्या न करना।” 

      “तो क्या तुम हमारे प्रेम की बलि दे दोगे? हम मर जाएंगे!” निशा ने गंभीर हो कर कहा। 

    आयुष ने निशा को संभाला, उसके आँसू पोंछे। और बोला। “मरना नहीं है निशा। मरने से कोई महान नहीं होता। महानता तो तब है, जब हम अपने प्रेमी के मंगल के लिए उसका त्याग कर दे और उस विरह को सहे! त्याग और बलिदान में महानता है न कि आंसू बहाने में! 

      “अगर मुझ से पीछा छुड़ाने से तुम्हारा मंगल होता है। तो मैं यह त्याग अवश्य करूँगी, लेकिन एक बाद याद रखना मिस्टर। मैं विवाह नहीं करूंगी; जीवन भर यूं ही रहूंगी!” उसने सिसकते हुए कहा। 

      “नहीं, नहीं। ऐसा मत कहो निशा।” 

      “मैं जो कर रही हूँ तुम्हारे मंगल के लिए कर रही हूँ! मैं कोई वैश्या नहीं हूँ कि प्रेम तुमसे करूँ और विवाह किसी और से करूँ! निशा ने आँसू पोंछे और वह खड़ी हो गई। 

      “कहाँ जा रही हो?” आयुष ने पुछा। वह कुछ बोली नहीं चुपचाप बाहर चली गई। कुछ देर बाद लौटी तो उसके हाथ में एक तश्तरी थी जिसमें बनारे हुए सेब थे। उसने प्लेट आयुष की ओर की और बोली। “यह लो, सुबह पापा लाए थे।  तब से तुम्हारी राह देख रहे हैं, यह सेब! 

      “तुमने खाए?” आयुष ने उसकी कलाई पकड़ कर पास बिठाते हुए पूछा। 

    वह सिर झुका कर बोली। “नहीं।” 

      “लो खाओ।” आयुष ने सेब की तश्तरी निशा की ओर की। “नहीं पहले तुम खा लो, हम बाद में खा लेंगे।” निशा ने कहा। 

      “अच्छा हम साथ में ही खा लेते हैं।” और दोनों खाने लगे। कमरे में एक खामोशी रही बस घड़ी की टिक-टिक की आवाज आ रही थी। आयुष ने एक गहरी सांस ली। “तुम जानती हो कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ?” 

      “नहीं।” 

      “मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूँ निशा कि अंकल की इज्ज़त बची रहे। तुम जानती हो जब उन्हें हमारे बारे में पता चलेगा तो कैसी बीतेगी उन पर? उनकी नजरों में मैं विश्वासघाती बन कर रह जाऊँगा! भले ही वह हमें माफ कर दे लेकिन समाज तो उन्हे ताना देता ही रहेगा ना! और क्या तुम चाहती हो कि मैं विश्वासघाती कहा जाऊँ?”

    वह उदास हो गई। फिर कुछ गंभीर होकर बोली। “ऐसा कभी नहीं चाहूंगी! लेकिन आयुष हमारा प्यार तो शुरू होने  से पहले ही समाप्त हो गया ना! 

      “प्रेम शाश्वत होता है वह कभी समाप्त नहीं होता निशा। प्रेम तो सदा हृदय की कोमल मिट्टी में फलता-फूलता रहता है।” आयुष कुछ क्षण रुका और फिर बोला। “क्या तुम मेरा साथ दोगी?  

      “हाँ। यदि इसी में मंगल है तो अवश्य दूंगी।” निशा ने कहा। 

      “एक और विनती करू?” आयुष ने पूछा। 

       “आज्ञा दो।” 

      “मेरे जाने के बाद रोना मत और जब तक मैं यहाँ हूँ हँसती रहना, ताकि मुझे ऐसा न लगे कि तुम दुखी हो।” 

    निशा ने एक फिकी हँसी हँस कर कहा। “कोशिश करूंगी!” और निशा ने आयुष का हाथ अपने हाथों में लिया और चूम लिया। और बोली। “यही देवता होने की निशानी है। तुम महान हो।” और वह खामोश होकर बैठ गई।

    आयुष ने उस खामोशी को तोड़ा। “क्या सोच रही हो?” 

      “बस यही, कि तुम्हारे जाने के बाद खुद को कैसे संभालना है?” और वह आयुष के कंधे पर माथा रख कर रोने लगी। आयुष ने भी उसे रोका नहीं, रोने दिया। रोते-रोते न जाने कब वह उसकी बाहों में ही सो गई। आयुष ने उसे ठीक से सुला दिया और पास में ही बैठ गया। एक पल उसने बड़े दुलार से उसे देखा और खुद को कोसा। “कितना निष्ठुर और निरदेई हूँ मैं!” उसने स्वयं को धिकारा, बहुत धिकारा और जब वह थक गया तो उठ कर घर आ गया। 

    सुबह जब उसकी आँख खुली तो घड़ी में करीब पांच बज रहे थे। और वह उठ कर पार्क आ गया। एक कोने में पड़ी बेंच पर जाकर बैठ गया और पास के कनेर के गुलाबी फूलों को निहारने लगा उन फूलों के आँचल में चाँदनी अभी तक करवटें बदल रही थी और एक भौंरा उसे चूस रहा था। घास पर बीछि शबनम की तरी को उनसे अपने पैरों से महसूस किया और एक अंगड़ाई लेकर आसमान की ओर देखा। जहाँ अभी तक कुछ तारे टिमटिमा रहे थे। देखते-देखते पूरब में एक सुनहली लाली उमड़ आई और सितारे उस अंतहीन आसमान में खो गए। 

    उसने बोतल से पानी पिया और घर के लिए निकल गया रास्ते में उसे मनोज त्रिपाठी मिल गए। कंधे पर एक बड़ा-सा झोला डाल रखा और चहलकदमी करते हुए आयुष की ओर ही आ रहे थे। “अरे! आयुष कहाँ जा रहे हो?” मनोज ने पुछा। 

      “घर जा रहा था।” 

      “आओ चलो, रेस्टोरेंट चलते है।” मनोज ने आग्रह से कहा। 

      “जी नहीं, मैं घर जाऊँगा।” आयुष ने कहा। “अरे! चलो भाई। हम चाय के साथ जहर तो पा नहीं रहे। कभी तो अपनी सेवा का मौका हमें भी दो! चलो।” मनोज ने हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा। 

      “अच्छा चलो।” और दोनों रेस्टोरेंट में आ गए। मनोज ने दो चाय मंगा ली। और मुस्कुरा कर कहा। “क्या है न कि माँ आज नानी के यहाँ गई है और पापा चाय पीते नहीं; इसलिए यहाँ आ गया।” 

      “और भाभी?” आयुष ने पुछा। 

      “वह अपनी बहन के यहाँ गई थी, अब तक तो लोट भी गई होगी। मैंने सोचा की कौन इतना इंतजार करेगा इसलिए चलो रेस्टोरेंट।” मनोज ने हँस कर कहा। 

      “क्यों, कुछ काम था वहाँ?” आयुष ने पुछा। 

      “अरे भई! एक शहर में रहने का यही नुकसान है। कोई भी छोटा-मोटा काम होता है तो न्योता भेज दिया जाता है और हमें जाना भी पड़ता है। कोई बर्थडे पार्टी होगी; मैं तो इन चोचलों को मानता नहीं। लो चाय आ गई।” और दोनों चाय पीने लगे। मनोज ने चाय का एक घुट लिया और लेते ही सुकून उनके मुँह पर चमक पड़ा। वह खिल गए। 

      “एक बात पूछूँ?” आयुष ने पुछ। 

      “हाँ, हाँ पूछो।” 

      “आप हमेशा इतने खुश कैसे रह लेते हो?”

    मनोज मुस्कुराए और बोले। “तुम तो जानते हो कि मैने एल. एल. बी. की और उसके बाद भी पढने से मेरा मन नहीं भरा। सच कहूँ तो आत्मा संतुष्ट नहीं हुई। उसके बाद मेरी रुचि देव भाषा में हो गई इसलिए मैं काशी के एक गुरुकुल में संस्कृत सीखने चला गया। और जब लौटा तो पता चला कि देवभाषा विलुप्ति की कगार पर है। और उसी दिन से मैंने यह प्रतिज्ञा की कि मैं जीवन भर बच्चों के देवभाषा सिखाऊँगा और मुझे मिल गई आत्मसंतुष्टी और चेहरे पर एक मुस्कान! सच पूछो तो मनुष्य की प्रसन्नता का कारण आत्मसंतुष्टी है। जिसे मिल गई। वह जीते जी स्वर्ग में है।” 

      “खेर आपकी प्रसन्नचित्त रहने का कारण तो ज्ञात हो गया। लेकिन बच्चों को पढाने से घर बार कहां चलता है पंडित जी!” आयुष ने कहा। 

      “भई तुम तो ताने मत दो। और वैसे भी पापा कमा रहें हैं, भगवान की दया से कपड़े का शोरूम है; सब अच्छा चल रहा है।” मनोज ने मुस्कुरा कर कहा। दोनों चाय पीते रहे। सहसा मनोज ने पुछा। “तो कल इम्तिहान है?” 

      “जी!” 

      “महीने भर तो चलेंगे ही।” मनोज ने पुछा। 

      “महीने से तो ज्यादा ही मान लो।” 

      “हूँ!” मनोज ने कहा। और वह चाय पीते रहे और अचानक मनोज की नजर आयुष की हथेली पर गई। “मेहंदी का शौक़ है या किसी ने लगा दी?” आयुष झेंप गया। “अरे! नहीं, नहीं पंडित जी यह तो अवंतिका ने लगा दी।” आयुष ने अपने को कुछ बचा कर कहा। 

      “एक बात बताओ आयुष?” मनोज ने कहा। 

      “पूछिए।” 

      “यह किताबें ही पढते हो या प्रेम पत्र भी पढ़े हैं। मेरा मतलब है कि प्रेम हुआ किसी से या यूं ही घूम रहे हो?” मनोज ने पूछा। 

      “नहीं पंडित जी, यह बीमारी तो आज तक न हुई, और न हो तो ही अच्छा है। आयुष ने उत्तर दिया। 

      “कभी साहित्य पढ़ो, यह बीमारी अच्छी लगने लगेगी। क्या पता फिर यह ना इलाज रोग लग जाए।” मनोज ने मुस्कुरा कर कहा। आयुष पहले तो कुछ गंभीर हुआ लेकिन बाद में मुस्कुरा कर बोला। “आपको हुआ है कभी प्रेम?” 

      “हाँ, हुआ है ना अपनी पत्नी से। पहले प्रेमिका थी अब पत्नी है। भाग कर शादी करी थी मैंने!” उसने हँस कर कहा। 

      “आपके ससुर ने क्या किया?” 

      “किया कुछ नहीं, दिया।” वह फिर से हँसा! “आशीर्वाद!” 

      “तो आपने भाग कर शादी क्यों की?” 

      “और क्या करता मरने देता उसे, मैं तो यह समझता हूँ आयुष कि प्रेम का बलिदान करने और विरह की आग में जलने से अच्छा है कि भाग कर शादी कर लो। इसी में स्वयं का और अपनी प्रेमिका का मंगल है।” उसने गंभीर हो कर कहा। 

      “लेकिन,,,,!” आयुष कुछ बोलना चाह पर मनोज ने रोक दिया। “विरह से हृदय दावाग्नि-सा धधकने लगता है, आदमी बेचैन-सा हो जाता है। तुम नहीं समझोगे।” मनोज ने एक गहरी सांस लेकर कहा। 

      “एक बात पूछूं?” आयुष ने कहा। 

      “हाँ, जरूर।” 

      “क्या वासना प्रेम को अपवित्र कर देती है, या प्रेम और वासना (संभोग) एक दुसरे के पर्यायवाची है?” आयुष ने पुछा। 

    वह कुछ गंभीर हुआ और बोला। “प्रेम आत्मा की आवश्यकता है और संभोग शरीर की। यह दोनों ही जीवन में महत्वपूर्ण हैं। एक जीवन जीने में सहायता करता है तो दूसरा जीवन आगे बढ़ाने में। लेकिन केवल वासना जीवन को नर्क बना देती है। प्रेम की जिस डोर में रिश्ता बंधा होता है। यह वासना उस डोर को तोड़ देती है और यह वासना रिश्तों को खा जाती है। प्रेम में आदमी त्याग करता है और पवित्र रहता और न जाने कितनी कठिनाइयों से महानता के उच्च शिखर तक पहुंचता है लेकिन यह वासना एक झटके में आदमी को वहाँ से गिरा देती है।  इससे दूर रहना।” 

    मनोज ने हाथ पर बंधी घड़ी देखी और बोला। “अच्छा आयुष! मैं चलता हूँ; देर हो रही है। और वह उठ कर चला गया। आयुष भी घर आ गया अवंतिका ने नाश्ता बना रही थी। वह घर आया और नहाने चला गया। कुछ देर बाद वह नाश्ते की टेबल पर आ बैठा और चुपचाप नाश्ता करने लगा। 

      “क्या हुआ?” अवंतिका ने पूछा। 

      “कुछ नहीं दी!” 

    अवंतिका ने मुस्कुरा कर पुछा। “निशा से लड़ाई हो गई क्या?” 

    आयुष को जैसे कुछ याद आया और उसने झट से अपना हाथ टेबल के पीछे छुपा लिया। “मत छुपाओ, देख लिया मैंने। उसने हँस कर कहा। 

      “मतलब?” 

      “किसने लगाई मेहंदी?” 

    वह क्षुब्ध होकर बोला। “आप से मतलब। किसी ने प्यार से लगाई तो लगवा ली।” और वह उठ कर जाने लगा तो अवंतिका ने हाथ पकड़कर बैठा लिया। इतने में डाॅरबेल बजा। “तुम नाश्ता करो मैं देख आती हूँ।” और अवंतिका दरवाजा खोलने चली गई। “अरे! निशा आओ, आओ।” और निशा मुस्कुराती, सकुचाती हुई हाॅल में आ गई। “वो दी।” उसने अवंतिका की ओर अर्थशास्त्र की किताब की “यह किताब घर पर छोड़ आए थे, तो देने चली आई।” 

      “अच्छा किया! यह भाई साहब यहाँ  बेचैन हो रहे थे; किताब के बिना।” उसने एक कृत्रिम गंभीरता चेहरे पर लाकर कहा। आयुष कुछ बोला नहीं नाश्ता करता रहा लेकिन अवंतिका की बात सुन कर झेंप गया। 

      “आओ नाश्ता कर लो।” अवंतिका ने कहा। 

      “नहीं मैंने नाश्ता कर लिया।” निशा ने कुछ लजा कर कहा। “चलो बैठो, कर लो।” आयुष ने कहा। और निशा बैठ गई  अवंतिका रसोई में चली गई तो आयुष ने अपनी कुर्सी निशा के पास खिसकाई और कान के पास मुँह लाकर धिरे से बोला। “यहां क्यों आई हो? मैं आ रहा था किताब लेने।” 

      “हमें क्या पता, हमें लगा पढ़ोगे कैसे तो ले आए।” निशा ने कुछ झल्लाकर कहा। 

      “अच्छा अब खाना खाते ही घर चली जाना, यहाँ आँखे मत टिम-टिमाने लगना। समझी?” आयुष ने कहा। 

    उसने मुँह बिचकाकर कहा। “हम तो दी से बाते कर के जाएंगे।” 

    इतने में अवंतिका मुस्कुराते हुए बाहर आई और निशा को खाना परोस दिया और बोली। “मेहंदी अच्छी लगा देती हो तुम।” 

    निशा पहले तो कुछ समझी नहीं लेकिन समझ आने के बाद लाज की हल्की लाली उसके गालों पर उमड़ आई और वह सिर झुका कर बैठ गई। कुछ बोली नहीं। 

      “अरे! शरमाओ मत, मैं तो तारीफ कर रही हूँ।” 

    वह कुछ बोली नहीं खाने लगी आयुष चुपचाप खाता रहा वह भी कुछ बोला नहीं। अवंतिका दोनों को देख कर मुस्कुराती रही। नाश्ता करने के बाद आयुष स्टडी-रूम में चला गया निशा और अवंतिका हाॅल में बैठी बाते कर रही थी। 

      “कल किस विषय की परीक्षा है?” अवंतिका ने पुछा। 

      “राजनीति की।” निशा ने उत्तर दिया। 

      “तुम किताब यहीं ले आओ; दोनों साथ बैठ कर पढ़ लेना।”

    निशा ने कुछ झेंप कर कहा। “नहीं दी। साथ में कोई पढ़ाई नहीं होती, बस! बातें होती है।” 

      “तो तुम दोनों ने साल भर बैठ कर बातें ही की है। है ना?” अवंतिका ने पुछा। 

     वह मुस्कुरा दी। “नहीं, पढ़ाई भी की है हम दोनों ने। अच्छा, मैं अब जाती हूँ और किताब ले आती हूँ; पहले मालूम होता तो साथ में ले आती।” और वह घर चली गई। और अवंतिका उसका बचपना देख कर मुस्कुरा दी!  कुछ देर बाद लोटी और आयुष के पास बैठ कर पढ़ने लगी। 

    घड़ी ने शाम के तीन बजाए अवंतिका ने चाय की कटोरी दोनों के सामने पेश की और तीनों चुप-चाप चाय पीने लगे; कोई कुछ बोला नहीं। चाय खत्म करने के बाद निशा ने कहा। “अच्छा दी, घर में कोई नहीं है। मैं चलती हूँ।” 

      “हाँ जाओ, और सुनों कल परीक्षा के बाद पढ़ने आ जाना। और अब रात में मत पढना; नहीं तो सुबह परीक्षा में नींद आएगी।” अवंतिका ने हँस कर कहा। 

      “ठीक है दी, नहीं पढूंगी।” और वह चली गई। 

    आयुष किताब के पन्ने पल्टता रहा कुछ बोला नहीं लेकिन उसकी निगाहें चोरी छिपे दरवाज़े को देख रही थी। इतने में दरवाजा फिर खुला। निशा मुस्कुराती हुई वापस आई। और बोली। “दी वो,,,मैं नाॅट बुक भूल गई थी।” उसने नजरें झुका कर कहा। 

    अवंतिका मुस्कुरा दी और बाहर चली गई। कुछ बोली नहीं। अवंतिका के बाहर जाते ही वह आयुष के पास आ बैठी और उसको गुदगुदा कर बोली। “शाम को आओगे न? आज मैंने पापा से आम मंगवाएं हैं।” 

    आयुष कुछ दूर सरक गया और झुंझलाकर बोला। “मुझे नहीं खाने आम। घर जाओ।” निशा बच्चे की तरह हँस कर बोली। “अले ले ले! तुम तो नालाज हो गए।” और उसने  दुलार से गालों को खिंचा। आयुष भी हँस पड़ा! और निशा मुस्कुराती हुई घर चली गई। 

    फाल्गुन की शांत, सुस्त और कुछ हल्की गर्म-सी शाम हो रही थी और मंद वायु में स्वच्छंदता से लहराती शीशम की मंजरि जिसकी सौरभ फिजा में घुली थी। सूरज की उदास किरणें वृक्षों को चीरती हुई नजर आ रही थी। आयुष छत पर बैठा डूबते सूरज को देख रहा था। कुछ उदास और कुछ बेचैन-सा था। न जाने किन विचारों में खोया था? इतने में किसी के पैरों की आवाज़ उसकी तरफ आती सुनाई दी और उसकी समाधि टूटी! 

      “अरे! मीनू तुम?” आयुष ने ताजुब से कहा। “आओ, आओ।” 

    वह कुछ गंभीर थी और कुछ नाराज भी। उसने झल्लाकर कहा। “बड़े निष्ठुर हृदय के हो तुम! शर्म नहीं आई?” 

      “क्या हुआ?” आयुष ने गंभीर हो कर पूछा। 

      “तुम तो ऐसे भोले बन रहे हो जैसे कुछ जानते ही नहीं। क्या तुम्हें नहीं पता कि निशा तुम से प्रेम करती है?” उसने बड़े उच्च स्वर में कहा। 

      “औ…! तो तुम्हें बता दिया निशी ने। और तुम मुझ से लड़ने आई हो।” फिर वह कुछ गंभीर हुआ। और बोला। “जानता हूँ। लेकिन क्या तुम यह जानती हो कि उसके पिता उससे कितना प्रेम करते है, और उससे क्या अपेक्षा है उन्हें?” 

    मीनाक्षी के मुँह पर एक तिरस्कार भरी मुस्कान आ गई। और वह बोली। “एक पिता अपनी पुत्री के सुख की कामना करता है, और इस कामना के बीच कोई अपेक्षा और कोई उम्मीद नहीं पनपती। समझें? तुम छलिए हो, और तुमने निशा को छला है!” 

      “मैंने कोई छल नहीं किया, मैं जो कर रहा हूँ वह निशा के मंगल के लिए कर रहा हूँ!” 

      “सुख के सुनहरे सपने दिखा कर दुःख के अंधकार में ला खड़ा करने को तुम मंगल कहते हो, जानते हो निशा ने कितने स्वप्न देखे हैं?” उसकी आँखें भर आई! और वह रोती सी बोली। “उन ख्वाबों को हकीकत बना दो आयुष।” उसकी आँखों से एक गर्म आँसू निकल कर उसके गालों पर चमक पड़ा। 

      “मीनू तुम रो रही हो?” आयुष ने पास बैठा कर आँसू पोंछे। वह कुछ शांत हुई। और बोली। “तुम वादा करो कि निशा से ब्याह करोगे!” 

      “मीनू, मैं निशा का दुश्मन नहीं हूँ। मैं भी उससे प्रेम करता हूँ। लेकिन अभय अंकल ने कितने विश्वास के साथ उसे सौंपा है मुझे। कितना विश्वास करते हैं वे हम दोनों पर और तुम यह भी अच्छे से जानती हो कि अभय अंकल कितने पुराने ख्यालात के हैं। और इस बीच निशा का मुझ से ब्याह करना, मतलब उनके विश्वास, भावनाओं और परवरिश का मजाक उड़ाने जैसा होगा। सोचो वे समाज में क्या मुँह दिखाएंगे, फिर कोई पिता अपनी पुत्री पर विश्वास करेगा? नहीं करेगा। मैं उनकी इज्जत के साथ नहीं खेल सकता, कभी नहीं!” आयुष ने एक गहरी सांस लेकर कहा। 

      “और निशा। उसका क्या होगा, वह रोती रहें जीवन भर?” मीनाक्षी ने पुछा। 

      “निशा बच्ची नहीं है। वह जानती है कि क्या सही है और क्या गलत है।” आयुष ने कहा। 

    कुछ देर खामोशी रही कोई कुछ बोला नहीं। बस दोनों डूबते सूरज को निर्निमेष पलकों से निहारते रहे। सहसा आयुष ने मीनाक्षी से कहा। “एक काम करोगी?” 

      “क्या?” 

      “जब मैं यहाँ से चला जाऊँ तो तुम निशा को संभाल लेना। रोने मत देना।” उसने उदास स्वर में कहा। 

      “निशा को मैं संभाल लूंगी। लेकिन तुम्हें कौन संभालेगा?” मीनाक्षी ने एक फिकी हँसी हँस कर कहा। आयुष कुछ बोला नहीं उदास-सा बैठा रहा। मीनाक्षी जाने लगी तो आयुष पिछे से  बोला। “एक बात कहूँ?” 

      “हूँ! कहों।” 

      “मैं इस लायक तो नहीं। लेकिन क्या तुम मुझे माफ करोगी? 

    मीनाक्षी के मुंह पर तिरस्कार साफ नजर आया। वह बोली। “मरते दम तक नहीं।” और वह चली गई। आयुष की आँखों से आँसू आ गए और वह माथे को पकड़ कर खुद को कोसने लगा।  

    वह जानता था कि वह खुद पर और निशा पर अत्याचार कर रहा है लेकिन वह विवश था, मजबूर था। उसके लिए सबसे जरूरी था अभय जी का विश्वास बनाए रखना। इसलिए वह कुछ नहीं कर सकता था। उसने आँसू पोंछे एक लंबी गहरी सांस ली और छत से नीचे आ गया। 

    फरवरी से अप्रैल तक परीक्षाएं चलनी थी और आयुष ने किताब से नजरें नहीं हटाई। वह सुबह उठता और पढने बैठ जाता पार्क भी नहीं जाता। शाम को जब वह निशा के यहाँ जातो तो घंटे भर टहल लेता और रात होने से पहले किताब उठा कर बैठ जाता। 

भाग- २

   

      प्रेम कितने विचित्र और जटिल तरीके से घटित होता है ना, जिसमें बस निरी बेवकूफी, अल्हड़पन और निश्छलता होती है। बुद्धि और तर्क का वहां कोई कार्य नहीं होता। लाज, शरम और अपार स्नेह की ईटों से प्रेम की नीव रखी जाती है और कल्पनाओं में एक सुंदर महल तेयार होता है। जो क्षणभर में खंडहर में तबदीली हो जाता है और उसकी दिवारों पर प्रेम की शाश्वत स्मृतियों अंकित रह जाती है और प्रेम भरे संवाद वर्षो तक उस खंडहर नुमा महल में गूंजते रहते है। 

    उसके ऊपर से गुजरने वाले मेघ अश्रुओं की वर्षा करते हैं, वहाँ चलने वाली हवा रूखी और गंधहीन होती है और वहाँ की बागवानी बेजान और मरी हुई होती है जिसमें महक और ताजगी नहीं होती। कुछ होता है तो वह है उन तमाम परिंदो का मातम जो कभी उस चमन के किसी तरु पर बैठ कर किलोल किया करते थे। और उस महल में दिन में भी अंधेरा रहता है लेकिन वहाँ एक प्रतीक्षा की मंद ज्योति जलती रहती है और वह ज्योति अनंत काल तक प्रज्वलित रहती है। कभी बुझती नहीं और उस ज्योति के प्रकाश में प्रेमी अंत काल तक बैठा रहता है। 

    प्रेम का अंतिम तोफा उदासी, आँसु और दुःख होता है। यह उपहार मिलने के बाद शायद तमाम महत्वाकांक्षाएं आँसुओं में घुल कर बह जाती है।

    प्रेम में अलगाव के वक्त, विरह वेदना में जलता प्रेमी संन्यासी-सा होता है। वह वेराग में जीता है। वह स्वयं से संघर्ष कर रहा होता है। प्रेम में तो फिर भी वह सजता और संवरता है। लेकिन विरह में, साधु बन जाता है। और उन सुहावनी स्मृतियों में ध्यानमग्न रहता है। उन्हीं में डूबा रहता है और उन्हीं स्मृतियों को देव प्रतिमा बना कर पूजता रहता है। 

    उस समय मन में कोई वासना या महत्वाकांक्षा नहीं होती, कोई चाह नहीं होती आदमी इच्छाओं और कामनाओं से मुक्त हो जाता है वहाँ कुछ शेष बचता है तो वह है आँसु, एक चिरस्थायी उदासी और निश्छलता। और आँसु फूलों की तरह होते हैं जो स्मृतियों के समुख समर्पित किए जाते है और उदासी उस वक्त की वंदना होती है जिसमें शब्द नहीं होते, बस भावनाएँ होती हैं और प्रेमी मन ही मन उन भावनाओं को जपता रहता है, बार-बार दोहराता रहता है। और प्रतीक्षा तपस्या के समान होती है जिससे से वह इतना पवित्र हो जाता है जैसे कोई देव हो। 

    इम्तिहान पूरे हो चुके थे लेकिन यह केवल परीक्षा की समाप्ति नहीं थी। यह था उन तमाम कल्पनाओं और ख्वाबों का अंत जो कुछ समय बाद स्मृतियों में बदल जाएंगे और वह कल्पना का महल वीरान हो जाएगा। और निशा तो फिर भी हृदय में फटे ज्वालामुखी को आँसुओं से बुझा लेगी लेकिन आयुष तो ना रो पाएगा और न मन हल्का होगा।

    यह दो महीने आयुष को क्षणभर के से लगे, बिलकुल वैसे ही जैसे हम सो कर उठे हों लेकिन इस भोर में ताजगी नहीं थी कोई उत्साह न था। सूर्य जैसे उदय तो हुआ लेकिन एक ग्रहण के साथ जिसमें कोई उल्लास न था। 

    जैसे किस चमन का लावण्य निखर कर चरम पर था लेकिन अचानक वह पतझड़ का शिकार हो गया और फिर उसमें कभी बसंत न लोट सका। ऐसा ही आयुष के साथ हुआ। आयुष के चेहरे पर एक अजीब-सी चिंता और क्षोभ था और न सोने के कारण आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ गये थे, जो उस चिंता को और अधिक प्रकट कर रहे थे।

    वह खामोश था और उसकी खामोशी उसे खा रही थी, बैचेन कर रही थी। और वह उदास रहता और इस चिंता और व्याकुलता का कारण था उसकी कल्पना में बना संसार। जो अब कुछ ही दिनों में उजड़ने वाला था। इस अलगाव की बाढ़ में सब कुछ बह जाने वाला था वह डरा हुआ था। लेकिन वह बेबस और लाचार था कुछ कर नहीं सकता था। 

    वह अब निशा से बेहद कम मिलता और जब मिलता तो अपने व्यवहार में कुछ रूखापन ले आता। लेकिन न जाने इन दिनों निशा को क्या हो गया था। वह अपना पूरा स्नेह, दुलार और प्रेम उस पर न्योछावर कर रही थी। वह फूल-सी खिली रहती। लेकिन उसके हृदय में वही चिंता थी, वही उदासी थी और वही अंतहीन विचारों की श्रंखला थी जो उसे रह-रह कर पिड़ा दे रही थी लेकिन फिर भी वह खुस होने का स्वांग रचती रहती! 

    शाम को जब वह निशा के घर जाता तो वह बिना कहे चाय बना लाती और उसके पैर दबाने लगती आयुष के मना करने पर वह रोने लगती तो अंत में आयुष भी हार जाता और पैर दबाव लेता। जब आयुष घर लोट जाता तो निशा उसके चरणों की धूलि को अपने आंचल में समेटे कर वक्ष से लगा कर रोने लगती।

     लेकिन आयुष के सामने हँसती रहती और पूरी कोशिश करती की आयुष भी मुस्कुराए, हँसे उससे रूखे व्यवहार में बात न करे। वह सोचती रहती कि “जितने दिन बचे है वे दिन वैसे ही बीते जैसे पहले बितते थे।” 

    एक उदास शाम हो रही थी आयुष निशा के घर गया और छत पर जा बैठा और पथराई आँखों से डूबते सूरज को देखने लगा। इतने में वहां निशा आ गई। 

      “अरे! तुम यहाँ मेड़ी पर क्या कर रहे हो? नीचे चलो चाय पीते हैं, कब से इंतजार कर रही हूँ मैं।” 

      “बन गई?” उसने उदास स्वर में पूछा। 

      “कब की बन गई। तुम्हारी ही रहा देख रही थी, आओ चलो।” निशा ने कहा। आयुष एक फिकी हँसी हँस कर बोला। “और किसी शाम में न आया तब, तब किसे चाय पिला ओगी?” निशा ने कुछ नहीं कहा वह चुपचाप सुनती रही। 

    आयुष फिर भरे गले से बोला। “निशी, मैं अंदर ही अंदर मर रहा हूँ। मैं क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आता। ऐसा लगता है जैसे मैं टूट गया हूँ भितर से।” आयुष ने माथा पकड़ लिया और भराए गले से बोला। “मैंने केवल तुम्हें रुलाया निशा!  मुझ से तो पिशाच भले होते हैं। मुझे माफ करोगी?” निशा ने उसके होठों पर अपने हाथ की उंगलिया रख दी। और बोली।

      “माफी तो मुझे मांगनी चाहिए। कोई पाप किया है तो वह मैंने किया है तुम तो महान हो, देवता हो और मैं तो कहती हूँ कि तुम देवता से भी उंच्चे हो। तुमने जो किया पापा के सम्मान और इज्जत को बचाने के लिए किया, मुझे गर्व है तुम पर!” 

    आयुष के मुंह पर गर्व की एक रेखा उमड़ आई लेकिन कुछ देर बाद वह फिर उदास हो गया। और बोला। “चलो चाय पीते हैं।” और दोनों नीचे आ गए और हाॅल में बैठ गए। निशा चाय ले आई और दोनों पीने लगे। इतने में अभय जी आ गए। और बैठ गए। और बोले। “भई आयुष, हम तो कल जा रहे हैं बारगाँव शादी में। और निशा और तुम यहाँ घर में रहना। तुम्हें तो पता है ज्योति की माता जी की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए वह गांव गई है। नहीं तो तुम्हें कष्ट न देता।”

      “लेकिन निशा को भी लेते जाईए ना। उसे यहां क्यों छोड़ रहे हो?” आयुष ने कहा तो निशा ने तीखी नज़रों से उसे देखा। 

       “मैं तो इसे समझा-समझा कर हार गया। लेकिन यह नहीं मानती, बोलती है कि ‘जी घबरा रहा है आप चले जाओ’ अब तुम्ही बताओ मैं क्या करूं?” अभय जी ने कहा। 

      “जाती क्यों नहीं? घर में मैं हूं, तुम चली जाओ।” 

      “नहीं मेरा मन नहीं है जाने का और कुछ तबीयत भी खराब है।” निशा ने कहा और वह चली गई। आयुष भी चाय का कप रख कर बोला। “अच्छा अंकल, मैं चलता हूँ।” 

      “कल समय पर आ जाना और खाना भी यहीं खा लेना। समझे?” 

      “जी ठीक है, आ जाऊँगा।” 

    अभय जी ने टेबल पर पड़ी किताब उठाई और बोले। “तुम्हारे इम्तिहान तो पूरे हो गए। अब काॅलेज कहाँ से करोगे?” 

      “पापा कहेंगे वहां से। 

      “अरे भई तुम बीस बरस के हो विवाह की उम्र है; अब फैसले तुम्हें लेने चाहिए। और तुम हो कि पापा की ही सुनते रहते हो।” उन्होंने हँस कर कहा। वह भी हँस दिया।

      “अच्छा! मैं तो भूल ही गया। तुम गांव कब जा रहे हो?” 

      “परसों जा रहा हूँ।” 

      “मतलब हमारे आने से पहले निकल जाओगे।” 

      “शायद हाँ।”

      “दो चार दिन और रुक जाओ।” अभय जी ने बड़े आग्रह से कहा। 

      “नहीं अंकल, गाँव गए बहुत दिन हो गए। अब सब की याद आ रही है और फिर एक शादी भी है; उसमें भी जाना है।”

    अभय जी ने हजार रुपये निकाले और आयुष के हाथ में थमा दिए। वह मुस्कुरा कर बोला। “नहीं अंकल, रहने दीजिए।” आयुष ने कहा तो अभय जी ने जबरन उसकी जेब में पैसे डाल दिए और बोले “कल सवेरे आ जाना और हमें स्टेशन तक छोड़ आना। ठीक है?” 

      “जी, आ जाऊंगा।” और वह चला गया। 

    सुबह जब उसकी आंख खुली तो भोर हो चुकी थी वह पार्क नहीं गया नहाने चला गया और नाश्ता करने बैठ गया। अवंतिका नाश्ता कर चुकी थी। इसलिए वह किताब पढ़ रही थी। आयुष ने कुछ जल्दबाजी में नाश्ता किया और बोला। “अच्छा दी, मैं अंकल के यहाँ जा रहा हूँ। तो बाजार से कुछ मगवान हो तो बता दो, क्योंकि मैं आज रात उनके यहाँ ही रहूँगा।” 

    वह कुछ मुस्कुराई और बोली। “क्यों निशा ने बुलाया है?” 

      “जी नहीं, अंकल आज बारगाँव जा रहे हैं तो उन्हें रेलवे स्टेशन तक छोड़ कर आना है।” 

    वह हँस कर बोली।   “ओ! मुझे लगा निशा बुला रही है इसलिए इतनी जल्दबाजी कर रहे हो।” 

    वह कुछ तीखे स्वर में बोला। “कुछ मंगवाना है?” 

      “अच्छा! सब्जी ले आना और सुनो बिजली का बिल भी भरवा आना। यह लो पैसे।” और वह चली गई। और वह भी निशा के घर चला गया। लेकिन तब तक वे लोग जा चुके थे इसलिए वह बाजरा आ गया और सब्जी लेने लगा साथ में निशा भी थी। इसलिए आयुष ने सोचा एक तोफा दे दिया जाए। वह बोला। 

      “निशा बताओं तुम्हें क्या चाहिये?

    वह मुस्कुराई और बोली। “तुम।” आयुष भी मुस्कुरा दिया। और बोला। बताओ ना क्या चाहिये? कुछ ऐसा खरीदते हैं जिससे तुम्हें सुकून मिले।” 

    वह फिर से हँस दी और बोली।- 

         फसाना ग़म का है मेरा। आंसुओं की तहरीर है।

        कुछ सुकून देने वाला है, तो वह तुम हो। बाकी तो पीर ही पीर है!

      “वहा क्या बात है।” आयुष ने ताली बजा कर कहा। “लेकिन इसका मतलब क्या है?” निशा ने माथा पीट लिया। “तो हम बेकार में ही बड़बड़ा रहे थे?” वह सिर खुजलाता हुआ बोला। “नहीं कुछ कुछ समझ में आ गया।” निशा हँस पड़ी! वह फिर बोला। “क्या चाहिये?” 

      “एक किताब लें?” 

      “हाँ, अच्छा विचार है। बताओ कोनासा उपन्यास चाहिए, या कोई कविता संग्रह लाऊं?” आयुष ने मुस्कुराते हुए पूछा। 

      “भगवत गीता ले लूँ?” निशा ने उदास स्वर में कहा। आयुष ने ताजुब से उसे देखा फिर बोला। “हाँ, तुम जो कहो वो ले आऊँगा।” 

      “अच्छा! तुम ले आना। मैं घर चलती हूँ और नहा लेती हूँ। तुम सब्जी दे कर घर आ जाना और खाना नहीं खाना। आज हम साथ में खाएंगे।” 

      “ठीक है।” आयुष ने कहा। 

    घंटे भर बाद आयुष निशा के पास आ गया खाना बन गया था। इसलिए दोनों बैठ कर खाने लगे। निशा ने कुछ उदास हो कर कहा। “तुम्हें याद है? दो महीने पहले हमने साथ बैठ कर सेब खाई थी।” 

      “हाँ, याद है।” 

    निशा ने भराए गले से कहा। “अच्छे दिन कितनी जल्दी बीत जाते हैं। है ना? वह स्कूल की लाइब्रेरी, असेंबली, क्लासरूम, स्टडी-रूम और मेड़ी यह सारी जगह बरसों तक हमारे हृदय को दुखाती रहेगी और हम रोते रहेंगे!” फिर वह फिकी हँसी हँस कर बोली। “शायद तुम तो भूल जाओगे हमें?” 

      “नहीं, नहीं। यह तुम क्या कह रही हो निशा? मरते दम तक याद रहोगी तुम। मैं केवल तुम्हें प्रेम करता तो भूलने की कोशिश करता। लेकिन मैंने तो तुम्हें रुलाया है, दुःख दिया है। मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ?” निशा ने रोटी का एक कोया उसके मुँह में दिया और करुणा भरी स्मिता उसके चेहरे पर आ गई। 

    आयुष ने उदास स्वर में कहा। “एक बात कहूँ?” 

      “हाँ, कहो।” 

      “मुझे कभी-कभी डर लगता है कि हमारी निकटता अंकल के विश्वास और हमारे प्रेम को मैला न कर दे!" आयुष ने कहा। 

      “देवता को अर्पित किए पुष्प को अगर देवता छू ले तो वह पुष्प अपवित्र नहीं होता। अपितु उसका अर्पित होना सफल हो जाता है।” निशा ने कहा। 

    आयुष कुछ देर खामोश रहा फिर एक फिकी-सी हँसी हँस कर बोला। “लेकिन मैं देवता नहीं हूँ निशा। मैं तो। मैं तो,,,,!” वह आगे नहीं बोल पाया। और फिर खामोश हो गया। 

      “तुम देवता ही तो हो। कोई पिता अपनी बेटी को जिनके हाथों में सौंप कर बेफिक्र है, एक लड़की स्वयं को सौंप कर बेफिक्र है। वह देवता से भी ऊंचा होता है।” 

   वह कुछ देर रूकी और फिर बोली। “तुम जिस वासना की बात कर रहे हो वह मानव देह की आवश्यकता है। तुम फूल की सुन्दरता को दूर से देख सकते हो लेकिन उसकी खुशबू को सूंघते और उसकी कोमलता को महसूस करने के लिए तुम्हें उसके नजदीक जाना होगा और उसे छूना होगा, अन्यथा तुम्हारा केवल देखा जाना व्यर्थ है!”

      “लेकिन यह तो पाप है!” आयुष ने कहा। 

      “नहीं, यह मानव देह की आवश्यकता है; अपनी जगह वासना ठीक होती है और अपनी जगह प्रेम ठीक होता है। केवल प्रेम देह की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता!” 

      “छिः! कितनी घटिया सोच है तुम्हारी।” आयुष ने कहा। 

      “नहीं यह सोच नहीं, यह जीवन का सत्य है और तुम इस सत्य को जानते हो। अब तुम ही बताओ कि विवाह क्यों होते हैं? मैं यह नहीं कहती कि एक विवाह के पीछे केवल वासना होती है लेकिन वासना विवाह के पीछे का एक कारण अवश्य है!” निशा ने कहा। 

      “लेकिन निशी, मेरे लिए वासना सदा अपवित्र ही रहेगी। यह वासना संबंध को खोखला कर देती है।” आयुष ने एक गहरी सांस लेकर कहा। 

      “जानती हूँ। लेकिन तुम जिस वासना की बात कर रहे हो वह वासना की अति है, अधिकता है। और अति हर चीज की बुरी होती है।” 

      “लेकिन,,,,!” आयुष ने कुछ कहना चाहा लेकिन निशा ने रोक दिया। और बोली। प्रेम का सबसे बड़ा दुश्मन छल है वासना नहीं है। संबंध छल से टूट जाते और वासना से बने रहते हैं। अगर प्रेम सच्चा हो तो।” 

     दोनों खाना खा चुके थे और निशा रसोई में कुछ काम कर रही थी इसलिए आयुष भी वहीं जा कर खड़ा हो गया। तो निशा ने कहा। “अंदर खाट बिछी है। आराम कर लो।” 

    वह मुस्कुरा कर बोला। “नहीं, आज मैं तुम्हें जी भर कर देख लेना चाहता हूँ। मुझे रोको मत।” 

      “अच्छा! मैं आती हूँ देवता को कष्ट नहीं देना चाहिए और फिर तुम तो मेहमान हो कल पराए हो जाओगे। तुम्हें कैसे कष्ट दे सकती हूँ?” उसने एक फिकी हँसी हँस कर कहा। 

    और दोनों कमरे में आ गए जहाँ खामोशी थी बस घड़ी की टिक-टिक की आवाज आ रही और पंखे का शौर था। और बस जानलेवा खामोशी छाई थी। आयुष ने उस खामोशी को तोड़ते हुए कहा। “तकिया कहाँ है?” 

     वह कुछ लज्जा कर बोली। “अगर कष्ट न हो तो हमारी गोद में सो जाओ।” और वह सिरहाने जा कर बैठ गई। और आयुष उसकी गोद में सिर रख कर लेट गया। और दुलार से उसे देखने लगा। निशा ने कस कर उसका हाथ पकड़ लिया और दूसरा हाथ उसके वक्ष पर रख कर उसके माथे को चूम लिया और आँखें मूँद ली। और न जाने कब उन्हें उसी हालत में नींद आ गई। और वह बेफिक्र हो कर सो गए।

    जब निशा की आँख खुली तो घड़ी में तीन बज रहे थे। और आयुष उसके वक्ष से लिपटा सुकून से सो रहा था। वह उठी और चाय बनाने के लिए चली गई। और करीब पन्द्रह मिनट बाद वह चाय और पानी का मघ ले कर लोटी और आयुष को जगाया। “आयुष, उठो चाय बन गई।” 

    वह उठा और चाय पीने लगा। निशा भी चाय ले आई और उसके पास बैठ गई। आयुष ने उसके हाथ को हाथों में लिया और बोला। “निशा अगर कहीं सुकून है तो वह तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोने में है। महीनों बाद चैन से सोया हूँ।” 

     वह फिकी हँसी हँस कर बोली।  “लेकिन यह गोद तो जल्द ही पराई हो जाएंगी। गाँव जाकर ऐसी गोद का इंतजाम कर लेना।” 

      “चल पागल! कुछ भी बोलती है। आदमी एक ही गलती बार-बार थोड़ी करता है।” उसने एक कृत्रिम हँसी हँस कर निशा को हँसाने का विफल प्रयास किया। 

      “अच्छा! कब जा रहे हो गाँव?” निशा ने पुछा। 

      “कल।” 

     “और मुझे बताया भी नहीं।” 

    वह गहरी सांस लेकर बोला। “हिम्मत नहीं हुई बताने की।” फिर अपनी हथेली को निशा की तरफ किया। और बोला। “यह मेहंदी याद है?” 

      “हाँ, याद है। इस मेहंदी को लगाने के लिए कितने आंसू बहाए थे मैंने। तब कहीं आपके हाथों पर सुशोभित हुई थी यह। इसे कैसे भूल सकती हूँ?” उसने हँस कर कहा। आयुष भी मुस्कुरा दिया। इतने में मीनाक्षी वहाँ आ गई। निशा ने उसका अभिवादन एक मुस्कान से किया और बोली। “सही वक्त पर आई हो। चाय बची थी वह ले आती हूँ।” 

     मीनाक्षी ने एक व्यंग्य भरी मुस्कान से आयुष की तरफ देख कर बोली। “अरे सखी! तुम मित्र हो हमारी। तुम तो जहर पिला दो। तब भी मैं पीने के लिए राजी हूँ यह तो फिर भी बासी चाय है। मैं इतनी कपटी नहीं हूँ कि मित्रता और प्रेम को दुख दूँ और उसका कहा न मानू!” 

      “लो यह बूरा मान गई। तुम दोनों बैठो मैं चाय बना लाती हूँ।” निशा ने अल्हड़ बच्चे की-सी हँसी हँस कर कहा। 

      “नहीं निशी मेरे लिए मत लाना। मैं घर को हो आता हूँ और बाजार से सब्जी भी लेनी है। बताओ आज क्या ले आऊँ।” आयुष ने पुछा। 

      “तुम्हें जो अच्छी लगे वह ले आना।” निशा ने कहा और मीनाक्षी ने एक फब्ती जड़ दी। “सब्जी ही लाना। राम जाने बाजार में इनका दिल किस चीज पर आ जाए?” आयुष ने मुस्कुराते हुए मीनाक्षी की तरफ देखा और एक चंपत मारी। और चला गया।

    मीनाक्षी भी निशा के पास रसोई में आ गई और बोली। “कब जा रहे हैं, यह महाशय?” 

      “कल।” निशा ने उत्तर दिया। 

      “एक बात कहूँ।” मीनाक्षी ने कहा। 

      “हाँ, हाँ कहो।” 

      “सच में निशा, आयुष महान है! मैं भले ही उससे नाराज हूँ लेकिन अगर मैं उसकी जगह रही होती तो शायद मैं भी वही करती जो वह कर रहा है। कितना महान है उसका चरित्र, कितने नेक है उसके विचार! 

      “हूँ।” निशा ने मुस्कुराते हुए कहा। 

      “खेर! छोड़ इन सब बातों को, और बता क्या कहा उसने?” मीनाक्षी ने पुछा। 

निशा ने डूबती आंखों से उसे देखा और एक फिकी हँसी हँस कर बोली। “वह कुछ कहता ही तो नहीं है। और कहेगा भी क्या? उसे पापा के विश्वास, सम्मान और इज्जत को कलंक से बचाना है। और अंत काल तक रोते रहना है। वह इसी में अपना और मेरा मंगल समझता है।” 

      “प्रतीक्षा करोगी?” 

      “प्रतीक्षा उनकी की जाती है जो जाते है। वह सदा मेरे निकट रहेगा; वह जा थोड़ी रहा है। वह यहीं रहेगा। मेरे हृदय में, इन किताबों में, स्कूल की लाइब्रेरी में और छत पर और मैं शाम को उसके लिए चाय बनाऊंगी!” निशा की आँखों से आँसू बह आए। “अच्छा! उसे मत कहना कि मैं रोईं थी।” और वह भाग कर स्टेडी-रूम में पड़ी आयुष की कुर्सी पर बैठ कर रोने लगी। मीनाक्षी ने एक बार तो सोचा कि “चुप करा दूँ।” लेकिन फिर रूक गई और वहाँ से चली गई। शायद चूप इसलिए नहीं कराया कि कुछ मन हल्का हो जाए। 

    शाम को जब आयुष लोटा तो निशा उसी का इंतजार कर रही थी और उसके आते ही खाना परोस दिया। आयुष ने हाथ धोएं और रोटी का एक निवाला तोड़ कर उसे खिला दिया। और बोला। “यह जो हम अंतिम बार साथ बैठ कर खा रहे हैं ना। यह बात सबसे ज्यादा तकलीफ देगी।” 

    वह कुछ बोली नहीं खाती रही। शायद वह गहन विचारों में खोई थी। सहसा उसने सिर उठा कर कहा। “आज थोड़ी गर्मी है। हम छत पर सो जाएंगे।” और वह फिर से न जाने किन विचारों में खो गई। आयुष भी फिर कुछ बोला नहीं बस उसकी तरफ देखता रहा। 

    खाना खाने के बाद उसने छत पर खाट बिछा दी और घर की लाइटें भी बंद कर दी और छत पर जाकर आयुष की प्रतीक्षा करने लगी। आज तमाम स्मृतियों उसकी आँखों में चलचित्र की भांति चल रही थी वह कल्पना में खो गई कि कैसे “हम इसी छत पर हँसा करते थे, चाय पिया करते थे और जब वह रूठ जाती थी तो कैसे आयुष उसे मनाता था?” यह सब कुछ जैसे उसे चूब रहा था और एक टीस-सी उसके हृदय में उठ रही थी। उसने एक गहरी सांस लेकर आसमान की तरह देखा। जहाँ त्रयोदशी का चन्द्रमा निकला था और उसकी कौमुदी भू पर चिटक गई थी और हृदयोन्मादिनी हवा के झोंकें रातरानी की खुशबू से महक रहे थे। एक गहरा सन्नाटा और खामोशी थी लेकिन शांति नहीं थी। बस कुछ था तो वह थी उदासी, बेचैनी और व्याकुलता जो उसके होंठों पर सिसक रही थी और आहें भर रही थी। 

    आयुष आया और खाट पर बैठ गया और निशा का हाथ पकड़कर उसे करीब बैठा लिया। और निशा की रेशमी लट जो उसके होंठों का चुंबन ले रही थी वह उसे ठीक करने लगा। और फिर झुंझलाकर बोला। “तुम बाल खुले रखा करो।” और उसने वेणी का रबर निकाल दिया। निशा उसकी गोद में सर रख कर सो गई। आयुष ने उसके होंठों को चूम लिया। वासना ने उसे उन्मत्त कर दिया, वह होश खो बैठा। निशा के वक्ष में एक कंपकंपी-सी उठी और निशा ने आंखें मूंद ली। 

    फिर जो हुआ वह अकल्पनीय था। वासना के भंवर में चरित्र की पतवार डूब गई। निशा मदहोश थी, आयुष मदहोश था। और आयुष को रोकने की कोशिश अभय जी के विश्वास ने भी नहीं की वह भी वासना के सामने हाथ बाँधे खड़ा रहा  बेबस और लाचार बनकर। 

     आयुष अपना देवत्व खो बैठा और उसके चरित्र की सुरभी अस्तंगत हो गई। उसके ब्रह्मचर्य का खंडन हो गया। 

    भौर में जब आयुष को होश आया तो उसने पाया निशा उसके वक्षस्थल से चिपकी हुई रो रही थी। उसकी आँखों में अजीब-सी लाज थी और चेहरे पर कलंकित होनें के भाव। वह सिसक कर बोली। “उठ गए?” 

      “यह क्या हो गया निशी? मैंने कलंकित कर दिया प्रेम को! मेरा त्याग, मेरा देवत्व, अंकल का विश्वास और हमारा सम्पूर्ण जीवन चौपट हो गया। मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं निशी। हे भगवान! यह क्या हो गया मुझसे? मैं पापी हूँ!” और उसने अपना सिर पटक दिया। 

      “नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ।” निशा ने आँसू पोंछते हुए कहा। 

      “अब रह ही क्या गया है निशी? अब सब कुछ समाप्त हो गया। बस अब मातम मनाना रह गया है। इस वासना ने सब कुछ चौपट कर दिया।” 

      “नहीं, अभी कुछ शेष है।” निशा ने कहा। 

    आयुष के आभामंडल पर एक उम्मीद की छटा फूट पड़ी। वह बोला। “क्या?” 

      “ वासना का तूफान चरित्र को कुचल सकता है, विश्वास को तोड़ सकता है लेकिन महान विचारों को नष्ट नहीं कर सकता। तुम्हारे विचार अब भी महान हैं आयुष।” 

    वह कुछ मायूस हुआ और बोला। “अंकल के विश्वास की हत्या हो गई निशी।” लेकिन बाद में उसके मुंह पर गंभीर आ गई और वह बोला। “मैं महान बनूंगा निशी! और तुम्हें इस कलंक से मूक्त करूँगा। मैं लोट कर आऊँगा, तुम मेरा इंतजार करोगी न?” 

      “हाँ।” 

      “अच्छा! मैं अब जाता हूँ। मेरी प्रतीक्षा करना, मैं आऊंगा निशी, मैं आऊँगा।” और वह वहाँ से चला आया। 

    करीब आधे घंटे बाद अवंतिका, आयुष और निशा तीनो स्टेशन पर पहुंच गए। आयुष ने उदासीन स्वर में कहा। “अच्छा! मैं चलता हूँ दी। अच्छा निशा। और वह ट्रेन में बैठ गया। निशा पथराई आँखों से जाती ट्रेन को देखती रही और कुछ देर बाद वह ट्रेन आँखों से ओझल हो गई। और निशा बिलख कर अवंतिका के वक्ष से लिपट गई! 

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