Professors are idiots - (Satire) in Hindi Comedy stories by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | प्रोफेसर बेवकूफ होते हैं - ( व्यंग्य )

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प्रोफेसर बेवकूफ होते हैं - ( व्यंग्य )

प्रोफेसर बेवकूफ होते हैं

( व्यंग्य )

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ऐसा साफ साफ और दिल से दो ही लोग कह सकते हैं। एक जो साफ दिल और दिमाग के होते हैं दूसरे जिनके दिल और दिमाग पूरे साफ, क्लीन, कोरे होते हैं। लंबे समय से हम भी यही मानते थे कि ऑक्सफर्ड, हावर्ड यूनिवर्सिटी एक ही देश, इंग्लैंड ने हैं । वह तो भला हो ट्रंप 2.0 का जिन्होंने बताया कि हावर्ड अमेरिकन यूनिवर्सिटी है और वह उसकी ग्रांट बंद कर रहे हैं। वजह उन्होंने बहुत सटीक और अनेक लोगों के दिल की बात बताई।

आप भी जान लें, " हावर्ड के प्रोफेसर मूर्ख होते हैं। जब प्रोफेसर मूर्ख हैं तो उनसे पढ़ने वाले हजारों युवा कैसे समझदार हो सकते हैं?" साढ़े तीन सौ साल पुरानी यूनिवर्सिटी है यह और करीब बीस से अधिक नोबल पुरस्कार विजेता यहां से निकले हैं। यह कुतर्क, जो कोई भी एवरेज व्यक्ति देता वही हावर्ड के प्रवक्ता ने दिया। बजाय यह कहने और पूछने के की यहां से पिछले पांच वर्षों में यह यह उपलब्धियां हुई और यह नए शोध हुए। ट्रंप के एडवाइजर टेस्ला के सीईओ एलन मस्क लंबे समय से हावर्ड के कार्य व्यवहार और देश में योगदान पर निगाह रख रहे थे और पाया कि यह करोड़ों डॉलर का अनुदान और टैक्स में छूट तो अमेरिकी सरकार से ले रहा परन्तु कार्य,विचार,आचरण सिखा सरकार के खिलाफ रहा।

अब बताएं हंसी की बात है या नहीं कि जब आप किसी से बड़ी राशि लो तो उसी के गुणगान क्यों नहीं करते? सरकार की हर गलत बात को भी सही क्यों नहीं मानते?

भारत में ही कई विश्वविद्यालय हैं हैदराबाद से लेकर जेएनयू, अलीगढ़ तक जो अपनी अपनी ढपली बजा रहे। पर यहां की सरकार ने कभी यह नहीं कहा कि हमारा गुणगान करो? न ही कोई अनुदान कटौती की।

शिक्षाविद होना आपकी बुद्धिमानी का प्रमाण नहीं होता जैसे आईएएस बन जाना दुनिया में ताकतवर बन जाना नहीं होता। कई हैं जिन्होंने हिंदी जगत और भाषा का बिल्कुल ही बेड़ाग़र्क किया हुआ है, हर शहर में। लाखों रुपए सरकार अनुदान देती है युवाओं और प्राध्यापकों के ज्ञानवर्धन हेतु। और उस पर जो सेमिनार कराए जाते हैं उनकी बानगी देखें, " चुटकुले कला का इतिहास और उपयोगिता " यकीन नहीं आएगा पर इस पर कुछ वर्ष पूर्व भव्य पांच लाख सरकार ने अनुदान दिया और कार्यक्रम हुआ। मुझे भी आमंत्रित किया परन्तु मेरी नैतिकता ने गवारा नहीं किया और मैंने माफी मांगने से पूर्व उनसे कहा, कि महाराज, शिव जी की कृपा से आप कोई दूसरा अच्छा विषय ले लेते? मैं बता देता, करीब पचास से अधिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का संयोजन किया है।

पर फंड स्वीकृत हो गया था इसी विषय से।

ऐसा ही एक और हुआ," भांडगिरी और उसका महत्व " ।क्या इससे उच्च शिक्षा में योगदान होगा? क्या हम बताना और सिखाना चाहते,यह तो ...प्रोफेसर ही जाने ।

हिंदी हर जगह अनिवार्य है। चाहे पब्लिक स्कूल हो या तकनीकी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हर जगह एक कालांश तो होगा ही। तनख्वाह भी जो अन्य प्राध्यापक लेते हैं वहीं होगी । हिंदी का शिक्षक वहां दीन हीन, बेचारा बन पड़ा रहता है। वह अपने विषय,अपने होने पर गर्व के भाव से बच्चों को हिंदी में निष्णात करें, की जगह उन्हें मात्र काम चलाऊ ढंग से ही पढ़ाता है। हिंदी की अच्छी गतिविधियां, नाट्य, वादविवाद, काव्य, कथा आदि उसे करना चाहिए पर वह नहीं करता। क्यों? जहां से वह हिंदी पढ़ा,सीखा वहां के शिक्षक भी ऐसे ही थे। । अब यहां कोई ट्रंप वाली जुबान बोल दे तो बवाल हो जाए।

अच्छी कविता,अच्छी कहानी, अच्छी नाट्य रचना का प्रभाव सीधे बच्चों के दिल और दिमाग पर पड़ता है। वह उन्हें सदैव याद रहती है। पर कौन बताए?

वैसे बेवकूफ और भी होते हैं। जो भारत से लुधियाना, पानीपत, रोहतक, गाजियाबाद आदि से थोक के भाव में हर तरह के कपड़े, जूते सिलकर कौड़ियों के भाव विदेश में भेजते हैं। फिर वह नए टैग,पेकिंग के साथ बड़े बड़े मॉल, स्टोर में तीस से चालीस गुना कीमत में हमारे ही देश के हर कोने में बेचे जाते हैं। और आप समझाने की कोशिश करो कि यह मत लो बल्कि सरोजिनी नगर, डिग्गी बाजार( शहर के ऐसे मार्केट जहां सस्ती, मजबूत और अच्छी चीजें मिलती हैं)से लो तो कोई आपकी बात नहीं मानेगा। बाद में जब जिंदगी थोड़े अनुभव देती है तो समझ आता है। क्या कोई अपनी बेवकूफी मानता है?

एक प्रोफेसर बोले कि बात तो ट्रंप ने सही की है। हम आखिरी पढ़ाई सिलेक्शन के साक्षात्कार में करते हैं उसके बाद तो जीवन भर कुछ नहीं पढ़ते?

"क्या ?" हम चौंके, तीस चालीस साल जो नौकरी करते हैं आप उसमें अपनी जानकारी और ज्ञान को अपडेट करने के लिए कुछ नहीं करते? तो फिर कैसे पढ़ाई हो देश की भावी पीढ़ी को?

वह मुस्कराते हुए बोले, "देखो बंधु, यह राज की बात है।लेकिन तुम हमारे जैसे ही लगते हो तो तुम्हे बताए देते हैं ।" हम भी मन ही मन मुस्कराए की एक मूर्ख ने दूसरे को कैसे झट से पहचान लिया। "युवा कॉलेज पढ़ने नहीं आता है। पढ़ने आता तो मेडिकल, इंजीनियरिंग, बिजनेस प्रबंधन में जाता है। यहां वह आता है आजादी के लिए। वह सारे कार्य सीखने जो उसे आगे जिंदगी में कोई नहीं सिखाएगा।"

"क्या? किताबें, सिद्धांत, साहित्य, संस्कृति?"

वह हंसे हमारे अज्ञान और अपने मूर्खतापूर्ण आत्म विश्वास पर, " नहीं रे बांगडू! वह सीखता है हड़ताल करना, धरना देना, दादागिरी, छेड़छाड़ और राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता बनने के लिए यह सब अनिवार्य अहर्ताएं हैं।"

"यह सब आप सिखाते हो? कौनसा पाठ्यक्रम है यह?"

उन्होंने फिर मुझे तरस खाकर देखा बोले ,"अरे मेरे लल्लू लाल, यह सब हम नहीं सिखाते वह खुद ब खुद सीख लेता है। जैसे जेल में पुराने धुरंधर कैदी नए कैदी को सब सिखा देते हैं, उसे गुनाह की दुनिया का एक मोहरा बना लेते हैं। ठीक वैसे ही कॉलेज, विश्वविद्यालय में भी यह सब चीजें सिखाने वाले पुराने, पांच पांच साल से एक क्लास बदल दूसरी क्लास में एडमिशन लेने वाले, घिसे हुए छात्र होते हैं।वह सिखाते हैं।समझे कुछ?"

"अरे यह तो राष्ट्र की बहुत सही सेवा कर रहे हो आप। यह सब चीजें जो हर जगह, हर समय काम आती हैं, इन्हें कॉलेजों में सिखाते हो। वरना पढ़ाई, लिखाई किस काम आनी है?

सच में ट्रंप बुद्धू है जो आपको पहचाना नहीं।"

प्रोफेसर अब खुलकर हंसे, फिर रहस्यपूर्ण ढंग से बोले," खुद को मूर्ख, किसी कार्य के काबिल न दिखाना भी तो एक कला है। वरना सारी जिम्मेदारी ही हम पर आ जाएगी। अधिक पढ़ा, लिखा दिया न भाईसाहब तो यह भावी पीढ़ी ,भावी पीढ़ी जो आप कह रहे हो यह इन नेताओं को जूते मारेगी। हिसाब पूछेगी की जनसंख्या कंट्रोल क्यों नहीं करते! जिससे अच्छे रोजगार मिल सकें? और स्व रोजगार भी पहले सिखाओ तो ।जिसे सीखकर हम आगे बढ़े।

बस एक गड़बड़ हो गई।"

"क्या ? ट्रंप को जिता दिया?"

"अरे नहीं भाई मेरे,

ट्रंप को हमने नहीं जिताया?हम क्यों जिताएंगे? हमारा फायदा तो उसके नहीं बनने में था। न वह बनता और न हमारे पीछे पड़ता। सभी प्रोफेसर, और वह भी विश्व की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटी के ,उन्हें भरी दुनिया के सामने मूर्ख कह दिया?? सोचो हमारी क्या इज्जत रह गई? क्या बोलें हम इस ब्रह्मास्त्र के सामने? यदि कहते हैं मूर्ख नहीं है,गलत है तो दुनिया हंसेगी और प्रमाण मांगेगी।

कुछ नहीं कहते हैं तो उसी की बात सही सिद्ध होती है। क्या करें,कुछ समझ नहीं आ रहा।"

तभी पास खड़ा बाते सुन रहा युवा हंसते हुए बोला,"अरे हम लोग भर भर के वोट दिया l उसको जिताया।वह एलन मक्स भी बहुत प्रोपेगन्डा किया ।हमें भी लगा इनकी बातों से यह युवाओं के लिए इस बार नया कुछ करेगा। तो बस । और देखो, क्या शानदार कर रहा। विदेशी छात्रों के वीजा नियम सख्त,मतलब अब वह यहां पढ़कर, यहीं नौकरी करते थे,उनकी धौंसपट्टी खत्म। वरना वह हमसे आधे दाम में काम करते थे। क्योंकि दक्षिण एशियाई देश से आते थे जहां बेहद गरीबी और तंगी है। हमारे हक सुरक्षित।"

" यहां भी कुछ ऐसे लोग और विश्वविद्यालय हैं जो चलते तो सरकारी अनुदान से पर सरकार के ही खिलाफ युवाओं को पाठ पढ़ाते। ऑटोनोमी का गलत इस्तेमाल कर रहे। और देखो,..", दूसरा युवा खुलकर हंसा, " हमारा फैसला सही सिद्ध हुआ। कोई राष्ट्रपति इस बड़े विश्वविद्यालय के नाम से ही खौफ खाकर आज तक उसके सिस्टम,लिखाई पढ़ाई के खिलाफ नहीं बोलता था। वी लव ट्रंप... इन्होंने हमारे दिल की बात बोली। सारे के सारे बेवकूफ हैं। चालीस साल से घुमा फिराकर एक जैसा ही पाठ्यक्रम पढ़ा रहे।और बेरोजगार अमेरिकी नौजवानों की फौज तैयार कर रहे। कुछ भी, स्किल डेवलपमेंट, स्वरोजगार भी कुछ नहीं बताते। बस आधुनिकता के नाम पर नए आविष्कार और पेटेंट ?? अरे गिनती के एक प्रतिशत यहां वैज्ञानिक बनने आते बाकी निन्यानबे प्रतिशत तो सामान्य पास कोर्स करके एक अदद नौकरी ही वाले होते। पर यह परवाह ही नहीं किए। हमें खुशी है कोई ऐसा राजनेता आया जो इन बौद्धिक गुंडों से नहीं डरा उसने इन्हें सही नाम से पुकारा।"

पहले वाला बोला," अरे,सुनते हैं तुम्हारे इंडिया में तो स्कूल से ही स्व रोजगार सिखाया जाता है। वह दूध बेचना,पकोड़े बनाना,चाय बेचना,डिटर्जेंट बनाना? How एक्साइटिंग! मैं भी इंडिया जाएगा यह सब सीखने। वहीं अपना भी रोजगार होगा और किसी भारतीय लड़की से शादी करके सेट हो जाएगा।"

सोचों जब हावर्ड विश्वविद्यालय जैसे बड़ी जबरदस्त यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर मूर्ख हो सकता है तो भारत के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय के प्रोफेसर क्या होंगे? जिन्होंने चालीस साल पहले पढ़े ज्ञान को कभी अपडेट नहीं किया। ने ही कुछ सीखा और न वर्षों से कुछ भी नया पढ़ा रहे। वह तो लोकतंत्र के नाम पर विरोध करते हैं भले ही प्रधानमंत्री और सरकार कुछ भी ठीक करने या सुधार करने की कोशिश करे।

यदि ट्रंप यहां होते तो वह तो यहां की हालत देखकर इन सभी संस्थानों की ओवर हॉलिंग कर देते। एक एक की विद्या और उसकी वृद्धि की जांच होती। अनेक लोग बाहर होते और योग्य, मेहनती, ईमानदार अंदर।

पर फिलहाल तो यह सपना ही है। अभी तो बंदर से इंसान बनने की प्रक्रिया, भांड कला के नए आयाम, बेंतबाजी (शायरी का मुकाबला)कला में युवा स्वर, बीरबल और तेनालीराम का तुलनात्मक अध्ययन जैसे विषयों पर राष्ट्रीय सेमिनार हो रहे हैं।

प्रोफेसर बोले," बहुत मुश्किल है बुद्धिमान का मूर्ख दिखना।पर वर्षों से यही तो कर रहे। कोई भी काम दो, समझ ही नहीं आता। और करते भी हैं कुछ तो सामान्य से चार गुना समय में और धन फंडिंग हो तभी वरना नहीं।"

"और जो मूर्ख ही हो वह कैसा दिखेगा?"

वह हंसते हुए बोले,"ट्रंप को देखा है न?"

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी, कथाकार, आलोचक, व्यंग्यकार

कुछ किताबें और देश विदेश से पुरस्कृत ।

न्यू कॉलोनी,रामगंज ,अजमेर

मो 7737407061)