1: आख़िरी चाय
रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठा था वो अधेड़ उम्र का आदमी। हाथ में काँपती उंगलियों से थामा हुआ कुल्हड़, और नज़रें प्लेटफॉर्म के उस सिरे पर जहाँ से ट्रेन आने वाली थी।
बगल में बैठी लड़की—करीब पच्चीस की—ने उसे देखते हुए पूछा,
“किसका इंतज़ार है, बाबा?”
वो मुस्कराया, जैसे बहुत पुरानी याद किसी चाय की खुशबू से लौट आई हो।
“उसका... जो कभी गई थी कह कर कि दो साल में लौटूँगी... पैंतीस साल हो गए हैं।”
लड़की ने हैरानी से देखा, “क्या आपको यक़ीन है कि वो आएगी?”
“न यक़ीन है, न उम्मीद... बस ये चाय हर शाम यहाँ पीता हूँ... उसी तरह, जैसे उस दिन पिलाई थी मैंने उसे—आख़िरी बार।”
लड़की चुप हो गई।
थोड़ी देर बाद ट्रेन आई, भीड़ उतरी, प्लेटफॉर्म फिर से खाली हो गया।
वो उठ खड़ा हुआ, कुल्हड़ वहीं रखा, और बुदबुदाया—
“शायद कल फिर आएगी... या बस चाय ही सही, किस्सा तो चल रहा है।”
2: बिलकुल तुम्हारे जैसी
संध्या की चाय का वक्त था। बारिश धीमी-धीमी बरस रही थी और शर्मा टी स्टॉल की टीन की छत पर टप-टप की आवाज़ में एक अलग ही संगीत था।
वो रोज़ आती थी—काले दुपट्टे में लिपटी, कानों में झूमके, और आँखों में कुछ छुपा हुआ।
नाम किसी को नहीं पता। काम? सामने वाले ऑफिस में कोई सरकारी नौकरी।
उस दिन, पहली बार उसने दो कप चाय मँगवाई।
“एक यहाँ के लिए, एक पार्सल,” उसने कहा।
शर्मा जी मुस्कराए, “आज कोई ख़ास?”
वो हँसी, “हां... थोड़ी सी पुरानी दोस्ती है, थोड़ी सी झिझक भी।”
चाय मिली, एक कप उसने थामा, दूसरा थैले में रखवाया।
पास खड़े एक लड़के ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, “किसके लिए है वो दूसरा कप?”
उसने गहरी सांस ली, और धीरे से बोली—
“मेरे लिए... दूसरे रूप में। कभी-कभी हम खुद से मिलने का वक़्त नहीं निकाल पाते, तो ये एक कप चाय... उस ‘मैं’ के लिए है, जो अब भी सपने देखती है।”
लड़का थोड़ा सकपकाया, मगर मुस्करा दिया।
वो चाय पीते हुए दूर बादलों की तरफ देखती रही, जैसे वहाँ कोई चेहरा उभर रहा हो—बिलकुल उसके जैसा।
3: बाबू मोशाय की चाय
“बाबू मोशाय! दो कटिंग देना, और वो बिस्कुट भी जो तुम छुपाकर रखते हो,”
गोलू ने हँसते हुए आवाज़ लगाई।
गोलू—आठवीं का छात्र और मोहल्ले का सबसे शरारती बच्चा।
बाबू मोशाय—साठ पार के बंगाली दादा, जो पिछले तीस सालों से ये छोटा सा चाय का खोखा चला रहे थे।
उनकी चाय में कुछ तो था... नशा नहीं, मगर यादें घुलती थीं उसमें।
आज की सुबह थोड़ी अलग थी। चाय के स्टॉल पर भीड़ नहीं थी, और बाबू मोशाय एक तस्वीर में खोए हुए थे।
गोलू पास आया, देखा तो फोटो में एक जवान बाबू मोशाय और एक औरत... हँसते हुए।
“कौन है ये?” गोलू ने पूछा।
बाबू मोशाय मुस्कराए। “शांति। मेरी पहली और आख़िरी मोहब्बत। पचास साल पहले स्टेशन पर चाय पीते वक्त मिली थी। फिर नौकरी, शहर, दूरियाँ... लेकिन मैंने हर दिन उसके लिए एक कप चाय ज़रूर बनाई। आज... उसकी बरसी है।”
गोलू कुछ नहीं बोल पाया।
बाबू मोशाय ने दो कप चाय बनाई।
एक खुद पी, दूसरा तस्वीर के सामने रख दिया।
“वो अब भी यहीं बैठती है, बस तुम लोग देख नहीं पाते।”
4: नीम और अदरक
आज चाय थोड़ी कड़वी लगी थी।
न नींबू डाला था, न कोई मसाला... सिर्फ़ नीम की दो पत्तियाँ और थोड़ा सा अदरक।
नयन जब शर्मा टी स्टॉल पर पहुँचा, तो कोई और ग्राहक नहीं था।
“चाय?” शर्मा जी ने पूछा।
“बिना चीनी, नीम और अदरक वाली,”
नयन ने कहा, बेंच पर बैठते हुए।
शर्मा जी ने चौंककर देखा, “आज कड़वी चाय क्यों भैया?”
नयन चुप रहा।
दरअसल, आज पहली बार उसने खुद को कबूल किया था—कि वो थक चुका है।
हँसते-हँसते चेहरे पे जो लकीरें पड़ गई थीं, वो थकान की थीं... मुस्कान की नहीं।
“कभी-कभी ज़िंदगी इतनी बेस्वाद हो जाती है कि मीठा भी झूठ लगता है,” उसने कहा, जैसे खुद से कह रहा हो।
बारिश नहीं थी, लेकिन माहौल गीला था।
जैसे आसमान भी कुछ कहना चाहता हो, लेकिन शब्द भीग गए हों।
शर्मा जी ने चाय रखी, पास बैठ गए।
“जाने दो भैया... चाय थोड़ी कड़वी सही, मगर गर्म है। और यही काफ़ी है कभी-कभी।”
नयन ने चाय का एक घूंट लिया।
नीम और अदरक की कड़वाहट में एक अजीब-सी राहत थी।
जैसे कोई कह रहा हो—हाँ, तुम टूटे हुए हो... और ये भी ठीक है।
5: कटिंग चाय और कटे हुए नंबर
राजेंद्र नगर की एक संकरी गली में, “आदित्य टी स्टॉल” सुबह 6 बजे ही खुल जाता था।
और वहाँ का पहला ग्राहक रोज़ एक ही होता — विशाल।
चेहरे पे हल्की दाढ़ी, आँखों में नींद और बैग में सपनों का बोझ।
“कटिंग दो, आदित्य भैया,”
वो रोज़ यही कहता।
एक दिन आदित्य ने पूछ ही लिया,
“भैया, इतना पढ़ते हो, पास क्यों नहीं होते?”
विशाल हँसा और सिर झुका लिया।
“कटिंग चाय की तरह ही है मेरा सफर... आधा पूरा, आधा छूटा हुआ।”
फिर एक लंबी साँस लेते हुए बोला,
“पाँचवीं बार है... इस बार भी प्रीलिम्स बस दो नंबर से रह गया। मम्मी को कहा है—'अभी लड़ रहा हूँ'... सच कहूँ, तो खुद से हार रहा हूँ।”
आदित्य कुछ देर चुप रहा, फिर चाय की केतली बंद की और खुद एक कप लेकर बैठ गया।
“जानते हो? जब मैं दसवीं फेल हुआ था, तो अब्बू ने यही कहा था—'अब मत लड़ो, चाय बना लो।' उस दिन गुस्से में चाय चढ़ाई थी, दूध जल गया... मगर अब्बू ने वही जली हुई चाय पी और बोले—‘यही सबसे अच्छा किया तूने आज।’ तभी से टी स्टॉल है... हार भी यहीं है, जीत भी।”
विशाल कुछ देर सोचता रहा।
फिर धीरे से बोला—
“शायद इस बार की कटिंग चाय में ही जवाब हो।”
उसने चाय खत्म की, बैग उठाया और बोला,
“कल सुबह फिर आऊँगा—mains की तैयारी करनी है।
6: डॉक्टर साहब की थकी हुई चाय
रात के तीन बजे थे।
शहर की सरकारी अस्पताल में सन्नाटा पसरा था, लेकिन कैंटीन की बत्ती अब भी जल रही थी।
स्टील की थाली में दो बिस्किट और एक कप चाय रखता हुआ नासिर चायवाला बोला,
“आज फिर डबल शिफ्ट, डॉक्टर साहब?”
डॉ. आरव ने थकी आंखों से देखा और धीमे से मुस्कराए,
“तीन डिलीवरी, एक एक्सिडेंट केस... और हां, कोरोना का एक संदिग्ध भी आया था।”
नासिर ने बेंच की दूसरी तरफ बैठते हुए कहा,
“इतने लोगों की जान बचाते हो... खुद को कौन संभालता है?”
लेकिन कोई जवाब नहीं मिल।
आज आप थोड़े परेशान लग रहे हैं डॉक्टर साहब।
“आज ICU में एक 10 साल की बच्ची गई... पूरी कोशिश की, लेकिन..."
वो चुप हो गए।
नासिर ने देखा, उस कप से भाप नहीं उठ रही थी — लेकिन डॉक्टर की आँखों से उठ रही नमी साफ़ थी।
“कभी-कभी लगता है, क्या सच में सबको बचा पाते हैं?”
नासिर ने चाय में शक्कर बढ़ा दी।
“नहीं डॉक्टर साहब, सबको नहीं बचा पाते... मगर जो बच जाते हैं, वो हमेशा आपके नाम की दुआ करते हैं।”
आरव ने चाय का एक घूंट लिया — और कुछ पल बाद फिर वही वॉच की ओर देखा।
“ओटी में जाना है... एक और ज़िंदगी इंतज़ार कर रही है।”
कभी-कभी चाय भी डॉक्टर होती है — थकान नहीं मिटाती, पर फिर से खड़ा जरूर कर देती है।
7: कटिंग चाय और कट्टर इरादे
(एक Non-TSP SST उम्मीदवार की कहानी)
शर्मा टी स्टॉल सुबह अभी खुल ही रहा था। कोहरा कुछ ज़्यादा था उस दिन—जैसे मौसम भी परीक्षा की टेंशन समझ रहा हो।
स्टॉल के पास वाली टेबल पर एक लड़का पहले से बैठा था—जैकेट में लिपटा, बाल बिखरे, आँखों में नींद और सिर किताब में गड़ा हुआ।
“कटिंग चाय?” शर्मा जी ने पूछा।
उसने बिना सिर उठाए कहा, “हाँ... अदरक ज़्यादा डालना आज।”
नाम था कृष्ण गुर्जर।
बीए के बाद B.Ed किया। अब RPSC 2nd Grade SST के Non-TSP पदों के लिए तैयारी कर रहा था।
घर निम का थाना के पास एक छोटे से गांव में था। पढ़ने सीकर आया था। सपना—सरकारी स्कूल में SST टीचर बनना।
“कितने पद हैं इस बार?” एक और छात्र पास बैठते हुए बोला।
“70... और आवेदन लाखो मे,” कृष्ण बोला।
“तो डर नहीं लगता?”
“डर तो रोज़ लगता है,” उसने पहली बार नजरें उठाईं, “लेकिन टीचर बनने का सपना डर से बड़ा है।”
चाय आई। दोनों ने एक-एक घूंट लिया।
“हर बार सोचता हूँ—शायद इस बार भी नहीं होगा। लेकिन फिर याद आता है, गाँव में वो सरकारी स्कूल... जहाँ SST की क्लास बिना टीचर के होती है। और वो बच्चे—जो आज भी 'भारत का नक्शा' बस परीक्षा के लिए रटते हैं, समझते नहीं।”
उसने किताब बंद की और बोला—
“मैं पढ़ा पाऊँगा तो शायद किसी और की कहानी आसान होगी। बस इसीलिए... ये लड़ाई जारी है।”
शर्मा जी मुस्कराए, “भैया, कटिंग चाय खत्म हो सकती है, लेकिन ऐसे इरादे नहीं। अगली चाय तब मिलेगी, जब नाम लिस्ट में होगा।”
कृष्ण मुस्कराया।
“वो दिन भी यहीं आकर चाय पिऊँगा... पर इस बार मिठास ज़्यादा होगी।”